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चीनी यात्री फाहियान का यात्रा विवरण

जगन्नमोहन वर्मा

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 71
आईएसबीएन :81-237-1932-9

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प्राचीन काल में ईसा से पूर्व ही धर्म, कला, नीति सभ्यता व संस्कृति के क्षेत्र में भारत की ख्याति विदेशों में फैल चुकी थी।

Chini Yatri Fahiyan ka Yatra Vivaran - A hindi Book by - Jaganmohan Verma चीनी यात्री फाहियान का यात्रा विवरण - जगन्नमोहन वर्मा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राचीन काल में ईसा से पूर्व ही धर्म, कला, नीति सभ्यता व संस्कृति के क्षेत्र में भारत की ख्याति विदेशों में फैल चुकी थी। यही कारण है कि भारत सदैव विदेशियों के आकर्षण का केन्द्र रहा है। चौथी शताब्दी में फाहियान नाम का एक बौद्ध भिक्षु अपने तीन अन्य भिक्षु-साथियों के साथ भारत आया। चूंकि बौद्ध धर्म भारत से ही चीन गया था अत: फाहियान का यहां आने का प्रमुख उद्देश्य बौद्ध धर्म के आधारभूत ग्रन्थ ‘त्रिपिटक’ में से एक ‘विनयपिटक’ को ढूंढ़ना था। फाहियान पहला चीनी यात्री था, जिसने अपने यात्रा-वृत्तांत को लिपिबद्ध किया। प्रस्तुत पुस्तक फाहियान के रोचक संस्मरणों के माध्यम से तत्कालीन भारतीय परिवेश को जानने का सुअवसर प्रदान करती है।

इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद जगन्मोहन वर्मा द्वारा मूल चीनी भाषा से किया गया था, जिनका पहला संस्करण सन् 1918 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित किया गया। चौथीं शताब्दी में भारतीय परिवेश का विवरण दिया गया है।

भूमिका


पिछले छह वर्षों की बात है कि एक चीनी श्रमण जिसका नाम वाङ-हुई था, काशी में संस्कृत पढ़ने आया था। श्रद्धेय श्री चंद्रमणि भिक्षु ने मेरे पास उसे संस्कृत पढ़ने के लिए भेजा। वह मेरे पास साल भर से अधिक रहा। उसे संस्कृत पढ़ाते हुए मैंने चीनी भाषा का अभ्यास करना प्रारंभ किया। पहले तो कुछ उच्चारण करके अभ्यास किया पर जब मैंने देखा कि चीनी भाषा में वर्णक्रम नहीं है, जिससे शब्दों का ठीक उच्चारण हो सके, किंतु प्रत्येक सत्व और भाव के लिए पृथक-पृथक संकेत नियत हैं, तो मैंने उच्चारण को छोड़ दिया और संकेतों का ही अभ्यास करना प्रारंभ किया। इस प्रकार थोड़े समय में जितना अभ्यास कर सका मैंने संकेतों का अभ्यास किया।

चीनी भाषा यद्यपि हमारे पूर्वजों को सुगम रही हो क्योंकि हम देखते हैं कि भारतवर्ष के अनेक बौद्धाचार्यों ने जैसे आचार्य कश्यप मातंग, धर्मरक्षक, कुमार जीव, बुद्धभद्र इत्यादि ने भारतवर्ष से चीन देश में जाकर वहां की भाषा ही का ज्ञान नहीं प्राप्त किया था, किंतु अनेक धर्म ग्रंथों का अनुवाद भी वहां की भाषा में किया था जिनका मान अब तक वहां के भिक्षुसंघ में है; तो भी वह हमारे लिए एक अद्भुत भाषा है। वहां के शब्द प्रायः सब के सब एकाच हैं, पर लिपि से उनके उच्चारण काकुछ भी न तो सम्बन्ध है ही है और न लिपि से उनके उच्चारण का ज्ञान ही हो सकता है। उनकी लिपि चैत्रिक है। प्रत्येक भाव और सत्व के लिए पृथक पृथक संकेत है। ये संकेत चित्रलिपि के विकारभूत हैं। एक ही भाव के लिए चाहे शब्द में भेद भले ही पड़े पर संकेत में भेद नहीं है।

