धर्म एवं दर्शन >> कहै कबीर कुछ उद्यम कीजै कहै कबीर कुछ उद्यम कीजैस्वामी कृष्णानन्द जी महाराज
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कहै कबीर कुछ उद्यम कीजै
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कबीर कपड़ा बुनकर बाजार में बेचते रहे। घर छोड़कर कहीं अन्यत्र नहीं गए।
हिमालय भी इंतज़ार करता रह गया। कबीर ने उद्घोषित किया था कि परमात्मा
यहीं चलकर स्वयं आएगा। कुछ भी छोड़ने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि छोड़ना पाने
की शर्त नहीं हो सकता। छोड़ना अहंकार हो सकता है, आभूषण हो सकता है, लेकिन
आत्मा का सौन्दर्य नहीं हो सकता। अगर कबीर जैसा आदमी, अति साधारण जुलाहा
अपना काम करते हुए परमज्ञान को उपलब्ध हो सकता है तो दूसरे क्यों नहीं ?
कबीर के पास सबके लिए एक आशा की ज्योति है। पूर्णत्व को पाने का संदेश है।
लेखक स्वामी श्री का परिचय
आपका जन्म 8 दिसम्बर, 1949 को रात्रि 10.00 बजे नाना के घर हुआ। आपके
अल्पवय में ही माता श्री स्वर्ग के लिए प्रस्थान कर गईं। आपके पिताश्री जब
पांच वर्ष के थे, तब आपके दादाजी ने संन्यास ले लिया था। दादी ने भी चारों
धाम की पैदल यात्रा कर संन्यास ग्रहण कर लिया था।
आपके दादाजी (स्वामी आत्मादासजी) एक बुद्ध पुरुष थे। जिनका हठ योग, सहज योग, राज योग एवं भक्ति योग पर समान अधिकार था। आपके पिताश्री बिहार सरकार में अधिकारी थे। बाद में वे भी संन्यास लेकर सहज समाधि में रहने लगे। ऐसा प्रतीत होता है स्वामीश्री पूर्व जन्म से ही सिद्ध हैं। तभी तो ऐसे वंश में जन्म लिया। सिद्धता, साधुता, संन्यास आपको उत्तराधिकार में मिला है।
आपने अपने दादा गुरु से पांच वर्ष के अल्पवय में दीक्षा ग्रहण कर ली थी। पढ़ाई-लिखाई में प्रतिभा के धनी थे। आप अपनी कक्षा में सदैव प्रथम आते थे। विज्ञान, साहित्य, कानून में उच्च शिक्षा ग्रहण की। परन्तु कभी भी नौकरी करने में आपकी रुचि नहीं रही। तभी तो सत्य की खोज में आसाम कामाख्या में ब्रह्मपुत्र के तट पर रहकर तंत्र विद्या को सिद्ध किया। फिर हिमालय के गोमुख, नन्दन वन तपोवन में रहकर हठ योग एवं सहज योग को सिद्ध किया। पुनः केदारनाथ, तुंगनाथ, बद्रीनाथ, अलकापुरी इत्यादि में रहकर राज योग की साधनाएं सिद्ध कीं।
आपने इस पृथ्वी के विभिन्न संत-महिमाओं जैसे आनन्द मूर्तिजी, रजनीशजी, साईं बाबा, आ.म. राम विलास साहब के सान्निध्य में योग साधना सीखी।
अन्त में आप वही पहुंचे जहां से यात्रा प्रारम्भ की थी। सद्गुरु एवं शिष्य का सम्बन्द जन्म-जन्म से होता है। वही सद्गुरु आपको मोक्ष प्रदान करता है। आपने स्वामी आत्मादास जी की छत्र-छाया में बैठकर गंगा तट पर 28 वर्ष की आयु में ज्येष्ठ पूर्णिमा को बुद्धत्व को प्राप्त किया। अपने सद्गुरु की छत्रछाया में बैठकर विभिन्न लोकों की यात्राएं कीं, जो अति रोमांचकारी हैं। विश्वसनीय हैं श्रद्धालुओं के लिए। अविश्वसनीय हैं कोरे तार्किकों के लिए, आप बिना किसी झिझक के सत्य आंखों देखा कहने के आदी हैं।
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक संदेश दे रहे हैं। आपकी प्रत्येक पुस्तक लीक से हटकर है।
आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिसके साधक, शीघ्र ही साधना की ऊंचाई पर पहुंच सकता है। संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है।
आपने बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ (उत्तराखण्ड) झारखण्ड तथा दिल्ली के विभिन्न स्थानों पर आश्रम स्थापित किए हैं। आपके सद्विप्र, साधक, आचार्यगण देश-विदेशों में फैल गए हैं, जो आपके संदेशों को प्रचारिक–प्रसारित कर रहे हैं, सद्विप्र, समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है। सद्विप्र समाज सेवा सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार के रूप में देखती है।
आपके दादाजी (स्वामी आत्मादासजी) एक बुद्ध पुरुष थे। जिनका हठ योग, सहज योग, राज योग एवं भक्ति योग पर समान अधिकार था। आपके पिताश्री बिहार सरकार में अधिकारी थे। बाद में वे भी संन्यास लेकर सहज समाधि में रहने लगे। ऐसा प्रतीत होता है स्वामीश्री पूर्व जन्म से ही सिद्ध हैं। तभी तो ऐसे वंश में जन्म लिया। सिद्धता, साधुता, संन्यास आपको उत्तराधिकार में मिला है।
आपने अपने दादा गुरु से पांच वर्ष के अल्पवय में दीक्षा ग्रहण कर ली थी। पढ़ाई-लिखाई में प्रतिभा के धनी थे। आप अपनी कक्षा में सदैव प्रथम आते थे। विज्ञान, साहित्य, कानून में उच्च शिक्षा ग्रहण की। परन्तु कभी भी नौकरी करने में आपकी रुचि नहीं रही। तभी तो सत्य की खोज में आसाम कामाख्या में ब्रह्मपुत्र के तट पर रहकर तंत्र विद्या को सिद्ध किया। फिर हिमालय के गोमुख, नन्दन वन तपोवन में रहकर हठ योग एवं सहज योग को सिद्ध किया। पुनः केदारनाथ, तुंगनाथ, बद्रीनाथ, अलकापुरी इत्यादि में रहकर राज योग की साधनाएं सिद्ध कीं।
आपने इस पृथ्वी के विभिन्न संत-महिमाओं जैसे आनन्द मूर्तिजी, रजनीशजी, साईं बाबा, आ.म. राम विलास साहब के सान्निध्य में योग साधना सीखी।
अन्त में आप वही पहुंचे जहां से यात्रा प्रारम्भ की थी। सद्गुरु एवं शिष्य का सम्बन्द जन्म-जन्म से होता है। वही सद्गुरु आपको मोक्ष प्रदान करता है। आपने स्वामी आत्मादास जी की छत्र-छाया में बैठकर गंगा तट पर 28 वर्ष की आयु में ज्येष्ठ पूर्णिमा को बुद्धत्व को प्राप्त किया। अपने सद्गुरु की छत्रछाया में बैठकर विभिन्न लोकों की यात्राएं कीं, जो अति रोमांचकारी हैं। विश्वसनीय हैं श्रद्धालुओं के लिए। अविश्वसनीय हैं कोरे तार्किकों के लिए, आप बिना किसी झिझक के सत्य आंखों देखा कहने के आदी हैं।
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक संदेश दे रहे हैं। आपकी प्रत्येक पुस्तक लीक से हटकर है।
आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिसके साधक, शीघ्र ही साधना की ऊंचाई पर पहुंच सकता है। संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है।
आपने बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ (उत्तराखण्ड) झारखण्ड तथा दिल्ली के विभिन्न स्थानों पर आश्रम स्थापित किए हैं। आपके सद्विप्र, साधक, आचार्यगण देश-विदेशों में फैल गए हैं, जो आपके संदेशों को प्रचारिक–प्रसारित कर रहे हैं, सद्विप्र, समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है। सद्विप्र समाज सेवा सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार के रूप में देखती है।
