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आकाश कवच

आशा गुप्त

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :106
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 7132
आईएसबीएन :00000000

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नयी-कविता का एक संकलन


‘आकाश-कवच’ डॉ. आशा गुप्त की रचनाओं का पहला काव्य-संकलन है।

इन कविताओं के अलावा भी उन्होंने बहुत-सी और लिखी होंगी, मैं ऐसा सोचता हूँ। मेरे ऐसा सोचने का कारण है। इन कविताओं का रचाव इसकी गवाही देता है कि डॉ. आशा गुप्त की लेखनी कोई नया काम नहीं-बल्कि पहले से कर रहे काम को ही, अधिक सचेत और सधे ढंग से कर रही है। नया कवि-अभी-अभी ही मैदान में उतरा कवि-इतनी लय-बद्धता और इतने सँवार के कविताएँ नहीं लिख सकता। उसके लिखने में कई तरह का नौसिखियापन और बचकानापन आ ही जाता है-झलक ही जाता है। यहाँ, इस संकल की कविताओं में ‘नयी कविता’ का विकसित रूप मिलता है। यह हो सकता है कि डॉ. आशा गुप्त कभी-कभार ही कविता लिख लेती रही हों-जमकर न लिखती रही हों-लेकिन इस पर भी यदि उन्होंने ‘नयी-कविता’ का इतना उन्नत स्वरूप पा लिया है और सफलता से वह उसका निर्वाह अपनी रचनाओं में कर ले गयी हैं तो यह बात ही उनके लिये बड़े गर्व की है। इस क्षमता से उनकी समर्थ काव्य-प्रतिभा का परिचय प्राप्त होता है।

मैंने जानबूझ कर, खूब सोच समझकर, प्रस्तुत संकलन की कविताओं को ‘नयी कविता’ के अन्तर्गत रक्खा है। वह न प्रयोगवाद के अन्तर्गत आती हैं न प्रगतिवाद के। प्रयोगवाद में आती तो, बाहर से सिमट कर, अहं की प्रयोगधर्मी इकाई बन जातीं, न व्यक्ति की रहतीं, वरन् विशेष बनकर विशेष मानस-लोक की कृतियाँ बन जातीं। प्रगतिवाद में आती तो प्रतिबद्धता से अपनी चाल और चमक प्राप्त करतीं और अपनी जन्मदात्री की जीवनी शक्ति को जन-जीवन में लगा देतीं और समाजवादी वैज्ञानिकता से लैस होकर व्यंग, विद्रूप और यथार्थ को शब्दांकित करतीं। इनमें कहीं कुछ ऐसा नहीं है।

डॉ. आशा गुप्त अपनी इन कविताओं को ‘नयी कविता’ के तहत रखती हैं या नहीं, मैं नहीं जानता। वह मेरी धारणा से सहमत होंगी या नहीं, यह भी मैं नहीं जानता। मैंने अपनी धारणा तो इन कविताओं को पढ़ कर बनायी है।


इस संग्रह की कुछ कविताएँ इस प्रकार हैं

  • सुदी-बदी
  • कितने सूरज-चाँद
  • फिर आएगा
  • सूर्य की आँखें
  • न फूल न सूरज
  • कहीं सुना था
  • घाटियाँ
  • भरे बाजार
  • पर्त्त दर पर्त्त
  • हिमांचल-श्रृंखला-१
  • गुलाब और ज़हरीले-बाड़
  • आत्मसम्मान की मौत


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