कहानी संग्रह >> आधी सदी का सफ़रनामा आधी सदी का सफ़रनामास्वयं प्रकाश
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कहानीकार स्वयं प्रकाश के लेखन जीवन का एक सफ़र...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
चारों पढ़े-लिखे, खाते-कमाते नौजवान थे। उनका एक ही काम था—सब
पर हंसना। सबका मज़ाक़ उड़ाना। दुनिया में कोई ऐसी वस्तु-स्थान-व्यक्ति या
भाववाचक संज्ञा या क्रिया या सर्वनाम या विशेषण नहीं था जिसका वे दिलचस्प
और मौलिक मज़ाक़ न उड़ा सकते हों। आपस में एक-दूसरे को भी वे नहीं बख़्शते
थे। यहां तक कि ख़ुद को भी नहीं। तो क्या कहा जाए उन्हें ? चार हंसोड़ ?
या चार ठट्ठेबाज़ ? उचक्के ? निहिलिस्ट ? क्या ? आप ख़ुद तय कर लीजिएगा।
‘आधी सदी का सफ़रनामा’ कहानीकार स्वयं प्रकाश के लेखन जीवन का एक सफ़र है। इस कहानी संग्रह में स्वयं प्रकाश ने अपने तीखे, चुटीले अंदाज़ में समाज, सरकार की ढुलमुल नीतियों, महिलाओं की स्थिति, बेरोज़गारी, ईश्वरत्व के दुरुपयोग और अन्य अनेक पहलुओं को कथानक बनाया है।
स्वयं प्रकाश की लेखन शैली की विशेषता ही यह कही जा सकती है कि उनकी कहानियां, ‘देखन में छोटी लगें, घाव करें गंभीर।’
‘आधी सदी का सफ़रनामा’ कहानीकार स्वयं प्रकाश के लेखन जीवन का एक सफ़र है। इस कहानी संग्रह में स्वयं प्रकाश ने अपने तीखे, चुटीले अंदाज़ में समाज, सरकार की ढुलमुल नीतियों, महिलाओं की स्थिति, बेरोज़गारी, ईश्वरत्व के दुरुपयोग और अन्य अनेक पहलुओं को कथानक बनाया है।
स्वयं प्रकाश की लेखन शैली की विशेषता ही यह कही जा सकती है कि उनकी कहानियां, ‘देखन में छोटी लगें, घाव करें गंभीर।’
अनुक्रम
१. | एक ख़ूबसूरत घर | १ |
२. | अशोक और रेनु की असली कहानी | ८ |
३. | बाबूराम तेली की नाक | १८ |
४. | गौरी का ग़ुस्सा | २६ |
५. | कहां जाओगे बाबा | ३९ |
६. | ट्रैफ़िक | ६४ |
७. | संधान | ७९ |
८. | पार्टीशन | ९६ |
९. | नैनसी का धूड़ा | १॰६ |
१॰. | मंजू फ़ालतू | १२२ |
११. | अगले जनम | १३८ |
१२. | बलि | १५९ |
१३. | क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा ? | १९५ |
१४. | तीसरी चिट्ठी | २॰६ |
एक ख़ूबसूरत घर
और ताज्जुब की बात है कि वह था। वह घर। दिखने में बिल्कुल आम घरों जैसा।
घर में एक मम्मी थीं, दो बच्चे थे और एक पापा थे। दो बच्चे इसलिए नहीं थे कि मम्मी-पापा को अपने देश से बहुत प्यार था या उसके भविष्य की उन्हें बड़ी चिंता थी, बल्कि इसलिए कि इससे ज़्यादा वे अफ़ोर्ड ही नहीं कर सकते थे। ऐसा और भी कई अच्छी बातों के साथ था। मजबूरी थी। अच्छाई मजबूरी थी।
