ऐतिहासिक >> खुदीराम बोस खुदीराम बोसरूप सिंह चंदेल
|
9 पाठकों को प्रिय 383 पाठक हैं |
किशोर क्रांतिकारी ‘खुदीराम बोस’ के जीवन की विस्तृत व ब्योरेवार झांकी कथाकार रूप सिंह चंदेल के इस उपन्यास में ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
उत्सवधर्मी देश ने आजादी की स्वर्ण जयंती को भी उत्सव के रूप में मनाकर
अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली। जिन क्रांतिकारियों की वजह से आजादी
मिली, उन्हें याद करने की मुकम्मिल कोशिश क्यों नहीं की गई—यह
एक विचारणीय प्रश्न है। सरदार भगत सिंह, बटुकेश्वरदत्त, चंद्रशेखर आजाद,
सुखदेव, मदनलाल धींगरा आदि क्रांतिकारियों को याद करने का
मतलब—आजादी के संघर्ष को याद करना है। खुदीराम बोस इसी परम्परा
के किशोर क्रांतिकारी थे जिन्होंने आजादी के संघर्ष में अपने प्राणों को
उत्सर्ग कर दिया था। इस किशोर क्रांतिकारी के जीवन की विस्तृत व ब्योरेवार
झांकी कथाकार रूप सिंह चंदेल के उपन्यास ‘खुदीराम
बोस’ में मौजूद है। ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़े-मरोड़े बगैर लेखक ने किशोर
क्रांतिकारी की जीवनी में लगभग उन सभी रोचक घटनाओं का जिक्र किया है जिनसे
एक क्रांतिकारी के जीवन का व्यक्तित्व बनता है।
खुदीराम बोस का जन्म 03 दिसम्बर 1889 को मिदनापुर में हुआ था। पिता लैलोक्यनाथ बसु राजा नारनौल के यहां नौकरी करते थे। उनकी तीन पुत्रियां थीं—अपरूपा, सरोजनी और ननीबाला। परंतु जब खुदीराम बोस का बचपन खेलने कूदने योग्य भी नहीं हो पाया था कि उनके सर से मां-बाप का साया उठ गया। बड़ी बहिन अपरूपा ने खुदीराम बोस को संभाला। खुदीराम बोस बचपन से उग्र स्वभाव के थे। उनमें सामाजिक-न्याय की तड़प और कुछ कर गुजरने की तमन्ना करवटें लेने लगी थीं। जब वे मात्र 13-14 वर्ष के रहे होंगे उनकी मुलाकात प्रमुख क्रांतिकारी बाबू सत्येंद्रनाथ से हुई। और वे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध चलने वाली गुप्त मंत्रणाओं में शामिल होने लग गए। मुकदमा चला और अंत में खुदीराम बोस को 11 अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में फांसी पर लटका दिया गया।
‘पुस्तक खुदीराम बोस’ में लेखक ने कुछ प्रसंगों व घटनाओं का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है, जैसे फांसी के वक्त मुंह बोली मुस्लिम बहन द्वारा राखी बांधना। सगी बहिन अपरूपा को शासन द्वारा मिलने की इजाजत न देना हजारों नर नारियों का फांसी के वक्त जेल परिसर में दाखिल हो जाना—आदि ऐसे महत्वपूर्ण दृश्य हैं जिसमें कथा की प्रामाणिकता का हृदयस्पर्शी संवेग उपस्थित है।
उपन्यास की भाषा बोधगम्य है, जिसे किशोरवय का पाठक भी आसानी से हृदयंगम कर सकता है। कुछ घटनाएं सजीव और अतिरंजित भी हैं पर चूंकि यह एक क्रांतिकारी की शहादत पर केंद्रित उपन्यास है इसलिए कथा का आवेग बनाने में लेखक ने अपनी कल्पना-शक्ति का भी उपयोग किया है। बहरहाल उपन्यास कुछ ऐसे समय पर आया है जब उग्र राष्ट्रीय अस्मिता के चिन्हों को पीछे ढकेला जा रहा है और एक सुविधापरस्त ‘राष्ट्रीयता की प्रतिष्ठापना की जा रही है। ऐसे कठिन समय में किसी क्रांतिकारी की जीवनी पढ़ना और उसे समझ पाना एक भारतीय होने के सुख से भर देता है।
खुदीराम बोस का जन्म 03 दिसम्बर 1889 को मिदनापुर में हुआ था। पिता लैलोक्यनाथ बसु राजा नारनौल के यहां नौकरी करते थे। उनकी तीन पुत्रियां थीं—अपरूपा, सरोजनी और ननीबाला। परंतु जब खुदीराम बोस का बचपन खेलने कूदने योग्य भी नहीं हो पाया था कि उनके सर से मां-बाप का साया उठ गया। बड़ी बहिन अपरूपा ने खुदीराम बोस को संभाला। खुदीराम बोस बचपन से उग्र स्वभाव के थे। उनमें सामाजिक-न्याय की तड़प और कुछ कर गुजरने की तमन्ना करवटें लेने लगी थीं। जब वे मात्र 13-14 वर्ष के रहे होंगे उनकी मुलाकात प्रमुख क्रांतिकारी बाबू सत्येंद्रनाथ से हुई। और वे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध चलने वाली गुप्त मंत्रणाओं में शामिल होने लग गए। मुकदमा चला और अंत में खुदीराम बोस को 11 अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में फांसी पर लटका दिया गया।
