कला-संगीत >> भारतीय कला भारतीय कलाउदय नारायण राय
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प्रस्तुत ग्रन्थ में अद्यतन पुरातात्त्विक अन्वेषणों एवं निष्कर्षों के साथ-साथ कला के आधारगत शास्त्रों के आलोक में प्राचीन भारतीय कला का समग्र अध्ययन प्रस्तुत किया गया है....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कला संस्कृति की वाहिका है। भारतीय संस्कृति के विविध आयामों में व्याप्त
मानवीय एवं रसात्मक तत्व उसके कला-रूपों में प्रकट हुए हैं। कला का प्राण
है रसात्मकता। रस अथवा आनन्द अथवा आस्वाद्य हमें स्थूल से चेतन सत्ता तक
एकरूप कर देता है। मानवीय संबन्धों और स्थितियों की विविध भावलीलाओं और
उसके माध्यम से चेतना को कला उजागार करती है। अस्तु चेतना का मूल
‘रस’ है। वही आस्वाद्य एवं आनन्द है, जिसे कला उद्घाटित करती
है। भारतीय कला जहाँ एक ओर वैज्ञानिक और तकनीकी आधार रखती है, वहीं दूसरी
ओर भाव एवं रस को सदैव प्राणतत्वण बनाकर रखती है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में अद्यतन पुरातात्तिक अन्वेषणों एवं निष्कर्षों के साथ-साथ कला के आधारगत शास्त्रों के आलोक में प्राचीन भारतीय कला का समग्र अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। हड़प्पा कला से लेकर पूर्वमछ्य काल तक की समस्त कला शैलियों का क्रमागत विकास एवं उनमें निहित प्रतीकों, भाषाओं एवं विलक्षणताओं की गहन समीक्षात्मक व्याख्या प्रस्तुत की गई हैं। अब तक प्राचीन भारतीय कला का सरल हिन्दी भाषा के माध्यम से समग्र एवं मानक अध्ययन नहीं हो सका था। यह ग्रन्थ सुधी पाठकों, शोधार्थियों एंव कला के विद्यार्थियों के लिए अधुनातम सूचनाओं एवं समीक्षाओं से पूरित होने के कारण बहुत उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसा विश्वास है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में अद्यतन पुरातात्तिक अन्वेषणों एवं निष्कर्षों के साथ-साथ कला के आधारगत शास्त्रों के आलोक में प्राचीन भारतीय कला का समग्र अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। हड़प्पा कला से लेकर पूर्वमछ्य काल तक की समस्त कला शैलियों का क्रमागत विकास एवं उनमें निहित प्रतीकों, भाषाओं एवं विलक्षणताओं की गहन समीक्षात्मक व्याख्या प्रस्तुत की गई हैं। अब तक प्राचीन भारतीय कला का सरल हिन्दी भाषा के माध्यम से समग्र एवं मानक अध्ययन नहीं हो सका था। यह ग्रन्थ सुधी पाठकों, शोधार्थियों एंव कला के विद्यार्थियों के लिए अधुनातम सूचनाओं एवं समीक्षाओं से पूरित होने के कारण बहुत उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसा विश्वास है।
अध्याय-1
हड़प्पा संस्कृतिकालीन कला
स्थापत्य कला का प्राथमिक उन्मेष ताम्राश्म काल
भारतीय इतिहास में सैन्धव सभ्यता काल युगान्तर का प्रवर्तक था। यह
ताम्रयुगीन सभ्यता हमारे देश की प्रथम नागरिक सभ्यता का प्रतिनिधित्व करती
थी, जो पाश्चात्य मनीषियों के भी अनुसार, कलात्मक विकास, अभियान्त्रिकी
एवं अर्थ संघटन की दृष्टि से मेसोपोटामिया एवं मिस्र-सदृश देशों की
