कहानी संग्रह >> अन्तिम बयान अन्तिम बयानमंजुल भगत
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प्रस्तुत है मंजुल भगत की श्रेष्ठतम कहानियों का संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मंजुल भगत ने गत-अनागत के कालगत अदृश्य कुहासों में भटकने के बजाय अपने
सामने जीती-जागती, तीव्रता और उत्कटता से ज़िन्दगी को जीती, भोगती,
लहू-लुहान होती दुनिया को अपनी कहानियों का विषय बनाया। वे काल में नहीं
स्पेस में सन्तरण करते पात्रों की बहुआयामी कथा कहती हैं-पूरे मानवीय
लगाव, सरोकार और विश्वसनीयता के साथ। इन पात्रों में भी स्वभावतः उनकी
नज़र नारी-जीवन से सम्बद्ध पक्षों और प्रश्नों पर ज्यादा टिकती है। स्त्री
पात्रों का भरा-पूरा संसार है मंजुल की कहानियों में। विकल्पों को तलाश
करती नारियाँ, निर्णय लेती नारियाँ, समस्याओं के स्थायी-अस्थायी समाधान
खोजती नारियाँ और कभी-कभी ‘अस्मि’ यानी
‘मैं हूँ’
के अहसास में अपनी सार्थकता तलाश कर आश्वस्त होती नारियाँ।...
मंजुल की कहानियों की बहुत बड़ी शक्ति, कैमरे के लैंस की तरह अपने विषय को फ़ोकस में बनाये रखने की सामर्थ्य है। जहाँ कहानी की सम्भावना न दिखाई पड़ती हो, वहाँ भी उसमें कहानीपन पैदा कर ले जाने का रचनात्मक कौशल उनके रचना-संसार को बड़ा परिचित, जीवन्त और विश्वसनीय बनाता है।
मंजुल की कहानियों की बहुत बड़ी शक्ति, कैमरे के लैंस की तरह अपने विषय को फ़ोकस में बनाये रखने की सामर्थ्य है। जहाँ कहानी की सम्भावना न दिखाई पड़ती हो, वहाँ भी उसमें कहानीपन पैदा कर ले जाने का रचनात्मक कौशल उनके रचना-संसार को बड़ा परिचित, जीवन्त और विश्वसनीय बनाता है।
भूमिका
उत्तर शती की महिला कलाकारों में मंजुल भगत की अपनी पहचान है। पचीस वर्ष
के अबाधित रचना-क्रम में उनकी दर्ज़नों कहनियाँ और उपन्यास पत्रिकाओं में,
और पुस्तककार प्रकाशित होते रहे हैं। मंजुल ने लिखना तो 1970 में शुरू कर
दिया था, पर उनकी सबसे अधिक प्रसिद्धि उनके लघु उपन्यास
‘अनारो’ के कारण हुई। ‘अनारो’
मंजुल की रचनात्मक
प्रतिभा का शिखर था जिसका पहली बार प्रकाशन ‘साप्ताहिक
हिन्दुस्तान’ के विशेषांक के रूप में हुआ था। इस उपन्यास का
प्रकाशन
ऐसी घटना थी जिसके बाद कथाकार के रूप में मंजुल भगत की उपेक्षा करना
बहुतों के लिए सम्भव नहीं रह गया। इस प्रसंग का उल्लेख करना इसलिए ज़रूरी
मालूम होता है क्योंकि इस रचना की हैसियत मंजुल के कृतित्व में ऐसे
आलोक-वृत्त की है, जिसके प्रकाश में उनके समग्र साहित्य के मूल्यांकन का
सिलसिला चल निकला।
मंजुल के व्यक्तित्व की सहज ऊष्मा और व्यवहार की निश्छल आत्मीयता सामनेवाले को अनायास आकर्षित करती थी और अपना बना लेती थी। मुझे बराबर लगता रहा है कि यही विशेषता उनकी रचनाओं में प्रतिफलित होकर उन्हें जीवन्त बनाती रही है। मंजुल ने न कभी आकाश की ऊँचाइयाँ नापने का हौसला दिखाया न पाताल की गहराइयों पर पैठने का। अपने चारों ओर, असपास मँडराती दुनिया को उसके बुनियादी सरोकारों के साथ, सरल-सहज संरचनाओं में बाँध लेना, मंजुल के लेखन की ऐसी ख़ासियत है जो उसके प्रति गहरा आत्मीय भाव जगाती है।
उनके पात्र जिस दुनिया से ताल्लुक रखते हैं, वह औसत पाठक के सहज परिचय का क्षेत्र है। इसके बावजूद उनकी व्यापक-विविधता, रचनाकार की दृष्टि के प्रसार और गहरी संवेदना की छाप छोड़ती है। हमारी अनुभूतियों के पीछे अनुभवों की पूरी दुनिया, पूरा फैलाव होता है, जो न जाने कितने खिड़की-दरवाज़ों से, कितने रास्तों से बहता हुआ हम तक पहुँचता है। बाहरी जीवन के इस पराए को हम कितने ही रूपों में-तर्क से, बुद्धि-विवेक से-ज्ञान अथवा नैतिक-बोध से, अपनी अनुभूति का हिस्सा यानी अन्तरंग बनाते चलते हैं। इनमें से कुछ भी अनुभव के रास्ते हमारी अनुभूति का हिस्सा हो जाने के लिए स्वत्रन्त्र होता है- एक वर्जनायुक्त संसार जिसमें एक बार प्रवेश करने के बाद कुछ पराया नहीं रह जाता। जो भोगा हुआ है उसका अस्तित्व तो ठोस और जीवन्त होता ही है, जो हमारा साक्षात् जिया और भोगा हुआ न हो तो भी सम्भाव्य के रूप में हमारे अनुभूति-तन्त्र के भीतर उसका अस्तित्व भी उतना ही ठोस और जीवन्त होता है। दृश्य और अदृश्य, घटित औ सम्भाव्य हमारी अनुभूतियों के संसार में पूरी पारस्परिकता और प्रमाणिकता के साथ वर्तमान रहते हैं।
मंजुल भगत ने गत-अनागत के कालगत अदृश्य कुहासों में भटकने के बजाय अपने सामने जीती-जागती, तीव्रता और उत्कटता से ज़िन्दगी को जीती, भोगती, लहू-लुहान होती दुनिया को अपनी कहानियों का विषय बनाया। वे काल में नहीं स्पेस में सन्तरण करते पात्रों की बहुआयामी कथा कहती हैं- पूरे मानवीय लगाव, सरोकार और विश्वसनीयता के साथ इन पात्रों में भी स्वाभावतः उनकी नज़र नारी-जीवन से सम्बद्ध पक्षों और प्रश्नों पर ज्यादा टिकती है। स्त्री-पत्रों का भरा पूरा संसार है मंजुल की कहानियों में। विकल्पों को तलाश करती नारियाँ, निर्णय लेती नारियाँ, समस्याओं के स्थायी-अस्थायी समाधान खोजती नारियाँ और कभी-कभी ‘अस्मि’ यानी ‘मैं हूँ’ के अहसास में अपनी सार्थकता तलाश कर आश्वस्त होती नारियाँ।
