हास्य-व्यंग्य >> प्रेमचन्द के फटे जूते प्रेमचन्द के फटे जूतेहरिशंकर परसाई
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इन रचनाओं में परसाई ने अपने युग के समाज का, उसकी बहुविध विसंगतियों, अन्तर्विरोधों और मिथ्याचारों का विवेचन किया है...
Premchand Ke Phate Joote
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘प्रेमचन्द्र के फटे जूते’ शीर्षक से यह प्रतिष्ठित कथाकार ज्ञानरंजन द्वारा सम्पादित हरिशंकर परसाई की प्रतिनिधि रचनाओं का संचयन है। इन रचनाओं में परसाई ने अपने युग के समाज का,उसकी बहुविध विसंगतियों, अन्तर्विरोधों और मिथ्याचारों का उद्घाटन किया है। इन रचनाओं में हँसी से बढ़कर जीवन की तीखी आलोचना है। परसाई का समग्र रूप अनूठा है। उनके पास स्मृति है और तर्क है। तर्क मनहूनी को काटता है और चपल विनोद-वृत्ति तथा ठाठदार हास्य की शैली से आगे बढ़ जाता है। व्यार और भक्ति के समुद्र के बीच परसाई ने अपनी ज्वलन्त और मौलिक खड़ी बोली में भारतीय समाज की असंख्य पेण्टिग्स बना डाली। प्रेमचन्द्र के बाद वे हिन्दी में सबसे अधिक पढ़े जानेवाले रचनाकार है।
प्रस्तुति
इस संकलन में हरिशंकर परसाई की समग्र रचनावली से कुछ चुनकर एक प्रतिनिधि संग्रह बनाने का प्रयास किया गया है। परसाई का रचना-संसार एक समुद्र की तरह है। वह कभी घटनेवाला संसार नहीं है। उनकी सामयिकता भी ठप नहीं होती। जिस रचनाकार के पास दृष्टिकोण होता है उसकी सामयिकता भी बहुत दूर तक जाती है, कभी-कभी अन्तहीन तक जाती है।
बड़े रचनाकारों के भीतर प्रवेश करना एक चक्रव्यूह में जाने की तरह है। अनेक महारथी उसमें प्रवेश करते हैं और लौट नहीं पाते। उसमें एक जबरदस्त मनचाही भटकन है। इसीलिए बहुत कम लोग होंगे जो ऐसे लेखक की कहानी सही तरह बखान कर सकें। जब तक परसाई की ग्रिप से निकलकर उन्हें दूर-दूर से न देखा जाए, मतलब एक बड़े डिस्टैंस से तब तक उन्हें मुकम्मल समझना, उन पर वास्तविक टिप्पणी करना कठिन है। मैं परसाई के साथ 35 साल से अधिक समय तक मँडराता रहा, उनके सान्निध्य में। उनके साथ मुम्बई, दिल्ली, भोपाल और राजनाँदगाँव की अभिन्न यात्राएँ भी कीं। उस समय फुलवारी पूरी तरह खिली और भरी हुई थी। पर आज तक ठीक तरह परसाई पर लिख पाने की हिम्मत मेरी हुई नहीं। अग्रज विश्वनाथ त्रिपाठी जब पहली बार परसाई पर किताब लिख रहे थे और ‘पहल’ के लिए लिख रहे थे तब अन्तरंग में उनसे बहुत सारी बातें परसाई को लेकर हुई थीं। त्रिपाठी जी की किताब अद्भुत है लेकिन एक टुकड़ा है। वह परसाई के रचना-संसार और उसकी समझ को आधारभूत तरह से आगे बढ़ाती है, पर परसाई तो समुद्र हैं। बड़े-बड़े बायोग्राफर्स भी डूबने-उतराने के बाद बहुत सारी उलझनें छोड़ जाते हैं। फिर परसाई का समय और उस समय को भेदते हुए परसाई की रचना इस हालत में थी जब हमारे पण्डितों के पास उन पर टिप्पणी करने के लिए औजार नहीं थे। वे औजार आज भी भट्टी में पक रहे हैं।
मुझे लगता है कि परसाई जैसी जबरदस्त प्रतिभाएँ अपने चारों तरफ एक स्वयमेव का आपातकाल लागू कर देती हैं। कभी-कभी उनके पास तक आलोचनाओं, आशंकाओं या सवालों का प्रवेश नहीं हो पाता। परसाई एक मैटनी आयडियल की तरह थे। वैसा ही उनका स्वर्ग था और वैसा ही उनका नर्क। अब जबकि उनके दिवंगत होने के बाद काफी समय गुजर गया है स्पष्ट रूप से बहुत गम्भीर विमर्श हो सकता है। परसाई के बारे में एक विचारक ने यह टिप्पणी की थी कि स्वतन्त्रता के बाद के भारत को अगर जानना हो तो वह परसाई की रचनावली में दिखेगा। इसके बावजूद परसाई को सत्ता-संस्कृति का बहिष्कार शुरू से सहना पड़ा। मैं चाहता हूँ कि हम इस सच्चाई का सामना करें कि परसाई को ‘परिमल’ ने अस्वीकार किया। ‘भारत भवन’ ने अस्वीकार किया। समाजवादियों ने अस्वीकार किया। हिन्दूवादियों ने अस्वीकार किया।
गाँधीवादियों ने और प्रबल कट्टर कामरेड भैरवप्रसाद गुप्त ने भी अस्वीकार किया। इसके इलस्ट्रेशन में मैं जाना यहाँ आवश्यक नहीं समझता। मेरा संकेत यह है कि जनप्रिय और स्टैण्ड लेनेवाले लेखक की हमारे समाज में यह ट्रेजडी है। सब उसे अपनी तरफ चाहते हैं और ऐसा न होने पर टूट पड़ते हैं। इस बात पर नजर रखनी चाहिए कि हिन्दी के कठिन समय में पूरावक्ती लेखक बड़ी संख्या में थे। और हिन्दी के धन-धान्य समय में पूरावक्ती लेखकों की संख्या नगण्य है। परसाई पूर्णकालिक रचनाकार थे। नौकरी छोड़कर यह चुनाव किया। जिस समय सम्पत्ति के लिए होड़ मची हो, संस्कृति का फण्ड राज्यों और देश में हर साल बढ़ रहा हो, कारपोरेट सेक्टर भी जब धनराशि तरह-तरह से पम्प कर रहा हो, जब पुरस्कार, सत्ता संस्थानों में मनोयन, भत्तों और घूस का बोलबाला हो, परसाई ने किसी तरह की नौकरी करने से इनकार कर दिया था। जब कि भीतर एक नारकीय संघर्ष था। हरिशंकर परसाई को व्यंग्य तक सीमित कर देने से हमारे बहुतेरे समीक्षकों ने उन्हें गम्भीरता से नहीं लिया। यहाँ तक कि प्रगतिवादी आलोचना ने भी उन्हें बहुत देर से ध्यान में लिया। पाठकों की तूफानी संख्या और विचारधारा के कारण अगर किसी लेखक के प्रति आलोचना आकर्षित होती है तो इसका मतलब वह अपनी धारा अवसरों के मुताबिक तय कर रही है।
परसाई का माहात्म्य क्या है। इसके बावजूद कि सोवियत मॉडल टूट गया आज कलावादी मुहावरे सर्वाधिक मुरझाए हुए हैं। क्योंकि संसार में दुख, क्षय, हिंसा, भूख, पलायन, विकृतियाँ बाढ़ पर हैं। अब कलावादी मुहावरे अश्लील लगने लगे हैं। जो लोग दावा करते थे कि हम तो बस सहज झरनेदार लेखक हैं, हमें बाकी से कुछ लेना देना नहीं है आज बिलकुल पीले पड़ गये हैं। परसाई लिखने के अलावा उससे अलग जो अनिवार्य राजनैतिक कर्म करते हैं, जो उनके लेखन की आत्मा है वही उनको चमकाता है। उनका स्वाद लेनेवाले लोग भी दरकिनार हो गये, क्योंकि परसाई का स्वाद नहीं लिया जा सकता। उनका लेखन एक भयावह चित्रकथाओं वाला दर्पण है। संसार के अनेक रचनाकारों की तरह परसाई ने भी अपने लेखन के अलावा एक देशभक्त संग्राम लड़ा जो उनका माहात्म्य बढ़ाता है। अधिकांश रचनाकार इस तरह लिख रहे हैं जैसे लुड़कने वाला पत्थर हो। उन्हें अपनी भूमिका तैयार करने, एजेण्डा बनाने, इतिहास के परिवर्तनशील मार्गों पर डटकर अपना चेहरा दिखाने की जरूरत महसूस नहीं होती। वे आजीवन लिखते होते हैं और एक मुग्ध देहावसान उनका हो जाता है। अगर हमारे पास-अपने संघर्ष के मुख्य विषय नहीं होंगे और हम मनुष्य के शत्रुओं से ही लड़ने के विषय माँगते-ढूँढ़ते रहेंगे तो यह एक बासी, ऊबा हुआ, मरियल और मन्द जीवन होगा। आजादी के बाद हिन्दी के समकालीन रचना-संसार में पक्षधरता तरल होती गयी। हमारे यहाँ टकराने और स्पष्ट तौर पर सत्ता के गलियारों में न जाने की गहरी और जबरदस्त परम्परा रही है। कबीर से निराला, मुक्तिबोध और परसाई तक। लेकिन नव आधुनिकतावादी इस तर्क और शैली को पलट देते हैं। वे सत्ता प्रतिष्ठानों पर कब्जा करने की व्यस्तताओं में, छलप्रपंचों में अपना पर्याप्त समय लागाते हैं।