पापा नौकरी करते थे। पापा तनख़्वाह लाते थे। घर को जो चाहिए, वह पापा ख़रीदकर लाते थे। बच्चों को जो चाहिए, पापा से कहना पड़ता था। बच्चे कहना नहीं मानते तो मम्मी उन्हें पापा का डर बताती थीं। आने दो पापा को, बताती हूं। पापा न्यायाधीश भी थे। बच्चे एक-दूसरे की शिकायत पापा से ही करते थे। वे अपने मूड और विवेक के अनुसार दंड या क्षमा दे सकते थे। इससे आगे कोई अपील नहीं थी। पापा डॉक्टर भी थे। कहीं चोट लगी है, कुछ दुख रहा है, क्या करना है, पापा मम्मी को अनुदेश देते थे, जिनका मम्मी तत्परता से पालन करती थीं। पापा आश्वस्त भी थे। कुछ नहीं होगा, सो जाओ। या कोई ख़ास बात नहीं है, खेलो जाओ। बच्चे बीमारी से उठते तो पापा ही तय करते कि आज वे स्कूल जा सकते हैं या नहीं। पापा दौरे पर जाते तो मम्मी पड़ोसन आंटी की दस साला बिटिया को बुलाकर पास सुलातीं और डंडा पास रखकर सोतीं। फिर भी सारी रात उन्हें डरावने सपने आते। पापा डंडा थे। पापा चौकीदार भी थे। पापा सेनापति भी थे।
पापा के और भी कई उपयोग थे। लोहे की अलमारी पापा ही सरका सकते थे। टूटे स्टूल की मरम्मत पापा ही कर सकते थे। ख़राब रेडियो पापा ही ठीक कर सकते थे। रसोई में घुस आया सांप या चूहा पापा ही मार सकते थे। गेहूँ पापा ही पिसाकर ला सकते थे। ‘राइट’ का पास्ट टेंस पापा को ही आता था। ‘रिमेंबर’ की स्पेलिंग पापा को ही आती थी। अच्छे-ख़ासे कैलेंडर और डायरियां रद्दी कहकर पापा ही फेंक सकते थे। बच्चों को हवा में उछालकर पापा ही झेल सकते थे। दक्षिण अफ़्रीका और मंडेला और समाचारों में आनेवाली कई बातों का अर्थ पापा को ही पता था।
पापा को हरा रंग पसंद नहीं है, इसलिए घर में हरे रंग के पर्दे नहीं हैं। पापा को पान खाना चीपनेस लगता है, इसलिए हमारे यहां कोई पान नहीं खाता। पापा को अमिताभ बच्चन से सख़्त चिढ़ है, इसलिए उसकी पिक्चर आते ही टी.वी. बंद कर दिया जाता है। पापा खटाई नहीं खाते, इसलिए घर में कोई खटाई नहीं खाता। पापा मॉर्निग वॉक, बी.बी.सी. और लौकी के घोर प्रशंसक हैं, इसलिए किसी को अच्छा नहीं लगने पर भी इनकी गंभीर आलोचना नहीं हो सकती। मज़ाक़ में कुछ कह लो, पापा बुरा नहीं मानते। अब ये सारी बातें भी तभी तक हैं जब तक बच्चे छोटे हैं, पर तब तक तो हैं ही।
घर में एक मम्मी भी थीं। मम्मी खाना बनाती थीं, बर्तन मांजती थीं, कपड़े धोती थीं, झाड़ू-पोंछा करती थीं, बच्चों के बैग जमाती थीं, उन्हें तैयार कर स्कूल भेजती थीं, होमवर्क में उनकी मदद करती थीं और रात को उन्हें थपकी देकर सुलाती भी थीं। उनके खुद के शब्दों में दिनभर खटती थीं। लेकिन उनका खटना दिखाई नहीं देता था। उनका परिश्रम टेकेन फ़ॉर ग्रांटेड था। घर के सब लोगों को अपने कपड़े धुले-प्रैस किए मिल जाते थे। दोनों वक़्त खाना पका हुआ मिल जाता था। घर झड़ा-पुंछा सजा हुआ मिल जाता था। इसलिए यह सब कैसे और किस मेहनत से हुआ, इस बेकार के सवाल पर कोई माथापच्ची नहीं करता था। हां, कोई कसर रह जाए किसी चीज़ में तो सब मम्मी को सुनाना नहीं भूलते थे। मम्मी चुपचाप सारा दोष स्वीकार कर लेती थीं।
