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उच्चारण सुधार

सरस्वती सरन कैफ,

प्रकाशक : राका पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :75
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7007
आईएसबीएन :81-89416-11-1

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उच्चारण की अशुद्धियाँ शिक्षा के विस्तार के साथ काफ़ी बढ गयी हैं...

Uchcharan Sudhar - A Hindi Book - By Saraswati Kaif

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उच्चारण की अशुद्धियाँ शिक्षा के विस्तार के साथ काफ़ी बढ गयी हैं क्योंकि पाठ्यक्रमों तथा छात्रों और अध्यापकों की संख्या तेज़ी से बढ़ने के साथ उच्चारण की शुद्धता पर उतना ध्यान और समय नहीं दिया गया जितना आवश्यक था। फलतः हर भाषा में गलत उच्चारण का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। यह ठीक नहीं है क्योंकि हर भाषा की शिक्षा उसके शुद्ध उच्चारण के अभाव में अधूरी रहती है।
प्रस्तुत पुस्तक में हिन्दी भाषियों की बोलचाल में संस्कृत, अरबी, फ़ारसी, अँगरेज़ी तथा दक्षिण भारत की भाषाओं को कुछ ध्वनियों के गलत उच्चारण को शुद्ध करने के लिए भाषाशास्त्र के अंग ध्वनिशास्त्र (Phonetics)  के आधार पर सरल भाषा में साधारण रीति से उच्चारण सुधार के तरीक़े वैज्ञानिक विधि से बताये गये हैं जिनसे प्रत्येक विद्यार्थी गुरु की सहायता के बग़ैर अपनी मेहनत से ही गौरवान्वित हो सकता है।

प्राक्कथन


विश्व के प्राचीन तथा नवीन भाषाविदों के द्वारा भाषा के सम्बन्ध में जो भी परिभाषाएं दी गई हैं उन सब में जो एक बात सामान्य रूप से पाई गई है वह यह है कि सभी ने किसी न किसी रूप में इसके ध्वन्यात्मक रूप को ही इसका वास्तविक रूप स्वीकार किया है। स्वेच्छा से निर्धारित ध्वनि प्रतीकों पर आधारित इसका लिप्यात्मक रूप तो केवल एक व्यावहारिक सुविधा मात्र है। लिपि कभी किसी भाषा की ध्वनियों का पूर्ण प्रतिबिम्बन नहीं कर सकी है, यहाँ तक कि अन्तरराष्ट्रीय ध्वनि लिपि भी भाषा के उच्चारण के कई तत्त्वों का पूर्णतया लिप्यांकन कर सकने में सर्वथा समर्थ नहीं है।
उच्चारित रूप ही भाषा का वास्तविक रूप होने से किसी भाषा के ज्ञान के लिए उसके उच्चारित रूप का ठीक-ठीक ज्ञान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भाषा के मौखिक व्यवहार में उसके उच्चारित रूप का अपूर्ण ज्ञान न केवल भावों के आदान-प्रदान में कठिनाई उपस्थित करता है, अपितु कई बार तो अनुचित अथवा विपरीत अर्थ की भी अभिव्यक्ति कर डालता है। यथा काना-खाना, ज़लील-जलील आदि में।
ध्वनियों के अशुद्ध उच्चारण से किस प्रकार अर्थ का अनर्थ हो जाता है इसके सम्बन्ध में हमारे प्राचीन वैयाकरणों में एक श्लोक प्रसिद्ध था जो कि इस प्रकार है-

यद्यपि बहुनाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्।
स्वजनः श्वजनों मा भूत सकलं शकलं
सकृच्छकृत्।।

इसमें तीन शब्दों में ‘स’ तथा ‘श’ के उच्चारण-भेद से किस प्रकार अर्थ का अनर्थ हो जाता है यह दर्शनीय है (यथा-स्वजन-अपना बन्धु श्वजन-कुत्ता-सकल-सम्पूर्ण, शकल-टुकड़ा आदि)

यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि श्री सरस्वती सरन ‘कैफ़’ जी का ध्यान हमारे भाषा शिक्षण के उस पक्ष की ओर गया है जो कि भाषा शिक्षण का महत्वपूर्ण अंग होते हुए भी हमारे भाषा शिक्षकों के द्वारा प्रायः उपेक्षित ही रहता है। किसी भाषा का सही उच्चरण न केवल भावों के सम्यक आदान-प्रदान को सहज बोधगम्य बनाता है, अपितु वक्ता के सामाजिक स्तर को भी उन्नत करता है। श्री ‘कैफ़’ की पैनी दृष्टि ने हमारे दैनन्दिन व्यवहार में आने वाले हिन्दी, उर्दू एवं अंगरेज़ी के उन अनेक शब्दों के उच्चारण की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है जिनके विषय में अधिकतर लोगों को या तो पता नहीं है या वे असावधान रहते हैं। भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत उच्चरण को जानने तथा उसका प्रयोग करने के लिए यदि इस प्रकार के और भी प्रयत्न इससे अधिक विस्तार के साथ किए जायें तो इससे हमारी भाषाओं के प्रयोक्ताओं का स्तर उन्नत भी होगा तथा उससे उच्चारण में निखार आयेगा। हिन्दी में इस प्रकार के ग्रन्थों की इस समय बड़ी आवश्यकता है। आशा है श्री ‘कैफ़’ जी के इस कार्य से प्रेरणा पाकर और लोग भी इस दिशा में प्रयत्नशील होंगे तथा भाषा ज्ञान के इस पक्ष को और भी अधिक समृद्ध करेंगे।

                                      देवीदत्त शर्मा

भूमिका


वर्षों पहले अख़बारों में एक साबुन का विज्ञापन छपा करता था। साबुन से भी ज़ियादा वह विज्ञापन पसन्द आया था। इसमें कहा गया था कि इस साबुन से आपकी बदहज़्मी दूर नहीं होगी। व्याख्या यूं की गयी थी ‘‘कई साबुनों के बारे में ऐसे दावे किए जाते हैं कि वे काले को गोरा कर देंगे, आदिः और यह दावे ऐसे ही हैं जैसे यह कहना कि उनसे सारे रोग दोष दूर हो जायेंगे। हम ऐसा दावा नहीं करते, सिर्फ यह कहते हैं कि यह साबुन अच्छा है।’’
प्रस्तुत पुस्तक के बारे में भी मैं कुछ ऐसा ही कहना चाहता हूँ। पुस्तक के नाम और विषय सूची से आपको यह अन्दाज़ा हो ही जाएगा कि पुस्तक में क्या है। इन पंक्तियों में मैं यह बताना चाहता हूँ कि इसमें क्या नहीं है। यह इसलिए कि न तो आप असंभव आशाएं लेकर पुस्तक का पाठ करें, और न ही कोई व्यर्थ भय आपको हताश करे और आप विषय को हाथ ही न लगाएं।

पहली बात तो यह है कि यह ध्वनि विज्ञान (Phonology) की पुस्तक नहीं है। इसके सीमित उद्देश्य के लिए ध्वनि विज्ञान का सहारा ज़रूर लिया गया है, किन्तु अगर आप वास्तव में इस विज्ञान को पढ़ना चाहें तो यह पुस्तक काम न देगी। इस विषय पर कई विद्वानों ने अंग्ररेजी, हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में अच्छी पुस्तकें लिखी हैं।
दूसरी बात यह है कि आप पुस्तक के चित्रों, सारिणियों तथा परिभाषिक शब्दों से घबरा न जायें यह सब आपके सहायक बल्कि सेवक हैं। सेवकों की नई शक्ल-सूरत देखकर यदि आप इन्हें देव-दानव समझ बैंठे तो गलत बात होगी। आप देखेंगे कि क्रमानुसार और ज़रा लगन से पढ़ने पर विषय आपको सरल ही नहीं रोचक भी लगेगा।

तीसरी बात यह है कि यद्यपि मैंने यथासंभव सरल रीति से आपको बात समझाने का प्रयास किया है, किन्तु थोड़ी सी मेहनत आपको भी करनी पड़ेगी। सवाल आपकी अपनी ज़बान के साफ़ होने का है। इसके लिए प्रयत्न आप ही को करना होगा। स्कूलों में तो शिष्य को गुरु की नाराज़ी का भी डर रहता है और परीक्षा में असफल होने का भी। यहाँ आप मेरी नज़र से दूर हैं। और मेरे आधीन भी नहीं। इसलिए मैं केवल यह अनुरोध कर सकता हूँ कि पुस्तक को उलट कर चाहे जिस मनःस्थिति में देख लें लेकिन अगर वाक़ई कुछ सीखना चाहें तो एक तो किसी बाद वाले अध्याय को पहले न शुरू करें, दूसरे एक अध्याय में बताई गयी सारी मंज़िलों को पार करके ही दूसरा अध्याय शुरू करें। एक खा़स बात आप इस पुस्तक में यह देखेंगे कि क्रमानुसार अध्ययन करते हुए आप चाहे जिस अध्याय पर रुक जाएं, आपका एक सीमित उद्देश्य जरूर पूरा होगा। चौथी बात यह है कि आप इस पुस्तक में विद्वता प्रदर्शन की खोज न करें। मेरा अपना ज्ञान अत्यन्त सीमित है और जो बातें जानता भी हूँ उनमें से सिर्फ वे ही बताई हैं जो इस विषय के लिए ज़रूरी समझी जाती हैं। पुस्तक का उद्देश्य साधारण लोगों की सेवा करना है। विद्वानों के पास फटकने की हिम्मत मुझे मुश्किल से ही पड़ती है।