तत्कालीन उन्नत सभ्यताओं की तुलना में कहीं अधिक बढ़-चढ़कर थी। इसकी
प्राचीनता पर प्रकाश डालते हुए पुरातत्त्व-सुविज्ञ सर जॉन मार्शल ने इसकी
तिथि 3250 ईसा पू्र्व से लेकर 2750 ईसा पूर्व के बीच निर्दिष्ट की थी।
परन्तु कालान्तर के वैज्ञानिक उत्खननों के आधार पर प्रमाणित किया गया कि
इस लोकविश्रुत सभ्यता की सम्भावित काल-सीमा 2500 ईसा पूर्व एवं 1500 ईसा
पूर्व के मध्य निधार्रित करना ज्ञान तथ्यों के आलोक में कही अधिक समीचीन
होगा। सिन्धु-उपत्यका में सुशोभित ताम्रयुगीन नगरों की तिथि-संबंधी यह
अवधारणा अब क्रमशः सर्वमान्य सिद्ध हो रही है। इसके मूलभूत तत्व प्रमाणित
करते हैं कि आज से लगभग साढ़े चार हजार साल पहले भारतीय शिल्पियों एवं
अभियन्ताओं द्वारा प्रदर्शित श्लाघनीय ज्ञानवर्द्धक है।
सिन्धु-उपत्यका में नगर-सन्निवेश
इस सभ्यता के विकास में सिन्धु एवं उसकी सहायता नदियों का विलक्षण योगदान
था। इनकी उपात्यकाओं में अवस्थित हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो-सदृश भव्य नगर
ताम्रयुग के आदर्श ऐतिहासिक केन्द्र थे। हड़प्पा नामक पुर पश्चिमी पंजाब
(सम्प्रति पाकिस्तान) के मांटेगोमरी जिले में रावी नदी के तट पर स्थित था,
जिसके स्थान पर आज वहाँ एक विशाल ग्राम बसा हुआ है। इसके भग्नावशेषों में
प्राप्य प्राचीन ईटें स्थानीय नागरिकों द्वारा गृह-निर्माण के अभिप्राय से
बहुशः स्थानान्तरित की गयी थीं। लाहौर-मुल्तान रेलवे के निर्माण-कार्य में
भी वहाँ की ईंटों को उपयोग में लाया गया था। इसका समकालीन एवं समकक्ष नगर
मोहनजोदड़ों, सिन्ध के लाड़खान जिले में सिन्धु नदी के तट पर बसा हुआ था।
भारतवर्ष के ये दोनों ही आदिपुर वास्तुकला के समान आदर्शों एवं
सिद्धान्तों के आधार पर निर्मित थे। इससे प्रमाणित होता है कि उस युग में भारतीय नगर-मापन की निश्चित विधि से अवगत हो चुके थे। यह
विशेषता विचारणीय हो जाती है, क्योंकि विश्व के कई देश अभी ग्राम-स्तर से
ऊपर नहीं उठ पाये थे।
सामान्य विशेषताएँ- इन दोनों ही स्थानों पर बसे हुए पुर अपने युग के महानगर थे, जिनके निर्माण की कला में कतिपय मूलभूत विशेषताएँ स्पष्ट रूप में द्रष्टव्य थीं। दोनों ही लगभग तीन मील के घेरे में बसे हुए थे। इनमें से प्रत्येक के दो भाग थे-एक तो दुर्ग भाग, जो नगर का पश्चिमी हिस्सा था तथा दूसरा अवम नगर (लोवर सिटी)। पुर-निर्माण की यह ऊर्ध्वाधर योजना (उच्चस्थ एवं अवरस्य) निर्माण पद्धति थी, जो भारतीय अभियन्ताओं की मौलिक देन थी। दुर्ग-भाग महापुर की विशिष्ट भाग था, जिससे राजसत्ता एवं अभिकारीमण्डल के आवास तथा विशिष्ट भवन विद्यमान थे। इसका निर्माण धरातल से 4० फीट ऊँचे एक चबूतरे पर किया गया था। इसके चुतुर्दिक् सुरक्षा-भित्ति, प्रहरी-कक्ष एवं अट्टालक (बुर्ज) निर्मित थे। दुर्ग-सत्रिवेश की क्रिया में शिल्पियों ने सतर्कता एवं कुशलता प्रदर्शित की थी। दुर्ग का आकार समान्तर चतुर्भुज होने के कारण भव्य लगता था। अवरस्थ नगर में उस सामान्य जनता निवास करती थी। अतएव पुर का यह भाग प्राकार-युक्त नहीं था तथा इसके निर्माण में उस कोटि का शिल्प एवं उत्कृष्टता अप्राप्य है। दोनों ही स्थानों के दुर्ग उत्तर से दक्षिण की ओर 400 गज से लेकर 500 गज तथा पूर्व से पश्चिम प्रमाण हैं कि सम्यता के उस आदिम युग मे भारतीय अभियन्ताओं ने नगर-निर्माण की एक सुव्यवस्थित योजना का आविष्कार कर लिया था।
