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सैरंध्री

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :129
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7081
आईएसबीएन :978-81-8143-952

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नरेन्द्र कोहली की सुपरिचित शैली में द्रौपदी का चरित्र चित्रण...

Sairandhri - A Hindi Book - by Narendra Kohli

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पाण्डवों का अज्ञातवास महाभारत कथा का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण और मार्मिक स्थल है। कहा जाये कि यह एक वर्ष ही उनकी असली परीक्षा का काल है, जब उन्हें अपना नैसर्गिक रूप त्याग कर अलग और हीनतर रूप धारण करने पड़ते हैं। सवाल उठता है दुर्योधन की गिद्ध-दृष्टि से पाण्डव कैसे बचे रह सकें ? अपने अज्ञातवास के लिए पाण्डवों ने विराट नगर को ही क्यों चुना ? पाण्डवों के शत्रुओं में प्रछन्न मित्र कहाँ थे ? और मित्रों में प्रछन्न शत्रु कहाँ पनप रहे थे ? बदली हुई भूमिकाओं से तालमेल बैठाना पाण्डवों के लिए कितना सुकर या दुष्कर था ? अनेक प्रश्न हैं जो इस प्रसंग में उठते हैं। लेकिन पाण्डवों से भी ज्यादा मार्मिक है द्रौपदी का रूपान्तरण। पाण्डवों को तो किसी-न-किसी रूप में भेष बदलने का वरदान मिला हुआ था या उनमें यह गुण स्वाभाविक रूप से मौजूद था। अर्जुन को अगर उर्वशी का श्राप था तो युधिष्ठिर को द्यूत प्रिय होने के नाते कंक बनने में सुविधा थी, भीम वैसे ही भोजन भट्ट और मल्ल विद्या में पारंगत थे। समस्या तो द्रौपदी की थी जो न केवल सुन्दरी होने के नाते सबके आकर्षण का केन्द्र थी बल्कि जिसने कभी सेवा-टहल का काम नहीं किया था। सुदेष्णा जैसी रानियाँ तो उसकी सेवा-टहल करने के योग्य थी। ऐसी स्थिति में उस एक वर्ष को सैरंध्री बनकर काटना द्रौपदी के लिए कैसी अग्नि परीक्षा रही होगी, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। मँजे हुए उपन्यासकार नरेन्द्र कोहली ने इस उपन्यास में इसी प्रश्न को अंकित किया है। इसके साथ-साथ नरेन्द्र कोहली ने और भी अनेक प्रश्नों को छुआ है, मिसाल के लिए द्रौपदी के सौन्दर्य को लेकर सुदेष्णा का भय और विराट की आशंका या फिर वृहन्नला और द्रौपदी की अपनी-अपनी व्यथाएँ। इन सबको नरेन्द्र कोहली ने अपनी सुपरिचित शैली में बड़ी सफलता से चित्रित किया है।

 

[ १ ]

 

रानी सुदेष्णा ने ध्यान से अपने सामने खड़ी उस स्त्री को देखा, जिसे अभी-अभी राजप्रासाद की रक्षिकाएँ पकड़कर लाई थीं। उन्हें यह स्त्री प्रासाद की रक्षा करने वाले सैनिकों ने सौंपी थी। उसे प्रासाद के सम्मुख निष्प्रयोजन डोलते फिरने तथा भीड़ इकट्ठी कर यातायात के आवागमन में विघ्न उपस्थित करने के अपराध में पकड़ा गया था। प्रहरी समझ नहीं पाए थे कि यह स्त्री लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करना चाहती थी, अथवा सैनिकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर, उनको किसी अन्य दिशा से असावधान कर देना चाहती थी। आजकल सेनापति कीचक नगर में नहीं थे; सेना का एक बड़ा भाग भी सेनापति के साथ ही बाहर गया हुआ था। ऐसे में अनेक शत्रुओं द्वारा नगर में उत्पात रचे जा सकने की संभावना हो सकती थी। और फिर एक इतनी असाधारण रूपवती स्त्री, स्वयं को जन साधारण की दृष्टि से छिपाने के स्थान पर, बीच राजमार्ग में खड़ी होकर, लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करे, तो सैनिकों को किसी षड्यंत्र की आशंका का होना स्वाभाविक ही था।