यह आकस्मिक नहीं है कि प्रस्तुत संकलन की नौ कहानियों में से पाँच के केन्द्र में भी नारी चरित्र हैं। दसवीं रचना ‘मिराण्डा हाउसः कुछ यादें’, ठेठ कहानी भले ही न हो, पर कुछ दूर तक आपबीती है और साथ ही एक प्रसिद्ध स्थानीय महिला कॉलिज की ज़िन्दगी और माहौल का बेबाक बयान है। बड़े मनमौजी अन्दाज़ और खिलन्दड़ेपन से मंजुल ने याद किया है उस दौर को। बाक़ी कहानियों की एकसूत्रता इस बात में है कि उनके नारी-पात्र, पुरुष-प्रधान समाज-व्यवस्था में तयशुदा भूमिका निबाहने के लिए अभिशप्त हैं। पर इनके वर्ग, इनका समाज, इनकी अलग परिस्थियाँ, इनकी समस्याएँ और चुनौतियाँ, एक जैसी नहीं हैं। हर कहानी एक अलग परिस्थिति में, नारी जीवन के एक पक्ष, एक विशेष स्थिति और परिवेश में उसकी हैसियत का उदघाटन करती है। अधिकांश स्त्रियाँ आज भी अपने निर्णय खुद लेने की, या अपनी भूमिकाएँ ख़ुद तय कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। समस्या स्त्री बनाम पुरुष की नहीं, पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के वजूद, उसकी हैसियत, उसकी भूमिका और उसके अधिकारों की है।
‘अजूबा’ कहनी की नेहा को सिखया गया है कि ‘विवाह किसी भी लड़की की अन्तिम नियति और सम्पूर्ण भाग्य है,’ पर ऐसे सम्पूर्ण भाग्य का वह क्या करे जहाँ पति ‘निशीथ व्यक्ति नहीं केवल एक भ्रूण है।’ मनोग्रन्थि से ग्रस्त ऐसा पुरुष कि कनाडा में हनीमून के लिए गये दम्पती के बीच, ‘‘हज़ारों मील की दूरी से भी उसकी माँ, यहाँ आकर हमारे बीच तकिया बनकर पसर जाती है।’’ यह ऐसा तकिया है जिसे फलाँग पाना, ‘भारतीय नारी’ के बस की बात नहीं, उसी तरह जैसे नामर्द पति से तलाक़ लेने का निर्णय भी उसका अपना चुना हुआ विकल्प नहीं है। संस्कारों से पैदा होनेवाली उनकी आन्तरिक विवशता है। ‘‘मेरे विचार से मैं एक आदर्श पत्नी और गृहिणी बन चुकी हूँ। मुसीबत सारी माँ न बन पाने की है।’’ इस कहानी की रचना 1982 में हुई थी। यह जिस सामाजिक वर्ग से सम्बन्धित है, उसकी मानसिकता में भी बड़ी तेजी से बदलाव आया है। नेहा की माँ के माध्यम से जिस सम्भाव्यता की तरफ़ इशारा किया गया है, वह समय से आगे का, यानी आज का यथार्थ है।
पर एक स्थिति ‘अन्तिम बयान’ के बारे में सही नहीं है। ‘महुआ’ जैसी न जाने कितनी स्त्रियाँ आज भी जलती या जलायी जाती हैं। इन्हें जलाना एक बात है, और दुर्घटना में जलना दूसरी बात है। पर दोनों स्थितियों में स्त्री के प्रति मनोभाव में विशेष अन्तर नहीं है। सर्वथा अमानवीय, लगभग संवेदनशून्य समाज के बीच आज भी वह मात्र उपयोग की वस्तु से अधिक कुछ नहीं। पुलिस की कारगुज़ारियाँ आज भी अपनी जगह हैं, जैसी की तैसी, और उधर मरणासन्न पत्नी के प्रति पति समेत परिवारियों का मनोभाव प्रेमचन्द की कहनी ‘कफ़न’ के पिता-पुत्र की याद दिला देता है। पूरे परिवार की टकटकी सिर्फ़ इस बात पर लगी है कि अपनी जीवन-मुक्ति से पहले ‘अन्तिम बयान’ में महुआ उन्हें कानूनी गिरफ़्त से मुक्ति दे पाती है या नहीं। स्त्री की अनुभूतियों के प्रति अ-संवेदनीयता का एक बिल्कुल दूसरा रूप ‘रुकी हुई रफ़्तार’ कहानी की अन्तिम परिणति में बड़ी सांकेतिक शैली में उभरता है। ऊपरी तौर पर, महानगरीय जीवन में किसी एक दिन की दुर्घटना के अनुभव की सपाट ब्यौरेवार दास्तान-सी लगती इस कहानी की तान इस प्रश्न पर टूटती है कि, ‘‘तुम भी सड़क बन गये अशित ?’’ और तब एक झटके से-स्थूल और सूक्ष्म स्तरों पर समान रूप से क्षरित होती मानवीयता जैसे आमने-सामने आ खड़ी होती है।
मंजुल ने स्त्री-विमर्श से जुड़े सवाल उठाने के लिए नगर और ग्रामीण समाज और संस्कृ़ति दोनों को आधार बनाया है। इनके ग्रामीण-पात्र पुरुषसत्ताक समाज के विरोध में, जैसे आत्मविश्वासी और निर्णयक्षम दिखाई पड़ते हैं; वैसे शहराती, शिक्षित सभ्य-सुसंस्कृत समझे जानेवाले पात्र नहीं। प्रस्तुत संकलन की दो कहानियों-‘लाज घोड़ी, साजन बैण्ड और ‘अस्मि’ की तुलना से यह बात स्पष्ट देखी जा सकती है। ‘अस्मि’ के विशी और रसीन जैसे पात्रों की दुनिया, सम्बन्धों को लेकर उनका सोच, मानसिक ऊहापोह, आपसी संवाद, सब जिस जीवन –शैली से ताल्लुख रखते हैं, उसकी परिणति, अपने भीतर शिद्त से उठनेवाले अपने होने भर के भीतरी अहसास में ही अपनी सार्थकता पा लेती है। उधर ‘लाज घोड़ी....’ की फुलैरा की दुनिया में इस ठेठ अस्तित्ववादी सोच और परेशानियों के लिए कोई जगह नहीं है। इनसे एकदम भिन्न उसकी समस्याएँ जैविक हैं; दैहिक स्तर पर वहाँ प्रश्न जीवन की मूल भौतिक आवश्यकताओं का है। वहाँ समस्या ‘अस्मि, की नहीं ‘अस्ति’ की है जिसका धरातल मानसिक नहीं ठोस भौतिक है। घर के छोटे बेटे, अपने नाकारा पति की यह छोटी बहू अपनी समस्या का समाधान अन्ततः पिता के ढाई बीघा ज़मीन, और खेतों के बीच ‘मड़ैया की माँग’ करके करती है। उधर बापू को सबसे बड़ी तसल्ली यही है कि,‘‘चल, धी को जमाई तज तो ना रहा।’’
जिस ग्रामीण समाज की यह कहानी है, उसमें पति द्वारा पत्नी को छोड़ा जाना सबसे बड़ा कलंक है और नाकारा पति से मुक्ति का विकल्प स्त्री के लिए कल्पनातीत है। उससे बँधे रहना फुलैरा की नियति है, पर ससुराल न लौटने का विकल्प उसके पास है बशर्ते यह निर्णय लेने का साहस उसमें हो। संयुक्त-परिवार के पारम्परिक ढाँचे में ऐसी स्त्रियों की जो भूमिका निश्चित है, उसे तजकर फुलैरा मानो इस व्यवस्था को ही चुनौती देती है।
संयुक्त-परिवारों की चली आती रवायतों, उनकी जकड़बन्दियों पर मंजुल ने अक्सर अपनी कहानियों में नज़र डाली है। इनके पात्र (स्त्री और पुरुष दोनों) इनकी चाहरदिवारी के भीतर जर्जर होती नैतिकता से मुक्ति की राहें ढूँढते रहे हैं। किसी छोटी-सी घटना के माध्यम से, समय के इस सच को उजागर कर देना उसकी प्रिय शैली है। ‘कुएँ का मेंढक’ में मंजुल ने इस युक्ति का उपयोग किया है।
