जीवनी/आत्मकथा >> तरकश तरकशजावेद अख्तर
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लोग जब अपने बारे में लिखते हैं तो सबसे पहले यह बताते हैं कि वो किस शहर के रहने वाले हैं–मैं किस शहर को अपना शहर कहूँ ?...
Tarkash - A Hindi Book - by Javed Akhtar
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जावेद अख़्तर एक कामयाब पटकथा लेखक, गीतकार और शायर होने के अलावा एक ऐसे परिवार के सदस्य भी हैं जिसके ज़िक्र के बग़ैंर उर्दू अदब का इतिहास पूरा नहीं कहा जा सकता। जावेद अख़्तर प्रसिद्ध प्रगतिशील शायर जाँनिसार अख़्तर और मशहूर लेखिका सफ़िया अख़्तर के बेटे और प्रगतिशील आंदोलन के एक और जगमगाते सितारे, लोकप्रिय कवि मजाज़ के भांजे हैं। अपने दौर के रससिद्ध शायर मुज़्तर ख़ैराबादी जावेद के दादा थे। मुज़्तर के वालिद सैयद अहमद हुसैन ‘रुस्वा’ एक मधुर सुवक्ता कवि थे। मुज़्तर की वालिदा सईदुन-निसा ‘हिरमाँ’ उन्नीसवीं सदी की उन चंद कवियत्रियों में से हैं जिनका नाम उर्दू के इतिहास में आता है। जावेद की शायरा परदादी हिरमाँ के वालिद अल्लामा फ़ज़ले-हक़ खैराबादी अपने समय के एक विश्वस्त अध्येता, दार्शिनक, तर्कशास्त्री और अरबी के शायर थे अल्लामा फ़ज़ले-हक़ ग़ालिब के क़रीबी दोस्त थे और वो ‘‘दीवाने-ग़ालिब’’ जिसे दुनिया आँखों से लगाती है, जावेद के सगड़दादा अल्लामा फ़ज़ले-हक़ का ही संपादित किया हुआ है। अल्लामा फ़ज़ले-हक़ ने 1857 की जंगे-आजादी में लोगों का जी जान से नेतृत्व करने के जुर्म में अंग्रेज़ों से काला पानी की सज़ा पाई और वहीं अंडमान में उनकी मृत्यु हुई। इन तमाम पीढ़ियों से जावेद अख़्तर को सोच, साहित्य और संस्कार विरासत में मिले हैं और जावेद अख़्तर ने अपनी शायरी से विरसे में मिली इस दौलत को बढ़ाया ही है। जावेद अख़्तर की कविता एक औद्योगिक नगर की शहरी सभ्यता में जीने वाले एक शायर की शायरी है। बेबसी और बेचारगी, भूख और बेघरी, भीड़ और तनहाई, गंदगी और जुर्म, नाम और गुमनामी, पत्थर के फुटपाथों और शीशे की ऊँची इमारतों से लिपटी ये Urban तहज़ीब न सिर्फ़ कवि की सोच बल्कि उसकी ज़बान और लहजे पर भी प्रभावी होती है। जावेद की शायरी एक ऐसे इंसान की भावनाओं की शायरी है जिसने वक्त के अनगिनत रूप अपने भरपूर रंग में देखे हैं। जिसने ज़िन्दगी के सर्द-गर्म मौसमों को पूरी तरह महसूस किया है। जो नंगे पैर अंगारों पर चला है, जिसने ओस में भीगे फूलों को चूमा है और हर कड़वे-मीठे जज़्बे को चखा है। जिसने नुकीले से नुकीले अहसास को छू कर देखा है और जो अपनी हर भावना और अनुभव को बयान करने की शक्ति रखता है। जावेद अख़्तर ज़िन्दगी को अपनी ही आँखों से देखता है और शायद इसीलिए उसकी शायरी एक आवाज़ है, किसी और की गूँज नहीं। ‘‘...अपनी ज़िंदगी में तुमने क्या किया ? किसी से सच्चे दिल से प्यार किया ? किसी दोस्त को नेक सलाह दी ? किसी दुश्मन के बेटे को मोहब्बत की नज़र से देखा ? जहाँ अँधेरा था वहाँ रौशनी की किरन ले गये ? जितनी देर तक जिये, इस जीने का क्या मतलब था..?...’’