हम कल्पना करें कि आज के दिन अगर परसाई होते तो बहुत सारे लेखक अपनी पोथियाँ छपवाते हुए उनसे आँख नहीं मिला सकते थे। और व्यंग्यकार तो और भी नहीं। परसाई को पढ़ सकने के बाद सलमान रूश्दी वह सब नहीं कहते जो पिछले दिनों उन्होंने कहा। जैसे कभी कलकत्ते में एलेन गिंसबर्ग ने कहा था कि अगर नीत्शे पशुबल का संहार करनेवाली दुर्गा का दृश्य देख सकते होते तो सम्भवतः विक्षिप्त न होते। नामवर जी और अनन्तमूर्ति ने रुश्दी को उत्तर दिया पर अगर परसाई होते तो मरियल वाणी और निस्सार शब्दों वाले जवाब न होते। परसाई चीर के तह में चले जाते और चीर के रख देते। असल में रुश्दी का ज्ञान उन अनुवादों के माध्यम से है जो सांस्कृतिक हथकण्डों के धनी लोगों द्वारा प्रायोजित किये जाते हैं। और जो हिन्दी की मूल्यवान रचनावली से किये जाने की बजाय आधुनातनवादियों की अर्धमूर्च्छित कृतियों से किये जाते हैं।
दुर्भाग्य से हमारे पास बड़े साहित्यकारों को याद करने, उनका मूल्यांकन करने, उन्हें समझने और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए बहुत ही पारम्परिक और सीमित तरीके हैं। इन्हीं सीमित रास्तों से हम अपने अद्वितीय रचनाकारों को याद करते हैं। जैसे निराला को रामविलास मिले, ऐसा चमत्कार तो सदियों में कभी-कभार होता है। बड़े और लोकप्रिय लेखकों को ‘जिन्दाबाद जिन्दाबाद’ तो बहुत मिला है पर इस तरह के रिवाजी संस्मरणों और समीक्षाओं से भीतर और गहरे पहुँचना प्रायः स्थगित रहता है और आसानियाँ प्रचलित हो जाती हैं। मुझे लगता है कि अपने समाज के जटिल स्पन्दनों और साहित्य की तात्त्विक बुनावट के साथ-साथ चले बिना रचनाकार तक पहुँचने की कोशिश अधूरी रह जाती है। परसाई के व्यंग्यों पर होने वाली रिसर्च और विभिन्न पाठ और सामायिक समीक्षाएँ और कक्षा के अध्यापन दिक्कत को और बढ़ाते ही हैं। परसाई जी पर एक अनूठी पुस्तक उनके जीवन-काल में ही विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखी थी। इससे एक सीमा तक न्याय हो सका।
हिन्दी में परसाई जैसों के रहते हुए, स्वतन्त्रता के बाद रचे गये, उसके पहले रचे गये, एक शताब्दी के महान साहित्य की परम्परा के जीवित उपस्थित रहने के बावजूद, सलमान रुश्दी उसका हत्यारा मखौल उड़ा रहे हैं। अन्ततः इसका जवाब देने की औकात हिन्दी आलोचना और सांस्कृतिक नियन्ताओं ने पचास साल में भी हासिल नहीं की। खेद है कि जिसको लेकर कोई शर्म नहीं बनती उसकी शर्म उठानी पड़ रही है। नामवर सिंह के इस कथन को अगर मानें की हिन्दी में पिछले पचास साल का साहित्य प्रोटेस्ट का साहित्य है तो परसाई इस प्रोटेस्ट के सबसे विरल रचनाकार हैं। इस बात को प्रमाणित करने के लिए घोषणाओं की आवश्यकता नहीं है बल्कि कला के उन नियमों और औजारों की खोज की जरूरत है, जिससे नया पाठक-समाज वशीभूत हो सके। परसाई, स्वतन्त्रता के बाद, भारत की ट्रेजेडी के चितेर हैं। लेकिन स्वयं लेखक की जो ट्रेजेडी है वह मूल्यहीन पतित उपभोक्ता के हाथ में जा सकती है।
बुनियादी तौर पर वर्ल्ड ऑफ एप्रिशियेशन में ही बहुत से घातक तत्व छिपे हुए हैं। जिस समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं हुए भीतर से, उस समाज में साहित्य रसिक बहुत भोंडा और पाखण्डी हो गया है। वह बिना परिवर्तन के मजा लेना चाहता है। परिवर्तन के माध्यमों पर दुःखान्त और व्यंग्य का असर नहीं है। परिवर्तन गलत दिशाओं में है और सचेत सम्भावनाएँ जहाँ थीं वे उदासीन हो गयी हैं। प्रेमचन्द, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन और अनके महारथियों ने अपनी-अपनी तरह से रास्ते बढ़ाने और मनुष्य को मुक्त करने के प्रयास किये, पर शिकंजा कसता ही गया। परसाई के रचने के बावजूद शिकंजा कमजोर नहीं हुआ। इसलिए लेखक की सफलता और असफलता को हम इस तरह नहीं आँक सकते। परसाई ने अग्रिम देखा, दूर दूर तक देखा और रचना में उसे अभिव्यक्त कर दिया। उन्होंने शिक्षण किया। यह उनका जबरदस्त पहलू है। इसके बाद जिन्हें इसे सँभालना और अग्रसर करना था वे उठ ही नहीं सके, गर्द में तब्दील हो गये। पसन्दगी की दुनिया रोज के भोजन जैसी हो गयी। पसन्द करने वाला पढ़ता है, पसन्द करता है, वाह-वाह करता है और मर जाता है। वह जल्दी में है, उसकी रेलगाड़ी छूटती है। इस पसन्दकार ने अपनी उम्र किताब के वाल्यूम के बराबर या डिस्क की अवधि के बराबर घटा ली है। अब यह पसन्दकार भी पैदा नहीं हो रहा है।
परसाई मुख्यतः जीवन-निर्माता थे। उन्होंने पता नहीं अपनी रचना और व्यक्तित्व से कितनों का निर्माण किया। व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया बहुत जटिल और अमूर्त होती है। वह केवल खुली सामाजिकता के दम पर नहीं काम करती। परसाई का समग्र रूप अनूठा था। उनके पास स्मृति थी और तर्क। तर्क मनहूसी को काटता था और चपल विनोदवृति तथा ठाठदार हास्य की शैली से आगे बढ़ जाता था। सातवें दशक के बाद जो लेखक थे और जो लेखक नहीं थे उन सब पर परसाई का साया पड़ रहा था। उमंग और आदर्श से भरे युवकों, विचारो से संयुक्त विभिन्न पार्टियों के कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, छात्र-संघों के उद्दण्ड और दमदमाते नौजवानों, साहित्य के स्कूली पाठकों-सबके ऊपर परसाई कभी घूप कभी छाँव की तरह निखर रहे थे। यह सब तीस साल से अधिक समय में मैंने जबलपुर में नजदीक से देखा। परसाई को लोग मैटिनी आडियल की तरह देखते थे। प्यार और भक्ति के समुद्र के बीच परसाई ने अपनी ज्वलन्त और मौलिक खड़ी बोली में भारतीय समाज की असंख्य पेण्टिग्ज़ बना डालीं। प्रेमचन्द्र के बाद वे हिन्दी में सबसे अधिक पढ़े जानेवाले रचनाकार हैं।