कथ्य के अलावा, मंजुल की कहानियों का प्रभाव उनकी भाषा और स्थितियों के ब्यौरे में जाकर वातावरण तैयार करने की सावधानी में निहित रहता है। कथ्य, पात्र स्थिति को ज़िन्दगी के किसी टुकड़े से वे उसकी घनता और समग्रता में बड़ी चौकन्नी आँख से उठती हैं, जिसके फैलाव नहीं घनत्व और केन्द्रीयता होती है- (देखिएः प्रस्तुत संकलन का कहानी ’रौनक़’)।
मंजुल की कहानियों की बहुत बड़ी शक्ति, कैमरे के लैंस की तरह अपने विषय को फ़ोकस में बनाये रखने की यही सामर्थ्य है। जहाँ कहानी की सम्भावना न दिखाई पड़ती हो, वहाँ भी उसमें कहानीपन पैदा कर ले जाने का रचनात्मक कौशल उनके रचना-संसार को बड़ा परिचित, जीवन्त और विश्वसनीय बनाता है।
मंजुल के व्यक्तित्व की सहज ऊष्मा और व्यवहार की निश्छल आत्मीयता सामनेवाले को अनायास आकर्षित करती थी और अपना बना लेती थी। मुझे बराबर लगता रहा है कि यही विशेषता उनकी रचनाओं में प्रतिफलित होकर उन्हें जीवन्त बनाती रही है। मंजुल ने न कभी आकाश की ऊँचाइयाँ नापने का हौसला दिखाया न पाताल की गहराइयों पर पैठने का। अपने चारों ओर, असपास मँडराती दुनिया को उसके बुनियादी सरोकारों के साथ, सरल-सहज संरचनाओं में बाँध लेना, मंजुल के लेखन की ऐसी ख़ासियत है जो उसके प्रति गहरा आत्मीय भाव जगाती है।
उनके पात्र जिस दुनिया से ताल्लुक रखते हैं, वह औसत पाठक के सहज परिचय का क्षेत्र है। इसके बावजूद उनकी व्यापक-विविधता, रचनाकार की दृष्टि के प्रसार और गहरी संवेदना की छाप छोड़ती है। हमारी अनुभूतियों के पीछे अनुभवों की पूरी दुनिया, पूरा फैलाव होता है, जो न जाने कितने खिड़की-दरवाज़ों से, कितने रास्तों से बहता हुआ हम तक पहुँचता है। बाहरी जीवन के इस पराए को हम कितने ही रूपों में-तर्क से, बुद्धि-विवेक से-ज्ञान अथवा नैतिक-बोध से, अपनी अनुभूति का हिस्सा यानी अन्तरंग बनाते चलते हैं। इनमें से कुछ भी अनुभव के रास्ते हमारी अनुभूति का हिस्सा हो जाने के लिए स्वत्रन्त्र होता है- एक वर्जनायुक्त संसार जिसमें एक बार प्रवेश करने के बाद कुछ पराया नहीं रह जाता। जो भोगा हुआ है उसका अस्तित्व तो ठोस और जीवन्त होता ही है, जो हमारा साक्षात् जिया और भोगा हुआ न हो तो भी सम्भाव्य के रूप में हमारे अनुभूति-तन्त्र के भीतर उसका अस्तित्व भी उतना ही ठोस और जीवन्त होता है। दृश्य और अदृश्य, घटित औ सम्भाव्य हमारी अनुभूतियों के संसार में पूरी पारस्परिकता और प्रमाणिकता के साथ वर्तमान रहते हैं।
मंजुल भगत ने गत-अनागत के कालगत अदृश्य कुहासों में भटकने के बजाय अपने सामने जीती-जागती, तीव्रता और उत्कटता से ज़िन्दगी को जीती, भोगती, लहू-लुहान होती दुनिया को अपनी कहानियों का विषय बनाया। वे काल में नहीं स्पेस में सन्तरण करते पात्रों की बहुआयामी कथा कहती हैं- पूरे मानवीय लगाव, सरोकार और विश्वसनीयता के साथ इन पात्रों में भी स्वाभावतः उनकी नज़र नारी-जीवन से सम्बद्ध पक्षों और प्रश्नों पर ज्यादा टिकती है। स्त्री-पत्रों का भरा पूरा संसार है मंजुल की कहानियों में। विकल्पों को तलाश करती नारियाँ, निर्णय लेती नारियाँ, समस्याओं के स्थायी-अस्थायी समाधान खोजती नारियाँ और कभी-कभी ‘अस्मि’ यानी ‘मैं हूँ’ के अहसास में अपनी सार्थकता तलाश कर आश्वस्त होती नारियाँ।
यह आकस्मिक नहीं है कि प्रस्तुत संकलन की नौ कहानियों में से पाँच के केन्द्र में भी नारी चरित्र हैं। दसवीं रचना ‘मिराण्डा हाउसः कुछ यादें’, ठेठ कहानी भले ही न हो, पर कुछ दूर तक आपबीती है और साथ ही एक प्रसिद्ध स्थानीय महिला कॉलिज की ज़िन्दगी और माहौल का बेबाक बयान है। बड़े मनमौजी अन्दाज़ और खिलन्दड़ेपन से मंजुल ने याद किया है उस दौर को। बाक़ी कहानियों की एकसूत्रता इस बात में है कि उनके नारी-पात्र, पुरुष-प्रधान समाज-व्यवस्था में तयशुदा भूमिका निबाहने के लिए अभिशप्त हैं। पर इनके वर्ग, इनका समाज, इनकी अलग परिस्थियाँ, इनकी समस्याएँ और चुनौतियाँ, एक जैसी नहीं हैं। हर कहानी एक अलग परिस्थिति में, नारी जीवन के एक पक्ष, एक विशेष स्थिति और परिवेश में उसकी हैसियत का उदघाटन करती है। अधिकांश स्त्रियाँ आज भी अपने निर्णय खुद लेने की, या अपनी भूमिकाएँ ख़ुद तय कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। समस्या स्त्री बनाम पुरुष की नहीं, पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के वजूद, उसकी हैसियत, उसकी भूमिका और उसके अधिकारों की है।
‘अजूबा’ कहनी की नेहा को सिखया गया है कि ‘विवाह किसी भी लड़की की अन्तिम नियति और सम्पूर्ण भाग्य है,’ पर ऐसे सम्पूर्ण भाग्य का वह क्या करे जहाँ पति ‘निशीथ व्यक्ति नहीं केवल एक भ्रूण है।’ मनोग्रन्थि से ग्रस्त ऐसा पुरुष कि कनाडा में हनीमून के लिए गये दम्पती के बीच, ‘‘हज़ारों मील की दूरी से भी उसकी माँ, यहाँ आकर हमारे बीच तकिया बनकर पसर जाती है।’’ यह ऐसा तकिया है जिसे फलाँग पाना, ‘भारतीय नारी’ के बस की बात नहीं, उसी तरह जैसे नामर्द पति से तलाक़ लेने का निर्णय भी उसका अपना चुना हुआ विकल्प नहीं है। संस्कारों से पैदा होनेवाली उनकी आन्तरिक विवशता है। ‘‘मेरे विचार से मैं एक आदर्श पत्नी और गृहिणी बन चुकी हूँ। मुसीबत सारी माँ न बन पाने की है।’’ इस कहानी की रचना 1982 में हुई थी। यह जिस सामाजिक वर्ग से सम्बन्धित है, उसकी मानसिकता में भी बड़ी तेजी से बदलाव आया है। नेहा की माँ के माध्यम से जिस सम्भाव्यता की तरफ़ इशारा किया गया है, वह समय से आगे का, यानी आज का यथार्थ है।
