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			 गजलें और शायरी >> सारे सुखन हमारे सारे सुखन हमारेफैज अहमद फैज
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			 69 पाठक हैं  | 
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समकालीन उर्दू शाइरी के अजीमुश्शान शाइर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की तमाम ग़ज़लों, नज़्मों, गीतों और क़तआ’त की हिन्दी में पहली बार एक साथ प्रस्तुति
Sare Sukhan Hamare - A Hindi Book - by Faiz Ahmad Faiz
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘सारे सुख़न हमारे’ के रूप में समकालीन उर्दू शाइरी के अजीमुश्शान शाइर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की तमाम ग़ज़लों, नज़्मों, गीतों और क़तआ’त को हिन्दी में पहली बार एक साथ प्रस्तुत किया गया है। इसमें उनका आख़िरी कलाम तक शामिल है। 
उर्दू शाइरी में फ़ैज़ को ग़ालिब और इक़बाल को पाये का शाइर माना गया है, लेकिन उनकी प्रतिबद्ध प्रगतिशील जीवन-दृष्टि सम्पूर्ण उर्दू शाइरी में उन्हें एक नई बुलन्दी सौंप जाती है। फूलों की रंगो-बू से सराबोर शाइरी से अगर आँच भी आ रही हो तो मान लेना चाहिए कि फ़ैज़ वहाँ पूरी तरह मौजूद हैं। यही उनकी शाइरी की ख़ास पहचान है, यानी रोमानी तेवर में खालिस इन्क़लाबी बात। उनकी तमाम रचनाओं में जैसे एक अर्थपूर्ण उदासी, दर्द और कराह छुपी हुई है, इसके बावजूद वह हमें अद्भुत् रूप से अपनी पस्तहिम्मती के खिलाफ़ खड़ा करने में समर्थ है। कारण, रचनात्मकता के साथ चलने वाले उनके जीवन-संघर्ष। उन्हीं में उनकी शाइरी का जन्म हुआ और उन्हीं के चलते वह पली-बढ़ी। वे उसे लहू की आग में तपाकर अवाम के दिलो-दिमाग़ तक ले गए और कुछ इस अन्दाज़ में कि वह दुनिया के तमाम मजलूमों की आवाज़ बन गई।
 
