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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...



:३:

लोचनसिंह और कुंजरसिंह मंदिर के बाहर निकल आए। कुमुद भीतर ही बैठी रही। नरपति दरवाजे के पास खड़ा होकर मसलमान सैनिकों से बोला, 'पूजा करनी हो तो कर लो, नहीं तो हम घर जाते हैं। ज्यादा देर नहीं बैठेंगे।'
'जाइए,' उनमें से एक बोला. 'हम लोगों ने तो यहीं से दीदार कर लिया।' 'तब क्यों बैठे हो?' कुंजर ने स्पष्ट स्वर में पूछा।
उसने लापरवाही के साथ उत्तर दिया. 'चले जाएंगे, बैठे हैं, किसी का कुछ लिए तो हैं नहीं।'
कुंजर की भृकुटी टेढ़ी हो गई। 'जाओ. अभी जाओ।' आपे से बाहर होकर बोला, 'यह देवी का मंदिर है, दिल्लगी की जगह नहीं।'
नरपति ने ढले हुए कंठ से कहा, 'झगडा मत करिए. पूजन के लिए आए होंगे।'

'पूजन के लिए नहीं आए हैं, दूसरे सिपाही ने कहा, 'मन बहलाने आए हैं। अपना काम देखो, हम भी चले जाएंगे। कड़े होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि हमारी जबान
और तेग दोनों ही कड़े हैं।'
लोचनसिंह दांत पीसकर बोला, 'उस जबान और तेग दोनों के टुकड़े कर डालने की ताकत हमारे हाथ में है। सीधे-सीधे चले जाओ वरना कौए यहाँ से हड्डियाँ उठाकर ले जाएंगे।'
दोनों सिपाहियों ने अपनी-अपनी तलवारें खीच लीं। लोचनसिंह की उनसे पहले ही निकल चुकी थी।
नरपति मंदिर की ओर मुंह करके चिल्लाकर बोला, 'माई, माई! निवारण करो।' कुमुद दरवाजे के पास आ गई। कुंजर से बोली, 'राजकुमार!'
इन शब्दों में जो प्रबलता थी,जो आदेश था, उसने कुंजर को कर्तव्यारूढ़ कर दिया। तुरंत दोनों ओर की खिची तलवारों के बीच पहुँचकर बोला, 'यहाँ पर नहीं, किसी उपयुक्त स्थान पर।'
'हम सैयद की.फौज के आदमी हैं। एक बोला, 'कोई स्थान और कोई भी समय हमारे लिए उपयुक्त है।'
लोचनसिंह अप्रतिहत भाव से बोला, 'सैयद का बड़ा डर दिखाया। न मालूम कितने सैयदों को तो हम कच्चा गटक गए हैं।'
'और हमने न मालूम तुम सरीखे कितने लुक्कों को तो चुटकी से ही मसल दिया है।' उनमें से एक ने चुनौती देते हुए कहा।
लोचनसिंह उन दोनों पर लपका। कुंजर अपने प्राणों की जरा भी परवाह न करके बीच में फंस गया।
लोचन वार को रोककर खिसियाए हुए स्वर में बोला, 'कुँवर, कुँवर, बचो! लोचनसिंह की जलती हुई आग शत्रु-मित्र के अंतर को नहीं पहचानती।'

कुमुद दो कदम आगे बढ़कर एक हाथ आकाश की ओर जरा-सा उठाकर बोली, 'मत लड़ो, अपने-अपने घर जाओ। पुण्य-पर्व है, जो लड़ेगा, दुख पावेगा।'

दोनों मुसलमान सैनिकों ने अपनी तलवार नीची कर ली। कुँवर ने लोचनसिंह का हाथ पकड़ लिया। वे दोनों सिपाही एकटक कुमुद की ओर देखने लगे, अतृप्त, अचल नेत्रों से, मानो अनंत काल तक देखते रहेंगे।
कुंजरसिंह ने हाथ के इशारे से भीड़ हटाने का प्रयत्न किया।
कुमुद ने कुंजर से कहा, 'राजकुमार, इनको यहाँ से ले जाइए।' फिर मुसलमान सैनिकों से बोली, 'आप लोग यहाँ से जाएँ।'
इतने में शोरगुल सुनकर गाँव के कुछ आदमी आ गए।

