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मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था

मोहन भास्कर

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :215
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6995
आईएसबीएन :9788126706860

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मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था

Main Pakistan Mein Bharat Ka Jasoos Tha - A Hindi Book - by Mohan Lal Bhaskar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जासूसी को लेकर विश्व की विभिन्न भाषाओं में अनेक सत्यकथाएँ लिखी गई हैं, जिनमें मोहनलाल भास्कर नामक भारतीय जासूस द्वारा लिखित अपनी इसल आपबीती का एक अलग स्थान है। इसमें 1975 के भारत-पाक युद्ध के दौरान उसके पाकिस्तान-प्रवेश, मित्रघात के कारण उसकी गिरफ्तारी और लंबी जेल यातना का यथातथ्य चित्रण हुआ है। लेकिन इस कृति के बारे में इतना ही कहना नाकाफी है क्योंकि यह कुछ साहसी और सूझबूझ-भरी हालात का भी ऐतिहासिक विश्वलेषण करती है। इसमें पाकिस्तान के तथाकथित भुट्टोवादी लोकतंत्र, निरंतर मजबूत होने जा रहे तानाशाही निजाम तथा धार्मिक कठमुल्लावाद और उसके सामाजिक आर्थिक अंतर्विरोधों को उघाड़ने के साथ-साथ भारत-विरोधी षड़यंत्रों के उन अंतर्राष्ट्रीय सूत्रों की भी पड़ताल की गई है, जिसके एक असाध्य परिणाम को हम खालिस्तानी नासूर की शक्ल में झेल रहे हैं। इसमें जहाँ एक ओर भास्कर ने पाकिस्तानी जेलों की नारकीय स्थिति, जेल-अधिकारियों के अमानवीय व्यवहार के बारे में बताया है, वही पाकिस्तानी अवाम और मेजर अय्याज अहमद सिपरा जैसे व्यक्ति के इंसानी बर्ताव को भी रेखांकित किया है।

 

प्राक्कथन

अगर मुझे अपने लिए किसी पेशे का चुनाव करना पड़े तो जासूसी मेरे लिए आखिरी विकल्प होगा। अगर मुझे जासूस बनकर किसी देश में जाना पड़े तो पाकिस्तान मेरे लिए आखिरी विकल्प होगा। मेरे अंदर जासूस बनने का साहस नहीं है और देशभक्ति की बड़ी से बड़ी भावना भी मुझे दूसरे देश की गुप्त जानकारियाँ खोद निकालने के लिए प्रेरित नहीं कर सकती। अगर हालात मुझे जासूस बनने के लिए मजबूर कर ही दें तो मैं अपने कार्यक्षेत्र के रूप में पाकिस्तान का चुनाव नहीं करूँगा। मुझे पाकिस्तानियों से उतना ही प्यार है जितना मैं वहाँ की पुलिस की दरिंदगी से डरता हूँ। मैं इस मामले में सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे सिर्फ एक ऐसे आदमी की किताब की भूमिका ही लिखनी पड़ रही है जो पाकिस्तान में घुसने और वहाँ से बाहर निकलने का साहस रखता था, और जब वहाँ गिरफ्तार हो गया तो उसने अमानवीय यंत्रणाएँ झेलकर भी अपने भेद नहीं बताए और अपने साथियों से विश्वासघात नहीं किया। दुनिया की सारी दौलत भी मुझे वह सब झेलने के लिए प्रेरित नहीं कर सकती है जो मोहनलाल भास्कर को लाहौर, कोट लखपत, मियाँवाली और मुलतान की जेलों में भोगना पड़ा है। यह एक चमत्कार ही है कि इतना सब सहकर भी वे आज अपनी कहानी सुनाने के लिए जीवित है, उनका मानसिक संतुलन कायम है और वे एक स्कूल में पढ़ाते हैं।

