रहस्य-रोमांच >> मिडनाइट क्लब मिडनाइट क्लबसुरेन्द्र मोहन पाठक
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खोटे सिक्के की खोटी तकदीर ने इस बार जीते को कहाँ ले जाकर पटका?...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सोमवार : बीस अप्रैल
गुरुवार उनत्तीस जनवरी को तारदेव थाने के
एस. एच. ओ.
गोविलकर का टिम्बर बन्दर के करीब के उजाड़ मैदान में कत्ल हुआ जिसने कि
पुलिस के महकमे में नीचे से ऊपर तक हड़कम्प मचा दिया। खुद पुलिस कमिश्नर
जुआरी ने हुक्म जारी किया कि हत्यारे की तलाश वार फुटिंग पर की जाये और
उसे किसी भी सूरत में बख्शा न जाये।
जबकि हत्यारा तो जैसे पुलिस के महकमे की आंख की पुतली बना हुआ था।
आंख सबको देखती है, खुद अपने आपको नहीं देखती।
इसलिये किसी को जीतसिंह दिखाई न दिया।
जीतसिंह !
तारदेव के सुप सैल्फ सर्विस स्टोर की डकैती का मुजरिम।
पुलिस की निगाह में–खास तौर से इंस्पेक्टर गोविलकर की निगाह में, जिसने कि उसको गिरफ्तार करके अदालत में पेश किया था–तालातोड़, तिजोरीतोड़, वाल्टबस्टर, घटिया इंसान, सोसायटी का नासूर, मोरी का कीड़ा, गोली मार देने के काबिल।
गोविलकर की निगाह में पुलिस के पास जीतसिंह के खिलाफ ओपन एण्ड शट केस था और उसका कम से कम छः साल के लिये नपना निश्चित था क्योंकि पुलिस को गाइलो नाम के टैक्सी ड्राइवर की सूरत में उसके खिलाफ एक चश्मदीद गवाह उपलब्ध था जिसने जेकब सर्कल के लाकअप में हुई आइडेन्टिटी परेड में निसंकोच जीतसिंह को बतौर मुजारिम पिक किया था।
पुलिस को और क्या चाहिये था !
लेकिन ऐन मौके पर, मैजिस्ट्रेट के सामने कटघरे में खड़ा अपना बयान देता गवाह मुकर गया।
गाइलो ने कोर्ट में जीतसिंह की शिनाख्त से इनकार कर दिया और बोल दिया कि पहले उसे मुगालता लगा था।
क्यों इनकार कर दिया ?
क्योंकि वो जीतसिंह के खास दोस्त और हमदर्द दिवंगत ऐंजो का सगा भाई निकल आया था इसलिए पुलिस के कहर की–जो बाद में उस पर टूटता, टूटा–परवाह किये बिना उसने जीतसिंह की शिनाख्त न की, नतीजतन मंगलवार, छः जनवरी को पचास हजार रुपये की जमानत पर जीतसिंह को इस शर्त के साथ रिहा कर दिया गया कि अगली पेशी तक–जिसकी तारीख अट्ठारह फरवरी मुकर्रर हुई थी–वो रोजाना सुबह ग्यारह बजे तारदेव थाने की हाजिरी भरेगा। उसकी जमानत उसके दूसरे मेहरबान दोस्त और मूल गुनाह के मूल जोड़ीदार एडुआर्डो ने भरी जो कि खासतौर से इसी काम के लिये वालपोई, गोवा से चलकर मुम्बई पहुंचा।
आइन्दा कालचक्र ऐसा चला कि जीतसिंह की दुनिया बदल गयी। सुष्मिता से रुसवाई हासिल होने पर उसने अपना तन मन फूंक डाला लेकिन किसी खुदाई मददगार की तरह ऐन मौके पर प्राइवेट डिटेक्टिव शेखर नवलानी के तुलसी चैम्बर्स कोलाबा की जीतसिंह की चिता बनने जा रही लिफ्ट के सामने पहुंच जाने की वजह से वो जान से जाने से बच गया, कर्टसी पुरसुमल चंगुलानी कई दिन नरीमन रोड, फोर्ट पर स्थित नानावटी मैडीकल सैंटर में भरती रहा, जहां से शफा पाकर निकला तो इंस्पेक्टर गोविलकर के हाथों की कठपुतली बन गया जिसकी वजह से