इन कठिनाइयों पर भी मुझसे जहां तक हो सका मैंने अभ्यास किया और इच्छा थी कि यदि चीनी भाषा का कोई कोश मिल जाता तो और अभ्यास बढ़ा लेता। पर दुर्भाग्यवश कोई ऐसा कोश नहीं मिल सका।
जिस समय वाङ-हुई मेरे पास थे उस समय मैंने यह निश्चय किया था कि चीनी यात्रियों के यात्रा विवरणों का हिन्दी भाषा में अनुवाद करूं और यदि कोई प्रकाशक मिले तो उनका अनुवाद अंग्रेजी में भी करूं। पर उस समय कोई प्रकाशक न मिला और मेरा यह निश्चय मेरे मन ही में रह गया। श्रमण वाङ-हुई भी मेरे पास से चले गए।

नागरीप्रचारिणी सभा ने श्रीयुक्त मुंशी देवीप्रसाद जी मुंसिफ जोधपुर की सहायता से ऐतिहासिक ग्रंथमाला निकालने का विचार किया और फाहियान का हिंदी अनुवाद प्रकाशित करने का निश्चय किया। इसके अनुवाद करने का भार मुझे दिया गया। दैवयोग से जो प्रति मुझे मिली उसमें लेगी का अनुवाद और अंत में मूल भी था। मूल को देख मेरा पूर्व संकल्प फिर जाग्रत हो आया और मैंने मूल को विचारना प्रारंभ किया। यद्यपि मैं अंग्रेजी मैं अंग्रेजी का अनुवाद करता तो थोड़े काल में करके बोझा टाल देता पर मैंने मूल से ही अनुवाद करना उचित समझा। ऐसा करने में यद्यपि मुझे श्रम अधिक पड़ा तथापि इसमें और अंग्रेजी के अनुवाद में जो भेद है उसे वे ही पाठक अनुमान कर सकेंगे जिन्होंने अंग्रेजी के अनुवाद को वा तदाश्रित भाषानुवादों को देखा होगा।

इस अनुवाद में मैंने लेगी और बील के अंग्रेजी अनुवादों से तथा प्रो. समद्दार के बंगला अनुवाद से सहायता ली है जिसके लिए मैं उनका अनुग्रहीत हूं।
इस अनुवाद में अंग्रेजी अनुवाद से बहुत अंतर देख पड़ेगा, क्योंकि मैंने अनुवाद को चीनी भाषा के मूल के अनुसार ही जहाँ तक हो सका है करने की चेष्ठा की है। अनेक स्थलों पर विरोध का हेतु भी टिप्पणी में दे दिया है। इसमें संदेह नहीं कि यदि मैं अनुवाद उस समय करता जब श्रमण वाङ-हुई जी यहां उपस्थित थे तो इसमें मुझे बड़ी सुगमता होती और अनुवाद भी अच्छा होता। पर फिर भी मैंने अनुवाद को यथातथ्य करने में कुछ कमी नहीं की है। अनुवाद के प्रारम्भ में एक उपक्रम है जिससे पाठकों को इसका अनुमान हो जाएगा कि फाहियान किस मार्ग से भारतवर्ष आया, उसमें यूरोपीय विद्वानों का क्या मत है और मेरे मत से वह क्या ठहरता है। अंत में अनुवाद में आए हुए उपयोगी शब्दों की अकाराद्रि क्रम में एक सूची भी लगा दी है जिसमें बौद्ध धर्म संबंधी व्यक्तियों तथा अन्य शब्दों की पर्याप्त व्याख्या वा विवरण दे दिया गया है।
इतने पर भी यदि कुछ त्रुटि रह गई हो, तो पाठकों से प्रार्थना है कि वे इसकी सूचना मुझे देने की कृपा करें जिससे उसका सुधार दूसरे संस्करण  में कर दूं।