वस्तुत: फ़ैज़ की शाइरी हमारे समय की गहन मानवी, समाजी और सियासी सच्चाइयों का पर्याय है। वह हर पल असलियत के साथ है और भाषाई दीवारों को लाँघकर बोलती है। कहना न होगा कि उर्दू के इस महान शाइर की सम्पूर्ण कविताओं का यह एकज़िल्द मज़्मूआ हिन्दी में चाव के साथ पढ़ा और सहेजा जाएगा।
उर्दू शाइरी में फ़ैज़ को ग़ालिब और इक़बाल को पाये का शाइर माना गया है, लेकिन उनकी प्रतिबद्ध प्रगतिशील जीवन-दृष्टि सम्पूर्ण उर्दू शाइरी में उन्हें एक नई बुलन्दी सौंप जाती है। फूलों की रंगो-बू से सराबोर शाइरी से अगर आँच भी आ रही हो तो मान लेना चाहिए कि फ़ैज़ वहाँ पूरी तरह मौजूद हैं। यही उनकी शाइरी की ख़ास पहचान है, यानी रोमानी तेवर में खालिस इन्क़लाबी बात। उनकी तमाम रचनाओं में जैसे एक अर्थपूर्ण उदासी, दर्द और कराह छुपी हुई है, इसके बावजूद वह हमें अद्भुत् रूप से अपनी पस्तहिम्मती के खिलाफ़ खड़ा करने में समर्थ है। कारण, रचनात्मकता के साथ चलने वाले उनके जीवन-संघर्ष। उन्हीं में उनकी शाइरी का जन्म हुआ और उन्हीं के चलते वह पली-बढ़ी। वे उसे लहू की आग में तपाकर अवाम के दिलो-दिमाग़ तक ले गए और कुछ इस अन्दाज़ में कि वह दुनिया के तमाम मजलूमों की आवाज़ बन गई।
वस्तुत: फ़ैज़ की शाइरी हमारे समय की गहन मानवी, समाजी और सियासी सच्चाइयों का पर्याय है। वह हर पल असलियत के साथ है और भाषाई दीवारों को लाँघकर बोलती है। कहना न होगा कि उर्दू के इस महान शाइर की सम्पूर्ण कविताओं का यह एकज़िल्द मज़्मूआ हिन्दी में चाव के साथ पढ़ा और सहेजा जाएगा।
इन्तिसाब*
आज के नाम 
और
आज के ग़म के नाम
आज का ग़म के: है ज़िन्दगी के भरे गुलसिताँ से ख़फ़ा
ज़र्द पत्तों का बन
ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है
दर्द की अंजुमन जो मेरा देस है
किलर्कों की अफ़सुर्दा जानों के नाम
किर्मख़ुर्दा दिलों और ज़बानों के नाम
पोस्टमैनों के नाम
ताँगेवालों के नाम
रेलवानों के नाम
कारख़ानों के भोले जियालों के नाम
बादशाहे-जहाँ, वालिए-मासिवा, नायबुल्लाहे-फ़िल-अर्ज़,
दहक़ाँ के नाम
जिसके ढोरों को ज़ालिम हँका ले गए
जिसकी बेटी को डाकू उठा ले गए
हाथ-भर खेत से एक अंगुश्त पटवार ने काट ली है
और
आज के ग़म के नाम
आज का ग़म के: है ज़िन्दगी के भरे गुलसिताँ से ख़फ़ा
ज़र्द पत्तों का बन
ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है
दर्द की अंजुमन जो मेरा देस है
किलर्कों की अफ़सुर्दा जानों के नाम
किर्मख़ुर्दा दिलों और ज़बानों के नाम
पोस्टमैनों के नाम
ताँगेवालों के नाम
रेलवानों के नाम
कारख़ानों के भोले जियालों के नाम
बादशाहे-जहाँ, वालिए-मासिवा, नायबुल्लाहे-फ़िल-अर्ज़,
दहक़ाँ के नाम
जिसके ढोरों को ज़ालिम हँका ले गए
जिसकी बेटी को डाकू उठा ले गए
हाथ-भर खेत से एक अंगुश्त पटवार ने काट ली है
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* फ़ैज़ साहब ने अपनी यह नज़्म ‘सरे-वादी-ए-सीना’ नाम कविता-संग्रह के समर्पण-स्वरूप दी थी, जिसे यहाँ उनकी समूची शायरी के समर्पण-स्वरूप दिया जा रहा है।
* फ़ैज़ साहब ने अपनी यह नज़्म ‘सरे-वादी-ए-सीना’ नाम कविता-संग्रह के समर्पण-स्वरूप दी थी, जिसे यहाँ उनकी समूची शायरी के समर्पण-स्वरूप दिया जा रहा है।
दूसरी मालिये के बहाने से सरकार ने काट ली है 
जिसकी पग ज़ोरवालों के पाँवों तले
धज्जियाँ हो गई है
उन दुखी माओं के नाम
रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और
नींद की मार खाए हुए बाजुओं से सँभलते नहीं
दुख बताते नहीं
मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं
 
उन हसीनाओं के नाम
जिनकी आँखों के गुल
चिलमनों और दरीचों की बेलों पे बेकार खिल-खिल-खिल के
मुर्झा गये हैं।
 
उन ब्याहताओं के नाम
जिनके बदन
बेमुहब्बत रियाकार सेजों पे सज-सज के उकता गये हैं
बेवाओं के नाम
कटड़ियों और गालियों, मुहल्लों के नाम
जिनकी नापाक ख़ाशाक से चाँद रातों
को आ-आ के करता है अक्सर वज़ू
जिनके सायों में करती हैं आहो-बुका
आँचलों की हिना चूड़ियों की खनक
काकुलों की महक
आरजूमंद सीनों की अपने पसीने में जलने की बू
 