उसे जार्ज डेविस नाम के यूनियन लीडर को शूट करना पड़ा और जिस चक्रव्यूह से निजात उसने आखिर इंस्पेक्टर गोविलकर का कत्ल करके ही पाई। कत्ल के रोज इंस्पेक्टर गोविलकर के ड्राइवर बराडे ने बहुत दुहाई दी कि इंस्पेक्टर साहब को जमानत पर छूटे मुजरिम जीतसिंह ने शूट किया था लेकिन उसकी दुहाई नक्कारखाने में तूती की आवाज बन गयी क्योंकि गोविलकर के कत्ल में बड़ा फायदा उसके डी. सी. पी. प्रधान को भी था जो कि जीतसिंह का तरफदार बन गया था और जिसने साबित करके दिखा दिया था कि इंस्पेक्टर गोविलकर के कत्ल के वक्त जीतसिंह तारदेव थाने के लॉकअप में बंद था क्योंकि उसे कोर्ट के आर्डर के मुताबिक थाने की रोजाना हाजिरी भरने में कोताही की थी। ऐसी दुहाई देने वाला दूसरा शख्स गोविलकर का मातहत सब-इन्स्पेक्टर गोखले था लेकिन उसकी आवाज इसलिये भी मिमियाहट में बदल गयी क्योंकि वो खुद मुजरिम साबित हुआ था और अदालत ने केकी मिस्त्री केस के कवरअप में उसकी शिरकत की वजह से उसे पांच साल की कैद की सजा सुनायी थी।
उस कवरअप में डी. सी. पी. प्रधान भी शामिल था लेकिन–खुद पुलिस कमिश्नर जुआरी को इस बात का रंज था–उसके खिलाफ कुछ साबित नहीं किया जा सका था। केवल दो शख्स थे जिनके माध्यम से ये बात साबित हो सकती थी कि उस कवरअप में डी. सी. पी. प्रधान ने भी मोटी रिश्वत खायी थी। उनमें से एक शख्स इंस्पेक्टर गोविलकर था जो कि रिश्वतखोरी में प्रधान का बिचौलिया था लेकिन उसका कत्ल हो गया था–जो कि कातिल का, जीतसिंह का, उस पर अहसान साबित हुआ था–और दूसरा शख्स दिलीप भालेकर उर्फ बडा़ बटाटा था जो कि रिश्वत की बंदरबांट में नेता लोगों का फ्रंट था लेकिन उसे उम्रकैद की सजा हुई थी और उसने डी. सी. पी. प्रधान के खिलाफ मुंह खोलना कबूल नहीं किया था क्योंकि वो जानता था कि प्रधान के फंसने या बचने से खुद उसका कोई भला नहीं होने वाला था। फिर भी कमिश्नर ने प्रधान के खिलाफ इतना एक्शन जरूर लिया था कि उसको डिस्ट्रिक्ट के नौ थानों के इंचार्ज की मलाईदार पोस्ट से फौरन हटाकर उसका तबादला एस्टेट ऑफिस में कर दिया था जहां कि उसका काम-नामुराद काम-पुलिसकर्मियों को रिहायशी क्वार्टरों की अलॉटमेंट की देखभाल करना था।
ट्रांसफर से पहले प्रधान ने जीतसिंह के अहसान का बदला यूं चुकाया था कि उसने गाइलो का वो बयान जीतसिंह के सामने नष्ट कर दिया जो कि इंस्पेक्टर गोविलकर ने गाइलो कोर्ट में मुकरने से आगबबूला होकर थर्ड डिग्री से हासिल किया था और जिसमें उसने कबूल किया था अदालत में जीतसिंह की शिनाख्त की बाबत उसने झूठ बोला था। साथ में जीतसिंह के तुलसी चैम्बर्स की लिफ्ट में हुए हादसे के मद्देनजर उसने जीतसिंह की तब तक की थाने की रोजाना हाजिरी भी रेगुलराइज कर दी थी।
उसके बाद कोर्ट में अगली पेशी तक जीतसिंह पूरी निष्ठा से थाने की हाजिरी भरता रहा।