मंदिर पर मुसलमानों की उपस्थिति देखकर उन लोगों ने सैनिकों पर झगड़े का संदेह ही नहीं, चुपचाप विश्वास भी कर लिया। कई कंठों से यकायक निकला, कौन हो? क्या करते हो? मंदिर की बेइज्जती करने आए हो?'
भीड़ में से एक ने खूब चिल्लाकर कहा, 'इस आदमी ने हमारे नारियल-अगरबत्ती छीन लिए और हमें मारा है।' और भीड़ इकट्ठी हुई।

कुमुद भीड़ की ओर मुड़कर चिल्लाई, जैसे कोयल ने जोर की कूक दी हो, 'जाओ अपने-अपने घर, व्यर्थ झगड़ा मत करो।'

'जाओ कमबख्तो यहाँ से।' दोनों मुसलमान सिपाहियों ने भी कहा। कुंजरसिंह ने हाथ के इशारे से भीड़ हटाने का प्रयत्न किया।
परंतु आगेवाले पीछे को न मुड़ पाए थे कि पीछे से और भीड़ आ गई। उसमें दलीपनगर के राजा के कुछ सैनिक भी थे। वास्तविक स्थिति को बिना ठीक-ठीक समझे ही पीछेवाले चिल्लाए, 'मारो-मारो।' लोचनसिंह को तलवार निकाले और कुंजरसिंह को बीच में देखकर पीछे आए सिपाहियों ने भी तलवारें निकाल लीं। इतने में लटा हुआ दुकानदार फिर चिल्लाकर बोला, 'लूट लिया भाइयो, मुझे तो लूट लिया। मेरे नारियल चुरा लिए।' लोचनसिंह ने उस ओर देखा, परंतु आरोपी को पहचान न पाया।

शब्द बढ़ता गया। कुमुद का बारीक स्वर उस भीड़ के हुल्लड़ को न चीर पाया, प्रत्युत पीछेवालों को पूरा विश्वास हो गया कि न केवल लोचनसिंह उनका सरदार, बल्कि उनका राजकुमार और धर्म भी उन दो मुसलमान सैनिकों के कारण संकट में पड़ गए हैं। कुछ ही क्षण में मुसलमान सैनिक भीड़ से घिर गए।

उनमें से एक ने चिल्लाकर कहा, 'अरे बेवकूफो, हमको यहाँ से निकल जाने दो, नहीं तो तलवार से हम अपना रास्ता साफ करते हैं।'

इस समय दो-तीन मुसलमान सिपाही और उस स्थान पर आ गए। 'क्या है? क्या है।' उन्होंने आवेश के साथ पूछा।

पहले आए हुए मुसलमान सैनिकों में से एक ने कहा, 'कुछ नहीं, यों ही हुल्लड़ है।
खून-खराबी मत करना।'
उन दो-तीन नवागंतुक मुसलमान सिपाहियों के आने पर गाँववाले जरा पीछे हटे और पीछेवाले दलीपनगर के सैनिक नंगी तलवारें लिए आगे आ गए। तुरंत 'मारो-मारो' की पुकारें मच गईं और खिंची हुई तलवारों ने अपना काम शुरू कर दिया।

लोचनसिंह ने पीछे आए हुए मुसलमान सिपाहियों में से एक को समाप्त कर दिया। पूर्वागंतुकों ने भी आरंभ कर दिए। भीड़ के कई आदमी कतर डाले और घायल कर दिए। कुंजरसिंह तलवार निकालकर कुमुद के पास जा खड़ा हुआ। वह कुंजर को वहीं छोड़कर अपने पिता के साथ धीरे-धीरे घर चली गई।

दलीपनगर के और सैनिक आ गए। युद्ध घमासान हो उठा। थोड़े से मुसलमान सैनिक दृढ़ता से लड़ते-लड़ते पीछे हटने लगे। थोड़ी दूर तक लड़ते-लड़ते मुसलमान सैनिक एक ओर भाग गए। उनका बहुत दूर तक पीछा नहीं किया गया। 


मुसलमान सैनिक की लाश वहीं पड़ी रही और इधर के जो आदमी मारे और घायल किए गए थे, उन्हें वहीं छोड़कर भीड़ तितर-बितर हो गई। मंदिर में केवल देवी की मूर्ति थी। कुंजरसिंह को वह थोड़ी ही देर पहले का शब्दमय स्थान सुनसान मालूम होने लगा। वहाँ केवल किसी आलोक की कोई छाया-मात्र दिखाई पड़ती थी, किसी मधुर स्वर की गज-भर।

मृतकों और घायलों का उचित प्रबंध करके जो कुछ हुआ था, उस पर पछतावा करता हुआ कुंजरसिंह अपने डेरे की ओर लोचन को लेकर चला गया।

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