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खाली लिफाफा

राजी सेठ

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :308
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7024
आईएसबीएन :0-14-309987-6

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राजी सेठ के अपने लेखकीय जीवन की सर्वश्रेष्ठ 25 कहानियों का संकलन

Khali Lifafa - A Hindi Book - by Raji Seth

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जिंदगी के टेढ़े-मेढ़े रास्तों के बीच, संबंधों के अंतर्द्वन्द्व को कुरेदती, छोटी-बड़ी बातों से खुद को बहलाती कहानी अपना रास्ता तलाश ही लेती है। राजी सेठ की लेखनी में समाकर कहानी एक अलग रूप-लावण्य धरती है। मानवीयता के धरातल को छूती, टटोलती उनकी कहानी पाठक के मानस तक जा पहुँचती है। जिंदगी से जुड़ी छोटी-छोटी मासूम घटनाएं राजी सेठ की सशक्त लेखनी व सरस भाषा-शैली का स्पर्श पाकर कहानी में जी उठती हैं।

इस संकलन में राजी सेठ ने अपने लेखकीय जीवन की सर्वश्रेष्ठ कहानियों का चयन किया है। लेखिका की कसौटी पर खरी उतरी ये कहानियां अब पाठकों के निर्णय की प्रतीक्षा में हैं।
"स्त्री होने को स्वीकारते हुए, राजी के लेखन ने स्वीकार के भीतर जितने इंकार रचे हैं, यथास्थिति में जितने हस्तक्षेप किए हैं, उन्हें उनकी आधुनिक पहचान के लिए देखना जरूरी है।"

 

प्रभाकर श्रोतिय
अनुभव से अर्थ तक पहुँचाने की प्रक्रिया इन कहानियों को विशिष्ट बनाती है। संवेदनाओं के महीन रेशे तराशने में भाषा की जिन शक्तियों का इस्तेमाल हुआ है, उसे देखकर ईर्ष्या होती है।

 

राजेंद्र यादव
संग्रह का नाम भले ही ख़ाली लिफाफा है, लेकिन पुस्तक में पाठक को ख़ाली कुछ भी नहीं मिलने वाला, हर कहानी में कुछ न कुछ वैसा अनुभव मिलता है, जो लगता है कि यह मेरे आसपास की नहीं, मेरी बात है।

 

हिन्दुस्तान

 

अनुक्रम

 

१. ग़मे-हयात ने मारा
२. उतनी दूर १५
३. अमूर्त कुछ २८
४. अंधे मोड़ से आगे ४१
५. उसका आकाश ५२
६. सदियों से ६४
७. यात्रा मुक्त ७९
८. अनावृत्त कौन १॰३
९. यहीं तक १२॰
१॰. अपने दायरे १३६
११. पासा १४९
१२. तीसरी हथेली १५५
१३. क़िस्सा बाबू बृजेश्वरजी का १६६
१४. तुम भी...? १७५
१५. उसी जंगल में १९१
१६. परमा की शादी २॰४
१७. परतें २१॰
१८. दूसरे देशकाल में २२८
१९. विकल्प २४२
२॰. फ़्लाईओवर २५३
२१. मुलाक़ात २६७
२२. किसका इतिहास २७२
२३. ठहरो इंतज़ार हुसैन २८॰
२४. कमबख़्त २९१
२५. ख़ाली लिफ़ाफ़ा २९८

 

आपके मेरे बीच

 

ज़्यादातर माना यही जाता रहा है कि रचना से इतर रचनाकार को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि रचना में उसका सब कुछ आ जाता है–उसका पूरा चेहरा। मुझे इस बात को मानने में सदा कठिनाई होती है। मुझे लगता है लेखन एक कला-कौशल है और लेखक अपने अंतर्लोक के आलोक में, अनुभव को कला में परिणीत करने वाला एक कर्ता। शब्द उसके उपकरण हैं और लेखन उसका कृतित्व, उसका जीवन नहीं। रचना कर्म में वह अपने जीवन अनुभव और अनुबोधन का दृष्टिवान इस्तेमाल करता है। इस कौशल के बाहर भी वह बहुत कुछ है–कोई अन्य, वह भी इतना स्वतंत्रचेता कि रचने के बाद वह स्वयं रचना में अवस्थित नहीं रहता मुक्त हो जाता है। पाठक की हैसियत में आ जाता है। कथा को इस तरह पढ़ता है जैसे इस समय मैं इन संकलित की जाने वाली कहानियों को पढ़ रही हूं–अपनी रचनात्मक वृत्तियों, अंतर्वृत्तियों को बाहरी दृष्टि से पहचानती हुई।