सामान्य विशेषताएँ- इन दोनों ही स्थानों पर बसे हुए पुर अपने युग के महानगर थे, जिनके निर्माण की कला में कतिपय मूलभूत विशेषताएँ स्पष्ट रूप में द्रष्टव्य थीं। दोनों ही लगभग तीन मील के घेरे में बसे हुए थे। इनमें से प्रत्येक के दो भाग थे-एक तो दुर्ग भाग, जो नगर का पश्चिमी हिस्सा था तथा दूसरा अवम नगर (लोवर सिटी)। पुर-निर्माण की यह ऊर्ध्वाधर योजना (उच्चस्थ एवं अवरस्य) निर्माण पद्धति थी, जो भारतीय अभियन्ताओं की मौलिक देन थी। दुर्ग-भाग महापुर की विशिष्ट भाग था, जिससे राजसत्ता एवं अभिकारीमण्डल के आवास तथा विशिष्ट भवन विद्यमान थे। इसका निर्माण धरातल से 4० फीट ऊँचे एक चबूतरे पर किया गया था। इसके चुतुर्दिक् सुरक्षा-भित्ति, प्रहरी-कक्ष एवं अट्टालक (बुर्ज) निर्मित थे। दुर्ग-सत्रिवेश की क्रिया में शिल्पियों ने सतर्कता एवं कुशलता प्रदर्शित की थी। दुर्ग का आकार समान्तर चतुर्भुज होने के कारण भव्य लगता था। अवरस्थ नगर में उस सामान्य जनता निवास करती थी। अतएव पुर का यह भाग प्राकार-युक्त नहीं था तथा इसके निर्माण में उस कोटि का शिल्प एवं उत्कृष्टता अप्राप्य है। दोनों ही स्थानों के दुर्ग उत्तर से दक्षिण की ओर 400 गज से लेकर 500 गज तथा पूर्व से पश्चिम प्रमाण हैं कि सम्यता के उस आदिम युग मे भारतीय अभियन्ताओं ने नगर-निर्माण की एक सुव्यवस्थित योजना का आविष्कार कर लिया था।
हड़प्पा
सत्रिवेश का स्वरुप कतिपय विद्वानों (रमेशचन्द्र मजूमदार, वासुदेवशरण
अग्रवाल एवं मार्टिमर हीलर) ने हड़प्पा का समीकरण ऋग्वेद में उल्लिखित
‘हरियूपीया’ (6,17, 5) से किया है, जहाँ पर वृचीवन्त,
अभ्यवर्ती चायमान द्वारा परास्त किये गये थे। वृचीवन्त जाति का उल्लेख
मात्र यहीं पर यही हुआ है। इस ग्रन्थ में यदि कहीं अन्यत्र भी इसका
सन्दर्भ आता, तो वर्णनों के आधार पर इसकी पहचान की समस्या यथार्थ रूप में
सुलझायी जा सकती थी। ह्वीलर का अनुमान है कि वृचीवन्त का तात्पर्य वरशिख
से हो सकता है, जो इन्द्र का शत्रु था। इन्द्र आर्यों के एक प्रमुख देवता
थे। अतएव हड़प्पा (हरियूपीया) एक ऐसे स्थान का प्रतिनिधित्व करता है, जहाँ
आर्य जाति ने अनार्य जाति को परास्त किया था। इधर विद्वानों का विश्वास
बढ़ता जा रहा है कि आर्यों ने ही हड़प्पा के दुर्ग का संहार किया था। इधर
विद्धानों का विश्वास बढ़ता जा रहा है कि आर्यों ने ही हड़प्पा के दुर्ग
का संहार किया था। उक्त समीकरण के संबंध में अभी कुछ निश्चात्मक निर्णय
देना दुष्कर है। इस विषय पर अन्तिम निर्कर्ष निकालने के पूर्व गहराई के
साथ छानबीन की आवश्यकता है; क्योंकि हड़प्पा, हरियूपीया का अपभ्रंश हो
सकता है, यह कुछ विश्वसनीय नहीं लगता तथा दोनों के तादात्म्य के संबंध में
स्पष्ट प्रमाणों का शोचनीय अभाव है।’