मम्मी को देखने के लिए दफ़्तर जाते पापा, स्कूल से लौटते बच्चे और आज़ू-बाज़ू के मकानों की खिड़कियां थीं, सुनने के लिए रेडियो और मनोरंजन के लिए टी.वी. सीरियल या चित्रहार। वे अख़बार उठातीं तो मैले कपड़े बुला लेते, पत्रिका उठातीं तो महंगाई का झींकना झींकने वाली और सारे मोहल्ले की लेडीज की बुराइयां करने वाली पड़ोसन और सिलाई-कढ़ाई उठातीं तो सब्ज़ीवाला, ब्रेडवाला, दूधवाला, पुराने कपड़ों के बदले स्टील के बर्तन देनेवाली और बचे-खुचे बर्तनों पर बची-खुची क़लई करने वाले बचे-खुचे क़लईगर, या मेहतरानी या ग्यारस-तेरस पर सीधा मांगनेवाले।
मम्मी के एकरस-नीरस जीवन के भी कुछ आसरे थे। वे धीरे-धीरे फीके पड़ गए या पीछे छूट गए। मसलन पीहर की यादें, कॉलेज के क़िस्से, सहेलियों की छेड़छाड़, सलवार-कमीज़-दुपट्टों का फ़ैशन ख़ूब मिर्चवाले चटपटे गोलगप्पे, लिपस्टिक के शेड्स और राजेश खन्ना की पिक्चरें। कुछ और चीज़ें भी खो ही गईं। अमुक या अमुक से शादी होती तो... के खिलंदड़े दिवास्वप्न... घुंघराले बाल वाले एक लड़के द्वारा किताबों में छिपाकर दिए गए प्रेमपत्र... ज़री-गोटेवाली शादी की भारी-भारी साड़ियां... मित्रों-सहेलियों द्वारा समय-समय पर दी गई छोटी-छोटी भेंटें... मां बनने से पहले की लंबी और सुरम्य यात्राएं... गृहस्थी के नए और मज़ेदार अनुभव... उदास और स्वप्निल कर देने वाले पुराने फ़िल्मी गाने !
मम्मी के पैरों में ढेरों बिवाइयां थीं, मन में अपार थकन और मस्तिष्क में अनंत ऊब। मम्मी के बाल पूंछड़ी जैसे रह गए थे। मम्मी की कमर पर चर्बी की परतें चढ़ गई थीं। मम्मी की छातियां बेडौल और लटकी हुई थीं। मम्मी की आंखों के नीचे कालिख और गर्दन पर झुर्रियां थीं। मम्मी टहलने का महत्त्व जानती थीं। जॉगिंग और एक्सरसाइज़ जैसी चीज़ों, का उन्हें पता था, गोरा होने के कई नुस्ख़े उन्हें रटे हुए थे, चेहरे पर से झाइयां हटाने के कई तरीक़े उन्होंने पत्रिकाओं में पढ़े थे, बालों को लंबे, काले और घुंघराले बनाने की तरकीबें उन्होंने ख़ुद कइयों को बताई थीं लेकिन अब ये सब उनकी रुचियों के केंद्र में नहीं, परिधि पर चला गया है। किसके लिए करना है ये सब ? कहां जाना है बन-ठनकर भी ? सज-संवरकर भी ? सुचिक्कन-सु़डौल होकर भी ? कौन देखनेवाला है ? शरीर को उन्होंने केवल माध्यम माना था—सुखी-संपन्न घर-परिवार पाने का। हो गया। अब उसकी परवाह करने की क्या ज़रूरत है ? दूसरी बात यह भी है कि उनकी दुनिया इस क़दर चार दीवारों में क़ैद है कि जैसे जेल में। जेल में क्या कोई सजता-संवरता है ? अब मम्मी की दिलचस्पी के केंद्र में दूसरी चीज़ें थीं। मसलन नींबू के उपयोग, छोटी-मोटी तकलीफ़ों के घरेलू नुस्ख़े, करेले और टमाटर के अचार बनाने की विधि पुराने कपड़ों से कुशन-मेट्रेस बनाने की कला आदि।