जासूसी का धंधा घिनौना लेकिन जरूरी है। हर देश में न सिर्फ जासूस होते हैं बल्कि उन जासूसों के ऊपर भी जासूस रखे जाते हैं। लेकिन मुझे यह जानकर ताज्जुब हुआ कि पाकिस्तान मे हमारे अनेक जासूस हैं और पाकिस्तान के तो भारत में और भी ज्यादा। दोनों देश गुप्त जानकारियाँ इकट्ठी करने के लिए पानी की तरह पैसा बहाते हैं। और ये जानकारियाँ पाकिस्तान को अमरीका के माध्यम से तथा भारत को सोवियत रूस के माध्यम से मिलती है। अमरीका तथा रूस दोनों के पास अत्याधुनिक जासूस-हवाई जहाज हैं, जो कई मील की ऊँचाई से जमीन पर चलते-फिरते लोगों और उपकरणों के फोटोग्राफ ले सकते हैं। उनमें इतने शक्तिशाली कैमरे लगे होते हैं जिनसे अपने छज्जे पर बैठकर किसी व्यक्ति द्वारा पढ़े जा रहे अखबार में छपे समाचारों तक का फोटोग्राफ लिया जा सकता है। लेकिन फिर भी हम अपने हवाई अड्डो के फोटोग्राफ लेना वर्जित करते हैं, एक-दूसरे की सीमा में घुसने के लिए बड़ी संख्या में सुशिक्षित लोगों की भर्ती करते हैं और जिन लोगों को खरीदा जा सकता है उनसे वफादारी की झूठी शपथ दिलवाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि हम आज भी पुराने जमाने में रह रहे हैं, और मानवीय शक्ति समय तथा धन का बेहिसाब अपव्यय कर रहे हैं।

मोहनलाल भास्कर जाहिरा तौर पर पाकिस्तान की आणविक योजनाओं के बारे में जानकारी इकट्ठी करने के अभियान पर थे। लेकिन बड़ी चतुराई के साथ वे हमें यह नहीं बताते कि अपने लक्ष्य में उन्हें सफलता मिली या नहीं। उन्हें उनके अपने ही एक सहकर्मी, शायद दोहरे जासूस, ने धोखा दिया और वे दुश्मन के हाथों पड़ गए। वहाँ सेना और पुलिस के अधिकारियों ने उनसे जो पूछताछ की, उसमें अकल्पनीय रूप से भयकर यातनाएँ भी शामिल है। उनके कई साथी पागल हो गए और कई ने अपनी जान दे दी। भास्कर ने उनका वर्णन इतने विशद रूप से किया है कि पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं तथा रीढ़ की हड्डी सुन्न होने लगती है। किताब में डाकुओं, वेश्याओं, उनके दलालों और तस्करों के साथ जो उन्हीं जेलों में होते थे, बिताए गए कुछ हल्के-फुल्के क्षणों का चित्रण भी है। पाकिस्तान में उनका अधिकांश कार्यकाल जनरल याह्या खाँ के शासन के दौरान था। उन्होंने भुट्टो को जेल में भी देखा और भुट्टो को पाकिस्तान के प्रधान मंत्री के रूप मे भी देखा। उन्होंने याह्या की प्रेमिका ‘जनरल’ रानी के बारे में सुना कि वह सर्वाधिक शाक्तिसंपन्न महिला है और फिर देखा कि उसे उनकी ही जेल के महिला विभाग में धकेल दिया गया है। मोहनलाल भास्कर मियाँवाली गई जो मे थे जब शेख मुजीबुर्रहमान को वहाँ लाया गया और उनकी कब्र खुदवाई गई जो बाद में भुट्टो द्वारा उन्हें रिहा कर दिए जाने पर पाट दी गई थी और शेख विजयी बंगला देश लौटे थे। अपनी जेल की कोठरी से भास्कर ने देखा कि कैसे भारतीय बमवर्षकों और युद्धक विमानों ने पाकिस्तान की वायुसेना को परास्त किया। उन्हें चौदह वर्ष जेल में बिताने थे-शायद उन्हें जीवित भारत द्वारा गिरफ्तार किए गए पाकिस्तान जासूसों के साथ विनिमय होना था।

