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संस्मरण >> याद आते हैं

याद आते हैं

रमानाथ अवस्थी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 700
आईएसबीएन :81-263-0560-6

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निराला, महादेवी, बच्चन जैसे कालजयी साहित्यकारों के आत्मीय संस्मरण...

Yaad aate hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अतीत के साथ हमारा सम्बन्ध एक जैसा नहीं बना रहता। जैसे समय के साथ हमारे सम्बन्ध बदलते हैं वैसे ही अतीत के साथ भी रिश्तों में बदलाव आते रहते हैं। और शायद इसीलिए बदलते परिदृश्य के भीतर से अतीत की रेखाओं को अँधेरे से बाहर उजागर करने का सांस्कृतिक और कलात्मक अर्थ और महत्त्व भी है। हिन्दी के वरिष्ठ कवि और लेखक रमानाथ अवस्थी के संस्मरणों का यह संग्रह ‘याद आते हैं’ एक विशिष्ट कालखंड में औरों के बहाने अपने जिये और भोगे हुए यथार्थ का दस्तावेज है। इसमें निराला, महादेवी, बच्चन जैसे कालजयी साहित्यकारों के साथ ही कुछ अज्ञात-उपेक्षित लेकिन सही अर्थो में ‘बड़े लोगों के भी आत्मीय संस्मरण हैं। रमानाथ जी ने ‘याद आते हैं’ में अपनी विपुल अनुभव-सम्पदा से जो दुर्लभ छवियाँ उकेरी हैं, वे बेजोड़ हैं। दरअसल अपने समय के लोग, चीजें, नाम और परिवेश-सब यहाँ जीवन्त रूप से उपस्थित हैं। और इन सब के बीच इस अनुपम कृति में एक अद्भुत संवेदनशील वैचारिकता को भी रेखांकित करने की कोशिश की गयी है।

अपनी ओर से

हम सभी अपने जीवन में अनेक लोगों के सम्पर्क में आते हैं। ऐसे व्यक्तियों में कुछ हमारे मन-प्राण में उतर जाते हैं। उनका प्रभाव हमें कई रंगों के बीच खड़ा करके हमारे संस्कारों की परीक्षा लेता है। यह परीक्षा कठोर होकर भी अन्ततः हमें संवेदनशील बनाकर एक अद्भुत वैचारिकता से जोड़ती है। जो व्यक्ति सोच के स्तर पर आजीवन हमारे साथ होते हैं, मेरे अनुभव के आधार पर उनमें अधिकांश अति सामान्य होकर भी अत्यन्त असामान्य और बड़े सम्मान के अधिकारी लगते हैं। सामान्य अथवा सहज होना दुर्लभ होता है।
प्रस्तुत पुस्तक में मैंने अपने संस्मरणों के माध्यम से कुछ-एक कालजयी महापुरुषों को स्मरण किया है। इसी के साथ अधिकतर वे लोग हैं, जिन्हें समाज में साधारण नहीं, उपेक्षित समझा जाता है। भारतीय चिन्तन के अनुसार मैंने सदा ही माना है-


‘‘सबसे हिलमिल चालिए नदी-नाव संयोग
का जाने किस वेष में नारायण मिल जाय।’’


अतः उन उपेक्षित समझे जाने वाले लोगों को मैंने अपने जीवन विचारों में बहुत आदर दिया है। इससे उन्हें क्या मिला ? मैं नहीं जानता, मगर मुझे एक तरह का जो आन्तरिक शुचिता मिली, उसे शब्दों में व्यक्त करना सम्भव नहीं है। आप जब उन पर लिखे संस्मरण पढ़ेंगे  तो आपको लगेगा कि उस वर्ग में कितने सहज और साफ़दिल लोग हैं। जिन्हें आजकल की क़स्बाई और शहरी सभ्यता मात्र दिखावटी नहीं बना पायी।

संसार में कौन किसके लिए कितना जीता है ? यह एक मुश्किल सवाल है, मगर हर मुश्लिक कहीं-न-कहीं अपना पर्याय पाती है। अभी कुछ ही समय पूर्व लगभग बीस वर्षों बाद अपने गाँव गया था। वहाँ अपनी कुलदेवी के मन्दिर जाकर मेरी आत्मा तृप्त हुई। वहाँ से अपने घर आया, जहाँ मेरा जन्म हुआ था। बड़ी देर तक खड़ा उसे देखकर अतीत में उतरकर जैसे मैं स्वयं को भूल गया। गाँव में कुछ ऐसे बुजुर्गों के दर्शन करके पवित्र हो गया, जिन्होंने मेरा लड़कपन देखा था। मेरे गाँव के कुछ चरित्र हैं, जिन पर मैंने इस संग्रह में संस्मरण दिये होंगे, मैं नहीं जानता आप उन्हें कैसे सहेजेंगे। अगर आप सहेज सकें तो एक चिन्तन सुख के साथ होंगे ऐसा विश्वास करते हुए, फ़िलहाल आपसे विदा लेता हूँ।