हम इस बात की ओर पहले ही ध्यान आकृष्ट कर चुके है कि हजड़प्पा का नगर दो भोगों में विभक्त था-(1)ऊद्वर्व नगर एवं (2) निम्न नगर (अधःस्थपुर)। इस प्रकार यह उर्ध्वाधर’-योजना के अन्तर्गत आता था। दुर्ग-भाग पुर का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं आकर्षक अंग था। इसे हम अपने देश के एक प्राचीनतम किले के रूप में ग्रहण कर सकते है, जिसमें दुर्गे-सत्रिवेश की मूलभूत विशेषताएँ बीज रूप में वर्तमान थीं। इसके स्थान पर अब एक उच्च टीला वर्तमान है, जिसे पुराविदों ने ‘माउण्ड ए-बी’ की संज्ञा प्रदान की है। यह आकार में समान्तर चतुर्भज के तुल्य था, जो उत्तर से दक्षिण की ओर 460 गज एवं पूर्व से पश्चिम की ओर 215 गज था। हड़प्पा के दुर्ग का स्वरुप भारतीय वास्तुशास्त्र के इतिहास मे महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। समान्तर चतुर्भुज-सदृश आकृति शुभ एवं श्रेयस्कर मानी जाती थी। यही कारण है कि ऐतिहासिक काल के नगरों का आकार बहुधा इसी रूप में निर्धारित होता था। उदाहरणार्थ मेगस्थनीज के अनुसार लोक-विश्रुत एवं भव्य पाटलिपुत्र नगर समान्य चतुर्भूज के तुल्य था।
यह दुर्ग एक चबूतरे पर बना हुआ था, जो धरातल से 20 फीट से 25 फौट तक ऊंचा तथा अंशतः मिट्टी एवं कच्ची ईटों द्वारा सुदृढ़ निर्मित था। इसके भीतर राजकीय भवन, कर्मचारियों के आवास तथा श्रमिकों के गृह बने हुए थे। चौड़े राजमार्ग सुव्यवस्थित योजना के अनुसार निर्मित थे तथा देखने में भव्य थे। सुरक्षा की दृष्टि से यह दुर्ग मिट्टी की एक दीवाल (प्राचीन) द्वारा चतुर्विद परिवेष्टित था, जो अपने आधार पर 45 फीट चौड़ा था। इस प्रकार की सुरक्षा-भित्ति (प्रकार) के निर्माण की परम्परा हमारे देश में चिरकाल तक वर्तमान थी। इस कोटि के ‘प्राकार’ को प्राचीन भारतीय को प्राचीन भारतीय साहित्य में पांसुप्राकार’ अथवा ‘मृददुर्ग’ कहा गया है, जिसकों कालान्तर में (मध्य-काल में) धूल-कोट कहने लगे थे। हड़प्पा का प्राकार, मृदुदुर्ग का प्रचीनातम भारतीय उदाहरण था। इस सुरक्षा-भित्ति में द्वार एवं बुर्ज बने हुए थे। यहाँ विचारणीय है कि इस परम्परा के आधार पर युग-युगान्तर में भारत के प्रत्येक भाग में नगर प्राकार द्वारा (गोपुर) एवं बुर्ज (अट्टालक) से युक्त हुआ करते थे। महाभारत एवं रामायण में हस्तिनापुर, इन्द्रप्रस्थ, मथुरा एवं अयोध्या तथ्य इस बात का प्रमाण है कि हड़प्पा के दुर्ग की निर्माण-विधि ने सुनिश्चित वास्तुशैली का रूप धारण किया था, जिसके आदर्श ने गंगा-घाटी तथा यहाँ तक कि दक्षिणापथ के नगरों के नगरों की भी रूपरेखा को निर्धारित किया था।
अग्रतर सुरक्षा की दृष्टि से हडप्पा का दुर्ग चतुर्दिक एक खाई (परिखा) के द्वारा भी परिवष्ठित किया गया था। हड़प्पाकालीन यह पद्धति ऐतिहासिक काल में अभियन्ताओं द्वारा आदर्श रूप में ग्रहण कर ली गयी थी। महाभारत रामायण, हरिवंश, कौटिल्य-प्रणीत अर्थशास्त्र शुक्रनीति, समरांगणसूत्रधार एवं युक्ति-कल्पतरु में दुर्ग-सत्रिवेश के प्रंसग में गहरी एवं चौड़ी परिखाओं के मनोरम एवं आह्यादित वर्णन उपलब्ध होते है। उक्त दृष्टान्तों में प्रमाणित है कि भारतीय वास्तुशास्त्र के इतिहास में हड़प्पा की दुर्ग-निर्माण पद्घति का स्थान विशिष्ट एवं प्रभावोत्पादक है।