शांतिकुटी फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा
संवत् 1975

जगन्मोहन वर्म्मा

उपक्रम


ईसा के जन्म से कई शताब्दी पहले ही से चीन देश में धर्म, नीति, सभ्यता आदि की ख्याति फैल गई थी। यह ख्याति संभवतया पारसी वा यूनानी किसके द्वारा पहुंची इसका ठीक पता अब तक नहीं चला है। सू-मा-चेइन नामक लेखक ने सबसे पहले ईसा के जन्म से एक शताब्दी पूर्व अपने इतिहास में भारतवर्ष के वृत्तांतों का उल्लेख किया है। उस समय चीन देश में बौद्ध धर्म का अधिक प्रचार नहीं था। इसमें संदेह नहीं कि सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के शिक्षकों को मध्य एशिया में धर्मप्रचारार्थ भेजा था और वे लोग प्रचार करने में बहुत कुछ सफलमनोरथ भी हुए थे।

बौद्ध धर्म की उदार नीति की चर्चा चीन देश में दिनों दिन फैलती गई और ईसा के जन्म से 67 वर्ष पीछे चीन के सम्राट मिंगटो1 ने भारतवर्ष से बौद्ध शिक्षकों को बुलाने के लिए अपने दूत भेजे। दूत कश्यप मातंग और धर्मरक्षक नामक दो आचार्यों को उद्यान से अपने साथ चीन देश ले गए। इन्होंने बौद्ध धर्म के अनेक ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में कर वहां बौद्ध धर्म का प्रचार किया। बौद्ध धर्म के प्रचार से भारतवर्ष के साथ चीन देश का गुरु-शिष्य संबंध सुदृढ़ होता गया। बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ-साथ चीन में इस धर्म के अनेक भक्तों ने प्रव्रज्या ग्रहण की और चीन देश में भिक्षुसंघ का संगठन हो गया। तब से अनेक भिक्षु भारतवर्ष की ओर धर्म यात्रा के लिए आते रहे, पर पंजाब से आगे कोई नहीं बढ़ा और न किसी ने अपनी धर्म यात्रा का विविरण ही लिख छोड़ा जिससे कुछ उसकी यात्रा का पता चल सके।
ऐसे यात्रियों में जिन्होंने भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न नगरों और देशों में भ्रमण किया और जो अपना यात्रा विवरण लिखकर छोड़ गए
हों, फाहियान सबसे पहला चीनी यात्री है। फाहियान का जन्म कब
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1.    चीनी ग्रंथों में लिखा है कि सम्राट मिंगटो ने 61 सन में स्वप्न देखा कि एक तप्त कांचनवर्ण पुरुष आकाश में उसके प्रसाद के ऊपर मंडरा रहा है। मंत्रियों से इस स्वप्न का फल पूछा तो सबने कहा कि पश्चिम में गोतम नामक एक देवता है, वही आपको दर्शन देने आया था। सम्राट ने एक पंडित और कई राजकर्मचारियों को उसके चित्र और उपदेश ग्रंथों के लिए भेजा। वे लोग भारत की ओर से कश्यप मातंग और धर्मरक्षक को लेकर चीन गए। वहां इन दोनों ने बौद्ध धर्म का प्रचार किया। सबसे पहले एक चौवंशी राजकुमार ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। मिंग ने उसके लिए एक संघाराम बनवा दिया और अनेक चित्र वहां स्थापित कर दिए। यह संघाराम ‘मांटेंग चौकलान कहलाता’ है।

हुआ और कितनी अवस्था में उसने यात्रारंभ किया इसका पता ठीक नहीं चलता कोई तो उसे पूर्वीय-सीन-वंशी और कोई लुइ वंश के सुंग घराने का बतलाता है, पर यह निश्चित है कि उसका जन्म उयंग में हुआ था। उयंग ‘पिंगयांग’ प्रदेश में है और अब तक ‘शान सी’ के अंतर्गत है। उसका पहला नाम कुंग था। उसके जन्म के पूर्व उसके माता पिता की संतान जीती न थी। तीन लड़के आठ दस वर्ष की अवस्था में दूध के दांट टूटने के पहले ही मर चुके थे। उसके पिता ने ‘कुंग’ को जन्मते ही भिक्षुसंघ को, जीने के लिए चढ़ा दिया था। ‘सामनेर’ बनाकर वह प्रेमवश उसे घर ही पर रखता था। दैवयोग से ‘कुंग’ कठिन रोगग्रस्त हो गया। पिता ने घबड़ाकर उसे विहार में कर दिया। वहाँ कुंग अच्छा हो गया और जब पिता उसे घर लाने के लिए गया तो ‘कुंग’ घर न आया और विहार में ही रहने लगा।

