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कित्ता पानी

अनिता गोपेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7019
आईएसबीएन :978-81-263-1655

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अनिता गोपेश का पहला कहानी-संग्रह...

Kitta Pani - A Hindi Book - by Anita Gopesh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘कित्ता पानी’ अनिता गोपेश का पहला कहानी-संग्रह है। अनिता गोपेश अपनी कहानियों के सन्दर्भ मध्यवर्गीय समाज से जुटाती हैं। रूढ़ि और आधुनिकता के बीच विकसित होते सम्बन्धों को केन्द्र में रखकर उनकी कहानियाँ आकार पाती हैं। लेखिका ने स्त्री-विमर्श की पक्षधरता के अनुरूप कहानियों में स्त्री-जीवन की विभिन्न स्थितियों को रेखांकित किया है। ‘बोल मेरी मछली कित्ता पानी,’ ‘टैडी बीयर’, ‘अन्ततः’, ‘लाइफ लाइन,’ ‘देहरी भइल बिदेस’, ‘पहला प्यार’ और ‘एक सम्बन्ध अनाम’ सदृश रचनाओं में जो मुख्य पात्र हैं वे परिवार, प्रेम, अस्तित्व व आर्थिक सुरक्षा से जुड़ी समस्याओं के बीच संघर्षरत हैं। इन समस्याओं के लिए जो कारण उत्तरदायी हैं, लेखिका ने उनकी ओर भी संकेत किया है। उल्लेखनीय है कि ‘स्त्री-जीवन’ को प्रमुखता देते हुए अनेक समकालीन रचनाकार कहानियाँ लिख रहे हैं, अनिता गोपेश की विशेषता यह है कि वे समाज को स्त्री और पुरुष में बाँटकर नहीं देखतीं। एक ‘समेकित सामाजिकता’ के भीतर दिन-प्रतिदिन होनेवाले ‘जटिल भावनात्मक युद्ध’ की व्यक्तिगत प्रतिक्रियाएँ उनकी कहानियों में अनुगुंजित हैं। आधुनिकता के इतने दावों के बाद भी क्या नियति, मर्यादा और लोकापवाद के तर्क स्त्री-जीवन को क्षत-विक्षत करते रहेंगे ? ऐसे अनेकानेक प्रश्नों के उत्तर अनिता गोपेश अपनी कहानियों में तलाश करती हैं।
अनिता गोपेश की भाषा निरलंकार होने के बावजूद पर्याप्त प्रभावी है। उसमें व्यक्ति के मनोभावों का सूक्ष्म विवेचन भली प्रकार रेखांकित हुआ है। ‘कित्ता पानी’–एक रोचक कहानी-संग्रह।

बोल मेरी मछली कित्ता पानी


वे दुनियावी अर्थों में एक नितान्त सफल व्यक्ति थे। कम-से-कम वे स्वयं ऐसा ही मानते थे और उन्हें इस बात का बड़ा गुमान भी था। उनकी समझ में एक सफल आदमी के पास जो कुछ, जितना होना चाहिए, सब कुछ उनके पास था, बल्कि ज़रूरत से ज़्यादा ही था। मान-सम्मान, ज़मीन-जायदाद, पद-प्रतिष्ठा, बीवी-प्रेमिका, दोस्त-अहबाब, सुख-सुविधा, बेटियाँ, एक बेटे को छोड़, जिसका उन्हें ही नहीं, उनके जाननेवालों को भी बड़ा अफ़सोस था। लेकिन इस पर उनका कोई बस नहीं था... और फिर इस दुख को भुलाने के लिए ढेरों साधन थे उनके पास, इसलिए उसे भूले भी रहते थे प्राय...
वे उन चन्द भाग्यशाली लोगों में से थे, जो मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा होते हैं और जीवन में किसी प्रकार के अभाव में जब दुखी होना चाहते हैं तो अपने जीवन में खुर्दबीन लगा-लगाकर अभाव खोजने की कोशिश करते हैं और अन्ततः पा भी जाते हैं। जैसे उनके पास अब सूटों की संख्या कम हो गयी है या शहर के सबसे बड़े रईस के पास जितने तरह के कुर्ते हैं उतने उनके पास नहीं हैं या कि संगृहीत रत्नों में अभी काले हीरे की कोई चीज़ उनके पास नहीं है या कि दुनिया की सबसे बेहतरीन शराब की बोतल अब तक उनके बार में क्यों नहीं है या कि लेटेस्ट माडेल की गाड़ी जो कि किसी विदेशी कम्पनी ने अभी-अभी निकाली है वह उन्हें अब तक नहीं मिल पायी है। और एक रेडीमेड दुख जो कि स्थायीरूप से उनके पास था वह यह कि उनके इर्द-गिर्द भीड़ में उन्हें समझने वाला कोई नहीं है, सब-के-सब स्वार्थी हैं। उन्हें निःस्वार्थ भाव से प्यार करने वाला कोई नहीं है। ऐसे में वे अपने बड़े-से म्यूज़िक सिस्टम पर मुकेश के दर्द-भरे गीतों की सी.डी. लगाकर लोगों को सुनाते रहते।