जब मैं परसाई को निर्माता लिख रहा हूँ तो यह कृतज्ञता ज्ञापित नहीं कर रहा हूँ। यह जीवन की संचालक प्रक्रियाओं को देखने-समझने की मेरी कोशिश है। जब मैं इलाहाबाद से जबलपुर आया तो इलाहाबाद अपने स्वर्णकाल में था। स्वर्णकाल एक ऊँचे कलश की तरह चमक रहा था। प्रगतिशीलों और प्रयोगवादियों के बीच एक जबरदस्त वैचारिक और सांगठनिक संघर्ष था। शहर साहित्य और सांस्कृतिक गहमागहमियों से निरन्तर भरा हुआ था। जनवादी साहित्य के बरक्स परिमल ने आधुनिक साहित्य के लिए एक गेट-वे बनाया हुआ था।
मैं एक आवारा भटकता युवक था। और इस स्वर्णकाल को छोड़कर जब मैं जबलपुर आया तो एक नौकरीपेशा हो जाने के अलावा कोई उम्मीद जीवन-स्वप्नों के लिए नहीं बची थी। जबलपुर में नौकरी के लिए आ जाने के दो दिन के भीतर परसाई जी कॉलेज कैम्पस में मिलने मुझसे आ गये। हम दो मिनट के लिए पहली बार जीवन में मिले। ये दो मिनट निर्णायक थे और मुझे दुनिया मिल गयी। इलाहाबाद के गुलशन को छोड़कर जबलपुर में अगर परसाई का अन्तरंग, दोस्ताना और झन्नाटेदार साथ न मिलता तो मेरे भीतर का आवारा, वेस्टर और बोहीमीयन तत्त्व समाप्त न होता। तीस साल तक वे मेरे निर्माण और बचाव की प्रक्रिया में निरन्तर मौजूद रहे। इसलिए मैं उन्हें निर्माता लिखता हूँ। यह बात (आज जब केवल परसाई की रचना ही हमारे पास मौजूद हैं) मैं सघन और घनीभूत रूप में आज भी महसूस करता हूँ, पर मैं इसे यहीं विराम लगाता हूँ, क्योंकि एक हद तक यह निजी बात है और मेरी रचना प्रक्रिया की कहानी है। मैं परसाई जी के विशाल फलक पर अपने रंग नहीं फेंकना चाहता। उनकी जमीन पर कब्जा करने वाले बहुतेरे लालायित लोग हैं। परसाई जी के नाम पर चेयर होगी, पुरस्कार और सम्मान होंगे, व्यंग्य को विधा माना जाए इसके लिए ट्रेड यूनियनी माँग होंगी। नाम जब जपा जाएगा तो काम को धूमिल करनेवाली सत्ताएँ अग्रसर होंगी। परसाई का कमाण्ड और शिक्षण भीतर की किस तह से आता था और परसाई की रचनावली के नीचे कौन-सी त्रासदी काम कर रही थी, मेरा उद्देश्य मात्र इतनी ही खोज करना है। मैं अपने लिए परसाई को पहले जानना चाहूँगा। विभूतियों के तमाम जमावड़ों में परसाई अलग बने रहें और बचे रहें तो इसी में हमारा सबका लाभ है।
परसाई स्वतन्त्र भारत का असली चेहरा हैं। अब इस विडम्बना को क्या करें कि स्वतन्त्र भारत में व्यंग्य अलग से एक विधा बन गयी। कुदाल को ड्राइंग रूम में अलग से सजाने और स्थान देने की कविता है यह। यह हमारे समय का सबसे बड़ा व्यंग्य है। इसको कहते हैं बाजार का सुरसापन ।इसे परसाई हनुमान ने अपनी क्षिप्र रणनीति से भरसक निस्तेज करने का प्रयास किया है। आज परसाई जीवित होते तो पचास साल के दर्पण में जितने भव्य और रंगीन चित्र दिख रहे हैं या दिखाये जा रहे हैं उनका अस्तित्व ही नहीं होता और कुछ दूसरे ही भयावह चित्र हमारे सामने जीवित होते। आजादी के बाद इस देश की जनता को एक-के-बाद एक अनेक मिथकों ने लील लिया। अभागी जनता बार-बार छली जाती रही। परसाई इन मिथकों को बार-बार तोड़ते हैं।
इस पृष्ठभूमि में परसाई जी की रचनावली को देखने पर पता चलेगा कि वे स्वतन्त्रता के बाद गढ़ने और तोड़नेवाली सारी घटनाओं को तीव्रता से देख रहे थे। वे भीतरी पोल को समझ रहे थे। वे कूट करिश्मों से अवगत थे। वे चैतन्य और स्फूर्त थे। उनके लेखक ने कभी धोखा नहीं खाया। उनके जैसा रचनात्मक जोखम उठानेवाले लेखक समकालीन समाज में विरले थे। यह जोखम उन्होंने शारीरिक क्षति की कीमत पर भी उठाया। वे पुरस्कृत भी हुए और प्रताड़ित भी। व्यंग्य की उत्पत्ति और महान रचना की उत्पत्ति के कारणों और प्रेरणाओं को जाने बिना परसाई और उनकी रचना-यात्रा से अवगत नहीं हुआ जा सकता। मीडियाक्रिटी परसाई के पास फटक नहीं सकती थी। और अब परसाई का रचनात्मक यश इतना बढ़ गया है कि विरोधी भी उनको आदर देने लग गये, तब हमारे प्रगतिशील आचार्यों ने भी उनका बखान और यशगान किया। इस प्रकार परसाई के प्रसंग में जनमत होने से आलोचना का अवसरवाद प्रकट हुआ। मैं अन्तिम रूप से समझता हूँ कि परसाई के साहित्य को बचाने के लिए इस अवसरवादी आलोचना तथा लोकप्रिय समय के स्थान पर गहरी राजनैतिक आँख, साहित्य-विवेक, नये साहित्यशास्त्र और सचेत पाठक की आवश्यकता है। परसाई पर व्यंग्यवादियों के खतरे और हिन्दी अध्यापकों की पाठ्य-पुस्तकीय समझ के खतरे मँडरा रहे हैं।
हम इक्कीसवीं शताब्दी में परसाई की मदद से ही पहुँचे हैं और उसके बिना आगामी यात्रा सम्भव नहीं होगी।
व्यंग्य निबन्ध
बड़े रचनाकारों के भीतर प्रवेश करना एक चक्रव्यूह में जाने की तरह है। अनेक महारथी उसमें प्रवेश करते हैं और लौट नहीं पाते। उसमें एक जबरदस्त मनचाही भटकन है। इसीलिए बहुत कम लोग होंगे जो ऐसे लेखक की कहानी सही तरह बखान कर सकें। जब तक परसाई की ग्रिप से निकलकर उन्हें दूर-दूर से न देखा जाए, मतलब एक बड़े डिस्टैंस से तब तक उन्हें मुकम्मल समझना, उन पर वास्तविक टिप्पणी करना कठिन है। मैं परसाई के साथ 35 साल से अधिक समय तक मँडराता रहा, उनके सान्निध्य में। उनके साथ मुम्बई, दिल्ली, भोपाल और राजनाँदगाँव की अभिन्न यात्राएँ भी कीं। उस समय फुलवारी पूरी तरह खिली और भरी हुई थी। पर आज तक ठीक तरह परसाई पर लिख पाने की हिम्मत मेरी हुई नहीं। अग्रज विश्वनाथ त्रिपाठी जब पहली बार परसाई पर किताब लिख रहे थे और ‘पहल’ के लिए लिख रहे थे तब अन्तरंग में उनसे बहुत सारी बातें परसाई को लेकर हुई थीं। त्रिपाठी जी की किताब अद्भुत है लेकिन एक टुकड़ा है। वह परसाई के रचना-संसार और उसकी समझ को आधारभूत तरह से आगे बढ़ाती है, पर परसाई तो समुद्र हैं। बड़े-बड़े बायोग्राफर्स भी डूबने-उतराने के बाद बहुत सारी उलझनें छोड़ जाते हैं। फिर परसाई का समय और उस समय को भेदते हुए परसाई की रचना इस हालत में थी जब हमारे पण्डितों के पास उन पर टिप्पणी करने के लिए औजार नहीं थे। वे औजार आज भी भट्टी में पक रहे हैं।