घर में दो बच्चे भी थे। वे कुछ भी नहीं समझते थे। वे सदा सच बोलते थे। इस पर पिटते थे। फिर वे झूठ बोलने लगे। इस पर वे और पिटे। उनकी बचकानी बातों से मम्मी-पापा का मनोरंजन होता था। वे लाड़ में भरकर बच्चों को चूमने लगते थे। बाद में ऐसी ही बातों के लिए बच्चे डांट खाने लगे। कभी-कभी पापा उन्हें खिलाते थे। दरअसल वे उन्हें खिलाते नहीं, उनसे खेलते थे। बच्चों के लिए वे बहुत सारी चीज़ें मना थीं जो मम्मी के लिए भी मना नहीं थीं। पापा के लिए तो नहीं ही थीं। बच्चों की एक अलग दुनिया भी थी। वह उनके हमजोलियों की दुनिया थी। वहां एक-दूसरे के कान में गुप्त रहस्य बताने का, एक-दूसरे के आगे अपने घर-खिलौने-मम्मी-पापा का रोब मारने का, उत्सुकता और कौतुक से एकसाथ मुग्ध, भावुक या भीत होने का, रूठने-मनाने का और एक-दूसरे को सहारा देने का अतींद्रिय आनंद था, जिसमें अच्छे से अच्छे पापा और प्यारी से प्यारी मम्मी का प्रवेश वर्जित था।
कुल मिलाकर बच्चे बहुत ही अच्छे थे। उनमें एक ही बुराई थी। वे याद बहुत रखते थे। बचपन की नाइंसाफ़ियों को वे बड़े होने तक भी याद रखते थे और मम्मी-पापा के व्यवहार की बीस-बीस साल बाद भी समीक्षा करते थे।
फिर भी कुल मिलाकर यह एक घर था। आम घरों की तरह सुंदर प्यारा।
एक दिन पापा नहीं आए। रात हो गई। मम्मी फ़िक्र के मारे अंदर-बाहर चक्कर लगा रही थीं। बच्चे पहले तो खेल में व्यस्त रहे। बाद में वे भी उदास हो गए। पापा क्यों नहीं आए ? क्या पापा रात को भी नहीं आएंगे ? बच्चे पहले पापा के बारे में मम्मी से सवाल करते रहे, फिर यह देखकर कि मम्मी उनके सवालों से परेशान हो रही हैं, वे चुप हो गए, वहां से हट गए और फुसफुसाते हुए आपस में ही सवाल-जवाब करने लगे। वे एक-दूसरे को कोई दिलासा नहीं दे सकते थे। उनके पास सिर्फ़ प्रश्न थे। उत्तर नहीं थे। वे रुलाई के कगार पर पहुंचकर वापस आ जाते। उन्हें भूख भी लगी थी। मम्मी ने अभी तक कुछ नहीं बनाया था। छोटा बच्चा तो भूखा ही सो गया।
मम्मी शर्मा जी के घर गईं। शर्मा जी पापा के ही ऑफ़िस में काम करते हैं। शर्मा जी को कुछ पता नहीं था। उन्होंने बुशर्ट पहनते हुए कहा-आप चिंता मत कीजिए भाभीजी, मैं पता करता हूं। मम्मी वापस चली आईं। मम्मी को ध्यान आया कि घर की बत्ती भी नहीं जली है और खाना भी नहीं बना है, छोटा बच्चा तो सो भी गया। बड़ा भी रोज़ की तरह ‘भूख-भूख’ नहीं कर रहा है। वे रुआंसी हो गईं।
क्या करें ? किसके पास जाएं ? कहीं से फ़ोन करें ? क्या हो गया होगा ? पापा क्यों नहीं आए अभी तक ?