‘‘जाति-पात का रिश्ता छोड़ो।
भाई से भाई नाता जोड़ो।।’’
भाई से भाई नाता जोड़ो।।’’
दो शब्द
जीवन का सत्य स्वप्रमाण है। इसकी बुनियाद सूक्ष्म से सूक्ष्मतर के अन्वेषण
पर आधारित है। जो सदियों से हमारे ऋषियों-मुनियों तथा संतों की
आत्म-अभिव्यक्ति रही है। इसका अन्वेषित प्रारूप समय-समय पर मानव समाज को
एक आयाम प्रदान करता रहा है।
हमारी यात्रा भी सृष्टि के शुरुआत से ही है। अपने जन्म-जन्मान्तर की ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी नहीं कर पाने के कारण हम सब दुःख तथा भय में जी रहे हैं। जीवन की तरफ, जीवन की दिशा में कोई खोज नहीं कर पाये। सदियों से तथाकथित धार्मिक गुरुओं ने धर्म एवं संन्यास का जो रूप दिया, उसमें निजत्व के बोध से देखने की कोशिश हमने नहीं की। परिणास्वरूप धर्म तथा संन्यास का रूप कुरूप हो गया। एक भ्रान्त धारणा ने जन्म लिया कि स्त्री का परित्याग कर देना, जीवन से भाग जाना, गृह का परित्याग कर देना या वन में धूनी रमाना, कपड़े रंगवाकर पहन लेना ही संन्यास है।
क्रांति दर्शी बुद्ध पुरुष स्वामी जी के शब्दों में—‘‘आदर्श कर्म करते हुए ‘स्व’ का अनुभव हो जाना, स्वाभाविकता, समता एवं शांति में जीना ही श्रेष्ठ संन्यास है।’’
आज की संत परम्परा बदसूरत हो गई है। साधारण लोग साधु का नाम सुनते ही बिदक जाते हैं। कमजोर, आलसी, निठल्ला तथा घोटालों एवं घपलों में अफसरों, नेताओं का साथ देने वाला, साधु का चोला पहनकर घूम रहा है। परन्तु हमारे ऋषियों-मनीषियों ने इसका सर्वथा त्याग किया है। इसी परम्परा के अंतर्गत ही अभी जनक, कबीर, गुलाल, रैदास का नाम आता है। ये स्वयं कर्मशील रहे तथा इनकी दृष्टि खोजी रही। परिवार के साथ रहते हुए उद्यम करते हुए चिंतन में गहराई से उतरे तथा समाज को निष्काम कर्म योग का पाठ पढ़ाया।
प्रस्तुत पुस्तक में स्वामी जी ने अपने अनुभवों के आधार पर जगत के तटस्थ नियमों को समझाने की कोशिश की है। क्योंकि जगत का नियम तटस्थ का है और वह भी तटस्थ हैं।
स्वामी जी ने अपनी पुस्तक के माध्यम से सामाजिक रूढ़िवादिता पर कड़ा प्रहार करते हुए वास्तविकता को देखने के लिए समग्र मनुष्यता को मजबूर कर दिया है। ऋषियों–मनीषियों एवं संतों की जीवन शैली एवं परंपरा को नये सिरे से मूल्यांकित कर प्रस्तुत किया है। यह पुस्तक परम्परावादियों के ‘घूंघट का पट’ खोल देगी।
परमात्मा का नूर हर रंग में तथा हर रूप में प्रकाशित हो रहा है। जीवन से प्रेम करना है, भागना या छोड़ना नहीं है। जो अवसर मिला है उसका सदुपयोग करना है।
आज का मानव किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया है। उनके लिए यह पुस्तक निज धर्म एवं कर्म को पहचानने के लिए एक आदर्श साबित होगी। श्रेष्ठ जीवन जीने की कला को उद्घाटित करेगी एवं प्रेरणा स्रोत होगी। पूज्य स्वामी श्री सद्गुरु कबीर के विचारों तथा उक्तियों को पूरी तरह से आत्मसात् करते हुए इस सदी के ‘विदेह’ के रूप में अवतरित हुए हैं।
अभिलाषा करता हूं कि यह पुस्तक जनमानस को कर्मकाण्ड, हिंसा, चोरी, व्यभिचार, अंधविश्वास से उबारने के लिये एक दिव्य स्रोत साबित होगी। सृष्टि के पुनरुद्धार के लिए अवतरित परम प्रज्ञावान सद्गुरु स्वामी जी को यह पुस्तक लिखने के लिए उनका आभार व्यक्त करते हुए सत्-सत् नमन करता हूं।