मुझे लगता है कि परसाई जैसी जबरदस्त प्रतिभाएँ अपने चारों तरफ एक स्वयमेव का आपातकाल लागू कर देती हैं। कभी-कभी उनके पास तक आलोचनाओं, आशंकाओं या सवालों का प्रवेश नहीं हो पाता। परसाई एक मैटनी आयडियल की तरह थे। वैसा ही उनका स्वर्ग था और वैसा ही उनका नर्क। अब जबकि उनके दिवंगत होने के बाद काफी समय गुजर गया है स्पष्ट रूप से बहुत गम्भीर विमर्श हो सकता है। परसाई के बारे में एक विचारक ने यह टिप्पणी की थी कि स्वतन्त्रता के बाद के भारत को अगर जानना हो तो वह परसाई की रचनावली में दिखेगा। इसके बावजूद परसाई को सत्ता-संस्कृति का बहिष्कार शुरू से सहना पड़ा। मैं चाहता हूँ कि हम इस सच्चाई का सामना करें कि परसाई को ‘परिमल’ ने अस्वीकार किया। ‘भारत भवन’ ने अस्वीकार किया। समाजवादियों ने अस्वीकार किया। हिन्दूवादियों ने अस्वीकार किया।
गाँधीवादियों ने और प्रबल कट्टर कामरेड भैरवप्रसाद गुप्त ने भी अस्वीकार किया। इसके इलस्ट्रेशन में मैं जाना यहाँ आवश्यक नहीं समझता। मेरा संकेत यह है कि जनप्रिय और स्टैण्ड लेनेवाले लेखक की हमारे समाज में यह ट्रेजडी है। सब उसे अपनी तरफ चाहते हैं और ऐसा न होने पर टूट पड़ते हैं। इस बात पर नजर रखनी चाहिए कि हिन्दी के कठिन समय में पूरावक्ती लेखक बड़ी संख्या में थे। और हिन्दी के धन-धान्य समय में पूरावक्ती लेखकों की संख्या नगण्य है। परसाई पूर्णकालिक रचनाकार थे। नौकरी छोड़कर यह चुनाव किया। जिस समय सम्पत्ति के लिए होड़ मची हो, संस्कृति का फण्ड राज्यों और देश में हर साल बढ़ रहा हो, कारपोरेट सेक्टर भी जब धनराशि तरह-तरह से पम्प कर रहा हो, जब पुरस्कार, सत्ता संस्थानों में मनोयन, भत्तों और घूस का बोलबाला हो, परसाई ने किसी तरह की नौकरी करने से इनकार कर दिया था। जब कि भीतर एक नारकीय संघर्ष था। हरिशंकर परसाई को व्यंग्य तक सीमित कर देने से हमारे बहुतेरे समीक्षकों ने उन्हें गम्भीरता से नहीं लिया। यहाँ तक कि प्रगतिवादी आलोचना ने भी उन्हें बहुत देर से ध्यान में लिया। पाठकों की तूफानी संख्या और विचारधारा के कारण अगर किसी लेखक के प्रति आलोचना आकर्षित होती है तो इसका मतलब वह अपनी धारा अवसरों के मुताबिक तय कर रही है।
परसाई का माहात्म्य क्या है। इसके बावजूद कि सोवियत मॉडल टूट गया आज कलावादी मुहावरे सर्वाधिक मुरझाए हुए हैं। क्योंकि संसार में दुख, क्षय, हिंसा, भूख, पलायन, विकृतियाँ बाढ़ पर हैं। अब कलावादी मुहावरे अश्लील लगने लगे हैं। जो लोग दावा करते थे कि हम तो बस सहज झरनेदार लेखक हैं, हमें बाकी से कुछ लेना देना नहीं है आज बिलकुल पीले पड़ गये हैं। परसाई लिखने के अलावा उससे अलग जो अनिवार्य राजनैतिक कर्म करते हैं, जो उनके लेखन की आत्मा है वही उनको चमकाता है। उनका स्वाद लेनेवाले लोग भी दरकिनार हो गये, क्योंकि परसाई का स्वाद नहीं लिया जा सकता। उनका लेखन एक भयावह चित्रकथाओं वाला दर्पण है। संसार के अनेक रचनाकारों की तरह परसाई ने भी अपने लेखन के अलावा एक देशभक्त संग्राम लड़ा जो उनका माहात्म्य बढ़ाता है। अधिकांश रचनाकार इस तरह लिख रहे हैं जैसे लुड़कने वाला पत्थर हो। उन्हें अपनी भूमिका तैयार करने, एजेण्डा बनाने, इतिहास के परिवर्तनशील मार्गों पर डटकर अपना चेहरा दिखाने की जरूरत महसूस नहीं होती। वे आजीवन लिखते होते हैं और एक मुग्ध देहावसान उनका हो जाता है। अगर हमारे पास-अपने संघर्ष के मुख्य विषय नहीं होंगे और हम मनुष्य के शत्रुओं से ही लड़ने के विषय माँगते-ढूँढ़ते रहेंगे तो यह एक बासी, ऊबा हुआ, मरियल और मन्द जीवन होगा। आजादी के बाद हिन्दी के समकालीन रचना-संसार में पक्षधरता तरल होती गयी। हमारे यहाँ टकराने और स्पष्ट तौर पर सत्ता के गलियारों में न जाने की गहरी और जबरदस्त परम्परा रही है। कबीर से निराला, मुक्तिबोध और परसाई तक। लेकिन नव आधुनिकतावादी इस तर्क और शैली को पलट देते हैं। वे सत्ता प्रतिष्ठानों पर कब्जा करने की व्यस्तताओं में, छलप्रपंचों में अपना पर्याप्त समय लागाते हैं।
हम कल्पना करें कि आज के दिन अगर परसाई होते तो बहुत सारे लेखक अपनी पोथियाँ छपवाते हुए उनसे आँख नहीं मिला सकते थे। और व्यंग्यकार तो और भी नहीं। परसाई को पढ़ सकने के बाद सलमान रूश्दी वह सब नहीं कहते जो पिछले दिनों उन्होंने कहा। जैसे कभी कलकत्ते में एलेन गिंसबर्ग ने कहा था कि अगर नीत्शे पशुबल का संहार करनेवाली दुर्गा का दृश्य देख सकते होते तो सम्भवतः विक्षिप्त न होते। नामवर जी और अनन्तमूर्ति ने रुश्दी को उत्तर दिया पर अगर परसाई होते तो मरियल वाणी और निस्सार शब्दों वाले जवाब न होते। परसाई चीर के तह में चले जाते और चीर के रख देते। असल में रुश्दी का ज्ञान उन अनुवादों के माध्यम से है जो सांस्कृतिक हथकण्डों के धनी लोगों द्वारा प्रायोजित किये जाते हैं। और जो हिन्दी की मूल्यवान रचनावली से किये जाने की बजाय आधुनातनवादियों की अर्धमूर्च्छित कृतियों से किये जाते हैं।
दुर्भाग्य से हमारे पास बड़े साहित्यकारों को याद करने, उनका मूल्यांकन करने, उन्हें समझने और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए बहुत ही पारम्परिक और सीमित तरीके हैं। इन्हीं सीमित रास्तों से हम अपने अद्वितीय रचनाकारों को याद करते हैं। जैसे निराला को रामविलास मिले, ऐसा चमत्कार तो सदियों में कभी-कभार होता है। बड़े और लोकप्रिय लेखकों को ‘जिन्दाबाद जिन्दाबाद’ तो बहुत मिला है पर इस तरह के रिवाजी संस्मरणों और समीक्षाओं से भीतर और गहरे पहुँचना प्रायः स्थगित रहता है और आसानियाँ प्रचलित हो जाती हैं। मुझे लगता है कि अपने समाज के जटिल स्पन्दनों और साहित्य की तात्त्विक बुनावट के साथ-साथ चले बिना रचनाकार तक पहुँचने की कोशिश अधूरी रह जाती है। परसाई के व्यंग्यों पर होने वाली रिसर्च और विभिन्न पाठ और सामायिक समीक्षाएँ और कक्षा के अध्यापन दिक्कत को और बढ़ाते ही हैं। परसाई जी पर एक अनूठी पुस्तक उनके जीवन-काल में ही विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखी थी। इससे एक सीमा तक न्याय हो सका।