-रामनाथ अवस्थी

सिद्ध शब्द-सन्त :
निराला


सचमुट यह मेरे जीवन का सौभाग्य ही है, अथवा पूर्व जन्म के किसी पुण्य का फल है कि मैं अपने युवाकाल में ही युगप्रवर्तक महाकवि निराला के सम्पर्क में आने का अवसर पा सका। इलाहाबाद उस समय यानी सन् 1950 से 1954 तक सही अर्थों में साहित्य और संस्कृति उपलब्धियों का एक महात्तम तीर्थ था। इसी काल में वहाँ निराला जी के अतिरिक्त पण्डित सुमित्रानन्दन पन्त, श्रीमती महादेवी वर्मा, डॉ. रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’, डॉ. रामकुमार वर्मा और डॉ. हरिवंशराय ‘बच्चन’ जैसे दिग्गज कवियों और चिन्तकों के समानान्तर डॉ. धर्मवीर भारती, विजयदेव नारायण साही, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल, डॉ. रघुवंश, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, कमलेश्वर, दुष्यन्त कुमार, अजित कुमार जैसे तेजस्वी युवा रचनाकारों की टोली भी साहित्य में बहुत तैयारी के साथ कार्यरत थी। सबके होते हुए भी प्रयाग में निराला जी का रखरखाव सबसे अलग और उनके नाम के अनुसार सचमुच ही निराला था।

मैं उनसे मिलकर सदैव एक बात सोचता था, वे कवि बड़े हैं अथवा उनका व्यक्ति बड़ा है ? सच कहूँ तो यह सवाल मेरे लिए आज भी सवाल ही है, कवि के रूप में उनका दर्जा कितना बड़ा है ?—इसका लेखा-जोखा तो सुधी चिन्तकों, आलोचकों और रचनाकारों ने किया है। जहाँ तक उनके व्यक्ति का प्रश्न है—इसका उत्तर मात्र वे ही लोग दे सकते हैं, जो उनसे ऐसे क्षणों में सम्पर्क साध सके, जब वे अतिशय प्रसन्न या गहनरूप से दुखी और उदास होते थे। जब प्रसन्न होते, तो किसी जरूरतमन्द अथवा निर्धन को अपना सब कुछ हँसते हुए भेंट करते। अगर कोई उनके हिसाब से अलग—कुछ इधर-उधर मन प्रकट करता, तो उससे कहते—‘‘तुम आदमी होकर घोड़े की तरह रिक्शे पर सवारियाँ खींचते हो, मैं तुम्हें कुछ रुपये देना चाहता हूँ तो तुम लेते नहीं, चलो-थाने चलो, मैं दरोग़ा से तुम्हें सज़ा दिलाऊँगा।’’ इतना सुनते ही रिक्शाचालक उनसे रुपये ले लेता। उस क्षण निराला जी के चेहरे पर विषाद, निराशा और दुःख का रंग उभरता था, वह जिन्होंने भी देखने का मौका़ पाया है, वे सब के सब कदाचित् कहना चाहकर भी कह नहीं सकेंगे। दुःखी जन का दुःख संसार में वही समझ सकता है, जो हर सुख का वैरागी हो। मैंने निराला जी के जरिये इस तथ्य को पूरी तरह जानने का अवसर पाया।