दुर्ग के ठीक उत्तर की दिशा में लगभग 3000 गज के पेटे में त्रिविध निर्माण किया गया था। इस क्षत्रेफल में 3० फीट ऊँचा एक टीला वर्तमान है, जिसे ‘माउण्ड एफ’ की संज्ञा प्रदान की गयी थी। इसके उत्खनन की क्रिया में तोनों ही कोटि के निर्माण प्रकाश में लाये गये। प्रथम वर्ग के निर्माण-कार्य के पुरातत्वीय प्रमाण सबसे पहले दुर्ग के समीप ही उत्तर-दिशा में प्राप्य हैं। इस कोटि में (श्रमिकों के घर आते थे, जो दो पंक्तियों में निर्मित थे। उत्तर की पंक्ति में सात एवं दक्षिण की पक्ति में आट गृहों के वर्तमान होने के दृष्टन्त प्रात्य हुए है। ये श्रमिक-आवाज राजकीय योजना के अनुसार निर्मित थे। ये आयताकार (54फीट x 24 फीट) हैं तथा इनके निर्माम की पद्धति ठीक एक जैसी है। साधारण चारहदीवारी द्वारा ये घिरे भी थे। प्रत्येक दो घर तीन से लेकर चार फीट गली (वीथिका) द्वारा परस्पर विभक्त थे। इनमें तीन कमरे (कोष्ठी) एवं एक छोटा आँगन प्राप्य था। घर के भीतर की फर्श पर पकी ईटों की ठोस चुनाई की गयी थी।
इन श्रमिक-गृहों के समीप ही 16 भट्ठियों के वर्तमान होने के कारण उपलब्ध हुए हैं। इनमें अनुमानतः कोयले एवं गोबर के द्वारा ईधन (समिधा) का कार्य लिया जाता था। अग्नि को प्रज्वलित करने के निमित्त सम्भवतः धौंकनी प्रयोग में लायी जाती थी। इन भट्ठियों में काँसे को गलाने का काम लेते रहे होंगे।
इनकी समीपस्थता इस बात का प्रमाण है कि उक्त आवास श्रमिक-गृह ही रहे होंगे। इन ग्रहों की शिल्पविधि की एकरूपता तथा दुर्ग के साथ उनका सात्रिध्य सूचित करता है कि वे राज्य की ओर से ही निर्मित थे। बहुत संभव है कि उनके निवासी श्रमिक, सरकार के द्वारा ही नियुक्त किये गये की ओर से ही निर्मित थे। बहुत संभव है कि उनके निवासी श्रमिक सरकार के द्वारा ही नियुक्त किये गये हों। अतएव राजकीय निर्माणों में उनके सेवाओं का लाभ उठाया जाता होगा। एक सम्भावना यह भी हो सकती है कि वेतन अथवा दैनिक पारिश्रमिक प्रदान करने के अतिरिक्त राज्य उनसे बेगार भी लेता रहा हो।
यहाँ उल्लेखनीय है कि इस प्रकार की परम्परा दजलाफरात घाटी एवं नीलउपत्यका के नगरों में भी प्रचलित थी। श्रमिकों के आवास मुख्य नगर के बाहर कहीं एकान्तिक स्थान पर पृथक् रूप में बने होते थे। उदाहरणार्थ तेल-एल-अमर्ना (चौदहवीं शताब्दी ईसा पूर्व) में समाधि-निर्माताओं के घर प्रघान नगर से लगभग एक मील की दूरी पर बने थे। देर-एल-मदीनह (सोलहवीं शती ईसा पूर्व) में मिस्त्र-सम्राटों की समाधियों- निर्माता शिल्पियों के गृह सबसे अलग बने हुए थे। गिजहे में पिराडमिड बनानेवाले स्थापत्यकार रहते थे। इन श्रमिकों एवं शिल्पियों के राज्य विष्टि (बेगार) ले सकता था। यह प्रथा- साम्य सैन्धव सभ्यता तथा मित्र एवं मोसोपोटामिया की समकालीन सभ्यताओं के पारस्परिक सम्पर्क को अभिव्यंजति करता है।