‘कुंग’ की अवस्था दस वर्ष की थी जब उसके पिता का देहांत हो गया। अब उसकी विधावा माता रह गई। कुंग का चाचा दौड़कर उसके पास विहार में गया और उसने बहुत चाहा कि वह विहार से घर आकर रहे और अपनी दुखिया माता का अवलंबन बने, पर ‘कुंग’ घर न आया। ‘कुंग’ ने स्पष्ट कह दिया कि मैं अपने पिता की इच्छा से घर त्याग कर यहां नहीं आया हूं, वरन मैं स्वयं गृहस्थों के संसर्ग से अलग रहना चाहता हूं। यही कारण है कि मैं यहां आया; मुझे भिक्षु बनना रुचता है। बेचारे चचा को विवश उसकी बात माननी पड़ी और विशेष आग्रह न कर वह अपने घर लौट गया। थोड़े दिनों बाद उसकी माता भी मर गई। यह समाचार सुन ‘कुंग’ अपने घर आया और उसे समाधि दे फिर विहार को लौट गया।

एक समय की बात है कि ‘कुंग’ 20 सामनेरों के साथ बिहार के खेत1 में धान काटता था। इसी बीच कुछ मर-भुक्खे चोर खेत में पहुँचे और बलपूर्वक काटे हुए धान को उठा ले चले। उन्हें देख सब सामनेर भाग निकले पर कुंग खेत में डटा रहा। वह कहने लगा ‘ले जाना ही चाहते हो तो जितना हो सके उठा ले जाओ। पर भाई पहले जन्म में दान न देने का तो यह फल है कि तुम इस जन्म में दरिद्र हुए। अब इस जन्म में तुम दूसरों की चोरी करते फिरते हो, भावी जन्म में इससे क्या दुःख पाओगे, मुझे तो यही सोचकर दुख होता है।’’ यह कह कुंग खेत छोड़ अपने साथियों के साथ विहार में चला आया। उसकी बातों का चोरों पर इतना प्रभाव पड़ा कि खेत से सब के सब लौट आए और उन्होंने धान को हाथ से भी न छुआ। ‘कुंग’ के साहस को सुन विहार के सब भिक्षु उसकी प्रशंसा करने लगे।
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1.    जैसे भारतवर्ष में निहंगम साधुओं के मठ की जागीरें हैं, और वे कृषिकर्म करते हैं, वैसे ही चीन देश में भी विहारों और संघारामों में जागीरें लगी हुई हैं। विहार की ओर से खेती बाड़ी होती है।