संभवतः आपने इन पंक्तियों को पढ़ने के पहले ही इस पुस्तक को उलट-पलट कर देख लिया होगा। और इसकी विषय वस्तु के बारे में अपनी राय बना ली होगी अब मेरी ज़बानी भी इस पुस्तक का उद्देश्य सुन लीजिए। मुझे महसूस होता है कि उर्दू शिक्षा के ह्रास के साथ ही हिन्दी भाषियों का उच्चारण बड़ा दूषित हो गया है। उर्दू शिक्षा पाये हुए लोग भी हीन भावना के शिकार हैं और अपने मित्रों के दूषित उच्चारण को कड़वी गोली की तरह सहन कर लेने के अभ्यस्त हो गए हैं। फलतः कोई किसी को बताने वाला नहीं रहा है और उच्चारण में ग्रामत्व दोष बढ़ता ही जाता है, यहाँ तक की साधारण संस्कृति ध्वनियाँ भी लोग ग़लत तरीक़े से बोलने लगे हैं। अगर आप मान भी लें कि उर्दू से आपको कुछ लेना देना नहीं है तो भी आपके पूर्ववर्ती हिन्दी विद्वानों ने उर्दू के जिस लालित्य को सीने से लगाए रखा था उसे आप छोड़ क्यों दे ? फिर प्रश्न उर्दू ही का नहीं है। आप सभी अँगरेज़ी पढ़ते हैं तथा पढ़ना चाहते हैं। ऐसा है तो उसकी ध्वनियों के गलत उच्चारण पर ही क्यों कमर कसें ? शायद आप भारत की दक्षिणी भाषाएँ भी सीखना चाहें, उनमें कुछ ध्वनियाँ नई मिलेंगी। अगर पहले ही उनका ज्ञान हो जाए तो आपका काम आसान न हो जाएगा ? आप जिस भाषा के भी शब्दों को बोलें, उनका सही उच्चारण आवश्यक है वरन भाषा सिखाने वाले का उत्साह आधा रह जायेगा। यह भी संभव है कि ग़लत बोलने पर सही बोलने पर सही बोलने वाले आपका मज़ाक़ उड़ाएं।

उच्चारण की ग़लतियों के दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि बोलने वाले की जिह्वा में साधारण से कम लोच हो या उसके स्वर यन्त्र में कोई खराबी हो। ऐसी दशा में बोलने वाला भाषा की ही नहीं, अपनी मातृभाषा की ध्वनियों का भी ग़लत उच्चारण करेगा (जैसे श्री के.पी. सक्सेना के ख़लीफ़ा तरबूज़ी ‘स’ को ‘फ’ कहते हैं) स्पष्ट है कि इस प्रकार के मामलों में यह पुस्तक कोई सहायता नहीं कर सकती। ऐसे लोगों की डाक्टर ही सहायता कर सकते हैं और वह भी बहुत सीमित रूप में। दूसरी किस्म के (और संख्या में अधिकतर) लोग ऐसे होते हैं जिन पर अपनी मातृभाषा की विशिष्ट ध्वनियों का ऐसा पक्का असर होता है कि अन्य भाषाओं की नई ध्वनियाँ ठीक तरह से पकड़ने की बजाय उनकी निकटवर्ती अपनी मातृभाषा की ध्वनियों को पकड़ कर उन्हें अन्य भाषाओं की ध्वनियों का पर्याय समझ लेते हैं। बचपन में अगर कोई योग्य और मेहनती शिक्षक मिल गया तो वह निरन्तर अभ्यास करा कर नई ध्वनियों का सही बोध करा देता है, वरन दाढ़ी मोंछ निकल आने पर किसी से सीखने में भी शर्म आती है और अभ्यास का भी धैर्य नहीं होता। इसलिए ग़लत उच्चारण का अहसास होते हुए भी उससे पीछा नहीं छूटता।


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