भास्कर के शब्दों मेः‘ ‘कई भाषाओं की ‘पत्र-पत्रिकाओं में इस पुस्तक का धारावाहिक प्रकाशन हुआ है और जल्दी ही यह मराठी तथा अन्य प्रमुख भाषाओं में अनुदित होकर पुस्तक-रूप में छपनेवाली है।’’ मूल हिन्दी से जयरतन द्वारा किया गया यह अंग्रेजी अनुवाद अत्यंत सुपाठ्य है। मैं उन पाठकों से इसे पढ़ने की सिफारिश करता हूँ जो रोमांचक तथा खौफनाक चित्रणों को बर्दाश्त कर सकते हैं।

 

मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था

 

मैं कोट लखपत जेल पाकिस्तान लाहौर की सजा-ए-मौत की कोठरी में कैद हूँ। 24-5-71 की सुबह एक नंबरदार ने आकर मुझसे कहा कि निकलो, तुम्हें ड्योढ़ी में बुलाया गया है। एक फौजी अफसर तुम्हारा फैसला सुनाने आया है। मैं उसके साथ जेल की ड्योढ़ी में पहुँचता हूँ। मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा है। वह मुझे मेजर अशफ़ाक़ के सामने लाकर खड़ा कर देता है, जो मेरे फील्ड जेनरल कोर्ट मार्शल में सरकारी वकील था। उसने फैसला सुनाया, ‘मिस्टर मोहनलाल भास्कर उर्फ मुहम्मद असलम, फौजी अदालत तुम्हें पाकिस्तान के खिलाफ जासूसी के इलजाम में 14 साल कैद बामशक्कत की सजा देती है।’
यह सुनते ही मैं खुशी से पागल हो गया, क्योंकि सजा-ए-मौत से बच गया, जो समरी कोर्ट मार्शल में मेरे लिए रिकमेंड की गई थी। मैं दौड़ता हुआ बैरक में आया। औरों ने समझा कि मैं बरी हो गया हूँ। बोले ‘क्या हुआ ?’ मैंने कहा राय बनबास।’ यह कहकर मैं अपनी कोठरी में आ गया और सोचने लगा उस लंबे सफर के बारे में, जिसे मैं तय कर चुका था और उसके बारे में, जिसे अभी तय करना था। उस एकांत कोठरी में अतीत की परछाइयाँ धीरे-धीरे मन पर उतरने लगती हैं।

 

शुरू होती है दास्ताँ अपनी

 

अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान में क्या हो रहा है, इस जिज्ञासा को शांत करने को मन न जाने कब से व्याकुल था और मैं कोई साधन ढ़ूँढ़ रहा था। फिर सितंबर 65 की जंग ने तो मेरी इस जिज्ञासा को और भड़का दिया। 14 नवंबर, ’65 के धर्मयुग’ में मेरा एक लेख छपा था, फिरोजपुर का आँखों देखा मोर्चा।’ फिर उसके बाद जब भगतसिंह की समाधि पर 23 मार्च का मेला लगा, तो वहाँ मंच पर मैंने यह पंक्तियाँ पढ़ी थी, भगतसिंह को संबोधित करते हुए-

 

तेरे लहू से सींचा है अनाज हमने खाया।
यह जज्बा-ए-शहादत है उसी से हममें आया।’

 

(स्मरण रहे कि 23 मार्च, 1931 को भगतसिंह को लाहौर जेल में फाँसी देने के बाद, जब सतलज के किनारे उनकी लाश के टुकड़े किए जा रहे थे, पीछे-पीछे लोग पहुँच गए और मजबूरन अंग्रेजों को लाश जलानी पड़ी)।
इन पंक्तियों पर लोगों ने बहुत वाह-वाह की। जब मैं मंच से उतरा तो एक अधिकारी-सा लगनेवाला व्यक्ति मेरे पास आया और बोला, ‘भास्कर साहब देश के लिए कविताएँ पढ़ना बहुत सरल है, मरना बहुत कठिन। क्या वाकई आपसे भगतसिंहवाला पढ़ना बहुत सरल है। मरना बहुत कठिन। क्या वाकई आपसे भगतसिंहवाला जवान शहादत भाव हैं ?’
यह सुनते ही मैं जलाल में आ गया और बोला, ‘साहब जब कभी सीमा पर गोली चले तो बुला लेना। आपसे चार कदम आगे चलूँगा और पीछे भागने लगूँ तो गोली मार देना या देश के लिए कहीं भी आपकी मेरी जरूरत

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