हड़प्पा मे उक्त श्रमिक-आवाजों के ठीक उत्तर में द्वितीय कोटि के निर्माण किये गये थे, जिसमें गोल चबुतरों के प्रमाण उत्खथनन-क्रिया में उपलब्ध हुए थे। इनका व्यास दस से ग्यारह फीट के लगभग था। ये श्रमिक-चबूतरे एक केन्द्रीय, चार अथवा कभी पाँच वृत्त के रूप मे थे तथा ठोस ईटों द्वारा सुदृढ़ निर्मित थे। इनके नाभि-स्थान मे एक गोलाकार गड्डा छोड़ दिया गया था, जिससे लकड़ी की ओखली बिठायी गयी थी। उत्खनन-क्रिया में इनमें अन्न एवं भूसे के प्रमाण उपलब्ध हुए हैं। इससे लगता है कि ये चबूतरे अनाज को कूटने के प्रयोजन से बनाये गये थे। अन्न कूटने का कार्य लकड़ी के मूसल से लिया जाता था। यह काम उन्हीं श्रमिकों से लिया जाता था, जो इनके समीपस्थ आवासों में रहते थे। इस प्रकार का एक गोल चबूतरा (संख्या 16) मार्टिमर ह्वीलर के द्वारा 1946 ईसवी में प्रकाश में लाया गया था। इसके प्रमाण से स्पष्ट है कि लड़की की ओखली एवं मूसल द्वारा द्वारा अन्न कूटने की परम्परा भारतवर्ष में सैन्धव सभ्यता-काल से ही चली आ रही थी।
इन गोल चबूतरों के ठीक उत्तर लगभग एक सौ गज की दूरी पर अन्न के बखार 900 वर्ग फीट के क्षेत्र मे रावी नदी के तट के समीप ही निर्मित थे। इनकी संख्या कुल बाहर थी। ये दो पंक्तियों में वर्तमान थे। प्रत्येक पंक्ति में इनकी संख्या छह थी। इनका परिणाम भी लगभग समान था (50 फीट x 20 फीट)। इनकी शिल्प-विधि का सादृश्य सूचित करता है कि ये राजकीय निर्माण-योजना के अन्तर्गत आते थे। रावीतट के सन्निकट इनकी अवस्थिति प्रमाणित करती है कि जल-मार्ग द्वारा अन्न मंगाया एवं बाहर भेजा जाता होगा।
हम इस बात की ओर पहले ही ध्यान आकृष्ट कर चुके है कि हजड़प्पा का नगर दो भोगों में विभक्त था-(1)ऊद्वर्व नगर एवं (2) निम्न नगर (अधःस्थपुर)। इस प्रकार यह उर्ध्वाधर’-योजना के अन्तर्गत आता था। दुर्ग-भाग पुर का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं आकर्षक अंग था। इसे हम अपने देश के एक प्राचीनतम किले के रूप में ग्रहण कर सकते है, जिसमें दुर्गे-सत्रिवेश की मूलभूत विशेषताएँ बीज रूप में वर्तमान थीं। इसके स्थान पर अब एक उच्च टीला वर्तमान है, जिसे पुराविदों ने ‘माउण्ड ए-बी’ की संज्ञा प्रदान की है। यह आकार में समान्तर चतुर्भज के तुल्य था, जो उत्तर से दक्षिण की ओर 460 गज एवं पूर्व से पश्चिम की ओर 215 गज था। हड़प्पा के दुर्ग का स्वरुप भारतीय वास्तुशास्त्र के इतिहास मे महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। समान्तर चतुर्भुज-सदृश आकृति शुभ एवं श्रेयस्कर मानी जाती थी। यही कारण है कि ऐतिहासिक काल के नगरों का आकार बहुधा इसी रूप में निर्धारित होता था। उदाहरणार्थ मेगस्थनीज के अनुसार लोक-विश्रुत एवं भव्य पाटलिपुत्र नगर समान्य चतुर्भूज के तुल्य था।