घर में एक मम्मी थीं, दो बच्चे थे और एक पापा थे। दो बच्चे इसलिए नहीं थे कि मम्मी-पापा को अपने देश से बहुत प्यार था या उसके भविष्य की उन्हें बड़ी चिंता थी, बल्कि इसलिए कि इससे ज़्यादा वे अफ़ोर्ड ही नहीं कर सकते थे। ऐसा और भी कई अच्छी बातों के साथ था। मजबूरी थी। अच्छाई मजबूरी थी।
पापा नौकरी करते थे। पापा तनख़्वाह लाते थे। घर को जो चाहिए, वह पापा ख़रीदकर लाते थे। बच्चों को जो चाहिए, पापा से कहना पड़ता था। बच्चे कहना नहीं मानते तो मम्मी उन्हें पापा का डर बताती थीं। आने दो पापा को, बताती हूं। पापा न्यायाधीश भी थे। बच्चे एक-दूसरे की शिकायत पापा से ही करते थे। वे अपने मूड और विवेक के अनुसार दंड या क्षमा दे सकते थे। इससे आगे कोई अपील नहीं थी। पापा डॉक्टर भी थे। कहीं चोट लगी है, कुछ दुख रहा है, क्या करना है, पापा मम्मी को अनुदेश देते थे, जिनका मम्मी तत्परता से पालन करती थीं। पापा आश्वस्त भी थे। कुछ नहीं होगा, सो जाओ। या कोई ख़ास बात नहीं है, खेलो जाओ। बच्चे बीमारी से उठते तो पापा ही तय करते कि आज वे स्कूल जा सकते हैं या नहीं। पापा दौरे पर जाते तो मम्मी पड़ोसन आंटी की दस साला बिटिया को बुलाकर पास सुलातीं और डंडा पास रखकर सोतीं। फिर भी सारी रात उन्हें डरावने सपने आते। पापा डंडा थे। पापा चौकीदार भी थे। पापा सेनापति भी थे।
पापा के और भी कई उपयोग थे। लोहे की अलमारी पापा ही सरका सकते थे। टूटे स्टूल की मरम्मत पापा ही कर सकते थे। ख़राब रेडियो पापा ही ठीक कर सकते थे। रसोई में घुस आया सांप या चूहा पापा ही मार सकते थे। गेहूँ पापा ही पिसाकर ला सकते थे। ‘राइट’ का पास्ट टेंस पापा को ही आता था। ‘रिमेंबर’ की स्पेलिंग पापा को ही आती थी। अच्छे-ख़ासे कैलेंडर और डायरियां रद्दी कहकर पापा ही फेंक सकते थे। बच्चों को हवा में उछालकर पापा ही झेल सकते थे। दक्षिण अफ़्रीका और मंडेला और समाचारों में आनेवाली कई बातों का अर्थ पापा को ही पता था।
पापा को हरा रंग पसंद नहीं है, इसलिए घर में हरे रंग के पर्दे नहीं हैं। पापा को पान खाना चीपनेस लगता है, इसलिए हमारे यहां कोई पान नहीं खाता। पापा को अमिताभ बच्चन से सख़्त चिढ़ है, इसलिए उसकी पिक्चर आते ही टी.वी. बंद कर दिया जाता है। पापा खटाई नहीं खाते, इसलिए घर में कोई खटाई नहीं खाता। पापा मॉर्निग वॉक, बी.बी.सी. और लौकी के घोर प्रशंसक हैं, इसलिए किसी को अच्छा नहीं लगने पर भी इनकी गंभीर आलोचना नहीं हो सकती। मज़ाक़ में कुछ कह लो, पापा बुरा नहीं मानते। अब ये सारी बातें भी तभी तक हैं जब तक बच्चे छोटे हैं, पर तब तक तो हैं ही।
