कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
|
8 पाठकों को प्रिय 61 पाठक हैं |
हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
"अरे, जैसा भी है, है तो आदमी का ही बच्चा ! कुछ तो हाथ बंटाएगा। घर में तू अकेली रहती है न ! अब यह साथ हो गया...।”
औरत और ज़ोर से हंस पड़ी थी, "इस बच्चे का साथ? हां, उठा कहां से लाए?"
“खटीमा टेसन पर भूखा पड़ा था, उठा लाया।” यह सब सुनकर वह संकोच में और सिकुड़ आया था !
"अरे, खड़ा क्यों है? बैठ ! बैठ !” महिला ने तनिक सहानुभूति से कहा था। वह वैसा ही, वहीं पर चुपचाप बैठ गया था।
"क्या नाम है तेरा?”
"कांछा।”
“कानछा?" वह हंस पड़ी थी।
"..."
ले, ये चा का गिलास धो ला...” कुछ रुककर उसने कहा था, "फिर तू भी कटकी लगा लेना ! ठंड लग रही होगी... कोई बनीन-सनीन नहीं, पहनने के लिए? ऐसे तो तू मर जाएगा...।”
कुछ ही पल बाद, इस अपरिचित घर में उसका एक अनाम-सा रिश्ता जुड़ गया था-काका, काकी का !
काकी और उसकी दिवंगता मां की आकृति में कितना साम्य था ! वैसे ही चलती, बोलती भी ठीक वैसे ही थी।
दो महीने की छुट्टी बिताकर भवान सिंह जब पलटन में लौट गया तो पूरे घर में वे ही दो प्राणी रह गए थे। ऊपर की मंजिल में वे रहते और नीचे गोठ में गाय-बछिया...
काकी अपने बच्चे की तरह ही उसे सुलाती, खिलाती-पिलाती, उसका ध्यान रखती थी। उसके लिए लोघाट के बाजार से वहीं के मोचियां का बनाया, सिलपट का एक छोटा जूता उसने मंगा दिया था। मोटी भोटिया ऊन की एक बनीन भी स्वयं बुन दी थी-हल्दी रंग की, जिसे पहने वह हवा में उड़ता रहता था।
इतनी उम्र होने के बावजूद काकी के कोई बच्चा नहीं था, शायद इसीलिए बच्चों के प्रति इतनी ममता थी !
दस्से के मेले में गांव के प्रायः सभी कौतिकिया लोग गए तो। काकी के साथ ज़िद करके वह भी चला गया था-रंगीन बनीन और गबरून का पैजामा झपकाए।
|
- कथा से कथा-यात्रा तक
- आयतें
- इस यात्रा में
- एक बार फिर
- सजा
- अगला यथार्थ
- अक्षांश
- आश्रय
- जो घटित हुआ
- पाषाण-गाथा
- इस बार बर्फ गिरा तो
- जलते हुए डैने
- एक सार्थक सच
- कुत्ता
- हत्यारे
- तपस्या
- स्मृतियाँ
- कांछा
- सागर तट के शहर