वैसे यह सच नहीं कि उनके चाहनेवालों की कोई कमी थी उनके आसपास बल्कि उन्होंने तो एक मकड़ी की तरह अपने चारों ओर सम्बन्धों का ताना-बाना-सा बुन रखा था, जिसके केन्द्र में वे स्वयं थे और जिसके हर धागे में एक जान, मक्खी की तरह फँसी हुई थी। इन जानों के आपस में टकराने का उन्हें कोई भय नहीं था क्योंकि कोई भी सूत्र ना तो कभी एक दूसरे के क़रीब आनेवाला था, ना ही एक दूसरे को काटनेवाला था। इसे तो वह अपने पौरुष की सबसे बड़ी सफलता मानते थे। उनमें से हर एक को वे अलग-अलग विश्वास दिलाने में सफल थे कि उनके जीवन में जो स्थान उसका है, किसी और का हो ही नहीं सकता। सूत्रों का बँटवारा ऐसे सम्भव हो जाता था कि उनका घर चार स्थानों पर बँटा हुआ था–एक देश की राजधानी में, एक प्रान्त की राजधानी में, एक अपने शहर में और एक उनके गाँव में। स्वयं उनका दावा था कि हर शहर, हर क़स्बे में जहाँ उनका आना-जाना था, उनकी दर्जन से ज़्यादा प्रेमिकाएँ थीं। उनके हर एक विस्तार की बात क्या कहें–बहुत बड़े देश काल तक फैला हुआ था–बड़ी बहनों की कुँवारी ननदों से अपने छात्र जीवन के प्रारम्भ से ले करके, वर्तमान में अपने विभागीय मन्त्री की विवाहिता पत्नी तथा उनकी बेटी तक। एक कुशल खिलाड़ी की तरह वह माँ और बेटी दोनों को एक साथ विश्वास दिला लेने में माहिर थे कि वह एक को दूसरी की वजह से मानते हैं और दोनों ही भुलावे में बनी रहती थीं। पति समझता रहता था कि उसकी वजह से दोनों को मानते हैं। सिलसिला तब तक चलता रहता जब तक उनका जी इससे अघा न जाता या कोई दूसरा रोचक प्रकरण उनके जीवन में न आ जाता।

पाँच बेटियों के बाद घर में सबसे छोटा बेटा हुआ था। सो माँ का पेटपोछना, दुलारा राजकुमार तो बहनों की आँखों का तारा। बड़ी बहनों के लिए तो बेटे बराबर। सो जायज़-नाजायज़ हर माँग पूरी होती। होते-होते यही संस्कार बन कर रह गया और वे जायज़-नाजायज़ में भेद करना ही भूल गये थे। हालत ये कि पन्द्रह-सोलह की उम्र में मूँछों पर रोएँ फूटने से पहले ही जहाँ कोई सुन्दर कन्या दिखती, उन्हें लगता ये बस उन्हीं के लिए बनी हैं। नाते-रिश्ते में हर कहीं लड़की के लिए एक सम्भावित वर दिखता लोगों को और हर कहीं इस उपयुक्त ‘सम्भावित वर’ की बड़ी खातिरदारी होती।
बड़ी बहन के ससुराल जाते। वहाँ जितनी अविवाहित बहने थीं सब अपना-अपना जोड़ बैठाने लगतीं उनके संग। अभिभावक अनजान बने भरपूर मौक़ा भी देते अपनी लड़कियों को। क्या पता किससे बात पट जाए। उनका हाल ये कि किसी से कहते, ‘‘तुम्हारे हाथ में विवाह की रेखा नहीं तो क्या ? मैं बना दूँगा तुम्हारे हाथ में’’ और हाथ थामे बैठे रहते, मन्दिर के पास बहती नदी के पानी में पैर डाले घंटों...।