इस समय इन कहानियों में से गुज़रते, रचनाकर्म को लेकर अपनी मान्यताएं और विश्वास अलग से मेरे फ़ोकस में आए। मुझे लगा जीवन की साधारणता, सामान्यता से मैंने कभी विरत होना नहीं चाहा। वही मुझे अपने और पाठक के बीच साझी, सजातीय और विश्वसनीय ज़मीन लगती रही है। मुझे सदा इस साधारणता, सामान्यता के पीछे से झांकती अनजानी स्थितियों, भाव दीप्तियों ने पकड़ा-जकड़ा है। जीवन की तेज रफ़्तार के बीच रौंदी जाती आंतरिकताएं, ओझल चेहरे, अप्रकट कोने, गोपन दर्द, अनसुनी आवाज़ें, मुझे आकर्षित करती रही हैं। इन स्थितियों में मुझे अभिव्यक्ति की दुर्दम्य संभावनाएं दिखती रही हैं जो किसी लेखक को ललकारती हैं। उसकी क्षमता का बहुलांश मांगती हैं, क्योंकि जो आंतरिक है, सूक्ष्म है, अप्रकट, अमूर्त और ओझल है, उसे उत्कटता के उपकरणों के बिना कुरेदा नहीं जा सकता। उसे भाषा की तीखी और गहरी धार भी चाहिए। साथ ही यह विश्वास भी कि जीवन उतना ही नहीं है जितना हमें दिखाई देता है। उतना भर दिखाई देना जीवन की नहीं, हमारी इंद्रियों की सीमा है। अनुभव के ज्ञान के तंतु जब भी फैलने के लिए व्यग्र होंगे अप्रकट, अमूर्त, ओझल को अपनी सरहदों में शामिल करना चाहेंगे। आगे का ज्ञान, अज्ञान की सीमाएं तोड़ेगा, इसलिए वास्तविक, वास्तविक होने के बाद भी अधूरा है, उसे आने वाले सच में अपना विस्तार चाहिए होगा।

विस्तार के इसी विश्वास में मेरी रचना जन्म लेती है। मैं घटना के या अनुभव के यथार्थ को छोड़ देती हूं। घटना के बाद के प्रभाव में खुलते संसार को समेटना चाहती हूं। अनुभव का अर्थ ही है–होने के बाद का होना, घटना के बाद का अनुगमन। अपनी इन्हीं ज़रूरतों के चलते मेरे पात्र जन्म लेते हैं। उसी तत्पश्चाती प्रभाव को पकड़ने के लिए मेरी रचना-सृष्टि उद्दीप्त होती है। लेखक का सौभाग्य है कि उसे कल्पनाशीलता, भावप्रवणता, संवेदन सजगता, अर्थगर्भित भाषा की सौगात मिली हुई है। किसी अर्थ की नोक पर टिके क्षण या स्थिति को अभिव्यक्ति करने की आकांक्षा भी उसमें जागृत रहती है। उसी दिशा में वो अपनी क्षमता को आज़माता है।
लेखन में इन उपकरणों की ऐसी उत्कंटर अपरिहार्यता है कि परिणामों को देखकर आश्चर्य होता है। रचनागत ज़रूरतों को लेकर रचे गए काल्पनिक पात्र भी इतने अस्तित्ववान और जीवंत हो उठते हैं कि लेखक को जवाबदेह होना पड़ता है। ‘अमूर्त कुछ’ कहानी के कल्पित पात्र कप्पी का सच जान लेने के बाद एक किशोरी पाठक रोते-रोते बेहाल हो गई थी जैसे उसका अपना ही कोई सपना टूट गया हो।