रानी की दृष्टि कह रही थी कि यह कोई साधारण नारी नहीं थी। उसका रूप असाधारण था। ऐसी स्त्रियाँ मार्गों में व्यर्थ ही मँडराती नहीं फिरतीं। उसके वस्त्र इस समय अवश्य मलिन थे। केश भी वेणी बद्ध नहीं थे।... किंतु कैसे केश थे वे। किसी भी स्त्री को सहज ही ईर्ष्या होगी उसके इन केशों से। घुटनों तक लंबे और लहराते हुए ऐसे सुंदर केश, कि कोई भी स्त्री उसे देखती ही रह जाए, और पुरूष का मन उसमें बँध-बँध जाए। कौन उनका स्पर्श नहीं चाहेगा। अमावस्या से घने काले केश। रानी का अपना मन ही मुग्ध होता जा रहा था।... अभी तो इस स्त्री ने अपना सारा वेश मलिन बना रखा था।... किंतु कौन नहीं देख सकता था कि नील कमल सा उसका वर्ण था। लगता था, यात्रा अथवा किसी अन्य कारण से, वह इस समय मलिन तथा रेणु आच्छादित सी दिख रही है। लगता नहीं था कि कई दिनों से मुख भी धोया हो...
‘‘कौन हो तुम ?’’ रानी ने पूछा।

‘‘कोई भी होऊँ, पहले तो मुझे तुमसे यह पूछना है कि मुझे इस प्रकार पकड़कर क्यों लाया गया है, जैसे मैं कोई अपराधिनी हूँ ?’’ उस स्त्री ने सतेज स्वर में पूछा।
‘‘ऐ।’’ एक रक्षिका ने आगे बढ़कर उसे, एक झटका दिया, ‘‘महारानी को ‘तुम’ कहकर संबोधित कर रही हो। सामान्य शिष्टाचार भी नहीं जानती।’’
सुदेष्णा ने अपने हाथ के संकेत से रक्षिका को रोक दिया, ‘‘क्या आरोप है इस पर ?’’

‘‘महारानी ! यह स्त्री मुख्य मार्ग पर डोलती फिर रही थी। इसने अपने आस-पास भीड़ एकत्रित कर रखी थी; और सैनिकों के अनेक बार कहने पर भी न यह मार्ग से हट रही थी और न ही मार्ग पर इस प्रकार डोलने और भीड़ एकत्रित करने का कोई कारण बता रही थी। सैनिकों की पूछताछ के उत्तर में इसने न केवल उन्हें कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया, उलटे उनसे झगड़ा किया। एक आध का तो मुँह ही नोच लिया।’’
‘‘मैंने तो मुँह ही नोचा है, यदि मेरे पति आस-पास होते तो उन सैनिकों में से अनेक की हत्या अवश्यंभावी थी।’’ वह स्त्री बोली, ‘‘क्या मत्स्यराज इसी प्रकार का शासन करते हैं, जिसमें संकट में पड़ी किसी अकेली स्त्री को देखकर राज्य के सैनिक उसे गणिका मान कर उसका अपमान करने लगते हैं; और यदि वह स्त्री आत्मरक्षा में उनका प्रतिरोध करे तो वह बंदी कर ली जाती है। संसार के किसी सभ्य समाज में ऐसा नहीं होता। यहाँ धर्मात्मा राजा मत्स्यराज का शासन है अथवा किसी राक्षस का ?’’

