लोगों की राय

कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ

अगला यथार्थ

हिमांशु जोशी

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7147
आईएसबीएन :0-14-306194-1

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

61 पाठक हैं

हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...


ट्राम्सो यानी... !” मैंने कुछ सोचते हुए कहा।

"आर्कटिक सर्किल के भीतर, ट्राम्सो शहर तक। संभवतः अंतिम सीमा-रेखा यानी फिनमार्क तक। उससे आगे जहाज़ नहीं जाते। स्वीडन की सरहद शुरू हो जाती है।”

“तुम न्यूजीलैंड के निवासी हो, तुम्हें तो दक्षिणी-ध्रुव प्रदेश निकट पड़ेगा।” मेरे इस कथन पर वह हंस पड़ा।

हैरी, नोरा, मोना आदि कुछ मित्र एक दिन चले गए तो लगा, जैसे सारी महफिल उजड़ गई है।

शाम को तुम हांफती हुई-सी आईं, “यहां बैठे-बैठे क्या कर रहे हो? आज मैक्सीकन कोई म्यूजिकल कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे हैं।”

मैंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। मैं पुस्तक में डूबा था। तुमने झपटकर पुस्तक छीन ली।

"वाइकिंग... !” तुमने मुंह बनाते हुए कहा, “समुद्री लुटेरों की यह कहानी तो बाद में भी पढ़ी जा सकती है।”

तुम्हारी बातों में उतावलापन था। मैंने सहज होकर कहा, “बैठो भी। बड़ी रोचक पुस्तक है। सैकड़ों साल पहले नार्वे के समुद्री लुटेरों में बहुत-से लोग बाद में इंग्लैंड में जाकर बस गए थे। इंग्लैंड की वास्तविक आबादी में इनका प्रतिशत कम नहीं। आज के इंग्लैंड वासियों के पुरखे कभी वे ही लुटेरे थे...।”

तुम हैरान-सी हंसने लगी थीं, “ये क्या बखेड़ा लिए हो? अरे, हां, मैं तो जैसे भूल ही गई थी, तुम्हें बतलाना। मैंने अभी शाम को अबीरा को फोन किया था। वह बतला रही थी कि साहिल का दाख़िला इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया है। मुझे उसी की चिंता थी। अबीरा तो बहुत समझदार है। दो-तीन साल में वह भी अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी कर लेगी...!”

मैंने हंसते हुए कहा, “इतनी अच्छी, खुशखबरी ! अरे, कुछ खिलाओ-पिलाओ, पार्टी करो...!”

तुमने चुपचाप अपना पर्स मेरी ओर बढ़ा दिया, "कुछ डॉलर काहिरा से लक्सर पहुंचने के लिए टैक्सी के रख देना। शेष सब तुम्हारे। जैसे चाहो ख़र्च करो।”

पर्स देर तक सहमे पक्षी की तरह मेरे हाथों में दुबका रहा। उसे वापस करते हुए मैंने कहा, "लो रखो। पार्टी मेरी ओर से...।”

तुमने ताली बजाते हुए कहा, “लो, यह हुई न दिलेरी की बात ! इस आने वाले वीकएंड में सैलिब्रेट करेंगे।”

पर उससे पहले ही कार्यक्रम कुछ और बन गया।

"हैरी, मोना आदि ट्राम्सो गए हैं घूमने। मुझे पता नहीं चला, नहीं तो हम भी हो आते।” भोजन के बाद लॉन में टहलते हुए तुमने कहा।

“मरना ही चाहती हो तो उसके लिए इतनी दूर जाने की क्या आवश्यकता है ! यहीं कोई आसान-सा रास्ता खोज लेते हैं...।”

मेरे यह कहने पर तुम उबल-सी पड़ीं, “जो अब तक गए हैं, क्या वे मरने के लिए ही गए हैं?"

“उनकी वे जानें, पर तुम लौटकर नहीं आओगी, यह मैं लिखकर दे सकता हूं।"

तुम्हारे कमरे में टंगे कैलेंडर पर अनेक गोल-गोल निशान थे। जो दिन बीत जाता, उसे लाल पेंसिल से घेर लेतीं। अब आगे कुछ ही तिथियां रह गई थीं।

उस दिन अपने कमरे में बैठा मैं कुछ काम कर रहा था, तभी टेलीफोन की घंटी बजी, "मैं बहिरा बोल रही हूं..। कल सुबह कुछ और साथी जा रहे हैं ट्राम्सो। मैंने भी उनके साथ दो सीटें बुक करा ली हैं, 'सागा ट्रेवल्स' से। तुम तैयार हो जाओ। मैं अभी थोड़ी देर में पहुंच रही हूं।”

और तुमने खट से रिसीवर रख दिया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. कथा से कथा-यात्रा तक
  2. आयतें
  3. इस यात्रा में
  4. एक बार फिर
  5. सजा
  6. अगला यथार्थ
  7. अक्षांश
  8. आश्रय
  9. जो घटित हुआ
  10. पाषाण-गाथा
  11. इस बार बर्फ गिरा तो
  12. जलते हुए डैने
  13. एक सार्थक सच
  14. कुत्ता
  15. हत्यारे
  16. तपस्या
  17. स्मृतियाँ
  18. कांछा
  19. सागर तट के शहर

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book