निराला जी एक सशक्त और सिद्ध कवि के साथ–साथ बेहद स्वाभिमानी थे। एक वर्ष हम कई युवा कवि उनके जन्मदिन पर उनके पास पहुँचे। निराला जी सदा की भाँति कमरे के बाहर पड़े तख्त पर आल्थी-पाल्थी लगाये बैठे थे। हम लोगों ने पहुँचकर उन्हें प्रणाम करते हुए बधाई दी। हल्के-हल्के मुस्कराते हुए वे कुछ सोच रहे थे। इतने ही में हम लोगों को वासन्ती रंग के लड्डू मिले। बसन्त ही निराला जी का जन्म-दिन है। थोड़ी देर बाद हमारे आदरणीय मित्र, कवि, आलोचक पण्डित गंगाप्रसाद पाण्डेय ने कहा—‘‘निराला जी, आज आपके जन्मदिन पर हम सभी आपसे जानना चाहते हैं कि भविष्य की कविता का क्या स्वरूप होगा ? उसके बारे में हम सबको कुछ बताइए। यही हमारे लिए आज आपका आशीर्वाद होगा।’’ कुछ देर तो निराला जी हल्की मुस्कान देते हुए टालते-से रहे, लेकिन हम लोग भी टस-से-मस होने वाले नहीं थे। पाण्डेय जी ने पुनः कहा—‘‘पण्डित जी, आज हम लोग कविता के बारे में आपका आशीर्वाद पाये बिना यहाँ से जाएँगे नहीं।’’ इस बार निराला जी ने उत्तर देते हुए कहा—‘‘आप सब लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं, एक बात का हमेशा ख्याल रखिएगा, नीचे गिरकर कभी कुछ न उठाइएगा, चाहे वह कविता ही क्यों न हो।’’ निराला जी के इस वाक्य ने हम सबके भीतर जैसे कोई जादू भर दिया था। मेरे जीवन में उनके शब्दों ने जो परिवर्तन पैदा किया, वह शब्दों में नहीं कहा जा सकता। वैसे भी, हम जितना उन्हें समझ पाये, उसके अनुसार यह कहना उचित है, कि वे स्वयं ही मूर्तिमन्त स्वाभिमान थे।

निराला जी अपने जीवन काल में एक कथा-पुरुष की तरह विख्यात हो गये थे। उनके बारे में लोग न जाने क्या-क्या कहते थे। कुछ तो (जिनमें हिन्दी के कुछ धुरन्धर रचनाकार भी हैं) उन्हें पागल कहने में नहीं चूके। निराला जी हल्के-हल्के यह सब जानते भले थे, मगर हर विषवमन करने वाले को वे सदा अपनी अमृतमयी मुस्कान ही देते थे।
हमने देखा था, बड़े-बड़े राजनेता, धनाढ्य और समाज के अन्य प्रभावी लोग उनसे मिलने आते थे। सबके मन में उनके लिए अशेष आदर था। निराला जी जो भी चाहते, वह सारा सांसारिक सुख उन्हें सहज ही मिल सकता था। मगर वे कुछ और ही मिट्टी के महापुरुष थे। ऐसे मिट्टी के जो सब-कुछ समेटने की शक्ति रखती थी, मगर किसी के हाथों कभी सिमट नहीं सकती थी।

एक शाम गंगाप्रसाद जी पाण्डेय के साथ मैं भी पण्डित जी के दर्शनार्थ दारागंज गया। उनके निवास की तरफ़ मुड़ने वाली गली से कुछ गज़ों की दूरी पर ही देखा कि निराला जी एक भीख माँगनेवाली बुढिया के पास आराम से बैठे बातें कर रहे थे हम लोग कुछ देर इस दुर्लभ दृश्य को देखते रहे। अन्ततः हम दोनों भी वहाँ जाकर निराला जी के पीछे खड़े हो गये। हमें देखकर भिखारिन बड़ी जोर से हँसने लगी। निरालाजी ने मुड़कर हमें देखा। तुरन्त खड़े होकर चल पड़े। पाण्डेयजी ने बड़े अपनत्व के साथ कहा—‘‘निराला जी, आप इस पागल के पास बैठकर क्या बतियाते हैं ?’’ निराला जी का उत्तर था—‘‘पाण्डेय, तुम्हें क्या बताएँ, एक पागल ही दूसरे पागल को जान सकता है !’’ पण्डित जी का यह वाक्य  मर्मान्तक ही नहीं, बल्कि कुछ ऐसे लोगों के लिए बहुत बड़ा अपमान-बोध था, जो निराला जी को पागल कहते थे।

उनके इस उत्तर को समझना सहज है कि वे लोगों को कितना सही जानते थे, जो उन्हें पागल कहते थे। हिन्दी के एक विख्यात कथाकार (नाम न देने के लिए क्षमा) ने किसी प्रसंग में कहा था कि निराला जी तो बने हुए पागल हैं। कितना दर्दनाक कथन है। मैं उनका बड़ा आदर करता था। एक दिन अवसर पाकर मैंने बड़े विनम्र भाव से उनसे कहा था—‘‘आप लोगों से तो रोज़ ही कुछ सीखने-समझने का अवसर मिलता है, लेकिन अगर जानबूझकर पागल बनकर कोई निराला बन सकता है, तो यह अभ्यास करना तो किसी लेखक के लिए बहुत लाभप्रद होगा, मगर क्षमा करें, किसी को बना हुआ पागल कहना, बड़प्पन नहीं छोटापन ही है।’’ मेरे उत्तर को उन्होंने सुन लिया था, मगर मुझे उन्होंने मन से करीब-करीब सदा के लिए उतार ही दिया था। लेकिन मुझे हमेशा ही लगा कि यह अच्छा ही हुआ।

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