‘‘सामनेर’’ अवस्था समाप्त कर कुंग ने ‘प्रव्रज्या’ ग्रहण की। उस समय उसका नाम फाहियान पड़ा। चीनी भाषा में ‘फ़ा’ का अर्थ ‘धर्म’, ‘विधि’ और ‘हियान’ का अर्थ ‘आचार्य’, रक्षक’ है। अतः फाहियान का अर्थ हमारी भाषा में ‘धर्मगुरु’ होता है। धार्मिक शिक्षा ग्रहण कर जब फाहियान पिटक ग्रंथों का अभ्यास करने लगा तो उसे जान पड़ा कि जो अंश इस देश में है वह अधूरा और क्रमभ्रष्ट है। उसे विनय पिटक की, जिसका विशेष संबंध श्रमणों के संघ से है, यह अवस्था देख बहुत दुःख हुआ। उसने अपने मन में दृढ़ संकल्प किया कि जिस प्रकार हो सके विनय पिटक की पूरी प्रति भारतवर्ष से लाकर मैं उसका प्रचार इस देश के भिक्षुसंघ में करूंगा। वह इसी चिंता में था कि ‘ह्वेकिंग’, ‘तावचिंग’ ‘ह्वेयिंग’ और ‘ह्वेवीई’ नामक चार और भिक्षुओं से उसकी भेंट हुई। उस समय ‘फाहियान’, ‘चांगगान’ के बिहार में रहता था। पाँचों भिक्षुओं ने मिलकर यह निश्चय किया कि हम लोग साथ साथ भारतवर्ष की ओर तीर्थ यात्रा को चलें और तीर्थों में भ्रमण करते हुए वहां के भिक्षुओं से त्रिपिटक के ग्रंथों की प्रतियां प्राप्त करें। यह सम्मति कर सन 400 में सबके सब ‘चांगगान’ से भारतवर्ष की यात्रा के लिए चले।

‘चांगगान’ से लुंग प्रदेश होकर वे कीनक्कीई प्रदेश में आए। यहां उन्होंने ‘वर्षावास’ किया। भारतवर्ष, वर्मा, स्याम, और लंका के बौद्ध भिक्षु वर्षा ऋतु में एक ही स्थान पर रहते हैं।  चीन देश में वर्षावास पांचवें वा छठे महीने की कृष्ण प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है। वहां अमांत मास का व्यवहार होता है। वर्षा का आरम्भ फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से होता है वर्षाकाल  तीन माह का होता है। जो लोग वर्षावास पंचम मास की कृष्ण प्रतिपदा से करते हैं उनके वर्षावास की समाप्ति अष्टम मास की पूर्णिमा के दिन होती है और जिनके वर्षावास का आरंभ षष्ठ मास की कृष्ण प्रतिपदा से होता है उसकी समाप्ति वे नवम मास की पूर्णिमा को करते हैं। वर्षावास की विधि और कर्तव्य का विवरण आईसिंग के प्रथम अध्याय में दिया है।

         ‘कीनक्कीई‘ से यात्री लोग साथ साथ ‘लियंग’ होते हुए ‘यागलो’ पर्वत पार कर ‘चांगयी;’ पहुंचे। चांगयी चीन की प्रसिद्ध दीवार के पास लांगचावा के कुछ उत्तर-पश्चिम की ओर है। उस समय यह नाका था। चीन देश का माल यहीं  से हो कर बाहर जाता था। और पश्चिम का माल यहीं से होकर भीतर आता था। उस समय वहां अशान्ति फैली हुई थी। देश में होकर जाना कठिन था। निदान यात्रियों को वहां कुछकाल के लिए ठहर जाना पड़ा। ‘चांगयी:’ के अधिपति ने यात्रियों कि बहुत आवभगत की। यहीं पर उन्हें ‘चेयेन’, ह्वेकीन, पावयुन, सांगशाओ’ और ‘सांगकिंग’ नामक पाँच और यात्री मिले। ये लोग भी भारतवर्ष की ओर से तीर्थयात्रा के लिए जा रहे थे। वे भी रोक लिए गए। सबके सब वहां लगभग वर्ष भर ठहरे रहे और विप्लव के कारण आगे न बढ़ सके। यहीं पर सबको वर्षावास पड़ा और मिल जुल कर यहीं पर सबों ने वर्षा बिताई। जब देश में शान्ति स्थापित हो गई तो वहां से वे साथ साथ ‘तुनह्वांग’ नगर में गए। ‘तुनह्वांग’ नगर चीनी दीवार के बाहर पश्चिम दिशा में पड़ता है। यहां कुछ दिन ठहरकर ‘पावयुन’ आदि को वहीं छोड़ फाहियान आदि जो पहले वहां पहुंचे थे गोबी मरुस्थल में चल पड़े। वहां के हाकिम व शासक ने बड़ी कृपा कर उनकी यात्रा के लिए आवश्यक प्रबन्ध कर दिया। गोबी मरुस्थल में सत्रह दिन चलकर बड़ी कठिनाई से इन्होंने उसे पार किया। वे लगभग 1500 ली चले होंगे। फिर यात्री
‘शेनशेन’ जनपद में पहुंचे।