पर एक स्थिति ‘अन्तिम बयान’ के बारे में सही नहीं है। ‘महुआ’ जैसी न जाने कितनी स्त्रियाँ आज भी जलती या जलायी जाती हैं। इन्हें जलाना एक बात है, और दुर्घटना में जलना दूसरी बात है। पर दोनों स्थितियों में स्त्री के प्रति मनोभाव में विशेष अन्तर नहीं है। सर्वथा अमानवीय, लगभग संवेदनशून्य समाज के बीच आज भी वह मात्र उपयोग की वस्तु से अधिक कुछ नहीं। पुलिस की कारगुज़ारियाँ आज भी अपनी जगह हैं, जैसी की तैसी, और उधर मरणासन्न पत्नी के प्रति पति समेत परिवारियों का मनोभाव प्रेमचन्द की कहनी ‘कफ़न’ के पिता-पुत्र की याद दिला देता है। पूरे परिवार की टकटकी सिर्फ़ इस बात पर लगी है कि अपनी जीवन-मुक्ति से पहले ‘अन्तिम बयान’ में महुआ उन्हें कानूनी गिरफ़्त से मुक्ति दे पाती है या नहीं। स्त्री की अनुभूतियों के प्रति अ-संवेदनीयता का एक बिल्कुल दूसरा रूप ‘रुकी हुई रफ़्तार’ कहानी की अन्तिम परिणति में बड़ी सांकेतिक शैली में उभरता है। ऊपरी तौर पर, महानगरीय जीवन में किसी एक दिन की दुर्घटना के अनुभव की सपाट ब्यौरेवार दास्तान-सी लगती इस कहानी की तान इस प्रश्न पर टूटती है कि, ‘‘तुम भी सड़क बन गये अशित ?’’ और तब एक झटके से-स्थूल और सूक्ष्म स्तरों पर समान रूप से क्षरित होती मानवीयता जैसे आमने-सामने आ खड़ी होती है।
मंजुल ने स्त्री-विमर्श से जुड़े सवाल उठाने के लिए नगर और ग्रामीण समाज और संस्कृ़ति दोनों को आधार बनाया है। इनके ग्रामीण-पात्र पुरुषसत्ताक समाज के विरोध में, जैसे आत्मविश्वासी और निर्णयक्षम दिखाई पड़ते हैं; वैसे शहराती, शिक्षित सभ्य-सुसंस्कृत समझे जानेवाले पात्र नहीं। प्रस्तुत संकलन की दो कहानियों-‘लाज घोड़ी, साजन बैण्ड और ‘अस्मि’ की तुलना से यह बात स्पष्ट देखी जा सकती है। ‘अस्मि’ के विशी और रसीन जैसे पात्रों की दुनिया, सम्बन्धों को लेकर उनका सोच, मानसिक ऊहापोह, आपसी संवाद, सब जिस जीवन –शैली से ताल्लुख रखते हैं, उसकी परिणति, अपने भीतर शिद्त से उठनेवाले अपने होने भर के भीतरी अहसास में ही अपनी सार्थकता पा लेती है। उधर ‘लाज घोड़ी....’ की फुलैरा की दुनिया में इस ठेठ अस्तित्ववादी सोच और परेशानियों के लिए कोई जगह नहीं है। इनसे एकदम भिन्न उसकी समस्याएँ जैविक हैं; दैहिक स्तर पर वहाँ प्रश्न जीवन की मूल भौतिक आवश्यकताओं का है। वहाँ समस्या ‘अस्मि, की नहीं ‘अस्ति’ की है जिसका धरातल मानसिक नहीं ठोस भौतिक है। घर के छोटे बेटे, अपने नाकारा पति की यह छोटी बहू अपनी समस्या का समाधान अन्ततः पिता के ढाई बीघा ज़मीन, और खेतों के बीच ‘मड़ैया की माँग’ करके करती है। उधर बापू को सबसे बड़ी तसल्ली यही है कि,‘‘चल, धी को जमाई तज तो ना रहा।’’
जिस ग्रामीण समाज की यह कहानी है, उसमें पति द्वारा पत्नी को छोड़ा जाना सबसे बड़ा कलंक है और नाकारा पति से मुक्ति का विकल्प स्त्री के लिए कल्पनातीत है। उससे बँधे रहना फुलैरा की नियति है, पर ससुराल न लौटने का विकल्प उसके पास है बशर्ते यह निर्णय लेने का साहस उसमें हो। संयुक्त-परिवार के पारम्परिक ढाँचे में ऐसी स्त्रियों की जो भूमिका निश्चित है, उसे तजकर फुलैरा मानो इस व्यवस्था को ही चुनौती देती है।
संयुक्त-परिवारों की चली आती रवायतों, उनकी जकड़बन्दियों पर मंजुल ने अक्सर अपनी कहानियों में नज़र डाली है। इनके पात्र (स्त्री और पुरुष दोनों) इनकी चाहरदिवारी के भीतर जर्जर होती नैतिकता से मुक्ति की राहें ढूँढते रहे हैं। किसी छोटी-सी घटना के माध्यम से, समय के इस सच को उजागर कर देना उसकी प्रिय शैली है। ‘कुएँ का मेंढक’ में मंजुल ने इस युक्ति का उपयोग किया है।
कथ्य के अलावा, मंजुल की कहानियों का प्रभाव उनकी भाषा और स्थितियों के ब्यौरे में जाकर वातावरण तैयार करने की सावधानी में निहित रहता है। कथ्य, पात्र स्थिति को ज़िन्दगी के किसी टुकड़े से वे उसकी घनता और समग्रता में बड़ी चौकन्नी आँख से उठती हैं, जिसके फैलाव नहीं घनत्व और केन्द्रीयता होती है- (देखिएः प्रस्तुत संकलन का कहानी ’रौनक़’)।
मंजुल की कहानियों की बहुत बड़ी शक्ति, कैमरे के लैंस की तरह अपने विषय को फ़ोकस में बनाये रखने की यही सामर्थ्य है। जहाँ कहानी की सम्भावना न दिखाई पड़ती हो, वहाँ भी उसमें कहानीपन पैदा कर ले जाने का रचनात्मक कौशल उनके रचना-संसार को बड़ा परिचित, जीवन्त और विश्वसनीय बनाता है।
निर्लम जैन
रौनक़
‘‘बेगम साहिबा ? बेगम साहिबा ?’’
काले-मैले
बुर्क़े का नक़ाब उलटाये, हथेली पसारे वह मुझसे मुख़ातिब थी। मैं उसे टक
लगाये ताकती रह गयी थी क्योंकि उसकी निगाह भी तो मेरी आँखों में उतरी थी।
खरपतवार में दबी-ढकी, पुरानी क़ब्र की काई लगी ईंट हो जैसे। काई में से झाँकती धुआँ-धुआँ आँखें। रंग भी साफ़ रहा होगा। अब तो काई पर भी राख पड़ी थी।
फटे-फटे-से होठों पर पान के बासी दाग़ ज़में थे।
वह बुदबुदाने लगी, ‘‘रोज़ा खोलूँगी, बेगम साहिबा रमजान का महीना है, रोज़ा खोलना ज़रूरी है।’’
जैसे दूसरे दिनों के फ़ाक़ाकशी दुरुस्त हो। वह एक हक़ीक़ी सच की सूरत लिये मेरे सामने खड़ी थी। न जाने कौन-सा ज़ीना उतरा होगा ? कितनी सीढ़ियाँ कहाँ से फलाँगकर यह हुलिया बना होगा। मेरे खुद के चेहरे पर उसे क्या दिखलाई दे रहा होगा ?