किसी से कहते, ‘‘किसी लायक होता तो तुम्हारी माँग मोतियों से भर देता’’ या कि, ‘‘बस चलता तो आसमान से तारे तोड़ लाता तुम्हारे लिए।’’
और जब तक वे माँग में मोती भरने या आसमान से तारे तोड़ लाने लायक़ होते या जब तक अपना बस चलाने लायक होते–उनकी नायिकाएँ मन में विरह का मीठा दर्द ले किसी और के आँगन की शोभा बन जातीं। अब वे सभी भूतपूर्व प्रेमिकाएँ दो-तीन बच्चों की माँ हैं–पर आज भी इनको देखकर रोमांचित हो जाती हैं।

गाँव की पढ़ाई समाप्त कर शहर में आये तो शहरी रिश्तेदारों के घर आना-जाना शुरू हुआ। हल्का-फुल्का रोमांस, जब, जहाँ सम्भव होता, वे मौका बिलकुल नहीं चूकते थे। रखरखाव, बात, व्यवहार था ही ऐसा कि कोई भी प्रभावित हुए बिना न रह पाता। पैसे का अभाव था नहीं। पैसे के साथ-साथ सुरुचि भी मिली थी सौभाग्य से। कितना भी कहें, सामने वाले पर कपड़े, घड़ी, जूते, रूमाल, आफ़्टर शेव लोशन, परफ्यूम और सब के साथ स्टाइल, इन सबका प्रभाव पड़ता ही था। सो सुना कि जब हॉस्टल में रहने गये, वहाँ के सुपरिंटेंडेंट, एक युवा प्राध्यापक थे। उनकी पत्नी बड़ी सुरुचि-सम्पन्न, ख़ूबसूरत महिला थीं। इनका आना-जाना शुरू हुआ तो वे दो से तीन हुए और फिर बहुत जल्दी ही तीन से चार हो गये। बड़ा अच्छा समीकरण बना हुआ था। पर बच्चा ज्यों-ज्यों बड़ा होता गया, शक़्ल सूरत ‘अंकल’ से इतनी मिलने लगी कि लोगों ने बातें करनी शुरू कर दीं–सीधे-सादे सुपरिंटेंडेंट साहब हॉस्टल छोड़ गये।

यह नहीं कि उनकी विवाह पर आस्था नहीं थी–अटूट आस्था थी–सार्वजनिक अनुष्ठानों, यज्ञ, हवन, शिवरात्रि, नवरात्र, आदि के व्रत, गृह प्रवेश, बच्चों का मुंडन, कनछेदन इन सबकी पूजा में, साथ बैठनेवाली स्त्री रोज़-रोज़ बदलने से उन्हें अपनी परम्पराओं की हेठी होती लगती थी। सौ पत्नी के प्रति बहुत निष्ठावान थे–उनकी जितनी आवश्यकता थी उसकी पूर्ति करते ही और कहीं बाँटते थे। इसी एक बिन्दु पर वे अपनी प्रेमिकाओं से छुटकारा और सम्मान दोनों एक साथ पा लेते थे। हर सम्बन्ध के विकास की एक दिशा होती है। होते-होते वे अपने आप ही पराकाष्ठा पर पहुँच जाते थे। उनके जीवन में आनेवाली जो स्त्रियाँ अत्याधुनिक होतीं उनके लिए प्रेम, विवाह से अलग कोई वस्तु थी–वहाँ कोई समस्या नहीं होती थी–जब तक जिया डूब के जिया, अलग हुए तो मधुर-पल स्मृतियाँ बनकर रह गये। मेंहदी हसन की एक गज़ल ‘अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें’ या महेन्द्र कपूर के गाये ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों’ के साथ, बहुत भावुकता भरा, भव्य समापन हो जाता था सम्बन्धों का। पर जहाँ प्रेमिका पूर्ण-समर्पिता आदर्श, पारम्परिक-भारतीय स्त्री होती तो बात विवाह तक आ ही जाती और तब प्रेमी की घोषित एकनिष्ठता दाँव पर लग जाती। वहाँ उन्हें बड़ी सहजता से मुक्ति मिल जाती इस बात पर कि, ‘‘अच्छी बुरी कैसी भी हैं, पत्नी मेरे जीवन से जुड़ गयी हैं। उनका दायित्व अब मेरा ही है–अपने जीवन से भागना तो कायरता होगी ना ? अब जो दायित्व लिया है उसका, वहन तो मुझे करना ही होगा, भले ही मुझे उसके लिए अपने इस प्रेम-सम्बन्ध का त्याग कर देना पड़े।’’ भावुक प्रेमिकाएँ मुग्ध नेत्रों से अपने इस आदर्श पुरुष को देखतीं और उनका हाथ अपने हाथ से निकल जाने देतीं।
ऐसा भी नहीं कि उन्होंने सच्चा प्रेम नहीं किया–