शेनशेन जनपद कहां था इसका ठीक ठीक पता अब तक नहीं चला है। ‘फाहियान’ ने इस देश के विषय में केवल इतना ही लिखा है कि ‘‘यह पहाड़ी प्रदेश है। भूमि यहां कि पथरीली और बंजर है। साधारण आदिवासी मोटे वस्त्र पहनते हैं। राजा का धर्म हमारा ही है।’’ यूरोपीय विद्वानों का मत है कि इस देश की राजधानी लोब व लोपनोर झील के किनारे थी। फाहियान आदि यहाँ एक मास के लगभग रहे और 15 दिन उत्तर पश्चिम चलकर ऊए देश में पहुँचे। ऊए में उस समय चार हजार से अधिक हीनयान के भिक्षु रहते थे। उनके आचार विचार कठिन थे। वहां कई विहार भी थे। ऊए का स्थान अब तक निश्चित नहीं हुआ है। वाटर साहेब का मत है कि ‘‘हम इसे ‘खरशर’ के पास मानें अथवा ‘खरशर’ और ‘कुश्चा के मध्य मानें तो अयुक्त नहीं होगा। पर फाहियान ने उनतालिसवें पर्व में ‘खरशर’ के लिए जो संकेताक्षर प्रयुक्त किए हैं वे ‘ऊए’ से बिलकुल ही नहीं मिलते। अतः ऊए को ‘खरशर मानना तो किसी दशा में ठीक नहीं प्रतीत होता है।

 यह संभव है कि ‘शेनशेन’ और ‘ऊए’ जनपद अब गोबी की मरुभूमि में बालू के नीचे दब गए हों। इन्हीं जनपदों के नगरों और विहारों के कुछ खंडहरों का पता रूसी और अन्य यूरोपीय यात्रियों को मरुभूमि में मिला है जहां की खुदाई से अनेक खरोष्टी ब्राह्मी आदि लिपियों में लिखी हुई अनेक प्राचीन पुस्तकों की प्रतियां उपलब्ध हुई हैं। पर जब फाहियान ने यह लिखा है कि हम ऊए से दक्षिण पश्चिम चलकर खुतन में आए तो उए खुतन से उत्तर-पूर्व रहा होगा। ऊए वालों के अशिष्टाचार के विषय में फाहियान ने लिखा है कि, ‘‘ऊए के आदिवासियों ने सुजनता और उदारता त्यागकर विदेशियों के साथ क्षुद्रता का व्यवहार किया।’’ इसे जब ‘सांगइयान’ और हुईसांग’ के तुर्किस्तान के वर्णन से जिसे उन्होंने इन शब्दों में किया है कि ‘इस देश के अधिवासियों के आचार-व्यवहार असभ्योचित हैं’’ मिलाया जाए तो यह कहना पड़ता है कि ‘ऊए’ कहीं तुर्किस्तान के किनारे तो नहीं था।

फाहियान आदि ‘ऊए’ के ‘उद्देशिक’ कुंगसन के यहां ठहरे। उसने उनका बड़ा सत्कार किया। वहां वे दो ढाई महीना रहे। ‘पावयुन’ आदि जिनका साथ तुनह्वांग नगर में छूट गया था यहां आ गए, इस पर देश के अधिवासियों के अशिष्टाचार और कुव्यवहार से दुखी हो ‘चेयेन’, ‘ह्वेकीन’ और ‘ह्वेवीई’ तो ‘कावचांग’ लौट गए और शेष फाहियान आदि ‘फूकुगंसन’ की कृपा से दक्षिण-पश्चिमी की ओर चले। आगे के देश उन्हें निर्जन मिले और राह ने अनेक नदियों को उतरना पड़ा, भाँति भाँति के कष्ट उठाने पड़े। फाहियान ने लिखा है कि ‘ऐसे दुख किसी ने (कभी) न उठाए होंगे।’’ सब कठिनाइयों को झेलते झेलते 5 महीने में चलकर सब यात्री खुतन में पहुंच गए।