क्या फ़कत थकावट, प्यास और शीरमाल रोटियों की तलाश ?
‘‘खुदाबन्द करीम अगर चाहें तो आप मेरा रोज़ा खुलवाने का सबाब हासिल कर सकती हैं।’’
उसकी फैली हथेली पर दो का सिक्का टिकाते हुए मेरी निगाह आपने आप झुक गयी थी। उसने भी कोई दुआ नहीं दी, मानो दो के सिक्के का लेन-देन मेरे और ख़ुदाबन्द करीम के बीच का मामला हो।
‘‘अल्लाह के प्यारों पर पड़ती इल्लत, किल्लत और ज़िल्लत को कौन कहे और कब तलक।’’
उसकी इस साफ़गोई ने मन पर से, दो के सिक्के की बदौलत खिसके बोझ को वापस ला पटका।
‘‘मैं कौन-सा अफ़सानानिगार हूँ, जो अपनी ज़िन्दगी....’’
क्या ! यह कोई नजूमी है क्या ? लिख-लिखा तो लेती हूँ मैं। पर इतना तपाक-सा अन्तर्यामी ऐलान, इसकी अपनी ज़ुबाँ तो देखो, कितनी साफ़ है। दुकान पर तख़्ती लटकी थी, ‘‘अच्छन मियाँ, बेकरीवाले’। गद्दी पर बड़े मियाँ बैठे तन्दूरी रोटियाँ और नान तोलकर अख़बार में लपेटकर ग्राहकों को पक़ड़ा रहे थे। तन्दूर-भट्ठी वहाँ नहीं थी। बस गर्मा-गर्म रोटियाँ सिंककर पीछे कहीं से लायी जा रही थीं।
‘‘अच्छन मियाँ, पानी पिलवाएँ ज़रा।’’ मैंने आग्रह किया।
‘‘कल पिलाएँगे।’’ अच्छे से अच्छन मियाँ इतमीनान से बोले।
‘‘जी ?’’ मेरा कण्ठ प्यास से सूखा जा रहा था।
‘‘ऐसा है, बीबी जी ! हम रोज़ों में न पानी पीते हैं न पिलाते हैं। और, आज आख़री रोज़ा है।’’
‘‘ओह !’’ आह खींचने से गले की खुश्की को ज़रा तरावट मिली।
‘‘चले तो जाओ बब्बन पीछे, तन्दूर पर से खड़े-खडे, छः शीरमाल रोटियाँ लगवा लाओ। और सुनो, ज़रा लपके चले आना। ऐसा न हो कि मालूम चला इन नेक ख़ातून का भी रोज़ा रखवा दिया।’’ अच्छन मियाँ ने आदेश दिया, तो हँसता हुआ उठकर चल दिया, क़दम-क़दम जगह बनाता हुआ। पैरों के नीचे धरती दिखलायी ही नहीं दे रही थी, इतनी तो भीड़ थी, गलियों में।
‘‘अब तो आँख़ फूटी, पीर गयी। कुछ भी करने-कराने, दिखने-दिखाने बनने-बनाने से बरी हो गयी मेरी जान।’’ मेरे दो सिक्के में इतनी ताब कहाँ थी उसका बुदबुदाना रोक सके। वक़्त ने न जाने कितनी करवटें बदली होंगी कि उसकी ज़िन्दगी यूँ पुरशिकन ही रही।
मेरी शीरमाल रोटियाँ लग के आ रहीं। गद्देली, गुदाज़ रोटियाँ। सुनहरी भाप और मिठास में घुली हुई : वहीं के वहीं, बुर्क़ मार जाने को जी हुआ। तोते की तरह कुतर लूँ, ज़रा-सी।
‘‘सात रुपये की एक है। आपने छः लगवायी हैं, बीबी।’’ अच्छन मियाँ ने याद दिलाया।
‘‘शतरंज की बिसात-सा उठ गया सब कुछ।’’ बुर्क़ेवाली भिखारिन की बुदबुद जारी थी।
मैंने बेकरीवाले के बयालिस रुपये गिन दिये।
‘‘आपकी दिल्ली की सर्दी छुरी की मानिन्द जिस्मोजान को काट देती है। हमारी वादी की प्यार से छूकर चली जाती है।’’ बगल में कोई कश्मीरी व्यापारी खड़ा बतिया रहा था। उन तंग गलियों में क्या तो ठण्ड होती और कहाँ से होकर हवा गुज़रती। मैंने अपना स्वेटर उतार दिया।
‘‘इस बार शाहतूश भी लाया हूँ। बैण्ड आइटम है।’’
मुझे कन्धे पर शाल भी फालतू-सी लगी। ठठ के ठठ लोगों की गर्म साँसों ने माहौल दमघोटू-सा बना रखा था, हालाँकि आसमान बादलों का कम्बल ओढे था, धूप को रोक हुए।
‘‘कश्मीर हो आने को जी तो बहुतेरा मचलता है...हमारे एक दोस्त हैं, नज़रकँवर, अख़बारनवीस
वह तो कहते हैं वहाँ क्या कुछ ख़ून-ख़राबा नहीं हो रहा है ?’’
‘‘अख़बारनवी को तो बस दुम भर दिखला दो, अपने आप पूरे क़द बुत का हाथी तैयार हो जाएगा। फिर नज़रकँवर तो माहिर है इस फन में। हमारी आँखें फ़र्शें राह रहेंगी, जनाब, आप आएँ तो सही।’’ बराबर में गुफ़्तगू जारी थी।
‘‘अच्छन मियाँ, वह छः बाकरख़ानी भी लगवा देते....’’ मैंने कहा, अच्छन मियाँ कहीं दूर ताक रहे थे, चौंक-से गये।
‘‘अब इन्हीं को समझ लो, बाकरख़ानी भी। बीबी, अब तुम घर पहुँच लो तो बेहतर हो। थकी-माँदी हो बहुत।’’
बड़े मियाँ मेरी ओर से चिन्तित लगे थे। भिखारिन भी कुछ दूर खिसक ली थी।
‘‘वह कौन है बड़े मियाँ ?’’
‘‘जैसी खान, वैसी मिट्टी बीबी।’’
‘‘यह तो मेरे सवाल का खुलासा न हुआ, अच्छन मियाँ ?’’
‘‘जब बेटी का क़द मुँडेर से ऊँचा हो जाए, तो उसकी शादी कर देनी चाहिए। हमारे घर पर भी बच्चियाँ हैं। दस-बारह की हुई नहीं कि उनकी अम्मी दहेज़ के लिए कसीदाकारी शुरु कर देंगी और रिश्ता तय कर देने तक हमारी जान को आयी रहेंगी।’’ बड़े मियाँ ने परसाई अन्दाज में कहा।
‘‘मूसा का गुल। मूसा का गुल। एक शीशी कुछ छः रुपये में मसूड़ों-जोड़ो का कैसा ही दर्द, जड़ से गायब-गुम !’’
कोई बहुरुपिया दवा दलाल, ऐन मेरे सिर पर आन, तैनात हो चुका था और कमर लचकाकर बड़े मसखरे
अन्दाज़ में ‘मूसा के गुल’ की वकालत कर रहा था।
‘‘अच्छन मियाँ, कौन थी वह ?’’ मैं बँधी रोटियाँ थामे वहीं थड़े पर पैर लटकाकर बैठ गयी और सुस्ताने लगी। अच्छन मियाँ ज़रा अचकचाये, फिर झेंपे-से किसी ग्राहक की सादा तन्दूरी बँधने लगे।
‘‘बड़े मियाँ !’’
‘‘हुजूर ? हुक़्म सरकार ?’’
‘‘वह भिखारिन, उसकी बोल-चाल ?’’