हमारी यात्रा भी सृष्टि के शुरुआत से ही है। अपने जन्म-जन्मान्तर की ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी नहीं कर पाने के कारण हम सब दुःख तथा भय में जी रहे हैं। जीवन की तरफ, जीवन की दिशा में कोई खोज नहीं कर पाये। सदियों से तथाकथित धार्मिक गुरुओं ने धर्म एवं संन्यास का जो रूप दिया, उसमें निजत्व के बोध से देखने की कोशिश हमने नहीं की। परिणास्वरूप धर्म तथा संन्यास का रूप कुरूप हो गया। एक भ्रान्त धारणा ने जन्म लिया कि स्त्री का परित्याग कर देना, जीवन से भाग जाना, गृह का परित्याग कर देना या वन में धूनी रमाना, कपड़े रंगवाकर पहन लेना ही संन्यास है।
क्रांति दर्शी बुद्ध पुरुष स्वामी जी के शब्दों में—‘‘आदर्श कर्म करते हुए ‘स्व’ का अनुभव हो जाना, स्वाभाविकता, समता एवं शांति में जीना ही श्रेष्ठ संन्यास है।’’
आज की संत परम्परा बदसूरत हो गई है। साधारण लोग साधु का नाम सुनते ही बिदक जाते हैं। कमजोर, आलसी, निठल्ला तथा घोटालों एवं घपलों में अफसरों, नेताओं का साथ देने वाला, साधु का चोला पहनकर घूम रहा है। परन्तु हमारे ऋषियों-मनीषियों ने इसका सर्वथा त्याग किया है। इसी परम्परा के अंतर्गत ही अभी जनक, कबीर, गुलाल, रैदास का नाम आता है। ये स्वयं कर्मशील रहे तथा इनकी दृष्टि खोजी रही। परिवार के साथ रहते हुए उद्यम करते हुए चिंतन में गहराई से उतरे तथा समाज को निष्काम कर्म योग का पाठ पढ़ाया।
प्रस्तुत पुस्तक में स्वामी जी ने अपने अनुभवों के आधार पर जगत के तटस्थ नियमों को समझाने की कोशिश की है। क्योंकि जगत का नियम तटस्थ का है और वह भी तटस्थ हैं।
स्वामी जी ने अपनी पुस्तक के माध्यम से सामाजिक रूढ़िवादिता पर कड़ा प्रहार करते हुए वास्तविकता को देखने के लिए समग्र मनुष्यता को मजबूर कर दिया है। ऋषियों–मनीषियों एवं संतों की जीवन शैली एवं परंपरा को नये सिरे से मूल्यांकित कर प्रस्तुत किया है। यह पुस्तक परम्परावादियों के ‘घूंघट का पट’ खोल देगी।
परमात्मा का नूर हर रंग में तथा हर रूप में प्रकाशित हो रहा है। जीवन से प्रेम करना है, भागना या छोड़ना नहीं है। जो अवसर मिला है उसका सदुपयोग करना है।
आज का मानव किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया है। उनके लिए यह पुस्तक निज धर्म एवं कर्म को पहचानने के लिए एक आदर्श साबित होगी। श्रेष्ठ जीवन जीने की कला को उद्घाटित करेगी एवं प्रेरणा स्रोत होगी। पूज्य स्वामी श्री सद्गुरु कबीर के विचारों तथा उक्तियों को पूरी तरह से आत्मसात् करते हुए इस सदी के ‘विदेह’ के रूप में अवतरित हुए हैं।
अभिलाषा करता हूं कि यह पुस्तक जनमानस को कर्मकाण्ड, हिंसा, चोरी, व्यभिचार, अंधविश्वास से उबारने के लिये एक दिव्य स्रोत साबित होगी। सृष्टि के पुनरुद्धार के लिए अवतरित परम प्रज्ञावान सद्गुरु स्वामी जी को यह पुस्तक लिखने के लिए उनका आभार व्यक्त करते हुए सत्-सत् नमन करता हूं।
डॉ. आर.एन. उपाध्याय
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लोगों की राय
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