‘उसका आकाश’ के वृद्ध के साथ कितने बुढ़ापों ने अपने को जोड़ लिया था। ‘यात्रा मुक्त’ का किशना नए दौर का इतिहास बनाने में कितना आगे निकल चुका है–ऐसे और भी कितने प्रश्नों का मुझे रोज़-रोज़ सामना करना पड़ता है। इसका सबसे अकल्पित उदाहरण तो मेरे उपन्यास ‘तत-सम’ में चित्रित आनंद का नाम काल्पनिक पात्र है, जिसके साथ स्वतंत्रता बोध के मूल्य की सभी आकांक्षाओं को जोड़ लिया गया है, इस हद तक कि वह इस मूल्य बोध का कीर्तिस्तंभ बन गया है। ऐसे में समझाना मुश्किल है कि कल्पना के पात्रों में लेखक अपने विश्वास, अपने मूल्य बोध, अपना विश्व बोध और अपना अधूरापन भी दाख़िल करता है। वह ज़मीन ज़्यादा पोली होती है। लेखक की निजता और मौलिकता पाठक को इस रास्ते हाथ लगती है, सीधे सपाट तरीक़े से नहीं।

ऐसे निष्कर्षों को देखते मुझे लगता है कि जीवन और रचना में कितनी सहज आवाजाही है जैसे कि जीवन-यथार्थ की तपिश से निकले पात्र कहानी में आकर अपने बाहरीपन से अपनी आंतरिकता जोड़कर पूरे हो जाते हैं। मेरा मानना है कि बाहर से इतने गतिशील संसार की सारी क्रियाएं, फ़ैसले, नैतिकताएं, द्वंद्व, आवेग और उद्बोधन भीतर से ही संचालित होते हैं, इसलिए मेरी कहानियों की गति भीतर से बाहर की ओर है, बिंदु से परिधि की ओर। परिधि पर, अंतर्लोक की रोशनी में खुलता मेरा लोक है, मेरा जन-समाज, जीवन-यथार्थ के माध्यम से मुझे छूती दिखाई देती सब चीज़ें। बिंदु मेरे पात्र हैं, जन्म पाने को उत्सुक, मेरे उत्खनन की हथौड़ियों के बावजूद बच निकले वे चेहरे, जो अपने साथ अपना पूरा परिवेश, अपना पूरा समाज लेकर प्रकट होते हैं। कहानियों में भी वे उसी उत्कटता से जूझते-टकराते हैं, जिस तरह ज़िंदगी की टकराहट हमारे साथ कभी न कभी पेश आई होती है।

मेरे लिए यह ज़रूरी है कि कहानियों के ये पात्र और उनके संघर्ष सच्चे, सजीव और आत्मीय लगें, इसलिए कहानी में जीवन-साम्यता और विश्वसनीयता को पा सकने की सिद्धि हर समय तक एक चुनौती की तरह मेरे सामने खड़ी रहती है बल्कि अपनी वरीयताएं और अपने संदेश भी मुझे जीवन की विश्वसनीयता के पैमानों पर अपनी रचना को तौलते, जोड़ते-घटाते प्रस्तुत करने पड़ते हैं। ज़िन्दगी से परे पड़ती घटनाएं फ़ैंटेसी, चमत्कार, चौंकाने वाले कथ्य या बड़बोले तथ्यों पर मेरी आंख नहीं टिकती। शायद मेरी दृष्टि आंतरिकता के अन्वेषण से रोज़-रोज़ के जीवन में और आयाम जोड़ना चाहती हो। शायद वही मुझे जीवन को समृद्ध करने का एक सोपान लगता हो–अप्रकट को प्रकट की सीमा में लाकर पहले उसे वस्तु-सत्य, फिर जीवन-सत्य में बदलने के रास्ते खोल देना।