बुधवार, अट्ठारह फरवरी को जब वो अगली पेशी पर कोर्ट में पेश हुआ तो पुलिस का वकील उसके खिलाफ कोई अतिरिक्त दलील या सबूत या गवाह पेश न कर सका। पुलिस का चश्मदीद गवाह गाइलो पुलिस के किसी काम का नहीं रहा था और जीतसिंह की कत्ल के मामले में मुखबिरी करने वाला दूसरा गवाह भंवर लाल तागड़े गुरुवार उनत्तीस जनवरी को जूहू के टूरिस्ट काटेज नम्बर नौ मे बड़ी रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में गोली खाकर मरा पड़ा पाया गया था।
नया मैजिस्ट्रेट इस तथ्य से भी प्रभावित दिखा था कि कथित मुजरिम ने कोर्ट के आदेश पर निष्ठा से अमल करते हुए थाने की नियमित हाजिरी भरी थी।
नतीजतन केस को अगली तारीख सोमवार बीस अप्रैल तक मुल्तवी करते समय मैजिस्ट्रेट ने जीतसिंह को थाने की रोजाना हाजिरी की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया जो कि अभियोजन पक्ष के लिए साफ इशारा था कि अगर वो मुजरिम के खिलाफ कोई नया चार्ज खड़ा करने में या पिछले चार्ज को किसी नये तरीके से साबित करने में नाकाम रहा तो मुजरिम का संदेहलाभ पाकर बरी हो जाना लाजमी था।
बीस अप्रैल वाली तारीख पर सरकारी वकील अदालत में पेश ही न हुआ। उसके एक सहायक ने उसकी जगह पेश हो कर कहा कि वकील साहब किसी अन्य केस में कहीं और व्यस्त थे इसलिये उस अदालत में पेश नहीं हो सकते थे। उस बात पर जीतसिंह के युवा वकील विनोद रावल ने पुरजोर लहजे में कहा कि वो केस को खामखाह लटकाने का तरीका था, हकीकतन अभियोजन पक्ष के पास कहने के लिए कुछ था ही नहीं। मैजिस्ट्रेट को उस बात से इत्तफाक था और वो पहले ही उस तारीख पर अपना फैसला सुनाने का मन बनाये बैठा था नतीजतन उसने संदेहलाभ देकर जीतसिंह को रिहा कर दिये जाने का और जमानत की रकम लौटाई जाने का हुक्म सुना दिया।
जीतसिंह ने चैन की लम्बी सांस ली।
उससे ज्यादा लम्बी सांस एडुआर्डो ने ली जो कि पिछली दोनों पेशियों पर खासतौर से वालपोई से वहां आया था और फैसला सुनाये जाने के वक्त कोर्ट में हाजिर था।
अदालत से बाहर वो जीतसिंह से गले लगकर मिला और बड़े जज्बाती लहजे से बोला–‘‘जीते, तेरे को मुबारक।’’
‘‘बोले तो’’–जीतसिंह उन्मुक्त हंसी के साथ अपनी प्रसन्नता का प्रदर्शन करता बोला–‘‘बिग डैडी को भी।’’
‘‘मेरे को काहे !’’
‘‘मेरी जमानत भरी कि नहीं भरी ! बिग डैडी वालपोई से उड़ता हुआ आकर मेरी जमानत न भरता, नकद पचास हजार रुपया जमा न कराता तो मैं तो जेल में सड़ता न !’’
‘‘बट वो अमाउन्ट तो तू मेरे को वापस किया। अपने स्पेशल फिरेंड डेविड परदेसी को एक्सप्रेस वालपोई भेजा और फिफ्टी थाउजेंट मेरे को रिटर्न किया।’’
‘‘क्योंकि चानस लगा, रोकड़ा हाथ आ गया।’’
‘‘साथ में ये भी बोला मैं चाहता तो जमानत कैंसल करा सकता था !’’
‘‘वो क्या है कि...’’
‘‘क्या है ? बोल क्या है ?’’
‘‘मैं हिला हुआ था। फरार हो सकता था। ऐसा होता तो, डैडी, तुम्हेरे को पिराब्लम !’’
‘‘बोम मारता है।’’
‘‘अभी छोड़ो न !’’
‘‘हां, छोड़ता है। आल इज वैल दैट एण्ड्स वैल।’’
‘‘बोले तो ?’’
‘‘अंत भला सो भला।’’
‘‘बरोबर बोला।’’
‘‘जीते, अभी तेरे साथ जो बीती, जिस बिग ट्रबल से तू सेफ निकला, उससे तूने कोई लैसन लिया या नहीं ?’’
‘‘लिया न !’’
‘‘अब फ्यूचर में कोई पंगा, कोई गलाटा नहीं करने का ! क्या ?’’