‘पुस्तक खुदीराम बोस’ में लेखक ने कुछ प्रसंगों व घटनाओं का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है, जैसे फांसी के वक्त मुंह बोली मुस्लिम बहन द्वारा राखी बांधना। सगी बहिन अपरूपा को शासन द्वारा मिलने की इजाजत न देना हजारों नर नारियों का फांसी के वक्त जेल परिसर में दाखिल हो जाना—आदि ऐसे महत्वपूर्ण दृश्य हैं जिसमें कथा की प्रामाणिकता का हृदयस्पर्शी संवेग उपस्थित है।
उपन्यास की भाषा बोधगम्य है, जिसे किशोरवय का पाठक भी आसानी से हृदयंगम कर सकता है। कुछ घटनाएं सजीव और अतिरंजित भी हैं पर चूंकि यह एक क्रांतिकारी की शहादत पर केंद्रित उपन्यास है इसलिए कथा का आवेग बनाने में लेखक ने अपनी कल्पना-शक्ति का भी उपयोग किया है। बहरहाल उपन्यास कुछ ऐसे समय पर आया है जब उग्र राष्ट्रीय अस्मिता के चिन्हों को पीछे ढकेला जा रहा है और एक सुविधापरस्त ‘राष्ट्रीयता की प्रतिष्ठापना की जा रही है। ऐसे कठिन समय में किसी क्रांतिकारी की जीवनी पढ़ना और उसे समझ पाना एक भारतीय होने के सुख से भर देता है।
हीरालाल नागर
देश की स्वतंत्रता के संदर्भ में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की पंक्तियां ध्यान आती हैं. उन्होंने कहा था, "आजादी सहज उपलब्ध हो जाए, तो न उसका महत्व होता है न मूल्यांकन! " भारतीय स्वतंत्रता किसी तश्तरी में परोसकर नहीं दी गई. उसके पीछे बलिदानों और देशवासियों की शौर्यकथाओं का लंबा और गौरवपूर्ण इतिहास है. १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम से १९४७ तक सैकड़ों वीरों का स्मरण और उनकी वीरता तथा दृढ़ संकल्पों के दस्तावेज एक नए रक्त का संचार करते हैं. उन्हीं वीर पुत्रों में एक थे खुदीराम बोस.
कथाकार रूपसिंह चन्देल ने खुदीराम बोस की जीवनी को औपन्यासिक कृति के रूप में सृजित करते हुए पठनीयता का विशेष ध्यान रखा है. उपन्यास, जीवनी के अधिक निकट होने के बावजूद, कल्पनाशीलता और यथार्थ के संश्लिष्ट तालमेल की अच्छी प्रस्तुति है. वस्तुतः जीवनियों को उपन्यास विधा में उतारना दिक्कत भरा काम इसलिए होता है कि कथानक जीवनी और उपन्यास (या कहें कि यथार्थ और कल्पना) के बीच झूलता रह जाता है. रूप सिंह चन्देल इससे बचे हैं. यह सफलता इसलिए भी हासिल हुई है कि वे अधिक जोखिम (कल्पनाशीलता का जोखिम) नहीं उठाते. इसके बावजूद खुदीराम बोस के जीवन संबंधी सभी पहलू और घटनाएं उपन्यास की मुख्य कथा के साथ जुड़ते चले जाते हैं.
जाहिर है खुदीराम बोस स्वयं उपन्यास का मुख्य पात्र है और पात्रता के सभी गुण उसमें मौजूद हैं. कथा में मुख्य पात्र खुदीराम विचलित है. संभवतः किसी तलाश में है. तलाश क्या है, स्वयं उसे भी नहीं मालूम. उस तलाश के लिए उपयुक्त रास्ता दिखाते हैं क्रांतिकारी सत्येन्द्रनाथ . इसके पश्चात खुदीराम का विचलन समाप्त हो जाता है और देशप्रेम का जज्बा तथा स्वतंत्रता की कामना उसका दृढ़ संकल्प बन जाता है.
उपन्यास में अपने भांजे ललित के साथ खुदीराम की शैतानियां तथा अपने संगी- साथियों के साथ झगड़े, उसके भीतर की ईमानदारी , सचाई और साहस को भी लक्षित करते हैं. गौरतलब है कि बचपन में ही खुदीराम के माता-पिता चल बसे और बड़ी बहन ने खुदीराम का पालन-पोषण किया था. खुदीराम नाम भी बड़ी बहन ने दिया था.