‘‘शांत हो जाओ।’’ सुदेष्णा ने कहा, ‘‘यहाँ कोई तुम्हारे साथ अन्याय नही करेगा।’’
‘‘अन्याय नहीं करेगा, किंतु दुर्व्यवहार तो करेगा ही।’’ वह स्त्री बोली, ‘‘जब से आपके राज्य में आई हूँ मेरे साथ यही हो रहा है।’’
‘‘नहीं ! अब तुम्हारे साथ कोई दुर्व्यवहार भी नहीं करेगा।’’ रानी ने कहा, ‘‘मुझे बताओ कि तुम कौन हो।’’
‘‘कौन हूँ ? सैरंध्री हूँ। महारानी द्रौपदी मुझे मालिनी कहकर पुकारा करती थीं।’’ स्त्री ने कहा।
‘‘महारानी द्रौपदी !’’ रानी सुदेष्णा ने कुछ आश्चर्य से पूछा, ‘‘उनसे तुम्हारा क्या संबंध है ?’’’
‘‘संबंध क्या होना है। मैं उनकी सेवा में थी।’’ स्त्री ने कुछ उद्दंडता से कहा; और फिर धीरे से जोड़ दिया, ‘‘मैं कुछ समय तक श्रीकृष्णप्रिया सत्यभामा की सेवा में भी रही हूँ।’’

‘‘तो फिर अब यहाँ क्या करती डोल रही हो ?’’ रानी ने कुछ ऊँचे स्वर में कहा, ‘‘नाम तो इतने बड़े-बड़े ले रही हो, और यहाँ राजमार्ग पर तमाशा कर रही हो।’’
‘‘महाभाग पांडवों का राज्य छिन गया। वे लोग अज्ञातवास के लिए चले गए। महारानी द्रौपदी उनके साथ अज्ञात स्थान को चली गईं, तो मैं अब क्या करूँ ? आप ही बता दें कि वे लोग कहाँ हैं तो मैं उन्हीं के पास चली जाऊँ। सेवक की यही तो कठिनाई है। स्वामी पर संकट आए, तो सेवक अपने आप ही मारा जाता है।’’’
‘‘भौंकती बहुत हो।’’ एक रक्षिका उसकी ओर बढ़ी।
‘‘पर तुम्हारे समान सबको काटती तो नहीं।’’

‘‘बहुत ठीक कहा।’’ सुदेष्णा हँस पड़ीं। अपने संकेत से आगे बढ़ती रक्षिकाओं को वहीं रोक दिया और कोमल स्वर में सैरंध्री से पूछा, ‘‘घर कहाँ है तुम्हारा ? यहाँ किसी संबंधी के पास आई हो ?’’
मालिनी उदास हो गई। कुछ देर के पश्चात् उसने अपने नयन उठाकर रानी की ओर कुछ इस प्रकार देखा, जैसे कहना चाह रही हो कि मुझसे यह सब मत पूछो। फिर स्वयं ही धीरे से बोली, ‘‘नहीं ! यहाँ मेरा कोई संबंधी नहीं है। महारानी ! मुझसे मेरे घर-द्वार का पता और मेरे पति का नाम इत्यादि न पूछें।’’
रानी की उत्सुकता जाग उठी थी... जिनकी सेवा की, उनका नाम-पता तो बिना पूछे बता दिया और अपने विषय में कुछ बताना भी नहीं चाहती...

‘‘विवाहिता हो अथवा अपने वियुक्त प्रेमी को खोज में यहाँ-वहाँ भटक रही हो ?’’ रानी ने पूछा।
सैरंध्री ने पूरी खुली आँखों से रानी की ओर देखा, ‘‘विवाहिता हूँ। मेरे पति किसी विपत्ति में फँसकर विदेश गए हैं; और उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर मेरे श्वसुर ने मुझे घर से निकाल दिया है। अपने पति के लौटने तक मैं सर्वथा निराश्रित हूँ। उनके आने तक कहीं आश्रय खोज रही हूँ।...’’
‘‘कौन हैं तुम्हारे पति ?’’
‘‘किसी सैरंध्री के पति इतने प्रसिद्ध व्यक्ति तो नहीं हो सकते कि उनका नाम सुनते ही आप उन्हें पहचान जाएँगी, फिर भी मैं उनका नाम-पता नहीं बताना चाहती। सैरंध्री बोली।