तालिबइल्मों के नाम
वो जो असहाबे-तब्लो-अलम
के दरों पर किताब और क़लम
का तक़ाज़ा लिये, हाथ फैलाये
पहुँचे, मगर लौटकर घर न आये
वो मासूम जो भोलेपन में
वहाँ अपने नन्हें चिराग़ों में लौ की लगन
ले के पहुँचे, जहाँ
बँट रहे थे घटाटोप, बेअंत रातों के साये
 
उन असीरों के नाम
जिनके सीनों में फ़र्दा के शबताब गौहर
जेलख़ानों की शोरीद: रातों की सरसर में
जल-जल के अंजुम नुमाँ हो गये हैं
आनेवाले दिनों के सफ़ीरों के नाम
वो जो ख़ुशबू-ए-गुल की तरह
अपने पैग़ाम पर ख़ुद फ़िदा हो गये हैं।
जिसकी पग ज़ोरवालों के पाँवों तले
धज्जियाँ हो गई है
उन दुखी माओं के नाम
रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और
नींद की मार खाए हुए बाजुओं से सँभलते नहीं
दुख बताते नहीं
मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं
उन हसीनाओं के नाम
जिनकी आँखों के गुल
चिलमनों और दरीचों की बेलों पे बेकार खिल-खिल-खिल के
मुर्झा गये हैं।
उन ब्याहताओं के नाम
जिनके बदन
बेमुहब्बत रियाकार सेजों पे सज-सज के उकता गये हैं
बेवाओं के नाम
कटड़ियों और गालियों, मुहल्लों के नाम
जिनकी नापाक ख़ाशाक से चाँद रातों
को आ-आ के करता है अक्सर वज़ू
जिनके सायों में करती हैं आहो-बुका
आँचलों की हिना चूड़ियों की खनक
काकुलों की महक
आरजूमंद सीनों की अपने पसीने में जलने की बू
तालिबइल्मों के नाम
वो जो असहाबे-तब्लो-अलम
के दरों पर किताब और क़लम
का तक़ाज़ा लिये, हाथ फैलाये
पहुँचे, मगर लौटकर घर न आये
वो मासूम जो भोलेपन में
वहाँ अपने नन्हें चिराग़ों में लौ की लगन
ले के पहुँचे, जहाँ
बँट रहे थे घटाटोप, बेअंत रातों के साये
उन असीरों के नाम
जिनके सीनों में फ़र्दा के शबताब गौहर
जेलख़ानों की शोरीद: रातों की सरसर में
जल-जल के अंजुम नुमाँ हो गये हैं
आनेवाले दिनों के सफ़ीरों के नाम
वो जो ख़ुशबू-ए-गुल की तरह
अपने पैग़ाम पर ख़ुद फ़िदा हो गये हैं।
कैफ़ियत
शायरी की दुनिया में फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’ के मुकाम, उनकी शख़्सियत और उनके फ़न की बुलन्दियों को लेकर कुछ भी कहना हमारे लिए आसान नहीं है, इसलिए हम यहाँ सिर्फ इस पुस्तक के बारे में ही कुछ कहना चाहेंगे। 
 
हिन्दी पाठकों के लिए फ़ैज की शायरी का एक ख़ास मतलब है। वह सही मायनों में ज़िन्दगी की शायरी है-उसकी समग्रता का गर्माहट-भरा राग। लोग उसे दिल की गहराइयों से प्यार करते हैं और ज़िन्दगी के अहम मोड़ों पर उससे रोशनी पाते हैं। इसलिए बहुत दिनों से, ख़ासकर उनके देहावसान के बाद, यह ज़रूरत महसूस की जा रही थी कि उनकी समूची शायरी को हिन्दी में एक ही जिल्द में उपलब्ध कराया जाए। हालाँकि उनकी अधिसंख्य कविताएँ राजकमल से पूर्व-प्रकाशित शीशों का मसीहा, फ़ैज़, मेरे मुसाफ़िर तथा प्रतिनिधि कविताएँ-जैसे संकलनों के माध्यम से हिन्दी पाठकों के सामने आ चुकी थीं, फिर भी उनकी शायरी का एक बड़ा हिस्सा ऐसा था, जिसका समावेश उक्त संकलनों में नहीं हो सका था। कहना न होगा कि इस पुस्तक का प्रकाशन उसी अभाव को पूरा करने के लिए किया गया है।
 