जिन विश्वासों के चलते मैं अपने कथा-जगत का निर्माण करती हूं, आज के जगत में वह धमाकेदार सफलता और लोकप्रियता के फ़ॉर्मूले नहीं भी हो सकते, पर यह अहसास मुझे मेरे रचनाकर्म से विरत नहीं करता। अपनी शक्तियों और सीमाओं को तटस्थ होकर पहचानती हुई भी मैं जीवन की आंतरिकता के अन्वेषण में अपनी आस्था को क़ायम पाती हूं। रचने का आह्लाद मुझे रचना के उसी मुखड़े को उकेरने में मिलता है।

कहना न होगा कि भाषा और शिल्प इस उपार्जन के अविच्छिन्न औज़ार हैं। भाषा की कमतर ऊर्जा गहने उत्खनन के लिए नाकाम सिद्ध होती है। अपने एक ज़रूरी उपकरण की तरह भाषा से लगाव मेरी मानसिकता का एक अनिवार्य अंग है। कथावस्तु की रचना की तरह, भाषा को भाषा की तरह रचने को भी मैं कृतित्व का ही नहीं, पूरे भाषा संस्कार का अंग मानती हूं। मानव समुदाय द्वारा सदियों से प्रयुक्त होने वाली भाषा बार-बार गुट्ठल होती है और नई करनी पड़ती है। लेखन जैसी दीक्षाओं से, जिनका एकमात्र उपकरण भाषा है, जुड़ाव मैं अपना दाय मानती हूँ। वही मेरे लिए कभी सूई बनती है, कभी हथौड़ा। अपने कथ्य और पात्र के अनुरूप वह स्वतः अपना रंग-रूप बदल लेती है। मैंने भाषा को सदा निरायास अपनी कथा-वस्तु की सेवा में प्रस्तुत पाया है, वह भी आंतरिक लय की संगति समेत। लिखते समय संगीत के लिए कसे हुए तार की तरह लय मेरे मन में बजती है। उसी तर्ज़ पर बिगड़ती हुई लय खटकती भी है। कहना चाहिए यह लय, एक तरह से लिखे जाते पाठ का नियमन भी करती है।

भाषा की बात करते एक और बात का ज़िक्र मुझे ज़रूरी लग रहा है। कथावस्तु को लेकर अपने चुनावों के चलते प्रचलित कथा-भाषा मुझे नाकाफ़ी लगती रही है। मेरी कहानियां वर्णन या विवरण से नहीं, संवेदन को भाषा और शिल्प देने की कोशिश में से गुजरते लिखी जाती हैं–शुद्ध संवेदन को भाषा से जोतते हुए। शुद्ध संवेदन का सत्व ही मेरी कहानी में भाषा द्वारा नाम रूप पाना चाहता है। वहां विवरण के लिए भाषा का उपयोग नहीं होता बल्कि संवेदित भाषा द्वारा मर्म का उद्घाटन और अनावरण होता है। भाषा को भी संवेदन की तरह ही धड़कता हुआ, लचीला, वेधक, ऊर्जावान और त्वरित होना पड़ता है। मेरे विचार में, मनुष्य की आंतरिकता को संबोधित करने वाले कथाकार के लिए यह सब स्वतः संभव स्थिति है। ऐसे में अभिव्यक्ति का अर्थसघन, मितभाषी और संयमित बने रहना शायद मेरे इसी रवैये का परिणाम माना जा सकता है।

आशा तो है कि ये कहानियां पाठकों को रुचेंगी। इतनी अलग-अलग खिड़कियों से दुनिया दिखाती इन कहानियों में पाठकों को विविधता की कमी नहीं खलेगी। हर कहानी का अपना परिवेश है, अपना समाज, अपने रागबंध, अपनी जीवन-दृष्टि कह सकती हूं। एक सरोकार की जूठन से दूसरी कहानी की सृष्टि नहीं हुई है। जीवन इतना बड़ा अनाविष्कृत विराट है कि क्षमताओं के हाथ छोटे पड़ सकते हैं, कथावस्तु और कथा-दृष्टि के नहीं। यह बात अलग है कि मेरी प्रेरणा को उस कथावस्तु को छोड़ देना पड़ता है जो घटना से शुरू होकर घटना में ही ख़त्म हो जाती है, उसके आगे नहीं जाती। उसके पार की प्रभुता को अपनी सरहद में खींचकर नहीं लाती।

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