‘‘घर जाओ न बीबी। हम रोजों में ज़्यादा बात नहीं करते।’’ अच्छन मियाँ कुछ उखड़-से गये। ‘‘जब नसीब ही मेहरबाँ, तब सींकिया भी पहलवान ! हमारे यहाँ कि जवाँ–मर्द दवा खाइए....घण्टे भर बाद ही आज़माइए।’’
कोई दवाफ़रोश था। दो दुबले, तसले से पिचके गालोंवाले, खाँसते-खँखारते अधेड़ को घेरे था। मेरी निगाह उस तरफ़ होकर, फिर बड़े मियाँ की ओर फिर गयी थी। मेरी आँखों में वही प्रश्न कुलबुला रहा था।
‘‘खुदा ख़ैर करे। रोजा है बीबी सवेरे से एक बताशा भी मुँह में नहीं गया। सेहरी भी नहीं खायी।’’ बेकरीवाले ने फ़रयाद की।
उस भिखारिन को बीस क़दम आगे कोई हँकाल रहा था, जैसे कुत्ते-बिल्ली को हँकालते हैं। इर्द-गिर्द, इनसानों का बहते दरिया-सा बहाव था।
‘‘कहाँ से आयी हो, बीबी ?’’ अचानक अच्छन मियाँ तलब कर बैठे।
‘‘मैंने लाल क़िले पर ऑटों छोड़ दिया था।’’
‘फिर ?’’
‘‘फिर, पैदल। दरीबाँ कला की गली आधे पार कर ही गयी थी कि एक साइकिल रिक्शेवाला बहुत मिन्नतें करने लगा। मैं उसके रिक्शे पर सवार हो ली।’’
‘‘फिर ’’
‘‘फिर क्या ? जामा मस्जिद पर बैरियर था। उतरना पड़ा।’’
‘‘जी हाँ। इन दिनों जुम्मा मस्जिद पर रोक लगा देते हैं।’’
‘‘बड़े मियाँ, आप जामा मस्जिद को जुम्मा मस्जिद क्या इसलिए कह रहे हैं कि वहाँ हर जुम्मे ख़ास नमाज़ अदा की जाती है ?’ मैंने जिज्ञासा की तो अच्छन मियाँ पहले तो बेझिझक हँस दिये, फिर संजीदा हो गये, रोज़े का लिहाज़ करके बोले, ‘‘वहाँ बिल्ली मारन पर भी बेहद गर्द जमा है।’’
‘‘वहाँ, बिल्ली-विल्ली नहीं मारी जाती, बड़े मियाँ। बल्ली मारकर जो किश्ती चलाते थे उसका मोहल्ला हुआ करता था, बल्लीमार ।’’ मैंने बड़े मिया का तलफ़्फुज़ दुरुस्त किया।
‘‘ख़ैर, फिर मैं पाँव-पैदल चलती गयी-शिरीन भवन मिठाईवालों का पता पूछती हुई। अख़बार में ऐसा ही छपा था। आधा हिन्दू और आधा मुस्लिम नाम । होटल ज़मज़म आया।
होटल शान आया, होटल शाका आया, पर शिरीन भवन नहीं आया।’’
‘‘यह तो रहा बगल में शिरीन भवन।’’ वह मुस्करा दिये।
‘‘ओ, हाँ ! शीरमाल रोटियों का ठिकाना पूछते-पाछते, मैं मटिया महल के बाज़ार में दाख़िल हो गयी।’’
‘‘हाँ...आँ....बीबी, बरसों से वही ठुसमठूस, पेंच-पुरज़ों, सायकल-पंचर से लेकर मोटरों तक के स्पेअर-पार्ट चली आ रही हैं।’’
‘‘कोई तरतीब नहीं नुमाइश-सजावट नहीं, बस बदरंग-स्याह। अटरम-शटरम से अटा-सटा था सब कुछ।’’
‘‘मटिया महल की लम्बी गली पैदल ही तय कर यहाँ पहुँची होंगी बीबी ?’’
‘‘जी ! यहाँ इस चित्तली कबर की गली का नाम, दो बुर्क़ापोश ख़ातूनों ने बतलाया। एक ने दूसरी से फुसफुसाकर कहा था, इनसे ज़्यादह बात मत करो...बिन्दी है...कहीं बम-वम। इतना शकोशुबह ?’’
अच्छन मियाँ टाल गये, बोले, ‘‘कोई मन्नत मुराद ही इतनी दूर तक चली आयीं ?’’
‘‘तो यहाँ वाक़ई कोई चित्तली कबर है ?’’ मैंने पूछा।
‘‘चद्दर चढ़ानी है ?’’
‘‘वह तो चढ़ा चुकी।’’
‘‘कहाँ पर ?’’
‘‘चिराग़ दिल्ली में....दरगाह पीर बाबा सैयद जलालुद्दीन चिश्ती पर।’’
मैंने बतलाया तो अच्छन मियाँ की बूढी नजर मुझ पर टिक गयी, जैसे उनकी बन्दा-हमदर्दियाँ मुझ ही से हों।
‘‘वह कौन थीं, बड़े मियाँ ? मैं चौंककर फिर अपने प्रश्न पर आ गयी।
‘‘थी कोई छोटी-सी मिल्कियत और नामालूम-सी हैसियत वाली।’’ अच्छन मियाँ ने मासूमी से कहा।
‘‘पर थी हैसियत-मिल्कियत वाली ?’’
‘‘इसकी माँ तो देखने की अच्छों-अच्छों की आँखों में ताब न थी जब हुस्नदान के सामने बैठकर, बालों में सिरपेंच उलझातीं....’’ उनकी आवाज़ में हसरत उतर आयी थी।
‘‘हुस्नदान ? सिरपेंच ?’’ मैंने ज़रा हैरत से दोहराया।
इतनें में कहीं से ज़रा-ज़रा सरकता एक सायकाल रिक्शा चला आया। वह हेः होः हाँक लगाकर सामनेवालों को चेताता आ रहा था।
‘‘आ जाओगी, बीबी कहाँ रस्ता चलोगी ?’’ रिक्शेवाले ने मुझे उकसाया। जाने कौन-सी गुज़री सदी थी जो इन गलियों की सुस्त रफ्तार में क़ैंद होकर रह गयी थी। अच्छन मियाँ ने आवाज़ देकर रिक्शा ठहरा लिया और बड़ी उम्मीद से मेरी ओर ताका जैसे मेरे चले जाने से उसकी उलझन कम होती हो।
‘‘मालिक, लीजिए, पान भी है, पान की जान भी है।’’
ज़रा दूर पर पानवाला कनखियों से मुस्काता किसी शौक़ीन का बीड़ा बाँध रहा था।
‘‘कौन है वह औरत ?’’
‘‘कौन ? रौनक़ ?’’
‘‘रौनक़ नाम है उसका ?’’ न जाने मुझे उस भिखारिन का नाम सुनकर आश्चर्य क्यों हुआ ? अक्सर उल्टे नाम रख दिए जाते हैं लोगों के, या कि तक़दीर उन्हें उल्टा दिया करती है। कोई जीवनभर का लेखा-जोखा करके तो आदमी का नाम रक्खा नहीं जाता।
खरपतवार में दबी-ढकी, पुरानी क़ब्र की काई लगी ईंट हो जैसे। काई में से झाँकती धुआँ-धुआँ आँखें। रंग भी साफ़ रहा होगा। अब तो काई पर भी राख पड़ी थी।
फटे-फटे-से होठों पर पान के बासी दाग़ ज़में थे।
वह बुदबुदाने लगी, ‘‘रोज़ा खोलूँगी, बेगम साहिबा रमजान का महीना है, रोज़ा खोलना ज़रूरी है।’’
जैसे दूसरे दिनों के फ़ाक़ाकशी दुरुस्त हो। वह एक हक़ीक़ी सच की सूरत लिये मेरे सामने खड़ी थी। न जाने कौन-सा ज़ीना उतरा होगा ? कितनी सीढ़ियाँ कहाँ से फलाँगकर यह हुलिया बना होगा। मेरे खुद के चेहरे पर उसे क्या दिखलाई दे रहा होगा ?
