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अगला यथार्थ

हिमांशु जोशी

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7147
आईएसबीएन :0-14-306194-1

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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...


पहले वे घबरा जाते थे। एकदम परेशान ! पर, धीरे-धीरे अब यह भी उनकी आदत में शुमार हो गया है।

फिर वे नए सिरे से तैयार हो जाते हैं-एक नई चुनौती का सामना करने के लिए। सांझ घिरने से पहले जैसे किसी सुरक्षित आश्रय की तलाश में हों।

सूरज की पीली किरणें, लंबे होते साये, उनके सामने प्रश्न-चिह्न बनकर कई सवाल खड़े कर रहे थे। पर इन सबके बावजूद उनमें निराशा, हताशा या पराजय का जैसा कोई भाव पनप नहीं पा रहा था। अनेक कष्ट थे, जिन्हें वे बड़े सहज भाव से झेल रहे थे-जैसे इन सबका होना पहले से ही तय था।

उन्हें लगता है, ज्यों-ज्यों वे क्षितिज की सीमा-रेखा की ओर बढ़ रहे हैं, त्यों-त्यों धरती और आकाश की दूरी सिमट रही है। उसके आगे सृष्टि नहीं, शून्य है। हो सकता है, वही शून्य उनकी अंतिम परिणति हो !

मंज़िल और रास्ते का विभेद भी उनकी सूक्ष्म अंतश्चेतना में कहीं तिरोहित हो गया था। यह सब नियति है-उन्होंने मान लिया था।

इधर बहुत दिनों से वे स्वयं को थका-थका-सा अनुभव कर रहे थे। बैठते तो लेटने का, यानी कमर सीधी करने का मन करता।

उठने पर आसानी से उठा नहीं जाता। वे सोचते थे, अर्से से उन्होंने आराम नहीं किया। कागज-क़लग की जिंदगी, कहीं पलभर भी तो चैन नहीं !

हां, जब कहीं कुछ छप जाता तो मन में कुछ भरा-भरा-सा लगता है।

जब से उन्होंने नौकरी से संन्यास लिया है, उन्हें लगता है, विश्राम के स्थान पर कहीं अतिरिक्त भार एकत्र हो गया है। खुले, छिछले सागर पर तैरना खतरों से खाली नहीं। आखिर कितने ख़तरों से जूझेंगे वे?

मई के आरंभ में उन्हें कानपुर जाना पड़ा था। दो दिन का कार्यक्रम था। 'गेस्ट-हाउस' में ठहराया गया था। सुबह हाथ-मुंह धोते समय वॉशबेसिन में कफ के साथ-साथ खून के क़तरे भी दीखे, तो वे चौंके !

चिंतित स्वर में उन्होंने अपने साथी की ओर देखते हुए कहा, मधुकर जी, मुंह से खून क्यों आ रहा है...?"

मधुकर कुछ पढ़ रहे थे, गहरे में डूबे।

"आ जाता है कभी-कभी ! दिल्ली लौटकर दिखला लीजिए। अब तो प्रायः हर बीमारी का इलाज संभव है...।" लापरवाही से यों ही कहने भर के लिए उन्होंने कहा जैसे।

दिल्ली लौटकर पत्नी को बतलाया। वॉशबेसिन पर थूकते हुए ताज़ा रक्त दिखलाया। चिंता का एक सहज भाव चेहरे पर क्षण भर के लिए आया, “जब तबीयत खराब थी तो काहे को गए थे कानपुर...?” कहकर उन्होंने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली।

कुल-दीपक ने कोई रुचि नहीं दिखलाई। वॉशबेसिन तक आने का भी कष्ट नहीं किया। हां, दूसरे-तीसरे दिन अपने भाइयों को वस्तुस्थिति से अवश्य अवगत करा दिया।

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    अनुक्रम

  1. कथा से कथा-यात्रा तक
  2. आयतें
  3. इस यात्रा में
  4. एक बार फिर
  5. सजा
  6. अगला यथार्थ
  7. अक्षांश
  8. आश्रय
  9. जो घटित हुआ
  10. पाषाण-गाथा
  11. इस बार बर्फ गिरा तो
  12. जलते हुए डैने
  13. एक सार्थक सच
  14. कुत्ता
  15. हत्यारे
  16. तपस्या
  17. स्मृतियाँ
  18. कांछा
  19. सागर तट के शहर

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