यह दुर्ग एक चबूतरे पर बना हुआ था, जो धरातल से 20 फीट से 25 फौट तक ऊंचा तथा अंशतः मिट्टी एवं कच्ची ईटों द्वारा सुदृढ़ निर्मित था। इसके भीतर राजकीय भवन, कर्मचारियों के आवास तथा श्रमिकों के गृह बने हुए थे। चौड़े राजमार्ग सुव्यवस्थित योजना के अनुसार निर्मित थे तथा देखने में भव्य थे। सुरक्षा की दृष्टि से यह दुर्ग मिट्टी की एक दीवाल (प्राचीन) द्वारा चतुर्विद परिवेष्टित था, जो अपने आधार पर 45 फीट चौड़ा था। इस प्रकार की सुरक्षा-भित्ति (प्रकार) के निर्माण की परम्परा हमारे देश में चिरकाल तक वर्तमान थी। इस कोटि के ‘प्राकार’ को प्राचीन भारतीय को प्राचीन भारतीय साहित्य में पांसुप्राकार’ अथवा ‘मृददुर्ग’ कहा गया है, जिसकों कालान्तर में (मध्य-काल में) धूल-कोट कहने लगे थे। हड़प्पा का प्राकार, मृदुदुर्ग का प्रचीनातम भारतीय उदाहरण था। इस सुरक्षा-भित्ति में द्वार एवं बुर्ज बने हुए थे। यहाँ विचारणीय है कि इस परम्परा के आधार पर युग-युगान्तर में भारत के प्रत्येक भाग में नगर प्राकार द्वारा (गोपुर) एवं बुर्ज (अट्टालक) से युक्त हुआ करते थे। महाभारत एवं रामायण में हस्तिनापुर, इन्द्रप्रस्थ, मथुरा एवं अयोध्या तथ्य इस बात का प्रमाण है कि हड़प्पा के दुर्ग की निर्माण-विधि ने सुनिश्चित वास्तुशैली का रूप धारण किया था, जिसके आदर्श ने गंगा-घाटी तथा यहाँ तक कि दक्षिणापथ के नगरों के नगरों की भी रूपरेखा को निर्धारित किया था।
अग्रतर सुरक्षा की दृष्टि से हडप्पा का दुर्ग चतुर्दिक एक खाई (परिखा) के द्वारा भी परिवष्ठित किया गया था। हड़प्पाकालीन यह पद्धति ऐतिहासिक काल में अभियन्ताओं द्वारा आदर्श रूप में ग्रहण कर ली गयी थी। महाभारत रामायण, हरिवंश, कौटिल्य-प्रणीत अर्थशास्त्र शुक्रनीति, समरांगणसूत्रधार एवं युक्ति-कल्पतरु में दुर्ग-सत्रिवेश के प्रंसग में गहरी एवं चौड़ी परिखाओं के मनोरम एवं आह्यादित वर्णन उपलब्ध होते है। उक्त दृष्टान्तों में प्रमाणित है कि भारतीय वास्तुशास्त्र के इतिहास में हड़प्पा की दुर्ग-निर्माण पद्घति का स्थान विशिष्ट एवं प्रभावोत्पादक है।
दुर्ग के ठीक उत्तर की दिशा में लगभग 3000 गज के पेटे में त्रिविध निर्माण किया गया था। इस क्षत्रेफल में 3० फीट ऊँचा एक टीला वर्तमान है, जिसे ‘माउण्ड एफ’ की संज्ञा प्रदान की गयी थी। इसके उत्खनन की क्रिया में तोनों ही कोटि के निर्माण प्रकाश में लाये गये। प्रथम वर्ग के निर्माण-कार्य के पुरातत्वीय प्रमाण सबसे पहले दुर्ग के समीप ही उत्तर-दिशा में प्राप्य हैं। इस कोटि में (श्रमिकों के घर आते थे, जो दो पंक्तियों में निर्मित थे। उत्तर की पंक्ति में सात एवं दक्षिण की पक्ति में आट गृहों के वर्तमान होने के दृष्टन्त प्रात्य हुए है। ये श्रमिक-आवाज राजकीय योजना के अनुसार निर्मित थे। ये आयताकार (54फीट x 24 फीट) हैं तथा इनके निर्माम की पद्धति ठीक एक जैसी है। साधारण चारहदीवारी द्वारा ये घिरे भी थे। प्रत्येक दो घर तीन से लेकर चार फीट गली (वीथिका) द्वारा परस्पर विभक्त थे। इनमें तीन कमरे (कोष्ठी) एवं एक छोटा आँगन प्राप्य था। घर के भीतर की फर्श पर पकी ईटों की ठोस चुनाई की गयी थी।
इन श्रमिक-गृहों के समीप ही 16 भट्ठियों के वर्तमान होने के कारण उपलब्ध हुए हैं। इनमें अनुमानतः कोयले एवं गोबर के द्वारा ईधन (समिधा) का कार्य लिया जाता था। अग्नि को प्रज्वलित करने के निमित्त सम्भवतः धौंकनी प्रयोग में लायी जाती थी। इन भट्ठियों में काँसे को गलाने का काम लेते रहे होंगे।