‘‘करके इस बार का माफिक पकड़ा नहीं जाने का। किसी इंस्पेक्टर गोविलकर जैसे आदमखोर भेड़िये के काबू में नहीं आने का।’’
‘‘जीके, तू...।’’
‘‘कुत्ते की दुम है, डैडी, किधर सीधी होयेंगा ! सुधरने, सम्भलने, इस्ट्रेट चलने का सबक लेना आदमी लोगों का बात है मैं आदमी किधर है? आदमी तो मैं साला हैइच नहीं।’’
‘‘तो क्या है ?’’
जबकि हत्यारा तो जैसे पुलिस के महकमे की आंख की पुतली बना हुआ था।
आंख सबको देखती है, खुद अपने आपको नहीं देखती।
इसलिये किसी को जीतसिंह दिखाई न दिया।
जीतसिंह !
तारदेव के सुप सैल्फ सर्विस स्टोर की डकैती का मुजरिम।
पुलिस की निगाह में–खास तौर से इंस्पेक्टर गोविलकर की निगाह में, जिसने कि उसको गिरफ्तार करके अदालत में पेश किया था–तालातोड़, तिजोरीतोड़, वाल्टबस्टर, घटिया इंसान, सोसायटी का नासूर, मोरी का कीड़ा, गोली मार देने के काबिल।
गोविलकर की निगाह में पुलिस के पास जीतसिंह के खिलाफ ओपन एण्ड शट केस था और उसका कम से कम छः साल के लिये नपना निश्चित था क्योंकि पुलिस को गाइलो नाम के टैक्सी ड्राइवर की सूरत में उसके खिलाफ एक चश्मदीद गवाह उपलब्ध था जिसने जेकब सर्कल के लाकअप में हुई आइडेन्टिटी परेड में निसंकोच जीतसिंह को बतौर मुजारिम पिक किया था।
पुलिस को और क्या चाहिये था !
लेकिन ऐन मौके पर, मैजिस्ट्रेट के सामने कटघरे में खड़ा अपना बयान देता गवाह मुकर गया।
गाइलो ने कोर्ट में जीतसिंह की शिनाख्त से इनकार कर दिया और बोल दिया कि पहले उसे मुगालता लगा था।
क्यों इनकार कर दिया ?
क्योंकि वो जीतसिंह के खास दोस्त और हमदर्द दिवंगत ऐंजो का सगा भाई निकल आया था इसलिए पुलिस के कहर की–जो बाद में उस पर टूटता, टूटा–परवाह किये बिना उसने जीतसिंह की शिनाख्त न की, नतीजतन मंगलवार, छः जनवरी को पचास हजार रुपये की जमानत पर जीतसिंह को इस शर्त के साथ रिहा कर दिया गया कि अगली पेशी तक–जिसकी तारीख अट्ठारह फरवरी मुकर्रर हुई थी–वो रोजाना सुबह ग्यारह बजे तारदेव थाने की हाजिरी भरेगा। उसकी जमानत उसके दूसरे मेहरबान दोस्त और मूल गुनाह के मूल जोड़ीदार एडुआर्डो ने भरी जो कि खासतौर से इसी काम के लिये वालपोई, गोवा से चलकर मुम्बई पहुंचा।
आइन्दा कालचक्र ऐसा चला कि जीतसिंह की दुनिया बदल गयी। सुष्मिता से रुसवाई हासिल होने पर उसने अपना तन मन फूंक डाला लेकिन किसी खुदाई मददगार की तरह ऐन मौके पर प्राइवेट डिटेक्टिव शेखर नवलानी के तुलसी चैम्बर्स कोलाबा की जीतसिंह की चिता बनने जा रही लिफ्ट के सामने पहुंच जाने की वजह से वो जान से जाने से बच गया, कर्टसी पुरसुमल चंगुलानी कई दिन नरीमन रोड, फोर्ट पर स्थित नानावटी मैडीकल सैंटर में भरती रहा, जहां से शफा पाकर निकला तो इंस्पेक्टर गोविलकर के हाथों की कठपुतली बन गया जिसकी वजह से उसे जार्ज डेविस नाम के यूनियन लीडर को शूट करना पड़ा और जिस चक्रव्यूह से निजात उसने आखिर इंस्पेक्टर गोविलकर का कत्ल करके ही पाई। कत्ल के रोज इंस्पेक्टर गोविलकर के ड्राइवर बराडे ने बहुत दुहाई दी कि इंस्पेक्टर साहब को जमानत पर छूटे मुजरिम जीतसिंह ने शूट किया था लेकिन उसकी दुहाई