क्या फ़कत थकावट, प्यास और शीरमाल रोटियों की तलाश ?
‘‘खुदाबन्द करीम अगर चाहें तो आप मेरा रोज़ा खुलवाने का सबाब हासिल कर सकती हैं।’’
उसकी फैली हथेली पर दो का सिक्का टिकाते हुए मेरी निगाह आपने आप झुक गयी थी। उसने भी कोई दुआ नहीं दी, मानो दो के सिक्के का लेन-देन मेरे और ख़ुदाबन्द करीम के बीच का मामला हो।
‘‘अल्लाह के प्यारों पर पड़ती इल्लत, किल्लत और ज़िल्लत को कौन कहे और कब तलक।’’
उसकी इस साफ़गोई ने मन पर से, दो के सिक्के की बदौलत खिसके बोझ को वापस ला पटका।
‘‘मैं कौन-सा अफ़सानानिगार हूँ, जो अपनी ज़िन्दगी....’’
क्या ! यह कोई नजूमी है क्या ? लिख-लिखा तो लेती हूँ मैं। पर इतना तपाक-सा अन्तर्यामी ऐलान, इसकी अपनी ज़ुबाँ तो देखो, कितनी साफ़ है। दुकान पर तख़्ती लटकी थी, ‘‘अच्छन मियाँ, बेकरीवाले’। गद्दी पर बड़े मियाँ बैठे तन्दूरी रोटियाँ और नान तोलकर अख़बार में लपेटकर ग्राहकों को पक़ड़ा रहे थे। तन्दूर-भट्ठी वहाँ नहीं थी। बस गर्मा-गर्म रोटियाँ सिंककर पीछे कहीं से लायी जा रही थीं।
‘‘अच्छन मियाँ, पानी पिलवाएँ ज़रा।’’ मैंने आग्रह किया।
‘‘कल पिलाएँगे।’’ अच्छे से अच्छन मियाँ इतमीनान से बोले।
‘‘जी ?’’ मेरा कण्ठ प्यास से सूखा जा रहा था।
‘‘ऐसा है, बीबी जी ! हम रोज़ों में न पानी पीते हैं न पिलाते हैं। और, आज आख़री रोज़ा है।’’
‘‘ओह !’’ आह खींचने से गले की खुश्की को ज़रा तरावट मिली।
‘‘चले तो जाओ बब्बन पीछे, तन्दूर पर से खड़े-खडे, छः शीरमाल रोटियाँ लगवा लाओ। और सुनो, ज़रा लपके चले आना। ऐसा न हो कि मालूम चला इन नेक ख़ातून का भी रोज़ा रखवा दिया।’’ अच्छन मियाँ ने आदेश दिया, तो हँसता हुआ उठकर चल दिया, क़दम-क़दम जगह बनाता हुआ। पैरों के नीचे धरती दिखलायी ही नहीं दे रही थी, इतनी तो भीड़ थी, गलियों में।
‘‘अब तो आँख़ फूटी, पीर गयी। कुछ भी करने-कराने, दिखने-दिखाने बनने-बनाने से बरी हो गयी मेरी जान।’’ मेरे दो सिक्के में इतनी ताब कहाँ थी उसका बुदबुदाना रोक सके। वक़्त ने न जाने कितनी करवटें बदली होंगी कि उसकी ज़िन्दगी यूँ पुरशिकन ही रही।
मेरी शीरमाल रोटियाँ लग के आ रहीं। गद्देली, गुदाज़ रोटियाँ। सुनहरी भाप और मिठास में घुली हुई : वहीं के वहीं, बुर्क़ मार जाने को जी हुआ। तोते की तरह कुतर लूँ, ज़रा-सी।
‘‘सात रुपये की एक है। आपने छः लगवायी हैं, बीबी।’’ अच्छन मियाँ ने याद दिलाया।
‘‘शतरंज की बिसात-सा उठ गया सब कुछ।’’ बुर्क़ेवाली भिखारिन की बुदबुद जारी थी।
मैंने बेकरीवाले के बयालिस रुपये गिन दिये।
‘‘आपकी दिल्ली की सर्दी छुरी की मानिन्द जिस्मोजान को काट देती है। हमारी वादी की प्यार से छूकर चली जाती है।’’ बगल में कोई कश्मीरी व्यापारी खड़ा बतिया रहा था। उन तंग गलियों में क्या तो ठण्ड होती और कहाँ से होकर हवा गुज़रती। मैंने अपना स्वेटर उतार दिया।
‘‘इस बार शाहतूश भी लाया हूँ। बैण्ड आइटम है।’’
मुझे कन्धे पर शाल भी फालतू-सी लगी। ठठ के ठठ लोगों की गर्म साँसों ने माहौल दमघोटू-सा बना रखा था, हालाँकि आसमान बादलों का कम्बल ओढे था, धूप को रोक हुए।
‘‘कश्मीर हो आने को जी तो बहुतेरा मचलता है...हमारे एक दोस्त हैं, नज़रकँवर, अख़बारनवीस
वह तो कहते हैं वहाँ क्या कुछ ख़ून-ख़राबा नहीं हो रहा है ?’’
‘‘अख़बारनवी को तो बस दुम भर दिखला दो, अपने आप पूरे क़द बुत का हाथी तैयार हो जाएगा। फिर नज़रकँवर तो माहिर है इस फन में। हमारी आँखें फ़र्शें राह रहेंगी, जनाब, आप आएँ तो सही।’’ बराबर में गुफ़्तगू जारी थी।
‘‘अच्छन मियाँ, वह छः बाकरख़ानी भी लगवा देते....’’ मैंने कहा, अच्छन मियाँ कहीं दूर ताक रहे थे, चौंक-से गये।
‘‘अब इन्हीं को समझ लो, बाकरख़ानी भी। बीबी, अब तुम घर पहुँच लो तो बेहतर हो। थकी-माँदी हो बहुत।’’
बड़े मियाँ मेरी ओर से चिन्तित लगे थे। भिखारिन भी कुछ दूर खिसक ली थी।
‘‘वह कौन है बड़े मियाँ ?’’
‘‘जैसी खान, वैसी मिट्टी बीबी।’’
‘‘यह तो मेरे सवाल का खुलासा न हुआ, अच्छन मियाँ ?’’
‘‘जब बेटी का क़द मुँडेर से ऊँचा हो जाए, तो उसकी शादी कर देनी चाहिए। हमारे घर पर भी बच्चियाँ हैं। दस-बारह की हुई नहीं कि उनकी अम्मी दहेज़ के लिए कसीदाकारी शुरु कर देंगी और रिश्ता तय कर देने तक हमारी जान को आयी रहेंगी।’’ बड़े मियाँ ने परसाई अन्दाज में कहा।
‘‘मूसा का गुल। मूसा का गुल। एक शीशी कुछ छः रुपये में मसूड़ों-जोड़ो का कैसा ही दर्द, जड़ से गायब-गुम !’’
