परिवर्तन >> आराधना आराधनासूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
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निराला की अविस्मरणीय रचना
आराधना के गीत निराला काव्य के तीसरे चरण में रचे गए हैं, मुख्यतया 24 फरवरी 1952 से आरंभ करके दिसम्बर 1952 के अंत तक। इन गीतों से यह भ्रम हो सकता है कि निराला पीछे की ओर लौट गए हैं। वास्तविकता यहा है कि धर्म-भावना निराला में पहले भी थी, वह उसमें अंत-अंत तक बनी रही। उनके इस चरण के धार्मिक काव्य की विशेषता यह है कि वह हमें उद्विग्न करता है, आध्यात्मिक शांति निराला को कभी मिली भी नहीं, क्योंकि इस लोक से उन्होंने कभी मुँह नहीं मोड़ा बल्कि उस लोक को अभाव और पीड़ा से मुक्त करने वे कभी सामाजिक और राजनैतिक आंदोलनों की ओर देखते रहे और कभी ईश्वर की ओर। उनकी यह व्यकुलता ही उनके काव्य सबसे बड़ी शक्ति है।’’
हिन्दी-जगत को ‘आराधना’ और उसके स्रष्टा के परिचय की आवश्यकता नहीं है। जीवन में जो कुछ सत्य, सुन्दर और मंगलमय है, वही निराला का आराध्य रहा है। ‘आराधना’ भी उसी जीवनव्यापी अर्चन की एक कड़ी है। अविश्वास के इस अन्धकार युग में ‘आराधना’ के स्वर दीपक-राग की भाँति संगीत और आलोक की समन्वित सृष्टि करने में समर्थ होंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।
हिन्दी-जगत को ‘आराधना’ और उसके स्रष्टा के परिचय की आवश्यकता नहीं है। जीवन में जो कुछ सत्य, सुन्दर और मंगलमय है, वही निराला का आराध्य रहा है। ‘आराधना’ भी उसी जीवनव्यापी अर्चन की एक कड़ी है। अविश्वास के इस अन्धकार युग में ‘आराधना’ के स्वर दीपक-राग की भाँति संगीत और आलोक की समन्वित सृष्टि करने में समर्थ होंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।
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