‘खुतन’ नगर ‘खुतन’ नामक नदी के किनारे है। वहां बौद्ध धर्म का उस समय अच्छा प्रचार था। अनेक विहार और संघाराम भी थे, अधिवासी बड़े धर्मभीरु थे, घर घर स्तूप थे, श्रमणों का बड़ा आदर था। फाहियान आदि वहां ‘गोमती’ नामक एक प्रसिद्ध विहार में ठहरे। ‘ह्वेकिंग’, ‘तावचिंग’,‘ह्विता’ तो वहां से फाहियान आदि का साथ छोड़ कीचा (कैकय) देश की ओर चले गए। फाहियान आदि वहां भगवान की रथयात्रा देखने के लिए तीन महीने तक ठहर गए। रथयात्रा चतुर्थमास की पहली तिथि से प्रारम्भ हुई और चौदहवीं को समाप्त हुई।1 रथयात्रा देख कर ‘सांगशाओ’ तो एक तातार के साथ ‘कुफेन’ देश को, जिसे अब काबुल कहते हैं, चला गया और फाहियान आदि 25 दिन चलकर ‘जीहो’ में आए। यात्रा में यह नहीं लिखा है कि खुतन से किस ओर चले, केवल इतना लिखा है कि ‘फाहियान’ आदि जीहो की ओर चले। मार्ग में 25 दिन चलकर उस जनपद में पहुंचे। इस जनपद का पता अब तक हमारे यूरोपीय विद्वानों को नहीं लगा है, कोई इसे ‘यारकंद’ और कोई इसे ‘माशकुर्गल’ बताते हैं। यहाँ का पता जो कुछ यात्रा विवरण से चल सकता है वह यह है कि फाहियान आदि यहां 15 दिन रहे, फिर जीहो से दक्षिण चार दिन चले, सुंगलिंग पर्वत पार कर ‘यूव्हे’ जनपद में पहुँचे। ‘यूव्हे’ का भी पता हमारे सुज्ञ विद्वानों को अब तक नहीं चला है। केवल वाटर साहब बहादुर ने इतनी अटकल लगाई है कि यह वर्तमान ‘अकताश’ होगा। सुंगलिंग पर्वत के विषय में इतना भी नहीं लिखा गया है कि इसका कुछ पता चला है या नहीं ! लेगी साहब ने इतना और कर दिखाया है कि सुंगलिंग शब्द का अनुवाद पर्व के आदि में Onion mountains मोटे भव्य अक्षरों में छपा दिया है। अब विचारना यह है कि ये दोनों जनपद ‘जीहो’ और ‘ यूव्हे’ कौन हैं और कहां हैं ? क्या आज कल हम उनको निर्दिष्ट कर सकते हैं वा नहीं ? पहले हमको यह देखना चाहिए
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1.    संभवतया फाहियान ने इस वर्ष अपना वर्षावास छठे महीने में प्रारंभ किया था। चौथे मास का शुक्ल पक्ष तो रथयात्रा में ही विगत हो गया था। यदि पंचम मास की कृष्ण प्रतिपदा से वर्षावास प्रारंभ करता तो केवल एक ही मास रह गया था। इस बीच में फाहियान आदि को खुतन से जीहो पहुंचने में 25 दिन लगे। जीहो में 15 दिन तक ठहरे और 4 दिन दक्षिण चलकर सुंगलिंग पर्वत मिला और उसे पार कर यूव्हे जनपद गए। इसमें फाहियान को 25+15+4=44 दिन लगे। अब यदि पंचम मास के मध्य कृष्ण प्रतिपदा से वर्षावास आरंभ करना चाहता तो उसे जीहो में वर्षावास पड़ता सो भी यदि वह ठीक चतुर्थ मास की कृष्ण प्रतिपदा को खुतन से रवाना होता पर इसमें संदेह नहीं कि वहां चौथे मास के द्वितीय पक्ष के भी अधिक दिन बीत गए थे और पंचम मास का मध्यकाल मार्ग में ही गत हो गया। निदान आपत्ति धर्म के अनुसार उसने अपना वर्षावास षष्ठ मास के मध्य से यूव्हे में आरंभ किया।