नक्कारखाने में तूती की आवाज बन गयी क्योंकि गोविलकर के कत्ल में बड़ा फायदा उसके डी. सी. पी. प्रधान को भी था जो कि जीतसिंह का तरफदार बन गया था और जिसने साबित करके दिखा दिया था कि इंस्पेक्टर गोविलकर के कत्ल के वक्त जीतसिंह तारदेव थाने के लॉकअप में बंद था क्योंकि उसे कोर्ट के आर्डर के मुताबिक थाने की रोजाना हाजिरी भरने में कोताही की थी। ऐसी दुहाई देने वाला दूसरा शख्स गोविलकर का मातहत सब-इन्स्पेक्टर गोखले था लेकिन उसकी आवाज इसलिये भी मिमियाहट में बदल गयी क्योंकि वो खुद मुजरिम साबित हुआ था और अदालत ने केकी मिस्त्री केस के कवरअप में उसकी शिरकत की वजह से उसे पांच साल की कैद की सजा सुनायी थी।
उस कवरअप में डी. सी. पी. प्रधान भी शामिल था लेकिन–खुद पुलिस कमिश्नर जुआरी को इस बात का रंज था–उसके खिलाफ कुछ साबित नहीं किया जा सका था। केवल दो शख्स थे जिनके माध्यम से ये बात साबित हो सकती थी कि उस कवरअप में डी. सी. पी. प्रधान ने भी मोटी रिश्वत खायी थी। उनमें से एक शख्स इंस्पेक्टर गोविलकर था जो कि रिश्वतखोरी में प्रधान का बिचौलिया था लेकिन उसका कत्ल हो गया था–जो कि कातिल का, जीतसिंह का, उस पर अहसान साबित हुआ था–और दूसरा शख्स दिलीप भालेकर उर्फ बडा़ बटाटा था जो कि रिश्वत की बंदरबांट में नेता लोगों का फ्रंट था लेकिन उसे उम्रकैद की सजा हुई थी और उसने डी. सी. पी. प्रधान के खिलाफ मुंह खोलना कबूल नहीं किया था क्योंकि वो जानता था कि प्रधान के फंसने या बचने से खुद उसका कोई भला नहीं होने वाला था। फिर भी कमिश्नर ने प्रधान के खिलाफ इतना एक्शन जरूर लिया था कि उसको डिस्ट्रिक्ट के नौ थानों के इंचार्ज की मलाईदार पोस्ट से फौरन हटाकर उसका तबादला एस्टेट ऑफिस में कर दिया था जहां कि उसका काम-नामुराद काम-पुलिसकर्मियों को रिहायशी क्वार्टरों की अलॉटमेंट की देखभाल करना था।
ट्रांसफर से पहले प्रधान ने जीतसिंह के अहसान का बदला यूं चुकाया था कि उसने गाइलो का वो बयान जीतसिंह के सामने नष्ट कर दिया जो कि इंस्पेक्टर गोविलकर ने गाइलो कोर्ट में मुकरने से आगबबूला होकर थर्ड डिग्री से हासिल किया था और जिसमें उसने कबूल किया था अदालत में जीतसिंह की शिनाख्त की बाबत उसने झूठ बोला था। साथ में जीतसिंह के तुलसी चैम्बर्स की लिफ्ट में हुए हादसे के मद्देनजर उसने जीतसिंह की तब तक की थाने की रोजाना हाजिरी भी रेगुलराइज कर दी थी।
उसके बाद कोर्ट में अगली पेशी तक जीतसिंह पूरी निष्ठा से थाने की हाजिरी भरता रहा।
बुधवार, अट्ठारह फरवरी को जब वो अगली पेशी पर कोर्ट में पेश हुआ तो पुलिस का वकील उसके खिलाफ कोई अतिरिक्त दलील या सबूत या गवाह पेश न कर सका। पुलिस का चश्मदीद गवाह गाइलो पुलिस के किसी काम का नहीं रहा था और जीतसिंह की कत्ल के मामले में मुखबिरी करने वाला दूसरा गवाह भंवर लाल तागड़े गुरुवार उनत्तीस जनवरी को जूहू के टूरिस्ट काटेज नम्बर नौ मे बड़ी रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में गोली खाकर मरा पड़ा पाया गया था।