कोई बहुरुपिया दवा दलाल, ऐन मेरे सिर पर आन, तैनात हो चुका था और कमर लचकाकर बड़े मसखरे
अन्दाज़ में ‘मूसा के गुल’ की वकालत कर रहा था।
‘‘अच्छन मियाँ, कौन थी वह ?’’ मैं बँधी रोटियाँ थामे वहीं थड़े पर पैर लटकाकर बैठ गयी और सुस्ताने लगी। अच्छन मियाँ ज़रा अचकचाये, फिर झेंपे-से किसी ग्राहक की सादा तन्दूरी बँधने लगे।
‘‘बड़े मियाँ !’’
‘‘हुजूर ? हुक़्म सरकार ?’’
‘‘वह भिखारिन, उसकी बोल-चाल ?’’
‘‘घर जाओ न बीबी। हम रोजों में ज़्यादा बात नहीं करते।’’ अच्छन मियाँ कुछ उखड़-से गये। ‘‘जब नसीब ही मेहरबाँ, तब सींकिया भी पहलवान ! हमारे यहाँ कि जवाँ–मर्द दवा खाइए....घण्टे भर बाद ही आज़माइए।’’
कोई दवाफ़रोश था। दो दुबले, तसले से पिचके गालोंवाले, खाँसते-खँखारते अधेड़ को घेरे था। मेरी निगाह उस तरफ़ होकर, फिर बड़े मियाँ की ओर फिर गयी थी। मेरी आँखों में वही प्रश्न कुलबुला रहा था।
‘‘खुदा ख़ैर करे। रोजा है बीबी सवेरे से एक बताशा भी मुँह में नहीं गया। सेहरी भी नहीं खायी।’’ बेकरीवाले ने फ़रयाद की।
उस भिखारिन को बीस क़दम आगे कोई हँकाल रहा था, जैसे कुत्ते-बिल्ली को हँकालते हैं। इर्द-गिर्द, इनसानों का बहते दरिया-सा बहाव था।
‘‘कहाँ से आयी हो, बीबी ?’’ अचानक अच्छन मियाँ तलब कर बैठे।
‘‘मैंने लाल क़िले पर ऑटों छोड़ दिया था।’’
‘फिर ?’’
‘‘फिर, पैदल। दरीबाँ कला की गली आधे पार कर ही गयी थी कि एक साइकिल रिक्शेवाला बहुत मिन्नतें करने लगा। मैं उसके रिक्शे पर सवार हो ली।’’
‘‘फिर ’’
‘‘फिर क्या ? जामा मस्जिद पर बैरियर था। उतरना पड़ा।’’
‘‘जी हाँ। इन दिनों जुम्मा मस्जिद पर रोक लगा देते हैं।’’
‘‘बड़े मियाँ, आप जामा मस्जिद को जुम्मा मस्जिद क्या इसलिए कह रहे हैं कि वहाँ हर जुम्मे ख़ास नमाज़ अदा की जाती है ?’ मैंने जिज्ञासा की तो अच्छन मियाँ पहले तो बेझिझक हँस दिये, फिर संजीदा हो गये, रोज़े का लिहाज़ करके बोले, ‘‘वहाँ बिल्ली मारन पर भी बेहद गर्द जमा है।’’
‘‘वहाँ, बिल्ली-विल्ली नहीं मारी जाती, बड़े मियाँ। बल्ली मारकर जो किश्ती चलाते थे उसका मोहल्ला हुआ करता था, बल्लीमार ।’’ मैंने बड़े मिया का तलफ़्फुज़ दुरुस्त किया।
‘‘ख़ैर, फिर मैं पाँव-पैदल चलती गयी-शिरीन भवन मिठाईवालों का पता पूछती हुई। अख़बार में ऐसा ही छपा था। आधा हिन्दू और आधा मुस्लिम नाम । होटल ज़मज़म आया।
होटल शान आया, होटल शाका आया, पर शिरीन भवन नहीं आया।’’
‘‘यह तो रहा बगल में शिरीन भवन।’’ वह मुस्करा दिये।
‘‘ओ, हाँ ! शीरमाल रोटियों का ठिकाना पूछते-पाछते, मैं मटिया महल के बाज़ार में दाख़िल हो गयी।’’
‘‘हाँ...आँ....बीबी, बरसों से वही ठुसमठूस, पेंच-पुरज़ों, सायकल-पंचर से लेकर मोटरों तक के स्पेअर-पार्ट चली आ रही हैं।’’
‘‘कोई तरतीब नहीं नुमाइश-सजावट नहीं, बस बदरंग-स्याह। अटरम-शटरम से अटा-सटा था सब कुछ।’’
‘‘मटिया महल की लम्बी गली पैदल ही तय कर यहाँ पहुँची होंगी बीबी ?’’
‘‘जी ! यहाँ इस चित्तली कबर की गली का नाम, दो बुर्क़ापोश ख़ातूनों ने बतलाया। एक ने दूसरी से फुसफुसाकर कहा था, इनसे ज़्यादह बात मत करो...बिन्दी है...कहीं बम-वम। इतना शकोशुबह ?’’
अच्छन मियाँ टाल गये, बोले, ‘‘कोई मन्नत मुराद ही इतनी दूर तक चली आयीं ?’’
‘‘तो यहाँ वाक़ई कोई चित्तली कबर है ?’’ मैंने पूछा।
‘‘चद्दर चढ़ानी है ?’’
‘‘वह तो चढ़ा चुकी।’’
‘‘कहाँ पर ?’’
‘‘चिराग़ दिल्ली में....दरगाह पीर बाबा सैयद जलालुद्दीन चिश्ती पर।’’
मैंने बतलाया तो अच्छन मियाँ की बूढी नजर मुझ पर टिक गयी, जैसे उनकी बन्दा-हमदर्दियाँ मुझ ही से हों।
‘‘वह कौन थीं, बड़े मियाँ ? मैं चौंककर फिर अपने प्रश्न पर आ गयी।
‘‘थी कोई छोटी-सी मिल्कियत और नामालूम-सी हैसियत वाली।’’ अच्छन मियाँ ने मासूमी से कहा।
‘‘पर थी हैसियत-मिल्कियत वाली ?’’
‘‘इसकी माँ तो देखने की अच्छों-अच्छों की आँखों में ताब न थी जब हुस्नदान के सामने बैठकर, बालों में सिरपेंच उलझातीं....’’ उनकी आवाज़ में हसरत उतर आयी थी।
‘‘हुस्नदान ? सिरपेंच ?’’ मैंने ज़रा हैरत से दोहराया।
इतनें में कहीं से ज़रा-ज़रा सरकता एक सायकाल रिक्शा चला आया। वह हेः होः हाँक लगाकर सामनेवालों को चेताता आ रहा था।
‘‘आ जाओगी, बीबी कहाँ रस्ता चलोगी ?’’ रिक्शेवाले ने मुझे उकसाया। जाने कौन-सी गुज़री सदी थी जो इन गलियों की सुस्त रफ्तार में क़ैंद होकर रह गयी थी। अच्छन मियाँ ने आवाज़ देकर रिक्शा ठहरा लिया और बड़ी उम्मीद से मेरी ओर ताका जैसे मेरे चले जाने से उसकी उलझन कम होती हो।
‘‘मालिक, लीजिए, पान भी है, पान की जान भी है।’’
ज़रा दूर पर पानवाला कनखियों से मुस्काता किसी शौक़ीन का बीड़ा बाँध रहा था।
‘‘कौन है वह औरत ?’’
‘‘कौन ? रौनक़ ?’’
‘‘रौनक़ नाम है उसका ?’’ न जाने मुझे उस भिखारिन का नाम सुनकर आश्चर्य क्यों हुआ ? अक्सर उल्टे नाम रख दिए जाते हैं लोगों के, या कि तक़दीर उन्हें उल्टा दिया करती है। कोई जीवनभर का लेखा-जोखा करके तो आदमी का नाम रक्खा नहीं जाता।
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