दावा तो हम नहीं करते, लेकिन हमारी पूरी कोशिश रही है कि फ़ैज़ की समूची शायरी इस संकलन में आ जाए। इसके लिए हमने उनके स्वतन्त्र संग्रहों के अलावा लन्दन और पाकिस्तान से प्रकाशित क्रमश: सारे सु़ख़न हमारे तथा नुस्ख:हा-ए-वफ़ा नामक संकलनों को आधार बनाया, लेकिन पाया यह गया कि घोषित रूप से ‘समग्र फ़ैज़’ होते हुए भी उक्त दोनों संकलन अधूरे हैं और उनमें उनकी सम्पूर्ण शायरी का समावेश नहीं पाया है। अत: इस संकलन को पूर्ण और प्रामाणिक बनाने के लिए हमने दूसरे अनेक प्रयत्न किये और कुछ अन्य स्रोत्रों से भी पर्याप्त मदद ली गयी। उल्लेखनीय है कि इस प्रक्रिया में कई चौंकाने वाले तथ्य प्रकाश में आए। मसलन-
 
1. इससे पहले तक हिन्दी में उपलब्ध फ़ैज़ की कई ग़जलों में अनेक शे’र ग़ायब मिले।
2. उनकी रचनाओं के जो अनेक संस्करण उर्दू में हुए हैं, उनमें जहाँ-तहाँ पाठान्तर है।
3. कई रचनाएँ उनकी किताबों में बार-बार शामिल हुई हैं।
4. उनके द्वारा अनुदित कविताएँ भी कहीं-कहीं उनकी मूल रचनाओं के रूप में छपी हुई हैं। और,
5. हिन्दी-लिप्यन्तरकारों ने अपने-अपने ढंग से उर्दू के उच्चारण-स्वरूप बना रखे हैं, जिनमें कुछ ऐसे भी हैं जो हिन्दी पाठकों के लिए सहज ग्राह्य नहीं।
 
प्रस्तुत संकलन में उक्त सभी समस्याओं का समाधान करते हुए फ़ैज़ की शायरी का प्रामाणिक रूप सामने लाने का प्रयास किया गया है। जहाँ-जहाँ पाठान्तर है, अथवा किसी भी प्रकार का संशोधन है, वहाँ आवश्यक पाद-टिप्पणी दे दी गयी है। भाषायी उच्चारण के लिए वहीं ध्वनि-रूप इस्तेमाल किये गये हैं, जो हिन्दी पाठकों के लिए सहज ग्राह्य हों। रचनाओं की प्रस्तुति में हर ढंग, यानी उनकी पुस्तकों के आधार पर नहीं किया गया है, बल्कि विधागत विविधता को ही ध्यान में रखा गया है। ग़ज़लें, ऩज्में, कविताएँ, अनूदित कविताएँ तथा क़तआ’त एवं अशआ’र-यही इस विभाजन का मुख्य आधार रहे हैं। ‘असंकलित ग़ज़लें’ और ‘असंकलित नज़्में’ के अंतर्गत वे रचनाएँ दी गई हैं जो सामान्यतया उनके संग्रहों में नहीं पाई जातीं-अब तक वे इधर-उधर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी हुई थीं।
			