हिन्दी में परसाई जैसों के रहते हुए, स्वतन्त्रता के बाद रचे गये, उसके पहले रचे गये, एक शताब्दी के महान साहित्य की परम्परा के जीवित उपस्थित रहने के बावजूद, सलमान रुश्दी उसका हत्यारा मखौल उड़ा रहे हैं। अन्ततः इसका जवाब देने की औकात हिन्दी आलोचना और सांस्कृतिक नियन्ताओं ने पचास साल में भी हासिल नहीं की। खेद है कि जिसको लेकर कोई शर्म नहीं बनती उसकी शर्म उठानी पड़ रही है। नामवर सिंह के इस कथन को अगर मानें की हिन्दी में पिछले पचास साल का साहित्य प्रोटेस्ट का साहित्य है तो परसाई इस प्रोटेस्ट के सबसे विरल रचनाकार हैं। इस बात को प्रमाणित करने के लिए घोषणाओं की आवश्यकता नहीं है बल्कि कला के उन नियमों और औजारों की खोज की जरूरत है, जिससे नया पाठक-समाज वशीभूत हो सके। परसाई, स्वतन्त्रता के बाद, भारत की ट्रेजेडी के चितेर हैं। लेकिन स्वयं लेखक की जो ट्रेजेडी है वह मूल्यहीन पतित उपभोक्ता के हाथ में जा सकती है।
बुनियादी तौर पर वर्ल्ड ऑफ एप्रिशियेशन में ही बहुत से घातक तत्व छिपे हुए हैं। जिस समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं हुए भीतर से, उस समाज में साहित्य रसिक बहुत भोंडा और पाखण्डी हो गया है। वह बिना परिवर्तन के मजा लेना चाहता है। परिवर्तन के माध्यमों पर दुःखान्त और व्यंग्य का असर नहीं है। परिवर्तन गलत दिशाओं में है और सचेत सम्भावनाएँ जहाँ थीं वे उदासीन हो गयी हैं। प्रेमचन्द, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन और अनके महारथियों ने अपनी-अपनी तरह से रास्ते बढ़ाने और मनुष्य को मुक्त करने के प्रयास किये, पर शिकंजा कसता ही गया। परसाई के रचने के बावजूद शिकंजा कमजोर नहीं हुआ। इसलिए लेखक की सफलता और असफलता को हम इस तरह नहीं आँक सकते। परसाई ने अग्रिम देखा, दूर दूर तक देखा और रचना में उसे अभिव्यक्त कर दिया। उन्होंने शिक्षण किया। यह उनका जबरदस्त पहलू है। इसके बाद जिन्हें इसे सँभालना और अग्रसर करना था वे उठ ही नहीं सके, गर्द में तब्दील हो गये। पसन्दगी की दुनिया रोज के भोजन जैसी हो गयी। पसन्द करने वाला पढ़ता है, पसन्द करता है, वाह-वाह करता है और मर जाता है। वह जल्दी में है, उसकी रेलगाड़ी छूटती है। इस पसन्दकार ने अपनी उम्र किताब के वाल्यूम के बराबर या डिस्क की अवधि के बराबर घटा ली है। अब यह पसन्दकार भी पैदा नहीं हो रहा है।
परसाई मुख्यतः जीवन-निर्माता थे। उन्होंने पता नहीं अपनी रचना और व्यक्तित्व से कितनों का निर्माण किया। व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया बहुत जटिल और अमूर्त होती है। वह केवल खुली सामाजिकता के दम पर नहीं काम करती। परसाई का समग्र रूप अनूठा था। उनके पास स्मृति थी और तर्क। तर्क मनहूसी को काटता था और चपल विनोदवृति तथा ठाठदार हास्य की शैली से आगे बढ़ जाता था। सातवें दशक के बाद जो लेखक थे और जो लेखक नहीं थे उन सब पर परसाई का साया पड़ रहा था। उमंग और आदर्श से भरे युवकों, विचारो से संयुक्त विभिन्न पार्टियों के कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, छात्र-संघों के उद्दण्ड और दमदमाते नौजवानों, साहित्य के स्कूली पाठकों-सबके ऊपर परसाई कभी घूप कभी छाँव की तरह निखर रहे थे। यह सब तीस साल से अधिक समय में मैंने जबलपुर में नजदीक से देखा। परसाई को लोग मैटिनी आडियल की तरह देखते थे। प्यार और भक्ति के समुद्र के बीच परसाई ने अपनी ज्वलन्त और मौलिक खड़ी बोली में भारतीय समाज की असंख्य पेण्टिग्ज़ बना डालीं। प्रेमचन्द्र के बाद वे हिन्दी में सबसे अधिक पढ़े जानेवाले रचनाकार हैं।
जब मैं परसाई को निर्माता लिख रहा हूँ तो यह कृतज्ञता ज्ञापित नहीं कर रहा हूँ। यह जीवन की संचालक प्रक्रियाओं को देखने-समझने की मेरी कोशिश है। जब मैं इलाहाबाद से जबलपुर आया तो इलाहाबाद अपने स्वर्णकाल में था। स्वर्णकाल एक ऊँचे कलश की तरह चमक रहा था। प्रगतिशीलों और प्रयोगवादियों के बीच एक जबरदस्त वैचारिक और सांगठनिक संघर्ष था। शहर साहित्य और सांस्कृतिक गहमागहमियों से निरन्तर भरा हुआ था। जनवादी साहित्य के बरक्स परिमल ने आधुनिक साहित्य के लिए एक गेट-वे बनाया हुआ था।
मैं एक आवारा भटकता युवक था। और इस स्वर्णकाल को छोड़कर जब मैं जबलपुर आया तो एक नौकरीपेशा हो जाने के अलावा कोई उम्मीद जीवन-स्वप्नों के लिए नहीं बची थी। जबलपुर में नौकरी के लिए आ जाने के दो दिन के भीतर परसाई जी कॉलेज कैम्पस में मिलने मुझसे आ गये। हम दो मिनट के लिए पहली बार जीवन में मिले। ये दो मिनट निर्णायक थे और मुझे दुनिया मिल गयी। इलाहाबाद के गुलशन को छोड़कर जबलपुर में अगर परसाई का अन्तरंग, दोस्ताना और झन्नाटेदार साथ न मिलता तो मेरे भीतर का आवारा, वेस्टर और बोहीमीयन तत्त्व समाप्त न होता। तीस साल तक वे मेरे निर्माण और बचाव की प्रक्रिया में निरन्तर मौजूद रहे। इसलिए मैं उन्हें निर्माता लिखता हूँ। यह बात (आज जब केवल परसाई की रचना ही हमारे पास मौजूद हैं) मैं सघन और घनीभूत रूप में आज भी महसूस करता हूँ, पर मैं इसे यहीं विराम लगाता हूँ, क्योंकि एक हद तक यह निजी बात है और मेरी रचना प्रक्रिया की कहानी है। मैं परसाई जी के विशाल फलक पर अपने रंग नहीं फेंकना चाहता। उनकी जमीन पर कब्जा करने वाले बहुतेरे लालायित लोग हैं। परसाई जी के नाम पर चेयर होगी, पुरस्कार और सम्मान होंगे, व्यंग्य को विधा माना जाए इसके लिए ट्रेड यूनियनी माँग होंगी। नाम जब जपा जाएगा तो काम को धूमिल करनेवाली सत्ताएँ अग्रसर होंगी। परसाई का कमाण्ड और शिक्षण भीतर की किस तह से आता था और परसाई की रचनावली के नीचे कौन-सी त्रासदी काम कर रही थी, मेरा उद्देश्य मात्र इतनी ही खोज करना है। मैं अपने लिए परसाई को पहले जानना चाहूँगा। विभूतियों के तमाम जमावड़ों में परसाई अलग बने रहें और बचे रहें तो इसी में हमारा सबका लाभ है।