उनका दावा है कि किसी एक लड़की को उन्होंने दिल से चाहा था। पर वह लड़की ही उन्हें धता बता गयी। गाँव की सोंधी-सोंधी ज़मीन पर पेड़ पर खिलने वाले पहले फूल की तरह प्रेम का अंकुर प्रस्फुटित हुआ था उनके मन में। पर वही लड़की जब शहर पढ़ने गयी तो बदल गयी। एक जज के वकील बेटे से शादी कर ली। इनके शादी करने लायक बनने की प्रतीक्षा नहीं की। इनका कहना है कि उसके बाद वह किसी लड़की पर विश्वास नहीं कर सके। आत्मविश्वास ऐसा टूटा कि जल्द से जल्द कुछ बनकर दिखाने के लिए ‘शार्टकट’ रास्ते खोजने लगे–सम्भवतः आज वे जो कुछ भी बने हैं, उसके मूल में वही ‘कुछ बड़ा’ बनकर दिखाने की प्रवृत्ति ही काम करती रही है।

यूनिवर्सिटी में आते ही छात्र-नेतागिरी में लग गये थे। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हमेशा ही अच्छे वक्ता रहे थे–यहाँ भी जल्द ही लोकप्रिय हो गये–घर धन-धान्य से भरा ही था–सो नौकरी की कोई जल्दी न थी। यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर उस समय दो प्रकार के हुआ करते थे। कुछ सक्रिय राजनीति में भाग लेते थे, पढ़ाने का काम बिलकुल न करते तो कुछ महज़ पढ़ने-पढ़ाने में विश्वास रखते थे। राजनीतिक प्रोफेसरों के घरों में रात देर तक उनका उठना-बैठना होता था। मंच से इतना ओजस्वी भाषण देते थे कि लोग प्रभावित हुए बिना न रहते। उसी क्रम में एक प्रोफ़ेसर जो प्रभावित हुए तो दामाद बनाकर ही छोड़ा। उन्हें भी शहर में पाँव जमाने को ठाँव चाहिए था–लड़की साँवली, और मोटी थी–घर पर सबने मना किया–पर वहाँ भी आदर्श बखाना, ‘‘साँवली लड़की का क्या मन नहीं होता ?’’ और सिर झुकाकर गुरु आदेश का पालन किया। श्वसुर पहुँच वाले व्यक्ति थे। चुनाव में टिकट मिल गया और अपने क्षेत्र से भारी मतों से जीतकर वह सबसे कम आयु के विधायक बन गये। पहली बार में ही मन्त्री बने। मन्त्रालय मिला सूचना और प्रसारण–बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा। दिन-रात सुदर्शनाओं से घिरे रहते। इतने अघाए रहते अपने जीवन से कि पूछो मत। एकान्त क्षणों में सोचते–‘एक आदमी को और क्या चाहिए जीवन में ? प्रभु तेरा लाख-लाख धन्यवाद !’ पर फिर भी मन था कि अघाता ही नहीं था। न जाने क्या पा लेने की लालसा थी मन में, जो उन्हें बेचैन बनाये रहती थी हर पल...। जहाँ तक जीवन में कर्तव्यों का निर्वाह और दायित्वों के वहन की बात थी, वे अपने-आप से पूर्णतः सन्तुष्ट थे।