		  			
			हिन्दी पाठकों के लिए फ़ैज की शायरी का एक ख़ास मतलब है। वह सही मायनों में ज़िन्दगी की शायरी है-उसकी समग्रता का गर्माहट-भरा राग। लोग उसे दिल की गहराइयों से प्यार करते हैं और ज़िन्दगी के अहम मोड़ों पर उससे रोशनी पाते हैं। इसलिए बहुत दिनों से, ख़ासकर उनके देहावसान के बाद, यह ज़रूरत महसूस की जा रही थी कि उनकी समूची शायरी को हिन्दी में एक ही जिल्द में उपलब्ध कराया जाए। हालाँकि उनकी अधिसंख्य कविताएँ राजकमल से पूर्व-प्रकाशित शीशों का मसीहा, फ़ैज़, मेरे मुसाफ़िर तथा प्रतिनिधि कविताएँ-जैसे संकलनों के माध्यम से हिन्दी पाठकों के सामने आ चुकी थीं, फिर भी उनकी शायरी का एक बड़ा हिस्सा ऐसा था, जिसका समावेश उक्त संकलनों में नहीं हो सका था। कहना न होगा कि इस पुस्तक का प्रकाशन उसी अभाव को पूरा करने के लिए किया गया है।
दावा तो हम नहीं करते, लेकिन हमारी पूरी कोशिश रही है कि फ़ैज़ की समूची शायरी इस संकलन में आ जाए। इसके लिए हमने उनके स्वतन्त्र संग्रहों के अलावा लन्दन और पाकिस्तान से प्रकाशित क्रमश: सारे सु़ख़न हमारे तथा नुस्ख:हा-ए-वफ़ा नामक संकलनों को आधार बनाया, लेकिन पाया यह गया कि घोषित रूप से ‘समग्र फ़ैज़’ होते हुए भी उक्त दोनों संकलन अधूरे हैं और उनमें उनकी सम्पूर्ण शायरी का समावेश नहीं पाया है। अत: इस संकलन को पूर्ण और प्रामाणिक बनाने के लिए हमने दूसरे अनेक प्रयत्न किये और कुछ अन्य स्रोत्रों से भी पर्याप्त मदद ली गयी। उल्लेखनीय है कि इस प्रक्रिया में कई चौंकाने वाले तथ्य प्रकाश में आए। मसलन-
1. इससे पहले तक हिन्दी में उपलब्ध फ़ैज़ की कई ग़जलों में अनेक शे’र ग़ायब मिले।
2. उनकी रचनाओं के जो अनेक संस्करण उर्दू में हुए हैं, उनमें जहाँ-तहाँ पाठान्तर है।
3. कई रचनाएँ उनकी किताबों में बार-बार शामिल हुई हैं।
4. उनके द्वारा अनुदित कविताएँ भी कहीं-कहीं उनकी मूल रचनाओं के रूप में छपी हुई हैं। और,
5. हिन्दी-लिप्यन्तरकारों ने अपने-अपने ढंग से उर्दू के उच्चारण-स्वरूप बना रखे हैं, जिनमें कुछ ऐसे भी हैं जो हिन्दी पाठकों के लिए सहज ग्राह्य नहीं।
प्रस्तुत संकलन में उक्त सभी समस्याओं का समाधान करते हुए फ़ैज़ की शायरी का प्रामाणिक रूप सामने लाने का प्रयास किया गया है। जहाँ-जहाँ पाठान्तर है, अथवा किसी भी प्रकार का संशोधन है, वहाँ आवश्यक पाद-टिप्पणी दे दी गयी है। भाषायी उच्चारण के लिए वहीं ध्वनि-रूप इस्तेमाल किये गये हैं, जो हिन्दी पाठकों के लिए सहज ग्राह्य हों। रचनाओं की प्रस्तुति में हर ढंग, यानी उनकी पुस्तकों के आधार पर नहीं किया गया है, बल्कि विधागत विविधता को ही ध्यान में रखा गया है। ग़ज़लें, ऩज्में, कविताएँ, अनूदित कविताएँ तथा क़तआ’त एवं अशआ’र-यही इस विभाजन का मुख्य आधार रहे हैं। ‘असंकलित ग़ज़लें’ और ‘असंकलित नज़्में’ के अंतर्गत वे रचनाएँ दी गई हैं जो सामान्यतया उनके संग्रहों में नहीं पाई जातीं-अब तक वे इधर-उधर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी हुई थीं।
						
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