घर में एक मम्मी भी थीं। मम्मी खाना बनाती थीं, बर्तन मांजती थीं, कपड़े धोती थीं, झाड़ू-पोंछा करती थीं, बच्चों के बैग जमाती थीं, उन्हें तैयार कर स्कूल भेजती थीं, होमवर्क में उनकी मदद करती थीं और रात को उन्हें थपकी देकर सुलाती भी थीं। उनके खुद के शब्दों में दिनभर खटती थीं। लेकिन उनका खटना दिखाई नहीं देता था। उनका परिश्रम टेकेन फ़ॉर ग्रांटेड था। घर के सब लोगों को अपने कपड़े धुले-प्रैस किए मिल जाते थे। दोनों वक़्त खाना पका हुआ मिल जाता था। घर झड़ा-पुंछा सजा हुआ मिल जाता था। इसलिए यह सब कैसे और किस मेहनत से हुआ, इस बेकार के सवाल पर कोई माथापच्ची नहीं करता था। हां, कोई कसर रह जाए किसी चीज़ में तो सब मम्मी को सुनाना नहीं भूलते थे। मम्मी चुपचाप सारा दोष स्वीकार कर लेती थीं।
मम्मी को देखने के लिए दफ़्तर जाते पापा, स्कूल से लौटते बच्चे और आज़ू-बाज़ू के मकानों की खिड़कियां थीं, सुनने के लिए रेडियो और मनोरंजन के लिए टी.वी. सीरियल या चित्रहार। वे अख़बार उठातीं तो मैले कपड़े बुला लेते, पत्रिका उठातीं तो महंगाई का झींकना झींकने वाली और सारे मोहल्ले की लेडीज की बुराइयां करने वाली पड़ोसन और सिलाई-कढ़ाई उठातीं तो सब्ज़ीवाला, ब्रेडवाला, दूधवाला, पुराने कपड़ों के बदले स्टील के बर्तन देनेवाली और बचे-खुचे बर्तनों पर बची-खुची क़लई करने वाले बचे-खुचे क़लईगर, या मेहतरानी या ग्यारस-तेरस पर सीधा मांगनेवाले।
मम्मी के एकरस-नीरस जीवन के भी कुछ आसरे थे। वे धीरे-धीरे फीके पड़ गए या पीछे छूट गए। मसलन पीहर की यादें, कॉलेज के क़िस्से, सहेलियों की छेड़छाड़, सलवार-कमीज़-दुपट्टों का फ़ैशन ख़ूब मिर्चवाले चटपटे गोलगप्पे, लिपस्टिक के शेड्स और राजेश खन्ना की पिक्चरें। कुछ और चीज़ें भी खो ही गईं। अमुक या अमुक से शादी होती तो... के खिलंदड़े दिवास्वप्न... घुंघराले बाल वाले एक लड़के द्वारा किताबों में छिपाकर दिए गए प्रेमपत्र... ज़री-गोटेवाली शादी की भारी-भारी साड़ियां... मित्रों-सहेलियों द्वारा समय-समय पर दी गई छोटी-छोटी भेंटें... मां बनने से पहले की लंबी और सुरम्य यात्राएं... गृहस्थी के नए और मज़ेदार अनुभव... उदास और स्वप्निल कर देने वाले पुराने फ़िल्मी गाने !
मम्मी के पैरों में ढेरों बिवाइयां थीं, मन में अपार थकन और मस्तिष्क में अनंत ऊब। मम्मी के बाल पूंछड़ी जैसे रह गए थे। मम्मी की कमर पर चर्बी की परतें चढ़ गई थीं। मम्मी की छातियां बेडौल और लटकी हुई थीं। मम्मी की आंखों के नीचे कालिख और गर्दन पर झुर्रियां थीं। मम्मी टहलने का महत्त्व जानती थीं। जॉगिंग और एक्सरसाइज़ जैसी चीज़ों, का उन्हें पता था, गोरा होने के कई नुस्ख़े उन्हें रटे हुए थे, चेहरे पर से झाइयां हटाने के कई तरीक़े उन्होंने पत्रिकाओं में पढ़े थे, बालों को लंबे, काले और घुंघराले बनाने की तरकीबें उन्होंने ख़ुद कइयों को बताई थीं लेकिन अब ये सब उनकी रुचियों के केंद्र में नहीं, परिधि पर चला गया है। किसके लिए करना है ये सब ? कहां जाना है बन-ठनकर भी ? सज-संवरकर भी ? सुचिक्कन-सु़डौल होकर भी ? कौन देखनेवाला है ? शरीर को उन्होंने केवल माध्यम माना था—सुखी-संपन्न घर-परिवार पाने का। हो गया। अब उसकी परवाह करने की क्या ज़रूरत है ? दूसरी बात यह भी है कि उनकी दुनिया इस क़दर चार दीवारों में क़ैद है कि जैसे जेल में। जेल में क्या कोई सजता-संवरता है ? अब मम्मी की दिलचस्पी के केंद्र में दूसरी चीज़ें थीं। मसलन नींबू के उपयोग, छोटी-मोटी तकलीफ़ों के घरेलू नुस्ख़े, करेले और टमाटर के अचार बनाने की विधि पुराने कपड़ों से कुशन-मेट्रेस बनाने की कला आदि।