माँ को जो कुछ चाहिए था, उससे ज़्यादा करते थे उनके लिए। माँ हर घड़ी निहाल रहती अपने बेटे पर। बहन, बहनोई, रिश्ते-नातेदार सबका, जब जो कुछ करना होता करते ही। पत्नी की ज़रूरतें बहुत सीमित थीं–ज़िन्दगी का पहाड़ा बड़ा सीधा सरल था उनका–पैदा हुए, थोड़ा लिखा-पढ़ा, बड़े हुए, अच्छी-सी शादी हो गयी–पति, घर, गृहस्थी–फिर बच्चे भी हो गये। दाम्पत्य जीवन की जो सार्थकता थी, अपनी पराकाष्ठा को पहुँची। अब पति की दीर्घायु की कामना के लिए होनेवाले व्रत-उपवास और सामाजिक आयोजनों भर के लिए पति की आवश्यकता रह गयी थी। उनके आसपास शरीर का औचित्य मात्र सन्तति के प्रयोजन तक ही था। न जाने कौन सी असुरक्षा की भावना थी जिसने उन्हें दिन-रात पूजा-पाठ में लगे रहना सिखाया था। अब तो जैसे जीवन की सार्थकता ही पूजा-पाठ में रह गयी थी।

समृद्धि का कोई सीधा सम्बन्ध होता है शायद धर्म-कर्म और भक्ति से। जैसे-जैसे समृद्धि बढ़ी, मन्दिरों में दर्शन, चढ़ावे, बड़े-बड़े स्वामियों का स्वागत-सत्कार, उनके आश्रमों का चक्कर इत्यादि उनके क्रिया-कलाप में शामिल हो गये। नया घर बना तो एक कोने में आलीशान मन्दिर भी बना। कसौटी के पत्थर की मूर्ति बनवाकर मँगवायी उन्होंने राजस्थान से, स्पेशल आर्डर पर। सात दिन के ‘सप्ताह पाठ’ के बाद–बड़ी धूमधाम से मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की गयी। इन सब आयोजनों में उनकी और उनकी पत्नी की जुगल-जोड़ी देखते ही बनती थी। उनकी पत्नी का पूरा समय भगवान जी को उठाने, नहलाने-धुलाने, भोग लगाने, आरती उपासना और रात सुलाने में बीत गया था। दुनिया भर के अजीब-अजीब नाम वाले बाबाओं के चक्कर लगाने में उनकी पत्नी को जीवन का परम आनन्द नजर आता था। इस सबसे उनको कोई फ़र्क भी नहीं पड़ता था, वो ये सब चलने देते।

भगवानजी के मन्दिर के साथ ही साथ बने दो एयर-कंडीशंड कमरे बेटियों के लिए। उनमें रह रही उनकी बेटियाँ क्या कर रही हैं–इसकी उन्हें कोई ख़बर नहीं रहती थी–कमरे के दरवाज़े एक बार बन्द होते तो बाहर की दुनिया से एकदम कट ही जाते थे। अन्दर रहनेवाला उसी में आत्महत्या कर रहा है या कुछ और पता ही न लगता। लड़कियों की सहेलियाँ आतीं और नौकरों-चाकरों से भरे आँगन दहलीज पार कर उसी कमरे में घुस जातीं और फिर अन्दर क्या हो रहा है, बाहर इसकी हवा तक न लग पाती ! कमरों में फोन लगे थे–घंटों फोन पर बातचीत होती–नाश्ता, पानी, खाना कमरे में ही जाता और वापस आ जाता। सहेलियों के साथ-साथ कब कमरे में ‘सहेलों’ का आना जाना शुरू हो गया, इसकी खबर न ही उनके पिता को थी न माँ को, जानते थे तो बस घर के नौकर-चाकर।

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