परसाई स्वतन्त्र भारत का असली चेहरा हैं। अब इस विडम्बना को क्या करें कि स्वतन्त्र भारत में व्यंग्य अलग से एक विधा बन गयी। कुदाल को ड्राइंग रूम में अलग से सजाने और स्थान देने की कविता है यह। यह हमारे समय का सबसे बड़ा व्यंग्य है। इसको कहते हैं बाजार का सुरसापन ।इसे परसाई हनुमान ने अपनी क्षिप्र रणनीति से भरसक निस्तेज करने का प्रयास किया है। आज परसाई जीवित होते तो पचास साल के दर्पण में जितने भव्य और रंगीन चित्र दिख रहे हैं या दिखाये जा रहे हैं उनका अस्तित्व ही नहीं होता और कुछ दूसरे ही भयावह चित्र हमारे सामने जीवित होते। आजादी के बाद इस देश की जनता को एक-के-बाद एक अनेक मिथकों ने लील लिया। अभागी जनता बार-बार छली जाती रही। परसाई इन मिथकों को बार-बार तोड़ते हैं।
इस पृष्ठभूमि में परसाई जी की रचनावली को देखने पर पता चलेगा कि वे स्वतन्त्रता के बाद गढ़ने और तोड़नेवाली सारी घटनाओं को तीव्रता से देख रहे थे। वे भीतरी पोल को समझ रहे थे। वे कूट करिश्मों से अवगत थे। वे चैतन्य और स्फूर्त थे। उनके लेखक ने कभी धोखा नहीं खाया। उनके जैसा रचनात्मक जोखम उठानेवाले लेखक समकालीन समाज में विरले थे। यह जोखम उन्होंने शारीरिक क्षति की कीमत पर भी उठाया। वे पुरस्कृत भी हुए और प्रताड़ित भी। व्यंग्य की उत्पत्ति और महान रचना की उत्पत्ति के कारणों और प्रेरणाओं को जाने बिना परसाई और उनकी रचना-यात्रा से अवगत नहीं हुआ जा सकता। मीडियाक्रिटी परसाई के पास फटक नहीं सकती थी। और अब परसाई का रचनात्मक यश इतना बढ़ गया है कि विरोधी भी उनको आदर देने लग गये, तब हमारे प्रगतिशील आचार्यों ने भी उनका बखान और यशगान किया। इस प्रकार परसाई के प्रसंग में जनमत होने से आलोचना का अवसरवाद प्रकट हुआ। मैं अन्तिम रूप से समझता हूँ कि परसाई के साहित्य को बचाने के लिए इस अवसरवादी आलोचना तथा लोकप्रिय समय के स्थान पर गहरी राजनैतिक आँख, साहित्य-विवेक, नये साहित्यशास्त्र और सचेत पाठक की आवश्यकता है। परसाई पर व्यंग्यवादियों के खतरे और हिन्दी अध्यापकों की पाठ्य-पुस्तकीय समझ के खतरे मँडरा रहे हैं।
हम इक्कीसवीं शताब्दी में परसाई की मदद से ही पहुँचे हैं और उसके बिना आगामी यात्रा सम्भव नहीं होगी।
व्यंग्य निबन्ध
कन्धे श्रवणकुमार के
एक सज्जन छोटे बेटे की शिकायत करते हैं-कहना नहीं मानता और कभी मुँहजोरी भी करता है। और बड़ा लड़का ? वह तो बड़ा अच्छा है। पढ़-लिखकर अब कहीं नौकरी करता है। सज्जन के मत में दोनों बेटों में बड़ा फर्क है और यह फर्क कई प्रसंगों में उन्हें दिख जाता है। एक शाम का प्रसंग है। वे नियमित सन्ध्यावन्दन करते हैं (यानी शराब पीते हैं), कोई बुरा नहीं करते। बहुत लोग पीते हैं। गंगाजल खुलेआम पीते हैं, शराब छिपकर-गो शराब ज्यादा मजा देती है। आदमी बेमजा खुलकर बात करता है। और बामजा को छिपाकर, यानी सुख शर्म की बात मानी जाती है।
लेकिन बात उन सज्जन की उठी थी। उन्हें सोडा की जरूरत पड़ती है। बड़ा लड़का कहते ही फौरन किताब के पन्नों में पेन्सिल रखकर सोडा लेने दौड़ जाता था। लाता छोटा भी है, पर फौरन नहीं उठता। पैराग्रफ पूरा करके उठता है। भारतीय पिता को यह अवज्ञा बरदाश्त नहीं। वह सीमान्तों पर सम्बन्ध रखता है। या तो बेटे को पीटेगा या उसके हाथ से पिटेगा। बीच की स्थिति उसे पसन्द नहीं। छोटा बेटा भी हरकत करता है। पिता जल्दी मचाते हैं, तो कह भी देता है ‘जाता तो हूँ’ ! उसके मन में सवाल और शंका भी उठती है। सोचता है-यह पिता फीस रोकर देता है, कपड़े बनवाना टालता जाता है, फिर यह नहीं सोचता कि इसे पढ़ाई के बीच से नहीं उठना चाहिए।
बड़े लड़के के मन में कभी सवाल और शंका नहीं उठे। वह मेरी ही उम्र का होगा। उसने वही किताब पढ़ी होंगी, जो मैंने पढ़ी थीं। हम सब गलत किताबों की पैदावार हैं। ये सवालों को मारने की किताबें थीं। स्कूल प्रार्थना से शुरू होता था-‘शरण में आये हैं हम तुम्हारी, दया करो हे दयालु भगवन !’ क्यों शरण में आये हैं, किसके डर से आये हैं—कुछ नहीं मालूम। शरण में आने की ट्रेनिंग अक्षर-ज्ञान से पहले हो जाती थी। हमने गलत किताबें पढ़ीं हैं और आँखों को उनमें जड़ दिया। छोटा लड़का दूसरी किताबें पढ़ता है और आँखें उनमें गड़ाता नहीं है, आसपास भी देख लेता है। वह अपनी आँखों को फूटने से बचाने की कोशिश कर रहा है। इससे सारे पिता-स्वरूप लोग परेशान हैं- भौतिक पिता, गुरू, बड़े-बूढ़े शासक और नेता। हमारी किताबों में पिता-स्वरूप लोग सवाल और शंका से ऊपर होते थे। शिष्य पक्षपाती गुरू को अँगूठा काटकर दे देता था और दोनों ‘धन्य’ कहलाते थे। अब शिष्य उपकुलपति से रिपोर्ट कर देता है कि अमुक अध्यापक शिष्यों के अँगूठे कटवाते हैं। यदि उपकुलपति ध्यान नहीं देते, तो वह विद्यार्थीयों का जुलूस लेकर विश्वविद्यालय पर धावा बोल देता है ।
हमें तो तीसरी कक्षा में ही उस भक्त की कथा पढ़ा दी गयी थी, जो अपने पुत्र को आरे से चीरता है। कुछ लोगों के लिए आदमी और कद्दू में कोई फर्क नहीं। दोनों ही चीरे जा सकते हैं। उस भक्त का नाम मोरध्वज था। ऐसी सारी कथाओं का अन्त ऐसा होता है जिससे चिरनेवालों को प्रोत्साहन मिले। भगवान प्रकट होते हैं और जिस पार्टी का जो नुकसान हुआ है, पूरा कर देते हैं-मृत को जिला देते हैं, जायदाद चली गयी है, तो वापस दिला देते हैं, किसी को मुआवजे के रूप में स्वर्ग भेज देते हैं। कथा के इस अन्त ने कितनी पीढ़ियों को आरे से चिरवा दिया होगा।
इस कथा पर न मैंने शंका की थी, न सज्जन के बड़े बेटे ने। मगर छोटा लड़का पूछेगा-पिताजी, चीरने से पहले यह बताइए कि भगवान इससे खुश होते हैं इसका सबूत क्या है ? फिर इसकी क्या गारण्टी कि वे आ ही जाएँगे ? उन्हें हजार काम लगे रहते हैं। फिर इसका क्या भरोसा कि वे कटे को जोड़ देते हैं ? अगर यह सब हो भी, तो भी आपके सत्यकल्पित विश्वास आपके अपने हैं। उनके लिए आप अपने को कटवाइए और अपनी हठ निभाइए। पहले जन्मे लोग अपनी सही-गलत मान्यता के लिए पीछे जन्मों को क्यों काटें ? एक पीढ़ी के लिए दूसरी पीढ़ी क्यों चीरी जाए ?
लड़के मुँह जोरी करने लगे हैं। कम्बख्तों की किताबें बदल गयी हैं। कोर्स इतनी जल्दी क्यों बदलने लगे हैं ? बड़े लड़के से कह दिया था कि अपनी किताबें सँभालकर रखना छोटे के काम आएँगी ! पर किताबें बदल गयीं। पुरानी किताबें किसी के काम नहीं आ रही हैं। एक ही किताब पीढ़ियों क्यों नहीं चलती ?