घर में दो बच्चे भी थे। वे कुछ भी नहीं समझते थे। वे सदा सच बोलते थे। इस पर पिटते थे। फिर वे झूठ बोलने लगे। इस पर वे और पिटे। उनकी बचकानी बातों से मम्मी-पापा का मनोरंजन होता था। वे लाड़ में भरकर बच्चों को चूमने लगते थे। बाद में ऐसी ही बातों के लिए बच्चे डांट खाने लगे। कभी-कभी पापा उन्हें खिलाते थे। दरअसल वे उन्हें खिलाते नहीं, उनसे खेलते थे। बच्चों के लिए वे बहुत सारी चीज़ें मना थीं जो मम्मी के लिए भी मना नहीं थीं। पापा के लिए तो नहीं ही थीं। बच्चों की एक अलग दुनिया भी थी। वह उनके हमजोलियों की दुनिया थी। वहां एक-दूसरे के कान में गुप्त रहस्य बताने का, एक-दूसरे के आगे अपने घर-खिलौने-मम्मी-पापा का रोब मारने का, उत्सुकता और कौतुक से एकसाथ मुग्ध, भावुक या भीत होने का, रूठने-मनाने का और एक-दूसरे को सहारा देने का अतींद्रिय आनंद था, जिसमें अच्छे से अच्छे पापा और प्यारी से प्यारी मम्मी का प्रवेश वर्जित था।
कुल मिलाकर बच्चे बहुत ही अच्छे थे। उनमें एक ही बुराई थी। वे याद बहुत रखते थे। बचपन की नाइंसाफ़ियों को वे बड़े होने तक भी याद रखते थे और मम्मी-पापा के व्यवहार की बीस-बीस साल बाद भी समीक्षा करते थे।
फिर भी कुल मिलाकर यह एक घर था। आम घरों की तरह सुंदर प्यारा।
एक दिन पापा नहीं आए। रात हो गई। मम्मी फ़िक्र के मारे अंदर-बाहर चक्कर लगा रही थीं। बच्चे पहले तो खेल में व्यस्त रहे। बाद में वे भी उदास हो गए। पापा क्यों नहीं आए ? क्या पापा रात को भी नहीं आएंगे ? बच्चे पहले पापा के बारे में मम्मी से सवाल करते रहे, फिर यह देखकर कि मम्मी उनके सवालों से परेशान हो रही हैं, वे चुप हो गए, वहां से हट गए और फुसफुसाते हुए आपस में ही सवाल-जवाब करने लगे। वे एक-दूसरे को कोई दिलासा नहीं दे सकते थे। उनके पास सिर्फ़ प्रश्न थे। उत्तर नहीं थे। वे रुलाई के कगार पर पहुंचकर वापस आ जाते। उन्हें भूख भी लगी थी। मम्मी ने अभी तक कुछ नहीं बनाया था। छोटा बच्चा तो भूखा ही सो गया।
मम्मी शर्मा जी के घर गईं। शर्मा जी पापा के ही ऑफ़िस में काम करते हैं। शर्मा जी को कुछ पता नहीं था। उन्होंने बुशर्ट पहनते हुए कहा-आप चिंता मत कीजिए भाभीजी, मैं पता करता हूं। मम्मी वापस चली आईं। मम्मी को ध्यान आया कि घर की बत्ती भी नहीं जली है और खाना भी नहीं बना है, छोटा बच्चा तो सो भी गया। बड़ा भी रोज़ की तरह ‘भूख-भूख’ नहीं कर रहा है। वे रुआंसी हो गईं।
क्या करें ? किसके पास जाएं ? कहीं से फ़ोन करें ? क्या हो गया होगा ? पापा क्यों नहीं आए अभी तक ?
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