‘‘क्यों ?’’ रानी ने कुछ चकित भाव से पूछा, ‘‘इसमें इतना गोपनीय क्या है ? क्या गांधर्व विवाह किया है ?’’
‘‘नहीं।’’ सैरंध्री पहली बार तनिक मुस्कराई।
रानी स्तब्ध रह गई : यह सैरंध्री तो जैसे कोई उल्का थी। उसकी दंत-पंक्ति देखकर किसी का भी हृदय पिघलकर बूँद-बूँद बह जाएगा; और यदि कहीं वह पुरुष हृदय हुआ तो उसका स्पंदित होना ही कठिन था। सैरंध्री की मुस्कान थी या शरद पूर्णिमा की उजास।... रानी ने पहली बार उसके अधरों को ध्यान से देखा था... कामदेव का पुष्पधनुष ही साक्षात प्रकट हो गया था... प्रकट क्या हो गया था, सामने खड़े व्यक्ति के हृदय को अपनी प्रत्यंचा में फँसाकर अपनी ओर खींचने लगता था। न खड़ा रहने देता था न गिरने देता था। न मुक्त करता था, न मुक्त होने की कामना जगने देता था।...
‘‘तो पति का नाम क्यों नहीं बताना चाहती ?’’

‘‘उससे मेरे श्वसुरकुल का अपयश फैलेगा।’’
‘‘जिस श्वसुर ने तुम्हें घर से निकाल दिया, उसके कुल के यश की चिंता क्यों है तुम्हें ?’’ रानी ने जैसे प्रश्न नहीं पूछा था, सैरंध्री के व्यवहार के प्रति अपनी आपत्ति प्रकट की थी।
‘‘मुझे चिंता अपने श्वसुर के कुल की नहीं महारानी ! अपने पति के कुल की है।’’ सैरंध्री बोली, ‘‘मुझे श्वसुर ने घर से निष्कासित किया है, पति ने नहीं। मेरे पति के लौटते ही मुझे सब कुछ मिल जाएगा, चाहे मेरे श्वसुर को ही घर से क्यों न निकलना पड़े।’’

‘‘बहुत विचित्र है तेरा श्वसुरकुल।’’ सुदेष्णा ने कहा, ‘‘जहाँ पिता और पुत्र में इतना भेद है कि पुत्र के उपस्थित न होने पर श्वसुर अपनी पुत्रवधू को घर से निकाल देता है; और पुत्र लौटता है तो अपनी पत्नी को घर में प्रतिष्ठित करता है और अपने पिता को निष्कासित कर देता है।’’
‘‘कुछ ऐसा ही है महारानी।’’ सैरंध्री बोली।
‘‘और यदि तेरे पति ने लौटकर भी अपने पिता का विरोध न किया तो ?’’ रानी मुस्करा रही थी।
‘‘तो मैं आपको उनका नाम-गाम, सब कुछ बता दूँगी।’’ सैरंध्री का आत्मविश्वास उसके शब्द-शब्द से टपक रहा था।
‘‘क्या तुम प्रमाणित कर सकती हो कि तुम सचमुच वैसी अच्छी सैरंध्री हो, जो सत्यभामा और द्रौपदी की सेवा में रह सके ?’’ सुदेष्णा ने कहा, ‘‘अपने बालों की तो तुमने वेणी तक नहीं कर रखी। कौन मानेगा कि तुम्हें केश श्रृंगार की कला का कोई ज्ञान है।’’

‘‘मैं अपना केश विन्यास केवल अपने पति के लिए करती हूँ महारानी !’’ सैरंध्री बोली, ‘‘वे लौट आएँगे और मुझसे प्रसन्न होंगे, तो उनको रिझाने के लिए वेणी भी करूँगी और अपना श्रृंगार भी।’’ वह रानी के निकट चली आई, ‘‘महारानी ! वैसे तो सैरंध्री का कार्य एक साधारण दासी भी कर लेती है, किंतु वास्तविक कला का पता तो तब लगता है, जब सैरंध्री का हाथ लगते ही आपका रूप दोगुना हो उठता है। आप स्वयं को दर्पण में निहार-निहार कर अपने ही रूप पर मुग्ध होने लगती हैं और सोचती हैं कि इतनी सुंदर तो मैं पहले कभी नहीं थी।...’’
‘‘बातें तो बहुत लुभावनी कर लेती हो।’’ रानी भी मुस्कराई, ‘‘किंतु अपनी बात का प्रमाण दो तो जानूँ।’’