पिताओं को यह चिन्ता है। बड़ा लड़का फौरन किताब में पेन्सिल रखकर सोडा लेने भाग जाता था। छोटा पैराग्राफ पूरा करके उठता है।
भीष्म की कथा भी हमें तभी पढ़ा दी गयी थी। हमने भीष्म को ‘धन्य’ कहा था। छोटा लड़का शान्तनु को ‘धिक्कार’ कहेगा। ‘धन्य’ और ‘धिक्कार’ की जगहें बदल गयी हैं। लोगों को पता नहीं है। छोटा लड़का भीष्म से कहेगा-क्या तुमने भी वही किताबें पढ़ी थीं, जो हमारे बड़े भाई ने ? तुम पिता से क्यों नहीं कह सके कि जीवन भर के भोग के बाद भी आप की लिप्सा बनी हुई है, तो मैं क्या करूँ ? अपना संयम दे सकता, तो थोड़ा दे देता, जीवन कैसे दे दूँ ? राज्य से आप मुझे वंचित कर सकते हैं, पर मनुष्य का स्वाभाविक अधिकार मैं हरगिज नहीं छोड़ूँगा।
छोटा टिप्पणी करेगा-भीष्म ऐसा नहीं कह सके। उन्हें पिता ने आदमी से तीर चलाने वाली मशीन बना दिया। ऑटोमेटिक धनुष ! महाभारत का यह सबसे भला, तेजस्वी, आदरणीय, ज्ञानी व्यक्ति सबसे दयनीय भी है।
मगर देख रहा हूँ कि श्रवणकुमार के कन्धे दुखने लगे हैं। यह काँवड़ हिलाने लगा है। काँवड़ में अन्धे परेशान हैं। विचित्र दृश्य है यह। दो अन्धे एक आँख वाले पर लदे हैं और उसे चला रहे हैं। जीवन से कटजाने के कारण एक पीढ़ी दृष्टिहीन हो जाती है, तब वह आगामी पीढ़ी के ऊपर लद जाती है। अन्धी होते ही उसे तीर्थ सूझने लगते हैं। वह कहती है- हमें तीर्थ ले चलो। इस क्रियाशील जन्म का भोग हो चुका है। हमें आगामी जन्म के भोग के लिए पुण्य का एडवांस देना है। आँखवाले की जवानी अन्धों को ढोने में गुजर जाती है। वह अन्धों के बताये रास्ते पर चलता है। उसका निर्णय और निर्वाचन का अधिकार चला जाता है। उसकी आँखें रास्ता नहीं खोजतीं, सिर्फ राह के काँटे बचाने के काम आती हैं।
कितनी काँवड़े हैं- राजनीति में, साहित्य में, कला में, धर्म में, शिक्षा में। अन्धे बैठे हैं और आँखवाले उन्हें ढो रहे हैं। अन्धें में अजब काँइयाँपन आ जाता है। वह खरे और खोटे सिक्के को पहचान लेता है। पैसे सही गिन लेता है। उसमें टटोलने की क्षमता आ जाती है। वह पद टटोल लेता है, पुरस्कार टटोल लेता है, सम्मान के रास्ते टटोल लेता है। बैंक का चेक टटोल लेता है। आँखवाले जिन्हें नहीं देख पाते, उन्हें वह टटोल लेता है।
नये अन्धों के तीर्थ भी नये हैं। वे काशी, हरिद्वार, पुरी नहीं जाते। इस काँवड़वाले अन्धे से पूछो- कहाँ ले चलें ? वह कहेगा-तीर्थ ! कौन सा तीर्थ ? जवाब देगा केबिनट ! मंत्रिमण्डल ! उस काँवड़वाले से पूछो, तो वह भी तीर्थ जाने को प्रस्तुत है। कौन-सा तीर्थ चलेंगे आप ? जवाब मिलेगा अकादमी, विश्वविद्यालय !
मगर काँवड़े हिलने लगी हैं। ढोनेवालों के मन में शंका पैदा होने लगी है। वे झटका देते हैं, तो अन्धे चिल्लाते हैं-अरे पापी ! यह क्या करते हो ? क्या हमें गिरा दोगे ? और ढोनेवाला कहता है-अपनी शक्ति और जीवन हम अन्धों को ढोने में नहीं गुजारेंगे। तुम एक जगह बैठो। माला जपो। आदर लो, रक्षण लो। हमें अपनी इच्छा से चलने दो। अनुभव दे दो, दृष्टि मत दो ! वह हम कमा लेंगे।
राजनीति, साहित्य आदि तो बड़े प्रगट क्षेत्र हैं। अप्रगट रूप से भी, विभिन्न क्षेत्रों में श्रवणकुमार काँवड़ उतारने के लिए हिला रहे हैं। वे किन्हीं विश्वासों की आरी से चिरने को तैयार नहीं हैं। मैं कॉफी हाउस के कोने में बैठे उस युवक की बात नहीं कर रहा हूँ, जिसने गुस्से में दाढ़ी बड़ा ली है, जैसे उसकी दाढ़ी एक खास साइज और आकार की होते ही क्रान्ति हो जाएगी। बढ़ी दाढ़ी, ड्रेन पाइप और ‘सो ह्वाट’ वालों से यह नहीं हो रहा है। चुस्त कपड़े, हेयर स्टाइल और ‘ओ वण्डरफुल’ वालियों से भी यह नहीं हो रहा है। ये तो न विश्वास में सच्चे, न शंका में। यह बिना प्रदर्शन और शोर शराबे के घरों और परिवारों में हो रहा है। सुशील, विनम्र और आज्ञाकारी युवक-युवती काँवड़े उतारने लगें हैं किसी के विश्वास के ओर से कटने से इनकार करने लगे हैं। एक परिचित है, जिसका ज्योतिष में विश्वास है। उनकी शिक्षिता जवान लड़की है। जिससे वह शादी करना चाहती थी, उससे ग्रह नहीं मिले। एक-दो और योग्य वरों से मिलान किया पर ग्रह यहाँ भी नहीं मिले। उसके ग्रहों ने किसी नालायक से मिलने के लिए स्थिति सँभाली होगी। लड़की एक दो साल घुटती रही। एक दिन उसने नम्रता से परिवार से कह दिया-‘आप लोगों का इस ज्योतिष में विश्वास है, पर मेरा नहीं है। जो मेरा विश्वास ही नहीं है, उस पर मेरा बलिदान नहीं होना चाहिए।’ परिवार कुछ देर तो चमत्कृत रहा, फिर उसकी इच्छा से शादी कर दी।
देख रहा हूँ कि मोरध्वज का आरा छीनकर फेंका जा रहा है। श्रवणकुमार के कन्धे दुखने लगे हैं। वह काँवड़ को उतार कर रखने लगा है।
वे सज्जन परेशान हैं। छोटा लड़का पैराग्राफ पूरा करके उठता है। बड़ा तो फौरन पेन्सिल रखकर दौड़ जाता था।
लेकिन बात उन सज्जन की उठी थी। उन्हें सोडा की जरूरत पड़ती है। बड़ा लड़का कहते ही फौरन किताब के पन्नों में पेन्सिल रखकर सोडा लेने दौड़ जाता था। लाता छोटा भी है, पर फौरन नहीं उठता। पैराग्रफ पूरा करके उठता है। भारतीय पिता को यह अवज्ञा बरदाश्त नहीं। वह सीमान्तों पर सम्बन्ध रखता है। या तो बेटे को पीटेगा या उसके हाथ से पिटेगा। बीच की स्थिति उसे पसन्द नहीं। छोटा बेटा भी हरकत करता है। पिता जल्दी मचाते हैं, तो कह भी देता है ‘जाता तो हूँ’ ! उसके मन में सवाल और शंका भी उठती है। सोचता है-यह पिता फीस रोकर देता है, कपड़े बनवाना टालता जाता है, फिर यह नहीं सोचता कि इसे पढ़ाई के बीच से नहीं उठना चाहिए।
बड़े लड़के के मन में कभी सवाल और शंका नहीं उठे। वह मेरी ही उम्र का होगा। उसने वही किताब पढ़ी होंगी, जो मैंने पढ़ी थीं। हम सब गलत किताबों की पैदावार हैं। ये सवालों को मारने की किताबें थीं। स्कूल प्रार्थना से शुरू होता था-‘शरण में आये हैं हम तुम्हारी, दया करो हे दयालु भगवन !’ क्यों शरण में आये हैं, किसके डर से आये हैं—कुछ नहीं मालूम। शरण में आने की ट्रेनिंग अक्षर-ज्ञान से पहले हो जाती थी। हमने गलत किताबें पढ़ीं हैं और आँखों को उनमें जड़ दिया। छोटा लड़का दूसरी किताबें पढ़ता है और आँखें उनमें गड़ाता नहीं है, आसपास भी देख लेता है। वह अपनी आँखों को फूटने से बचाने की कोशिश कर रहा है। इससे सारे पिता-स्वरूप लोग परेशान हैं- भौतिक पिता, गुरू, बड़े-बूढ़े शासक और नेता। हमारी किताबों में पिता-स्वरूप लोग सवाल और शंका से ऊपर होते थे। शिष्य पक्षपाती गुरू को अँगूठा काटकर दे देता था और दोनों ‘धन्य’ कहलाते थे। अब शिष्य उपकुलपति से रिपोर्ट कर देता है कि अमुक अध्यापक शिष्यों के अँगूठे कटवाते हैं। यदि उपकुलपति ध्यान नहीं देते, तो वह विद्यार्थीयों का जुलूस लेकर विश्वविद्यालय पर धावा बोल देता है ।
हमें तो तीसरी कक्षा में ही उस भक्त की कथा पढ़ा दी गयी थी, जो अपने पुत्र को आरे से चीरता है। कुछ लोगों के लिए आदमी और कद्दू में कोई फर्क नहीं। दोनों ही चीरे जा सकते हैं। उस भक्त का नाम मोरध्वज था। ऐसी सारी कथाओं का अन्त ऐसा होता है जिससे चिरनेवालों को प्रोत्साहन मिले। भगवान प्रकट होते हैं और जिस पार्टी का जो नुकसान हुआ है, पूरा कर देते हैं-मृत को जिला देते हैं, जायदाद चली गयी है, तो वापस दिला देते हैं, किसी को मुआवजे के रूप में स्वर्ग भेज देते हैं। कथा के इस अन्त ने कितनी पीढ़ियों को आरे से चिरवा दिया होगा।
इस कथा पर न मैंने शंका की थी, न सज्जन के बड़े बेटे ने। मगर छोटा लड़का पूछेगा-पिताजी, चीरने से पहले यह बताइए कि भगवान इससे खुश होते हैं इसका सबूत क्या है ? फिर इसकी क्या गारण्टी कि वे आ ही जाएँगे ? उन्हें हजार काम लगे रहते हैं। फिर इसका क्या भरोसा कि वे कटे को जोड़ देते हैं ? अगर यह सब हो भी, तो भी आपके सत्यकल्पित विश्वास आपके अपने हैं। उनके लिए आप अपने को कटवाइए और अपनी हठ निभाइए। पहले जन्मे लोग अपनी सही-गलत मान्यता के लिए पीछे जन्मों को क्यों काटें ? एक पीढ़ी के लिए दूसरी पीढ़ी क्यों चीरी जाए ?