इनकी समीपस्थता इस बात का प्रमाण है कि उक्त आवास श्रमिक-गृह ही रहे होंगे। इन ग्रहों की शिल्पविधि की एकरूपता तथा दुर्ग के साथ उनका सात्रिध्य सूचित करता है कि वे राज्य की ओर से ही निर्मित थे। बहुत संभव है कि उनके निवासी श्रमिक, सरकार के द्वारा ही नियुक्त किये गये की ओर से ही निर्मित थे। बहुत संभव है कि उनके निवासी श्रमिक सरकार के द्वारा ही नियुक्त किये गये हों। अतएव राजकीय निर्माणों में उनके सेवाओं का लाभ उठाया जाता होगा। एक सम्भावना यह भी हो सकती है कि वेतन अथवा दैनिक पारिश्रमिक प्रदान करने के अतिरिक्त राज्य उनसे बेगार भी लेता रहा हो।
यहाँ उल्लेखनीय है कि इस प्रकार की परम्परा दजलाफरात घाटी एवं नीलउपत्यका के नगरों में भी प्रचलित थी। श्रमिकों के आवास मुख्य नगर के बाहर कहीं एकान्तिक स्थान पर पृथक् रूप में बने होते थे। उदाहरणार्थ तेल-एल-अमर्ना (चौदहवीं शताब्दी ईसा पूर्व) में समाधि-निर्माताओं के घर प्रघान नगर से लगभग एक मील की दूरी पर बने थे। देर-एल-मदीनह (सोलहवीं शती ईसा पूर्व) में मिस्त्र-सम्राटों की समाधियों- निर्माता शिल्पियों के गृह सबसे अलग बने हुए थे। गिजहे में पिराडमिड बनानेवाले स्थापत्यकार रहते थे। इन श्रमिकों एवं शिल्पियों के राज्य विष्टि (बेगार) ले सकता था। यह प्रथा- साम्य सैन्धव सभ्यता तथा मित्र एवं मोसोपोटामिया की समकालीन सभ्यताओं के पारस्परिक सम्पर्क को अभिव्यंजति करता है।
हड़प्पा मे उक्त श्रमिक-आवाजों के ठीक उत्तर में द्वितीय कोटि के निर्माण किये गये थे, जिसमें गोल चबुतरों के प्रमाण उत्खथनन-क्रिया में उपलब्ध हुए थे। इनका व्यास दस से ग्यारह फीट के लगभग था। ये श्रमिक-चबूतरे एक केन्द्रीय, चार अथवा कभी पाँच वृत्त के रूप मे थे तथा ठोस ईटों द्वारा सुदृढ़ निर्मित थे। इनके नाभि-स्थान मे एक गोलाकार गड्डा छोड़ दिया गया था, जिससे लकड़ी की ओखली बिठायी गयी थी। उत्खनन-क्रिया में इनमें अन्न एवं भूसे के प्रमाण उपलब्ध हुए हैं। इससे लगता है कि ये चबूतरे अनाज को कूटने के प्रयोजन से बनाये गये थे। अन्न कूटने का कार्य लकड़ी के मूसल से लिया जाता था। यह काम उन्हीं श्रमिकों से लिया जाता था, जो इनके समीपस्थ आवासों में रहते थे। इस प्रकार का एक गोल चबूतरा (संख्या 16) मार्टिमर ह्वीलर के द्वारा 1946 ईसवी में प्रकाश में लाया गया था। इसके प्रमाण से स्पष्ट है कि लड़की की ओखली एवं मूसल द्वारा द्वारा अन्न कूटने की परम्परा भारतवर्ष में सैन्धव सभ्यता-काल से ही चली आ रही थी।
इन गोल चबूतरों के ठीक उत्तर लगभग एक सौ गज की दूरी पर अन्न के बखार 900 वर्ग फीट के क्षेत्र मे रावी नदी के तट के समीप ही निर्मित थे। इनकी संख्या कुल बाहर थी। ये दो पंक्तियों में वर्तमान थे। प्रत्येक पंक्ति में इनकी संख्या छह थी। इनका परिणाम भी लगभग समान था (50 फीट x 20 फीट)। इनकी शिल्प-विधि का सादृश्य सूचित करता है कि ये राजकीय निर्माण-योजना के अन्तर्गत आते थे। रावीतट के सन्निकट इनकी अवस्थिति प्रमाणित करती है कि जल-मार्ग द्वारा अन्न मंगाया एवं बाहर भेजा जाता होगा।
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