सैरंध्री ने जैसे चुनौती स्वीकार की, ‘‘अनुमति हो तो अपनी कला का चमत्कार प्रस्तुत करूँ।’’
‘‘चल धानुके !’’ रानी ने अपनी एक दासी को संबोधित किया, ‘‘बैठ जा सैरंध्री के सम्मुख। यह तुम्हारा केश श्रृंगार करेगी।’’
‘‘क्षमा हो महारानी !’’ सैरंध्री तत्काल बोली, ‘‘मालिनी की कला दासियों के भाग्य में नहीं है। यदि मेरी कला का चमत्कार देखना हो तो या तो आप ही यह कष्ट करें; अथवा राजकुमारी को अनुमति दें।’’
रानी के मन में रोष जागा, यह सैरंध्री अपने आपको समझती क्या है... इसका अहंकार क्या रानी सुदेष्णा की आज्ञा का तिरस्कार करेगा ?... किंतु रानी ने स्वयं को संयत किया : किसी की कला को परखे बिना, उसके विषय में अपनी धारणाएँ नहीं बना लेनी चाहिए। कलाकार अत्यंत संवेदनशील होता है। उसकी कला का अपमान हो तो वह राजाओं और राजाज्ञाओं तक का तिरस्कार कर सकता है।...
‘‘अच्छा धानुके ! मेरी ही प्रसाधन सामग्री ले आ। मैं अपने ही केशों पर इसकी कला का चमत्कार देखूँगी।’’
दासियाँ दौड़ पड़ीं और तत्काल सामग्री और उपकरण प्रस्तुत कर दिए गए।

रानी ने दर्पण अपने हाथ से नहीं छोड़ा और उनकी दृष्टि दर्पण से हट नहीं पाई।... एक क्षण में लग रहा होता था कि सैरंध्री इस कला में निपट अनाड़ी है, उसे इस कर्म का तनिक भी अभ्यास नहीं है; और अगले ही क्षण उसका हाथ रानी के केशों को कुछ इस प्रकार व्यवस्थित कर देता था कि लगता था, इस सैरंध्री से श्रेष्ठ सज्जाकर्मी इस संसार में नहीं है।... जैसे-जैसे सैरंध्री अपने काम में तल्लीन होती जाती थी, रानी सुदेष्णा उसकी कला पर मुग्ध होती जाती थीं।... और जब सैरंध्री ने अपना काम समाप्त कर एक निरीक्षक दृष्टि उनके केशों पर डाली तो स्वयं रानी को लगा कि दर्पण में वे स्वयं नहीं कोई और ही रूपसी बैठी हुई थी। रानी चमत्कृत हो अपने दर्पण से पूछ रही थी कि यदि यह उनका ही रूप था तो उस धृष्ट दर्पण ने उसे अब तक कहाँ छिपा रखा था ? यदि कहीं यह सैरंध्री उनके यौवन में उनके पास आई होती तो कदाचित् रानी सुदेष्णा संसार की सर्वश्रेष्ठ सुंदरी के रूप में प्रसिद्ध हुई होतीं; किंतु अब इस ढलते वयस में वे उसका क्या लाभ उठा पाएँगी ?... और सहसा रानी का मन बदल गया... यौवन में उन्हें किसी सैरंध्री की क्या आवश्यकता थी ? उनका अपना रूप ही पर्याप्त था, विराट के मन में झंझावात उठा देने के लिए।... सैरंध्री की आवश्यकता तो वस्तुतः अब ही थी, जब उनके ढलते रूप को किसी बैसाखी की आवश्यकता थी।... ठीक ही समय पर आई थी यह सैरंध्री। आज उन्हें उसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी, जब उनका रूप विराट को आकृष्ट करने में असफल होता प्रतीत हो रहा था।... वे कीचक से रुष्ट थे, और सुदेष्णा का रूप उन्हें यह भुला देने को बाध्य नहीं कर पा रहा था कि कीचक सुदेष्णा का भाई था। यह सुदेष्णा के रूप की असफलता ही तो थी।... और अब उन्हें मिल गई है यह सैरंध्री। इस रूप में तो वे कदाचित ! उत्तरा से भी अधिक आकर्षक दीख रही हैं।

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