कृश्नचंदर
अपने बारे में
लोग जब अपने बारे में लिखते हैं तो सबसे पहले यह बताते हैं कि वो किस शहर के रहने वाले हैं–मैं किस शहर को अपना शहर कहूँ ?... पैदा होने का जुर्म ग्वालियर में किया लेकिन होश सँभाला लखनऊ में, पहली बार होश खोया अलीगढ़ में, फिर भोपाल में रहकर कुछ होशियार हुआ लेकिन बम्बई आकर काफ़ी दिनों तक होश ठिकाने रहे, तो आइए ऐसा करते हैं कि मैं अपनी ज़िन्दगी का छोटा सा फ़्लैश बैक बना लेता हूँ। इस तरह आपका काम यानी पढ़ना भी आसान हो जाएगा और मेरा काम भी, यानी लिखना।
शहर लखनऊ... किरदार–मेरे नाना, नानी दूसरे घरवाले और मैं... मेरी उम्र आठ बरस है। बाप बम्बई में है, माँ क़ब्र में। दिन भर घर के आँगन में अपने छोटे भाई के साथ क्रिकेट खेलता हूँ। शाम को ट्यूशन पढ़ाने के लिए एक डरावने से मास्टर साहब आते हैं। उन्हें पंद्रह रुपए महीना दिया जाता है (यह बात बहुत अच्छी तरह याद है इसलिए कि रोज़ बताई जाती थी)। सुबह ख़र्च करने के लिए एक अधन्ना और शाम को एक इकन्नी दी जाती है, इसलिए पैसे की कोई समस्या नहीं है। सुबह रामजी लाल बनिए की दुकान से रंगीन गोलियाँ खरीदता हूँ और शाम को सामने फुटपाथ पर ख़ोमचा लगाने वाले भगवती की चाट पर इकन्नी लुटाता हूँ। ऐश ही ऐश है। स्कूल खुल गए हैं। मेरा दाख़िला लखनऊ के मशहूर स्कूल कॉल्विन ताल्लुक़ेदार कॉलेज में छटी क्लास में करा दिया जाता है। पहले यहाँ सिर्फ़, ताल्लुक़ेदारों के बेटे पढ़ सकते थे, अब मेरे जैसे कमज़ातों को भी दाख़िला मिल जाता है। अब भी बहुत महँगा स्कूल है... मेरी फ़ीस सत्रह रुपये महीना है (यब बात बहुत अच्छी तरह याद है, इसलिए की रोज... जाने दीजिए)। मेरी क्लास में कई बच्चे घड़ी बाँधते हैं। वो सब बहुत अमीर घरों के हैं। उनके पास कितने अच्छे-अच्छे स्वेटर हैं। एक के पास तो फाउन्टेन पेन भी है। यह बच्चे इन्टरवल में स्कूल की कैन्टीन से आठ आने की चॉकलेट ख़रीदते हैं (अब भगवती की चाट अच्छी नहीं लगती)। कल क्लास में राकेश कह रहा था उसके डैडी ने कहा है कि वो उसे पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेजेंगे। कल मेरे नाना कह रहे थे... अरे कमबख़्त ! मैट्रिक पास कर ले तो किसी डाकख़ाने में मोहर लगाने की नौकरी तो मिल जाएगी। इस उम्र में जब बच्चे इंजन ड्राईवर बनने का ख़्वाब देखते हैं मैंने फैसला कर लिया है कि बड़ा होकर अमीर बनूँगा...
शहर लखनऊ... किरदार–मेरे नाना, नानी दूसरे घरवाले और मैं... मेरी उम्र आठ बरस है। बाप बम्बई में है, माँ क़ब्र में। दिन भर घर के आँगन में अपने छोटे भाई के साथ क्रिकेट खेलता हूँ। शाम को ट्यूशन पढ़ाने के लिए एक डरावने से मास्टर साहब आते हैं। उन्हें पंद्रह रुपए महीना दिया जाता है (यह बात बहुत अच्छी तरह याद है इसलिए कि रोज़ बताई जाती थी)। सुबह ख़र्च करने के लिए एक अधन्ना और शाम को एक इकन्नी दी जाती है, इसलिए पैसे की कोई समस्या नहीं है। सुबह रामजी लाल बनिए की दुकान से रंगीन गोलियाँ खरीदता हूँ और शाम को सामने फुटपाथ पर ख़ोमचा लगाने वाले भगवती की चाट पर इकन्नी लुटाता हूँ। ऐश ही ऐश है। स्कूल खुल गए हैं। मेरा दाख़िला लखनऊ के मशहूर स्कूल कॉल्विन ताल्लुक़ेदार कॉलेज में छटी क्लास में करा दिया जाता है। पहले यहाँ सिर्फ़, ताल्लुक़ेदारों के बेटे पढ़ सकते थे, अब मेरे जैसे कमज़ातों को भी दाख़िला मिल जाता है। अब भी बहुत महँगा स्कूल है... मेरी फ़ीस सत्रह रुपये महीना है (यब बात बहुत अच्छी तरह याद है, इसलिए की रोज... जाने दीजिए)। मेरी क्लास में कई बच्चे घड़ी बाँधते हैं। वो सब बहुत अमीर घरों के हैं। उनके पास कितने अच्छे-अच्छे स्वेटर हैं। एक के पास तो फाउन्टेन पेन भी है। यह बच्चे इन्टरवल में स्कूल की कैन्टीन से आठ आने की चॉकलेट ख़रीदते हैं (अब भगवती की चाट अच्छी नहीं लगती)। कल क्लास में राकेश कह रहा था उसके डैडी ने कहा है कि वो उसे पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेजेंगे। कल मेरे नाना कह रहे थे... अरे कमबख़्त ! मैट्रिक पास कर ले तो किसी डाकख़ाने में मोहर लगाने की नौकरी तो मिल जाएगी। इस उम्र में जब बच्चे इंजन ड्राईवर बनने का ख़्वाब देखते हैं मैंने फैसला कर लिया है कि बड़ा होकर अमीर बनूँगा...
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