नया मैजिस्ट्रेट इस तथ्य से भी प्रभावित दिखा था कि कथित मुजरिम ने कोर्ट के आदेश पर निष्ठा से अमल करते हुए थाने की नियमित हाजिरी भरी थी।
नतीजतन केस को अगली तारीख सोमवार बीस अप्रैल तक मुल्तवी करते समय मैजिस्ट्रेट ने जीतसिंह को थाने की रोजाना हाजिरी की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया जो कि अभियोजन पक्ष के लिए साफ इशारा था कि अगर वो मुजरिम के खिलाफ कोई नया चार्ज खड़ा करने में या पिछले चार्ज को किसी नये तरीके से साबित करने में नाकाम रहा तो मुजरिम का संदेहलाभ पाकर बरी हो जाना लाजमी था।
बीस अप्रैल वाली तारीख पर सरकारी वकील अदालत में पेश ही न हुआ। उसके एक सहायक ने उसकी जगह पेश हो कर कहा कि वकील साहब किसी अन्य केस में कहीं और व्यस्त थे इसलिये उस अदालत में पेश नहीं हो सकते थे। उस बात पर जीतसिंह के युवा वकील विनोद रावल ने पुरजोर लहजे में कहा कि वो केस को खामखाह लटकाने का तरीका था, हकीकतन अभियोजन पक्ष के पास कहने के लिए कुछ था ही नहीं। मैजिस्ट्रेट को उस बात से इत्तफाक था और वो पहले ही उस तारीख पर अपना फैसला सुनाने का मन बनाये बैठा था नतीजतन उसने संदेहलाभ देकर जीतसिंह को रिहा कर दिये जाने का और जमानत की रकम लौटाई जाने का हुक्म सुना दिया।
जीतसिंह ने चैन की लम्बी सांस ली।
उससे ज्यादा लम्बी सांस एडुआर्डो ने ली जो कि पिछली दोनों पेशियों पर खासतौर से वालपोई से वहां आया था और फैसला सुनाये जाने के वक्त कोर्ट में हाजिर था।
अदालत से बाहर वो जीतसिंह से गले लगकर मिला और बड़े जज्बाती लहजे से बोला–‘‘जीते, तेरे को मुबारक।’’
‘‘बोले तो’’–जीतसिंह उन्मुक्त हंसी के साथ अपनी प्रसन्नता का प्रदर्शन करता बोला–‘‘बिग डैडी को भी।’’
‘‘मेरे को काहे !’’
‘‘मेरी जमानत भरी कि नहीं भरी ! बिग डैडी वालपोई से उड़ता हुआ आकर मेरी जमानत न भरता, नकद पचास हजार रुपया जमा न कराता तो मैं तो जेल में सड़ता न !’’
‘‘बट वो अमाउन्ट तो तू मेरे को वापस किया। अपने स्पेशल फिरेंड डेविड परदेसी को एक्सप्रेस वालपोई भेजा और फिफ्टी थाउजेंट मेरे को रिटर्न किया।’’
‘‘क्योंकि चानस लगा, रोकड़ा हाथ आ गया।’’
‘‘साथ में ये भी बोला मैं चाहता तो जमानत कैंसल करा सकता था !’’
‘‘वो क्या है कि...’’
‘‘क्या है ? बोल क्या है ?’’
‘‘मैं हिला हुआ था। फरार हो सकता था। ऐसा होता तो, डैडी, तुम्हेरे को पिराब्लम !’’
‘‘बोम मारता है।’’
‘‘अभी छोड़ो न !’’
‘‘हां, छोड़ता है। आल इज वैल दैट एण्ड्स वैल।’’
‘‘बोले तो ?’’
‘‘अंत भला सो भला।’’
‘‘बरोबर बोला।’’
‘‘जीते, अभी तेरे साथ जो बीती, जिस बिग ट्रबल से तू सेफ निकला, उससे तूने कोई लैसन लिया या नहीं ?’’
‘‘लिया न !’’
‘‘अब फ्यूचर में कोई पंगा, कोई गलाटा नहीं करने का ! क्या ?’’
‘‘करके इस बार का माफिक पकड़ा नहीं जाने का। किसी इंस्पेक्टर गोविलकर जैसे आदमखोर भेड़िये के काबू में नहीं आने का।’’
‘‘जीके, तू...।’’
‘‘कुत्ते की दुम है, डैडी, किधर सीधी होयेंगा ! सुधरने, सम्भलने, इस्ट्रेट चलने का सबक लेना आदमी लोगों का बात है मैं आदमी किधर है? आदमी तो मैं साला हैइच नहीं।’’
‘‘तो क्या है ?’’
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