उपन्यास में बचपन से खुदीराम के बलिदान तक के प्रसंग सिलसिलेवार कथासूत्र में गुंधे हुए हैं. क्रांतिकारी विचारों से लैस सत्येंद्रनाथ ने खुदीराम को एक चट्टान जैसा व्यक्तित्व प्रदान करने में जरूर मदद की. गौरतलब है कि भगत सिंह हों, बिस्मिल हों अथवा खुदीराम बोस, सभी अध्येता भी थे. उनमे केवल जोश नहीं, विवेकशील चिंतन और गहरी समझ भी थी. किंग्जफोर्ड जैसे क्रूर, अत्याचारी अधिकारी पर बम फेंकना, आतंकवादी घटना नहीं , अत्याचारों के विरुद्ध देश के युवाओं की बुलंद आवाज थी. आम मनुष्य के प्रति करुणा का भाव था. दुर्भाग्यवश किंग्जफोर्ड बच गया. खुदीराम बोस के साथी प्रफुल्ल चाकी ने स्वयं को गोली मार ली और खुदीराम बोस को फांसी की सजा हुई.
उपन्यास में क्रांति और देशप्रेम की भावना को जीवंतता प्रदान की गई है. चन्देल ने खुदीराम बोस की जीवनी पर उपन्यास रचकर, खुदीराम के विस्मृत जीवन तथा घटनाओं को पाठकों के बीच लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है.
खुदीराम बोस के जीवन पर आधारित यह पहला और प्रामाणिक उपन्यास है, ऎसा मेरा मानना है.
कथाकार रूपसिंह चन्देल ने खुदीराम बोस की जीवनी को औपन्यासिक कृति के रूप में सृजित करते हुए पठनीयता का विशेष ध्यान रखा है. उपन्यास, जीवनी के अधिक निकट होने के बावजूद, कल्पनाशीलता और यथार्थ के संश्लिष्ट तालमेल की अच्छी प्रस्तुति है. वस्तुतः जीवनियों को उपन्यास विधा में उतारना दिक्कत भरा काम इसलिए होता है कि कथानक जीवनी और उपन्यास (या कहें कि यथार्थ और कल्पना) के बीच झूलता रह जाता है. रूप सिंह चन्देल इससे बचे हैं. यह सफलता इसलिए भी हासिल हुई है कि वे अधिक जोखिम (कल्पनाशीलता का जोखिम) नहीं उठाते. इसके बावजूद खुदीराम बोस के जीवन संबंधी सभी पहलू और घटनाएं उपन्यास की मुख्य कथा के साथ जुड़ते चले जाते हैं.
जाहिर है खुदीराम बोस स्वयं उपन्यास का मुख्य पात्र है और पात्रता के सभी गुण उसमें मौजूद हैं. कथा में मुख्य पात्र खुदीराम विचलित है. संभवतः किसी तलाश में है. तलाश क्या है, स्वयं उसे भी नहीं मालूम. उस तलाश के लिए उपयुक्त रास्ता दिखाते हैं क्रांतिकारी सत्येन्द्रनाथ . इसके पश्चात खुदीराम का विचलन समाप्त हो जाता है और देशप्रेम का जज्बा तथा स्वतंत्रता की कामना उसका दृढ़ संकल्प बन जाता है.
उपन्यास में अपने भांजे ललित के साथ खुदीराम की शैतानियां तथा अपने संगी- साथियों के साथ झगड़े, उसके भीतर की ईमानदारी , सचाई और साहस को भी लक्षित करते हैं. गौरतलब है कि बचपन में ही खुदीराम के माता-पिता चल बसे और बड़ी बहन ने खुदीराम का पालन-पोषण किया था. खुदीराम नाम भी बड़ी बहन ने दिया था.
उपन्यास में बचपन से खुदीराम के बलिदान तक के प्रसंग सिलसिलेवार कथासूत्र में गुंधे हुए हैं. क्रांतिकारी विचारों से लैस सत्येंद्रनाथ ने खुदीराम को एक चट्टान जैसा व्यक्तित्व प्रदान करने में जरूर मदद की. गौरतलब है कि भगत सिंह हों, बिस्मिल हों अथवा खुदीराम बोस, सभी अध्येता भी थे. उनमे केवल जोश नहीं, विवेकशील चिंतन और गहरी समझ भी थी. किंग्जफोर्ड जैसे क्रूर, अत्याचारी अधिकारी पर बम फेंकना, आतंकवादी घटना नहीं , अत्याचारों के विरुद्ध देश के युवाओं की बुलंद आवाज थी. आम मनुष्य के प्रति करुणा का भाव था. दुर्भाग्यवश किंग्जफोर्ड बच गया. खुदीराम बोस के साथी प्रफुल्ल चाकी ने स्वयं को गोली मार ली और खुदीराम बोस को फांसी की सजा हुई.
उपन्यास में क्रांति और देशप्रेम की भावना को जीवंतता प्रदान की गई है. चन्देल ने खुदीराम बोस की जीवनी पर उपन्यास रचकर, खुदीराम के विस्मृत जीवन तथा घटनाओं को पाठकों के बीच लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है.
खुदीराम बोस के जीवन पर आधारित यह पहला और प्रामाणिक उपन्यास है, ऎसा मेरा मानना है.
ज्ञान प्रकाश विवेक
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book