कि यात्रा विवरण से इन दोनों जनपदों का किस स्थान में होना संभव है। खुतन से यात्री लोग किधर चले फाहियान के यात्रा विवरण से कुछ पता भी नहीं चलता। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जीहो और खुतन के बीच के मार्ग को यात्रिय़ों ने 25 दिन चलकर पार किया। यद्यपि इसका कुछ उल्लेख नहीं पर इतना अनुमान किया जा सकता है कि मार्ग सुखकर था। यह अनुमान ठीक भी है। अन्यथा कष्टकर मार्ग होता वा मार्ग में पर्वत और नदियां अधिक पड़तीं तो इसका अवश्य कुछ उल्लेख होता। ‘जीहो’ और ‘यूव्हे जनपद’ संगलिंग दक्षिण ओर पर्वत के मूल में पड़ता था। यूव्हे पर्वत के दक्षिण और जीहो के उत्तर में थे। इतनी बात और भी ध्यान में रखने योग्य है कि फाहियान ने जनपदों का नाम जहां ठीक पता और नाम नहीं मालूम हो सका है प्रायः उन नदियों के नाम पर ही लिखा है जो उन जनपद में थीं। खुतन, कुफेन आदि इसके अनेक स्पष्ट उदाहरण हैं।

फिर यह कहना आयुक्त न होगा कि ‘जीहो’ और ‘यूव्हे’ अवश्य ऐसी नदियां थीं जो उन जनपदों से होकर प्रवाहित थीं। सुंगलिंग पर्वत का ठीक ठीक पता आज तक नहीं लगा है और न कोई पर्वत मध्य एशिया का इस नाम से निर्दिष्ट होता है। इस पर्वत के नाम का जो अनुवाद लेगी साहब ने प्याज (Onion) किया है वह भी ध्यान देने योग्य है। पर्वत का नाम यात्रियों ने सुंगलिंग व प्याज अवश्य किसी कारणवश ही रखा है और अधिक संभव है कि उसकी आकृति और वर्ण पर ही ध्यान देकर उन्होंने ऐसा नाम रखा होगा। सुंगलिंग पर्वत का उल्लेख इस पुस्तक में कई स्थान पर हैं। उनके देखने से यह प्रतीत होता है कि हिमालय, हिंदुकुश, कारकोरम और पामीर के लिए यह पद लाया गया है। ये पर्वत हिमाच्छन्न रहते हैं और ऊपर से देखने से प्याज से देख पड़ते हैं। अब यदि मध्य एशिया के नक्शे पर ध्यान देकर इस पहेली को विचार करें कि वह कौन दो नदियां हैं जिनके बीच की भूमि प्याज के आकार की सफेद उभरी हुई हो अथवा जिनके मध्य कोई ऐसा पर्वत हो जो प्याज से समान उभरा हुआ अधिक ऊंचा नीचा न हो और दोनों नदियों के बीच अंतर भी इतना कम हो कि यात्री उसे पार कर झट उत्तर से दक्षिण पहुंच जाए, तो यह झट विचार में आता है कि दोनों नदियां ‘दरिया’ और ‘आक्षस’ हैं और उनके बीच की वह प्याज सी उभरी हुई भूमि पामीर1 है जिसे यात्रियों ने अपनी यात्रा में हिमालय का विस्तार समझकर सुंगलिंग लिखा है।

यह पामीर हिमालय की पश्चिमी नोक है। इसीलिये 6 पर्व में हिमालय को भी सुंगलिंग ही लिखा है। हिमालय का प्रसार जरफंसा तक माना जाता है और ऊंची भूमि जो थियनशान और कारकोरम के मध्य सीहून और जीहून के बीच में है हिमालय का ही विस्तार थी। पुराणों में थियनशान को मेरु लिखा है। चीनी भाषा में थियन स्वर्ग को कहते हैं।
 

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