लड़के मुँह जोरी करने लगे हैं। कम्बख्तों की किताबें बदल गयी हैं। कोर्स इतनी जल्दी क्यों बदलने लगे हैं ? बड़े लड़के से कह दिया था कि अपनी किताबें सँभालकर रखना छोटे के काम आएँगी ! पर किताबें बदल गयीं। पुरानी किताबें किसी के काम नहीं आ रही हैं। एक ही किताब पीढ़ियों क्यों नहीं चलती ?
पिताओं को यह चिन्ता है। बड़ा लड़का फौरन किताब में पेन्सिल रखकर सोडा लेने भाग जाता था। छोटा पैराग्राफ पूरा करके उठता है।
भीष्म की कथा भी हमें तभी पढ़ा दी गयी थी। हमने भीष्म को ‘धन्य’ कहा था। छोटा लड़का शान्तनु को ‘धिक्कार’ कहेगा। ‘धन्य’ और ‘धिक्कार’ की जगहें बदल गयी हैं। लोगों को पता नहीं है। छोटा लड़का भीष्म से कहेगा-क्या तुमने भी वही किताबें पढ़ी थीं, जो हमारे बड़े भाई ने ? तुम पिता से क्यों नहीं कह सके कि जीवन भर के भोग के बाद भी आप की लिप्सा बनी हुई है, तो मैं क्या करूँ ? अपना संयम दे सकता, तो थोड़ा दे देता, जीवन कैसे दे दूँ ? राज्य से आप मुझे वंचित कर सकते हैं, पर मनुष्य का स्वाभाविक अधिकार मैं हरगिज नहीं छोड़ूँगा।
छोटा टिप्पणी करेगा-भीष्म ऐसा नहीं कह सके। उन्हें पिता ने आदमी से तीर चलाने वाली मशीन बना दिया। ऑटोमेटिक धनुष ! महाभारत का यह सबसे भला, तेजस्वी, आदरणीय, ज्ञानी व्यक्ति सबसे दयनीय भी है।
मगर देख रहा हूँ कि श्रवणकुमार के कन्धे दुखने लगे हैं। यह काँवड़ हिलाने लगा है। काँवड़ में अन्धे परेशान हैं। विचित्र दृश्य है यह। दो अन्धे एक आँख वाले पर लदे हैं और उसे चला रहे हैं। जीवन से कटजाने के कारण एक पीढ़ी दृष्टिहीन हो जाती है, तब वह आगामी पीढ़ी के ऊपर लद जाती है। अन्धी होते ही उसे तीर्थ सूझने लगते हैं। वह कहती है- हमें तीर्थ ले चलो। इस क्रियाशील जन्म का भोग हो चुका है। हमें आगामी जन्म के भोग के लिए पुण्य का एडवांस देना है। आँखवाले की जवानी अन्धों को ढोने में गुजर जाती है। वह अन्धों के बताये रास्ते पर चलता है। उसका निर्णय और निर्वाचन का अधिकार चला जाता है। उसकी आँखें रास्ता नहीं खोजतीं, सिर्फ राह के काँटे बचाने के काम आती हैं।
कितनी काँवड़े हैं- राजनीति में, साहित्य में, कला में, धर्म में, शिक्षा में। अन्धे बैठे हैं और आँखवाले उन्हें ढो रहे हैं। अन्धें में अजब काँइयाँपन आ जाता है। वह खरे और खोटे सिक्के को पहचान लेता है। पैसे सही गिन लेता है। उसमें टटोलने की क्षमता आ जाती है। वह पद टटोल लेता है, पुरस्कार टटोल लेता है, सम्मान के रास्ते टटोल लेता है। बैंक का चेक टटोल लेता है। आँखवाले जिन्हें नहीं देख पाते, उन्हें वह टटोल लेता है।
नये अन्धों के तीर्थ भी नये हैं। वे काशी, हरिद्वार, पुरी नहीं जाते। इस काँवड़वाले अन्धे से पूछो- कहाँ ले चलें ? वह कहेगा-तीर्थ ! कौन सा तीर्थ ? जवाब देगा केबिनट ! मंत्रिमण्डल ! उस काँवड़वाले से पूछो, तो वह भी तीर्थ जाने को प्रस्तुत है। कौन-सा तीर्थ चलेंगे आप ? जवाब मिलेगा अकादमी, विश्वविद्यालय !
मगर काँवड़े हिलने लगी हैं। ढोनेवालों के मन में शंका पैदा होने लगी है। वे झटका देते हैं, तो अन्धे चिल्लाते हैं-अरे पापी ! यह क्या करते हो ? क्या हमें गिरा दोगे ? और ढोनेवाला कहता है-अपनी शक्ति और जीवन हम अन्धों को ढोने में नहीं गुजारेंगे। तुम एक जगह बैठो। माला जपो। आदर लो, रक्षण लो। हमें अपनी इच्छा से चलने दो। अनुभव दे दो, दृष्टि मत दो ! वह हम कमा लेंगे।
राजनीति, साहित्य आदि तो बड़े प्रगट क्षेत्र हैं। अप्रगट रूप से भी, विभिन्न क्षेत्रों में श्रवणकुमार काँवड़ उतारने के लिए हिला रहे हैं। वे किन्हीं विश्वासों की आरी से चिरने को तैयार नहीं हैं। मैं कॉफी हाउस के कोने में बैठे उस युवक की बात नहीं कर रहा हूँ, जिसने गुस्से में दाढ़ी बड़ा ली है, जैसे उसकी दाढ़ी एक खास साइज और आकार की होते ही क्रान्ति हो जाएगी। बढ़ी दाढ़ी, ड्रेन पाइप और ‘सो ह्वाट’ वालों से यह नहीं हो रहा है। चुस्त कपड़े, हेयर स्टाइल और ‘ओ वण्डरफुल’ वालियों से भी यह नहीं हो रहा है। ये तो न विश्वास में सच्चे, न शंका में। यह बिना प्रदर्शन और शोर शराबे के घरों और परिवारों में हो रहा है। सुशील, विनम्र और आज्ञाकारी युवक-युवती काँवड़े उतारने लगें हैं किसी के विश्वास के ओर से कटने से इनकार करने लगे हैं। एक परिचित है, जिसका ज्योतिष में विश्वास है। उनकी शिक्षिता जवान लड़की है। जिससे वह शादी करना चाहती थी, उससे ग्रह नहीं मिले। एक-दो और योग्य वरों से मिलान किया पर ग्रह यहाँ भी नहीं मिले। उसके ग्रहों ने किसी नालायक से मिलने के लिए स्थिति सँभाली होगी। लड़की एक दो साल घुटती रही। एक दिन उसने नम्रता से परिवार से कह दिया-‘आप लोगों का इस ज्योतिष में विश्वास है, पर मेरा नहीं है। जो मेरा विश्वास ही नहीं है, उस पर मेरा बलिदान नहीं होना चाहिए।’ परिवार कुछ देर तो चमत्कृत रहा, फिर उसकी इच्छा से शादी कर दी।
देख रहा हूँ कि मोरध्वज का आरा छीनकर फेंका जा रहा है। श्रवणकुमार के कन्धे दुखने लगे हैं। वह काँवड़ को उतार कर रखने लगा है।
वे सज्जन परेशान हैं। छोटा लड़का पैराग्राफ पूरा करके उठता है। बड़ा तो फौरन पेन्सिल रखकर दौड़ जाता था।
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