धर्म एवं दर्शन >> अनमोल वचन अनमोल वचनस्वामी आनन्द बोद्यिसत्व
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अनमोल वचन
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘एक विचार ले लो। उसी एक विचार के अनुसार अपने जीवन
को बनाओ;
उसी को सोचो, उसी का स्वप्न देखों उसी पर अवलम्बित रहो। अपने मस्तिष्क,
मांसपेशियों, स्नायुओं और शरीर के प्रत्येक भाग को उसी विचार से ओत-प्रोत
होने दो और दूसरे सब विचारों को अपने से दूर रखो। यही सफलता का मार्ग है
और यही वह मार्ग हैं, जिसने महान धार्मिक पुरुषों का निर्माण किया
हैं।’’
स्वामी विवेकानंद
धर्म और ईश्वर
ईश्वर की पूजा करना अन्तर्निहित आत्मा की उपासना हैं
धर्म की प्रत्यक्ष अनुभूति हो सकती है। क्या तुम इसके लिए तैयार हो ? क्या तुम यह चाहते हो ? यदि हां, तो तुम उसे अवश्य प्राप्त कर सकते हो, और तभी तुम यथार्थ धार्मिक होगे। जब तक तुम इसका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं कर लेते, तुममें और नास्तिकों में कोई अन्तर नहीं। नास्तिक ईमानदार है, पर वह मनुष्य जो कहता हैं कि वह धर्म में विश्वास करता है, पर कभी उसे प्रत्यक्ष करने का प्रयत्न नहीं करता, ईमानदार नहीं है।
मैं अभी तक के सभी धर्मों को स्वीकार करता हूँ। और उन सबकी पूजा करता हूँ, मैं उनमें से प्रत्येक के साथ ईश्वर की उपासना करता हूं, वे स्वयं चाहे किसी भी रूप में उपासना करते हो। मैं मुसलमानों की मस्जिद में जाऊंगा मैं ईसाइयों के गिरजा के क्रास के सामने घुटने टेककर प्रार्थना करूंगा, मैं बौद्ध-मन्दिरों में जाकर बुद्ध और उसकी शिक्षा की शरणं लूंगा। मैं जंगल में जाकर हिन्दुओं के साथ ध्यान करूंगा, जो हृदयस्थ ज्योतिस्वरूप परमात्मा को प्रत्यक्ष करने में प्रयत्नशील हैं।
यदि ईश्वर हैं, तो हमें उसे देखना चाहिए, यदि आत्मा है, तो हमें उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कर लेनी चाहिए, अन्यथा उन पर विश्वास न करना ही अच्छा है। ढोंगी बनने की अपेक्षा स्पष्ट रूप से नास्तिक बनना अधिक अच्छा है।
अभ्यास अति आवश्यक है। तुम प्रतिदिन घण्टों बैठकर मेरा उपदेश सुनते रहे, पर यदि तुम उसका अभ्यास नही करते, तो एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकते।
यह सब तो अभ्यास पर ही निर्भर है। जब हम इन बातों का अनुभव नहीं करते, तब तक इन्हें नहीं समझ सकते। हमें इन्हें देखना और अनुभव करना पड़ेगा। सिद्धान्तों और उनकी व्याख्याओं को केवल सुनने से कुछ प्राप्त न होगा।
* धर्म मतवाद या बौद्धिक तर्क में नहीं है, वरन् आत्मा की ब्रह्यस्वरूपता को जान लेना, तदरुप हो जाना और उसका साक्षात्कार, यही धर्म है।
*ईसा के इन शब्दों को स्मरण रखो-‘‘मांगो, वह तुम्हें मिलेगा, ढूँढ़ो, तुम उसे पाओगे, खटखटाओं और वह तुम्हारे लिए खुल जाएगा।’’ ये शब्द पूर्ण रूप से सत्य है, न आलंकारिक हैं, न ही काल्पनिक।
* ब्राह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करना बहुत अच्छी और बहुत बात है, पर अन्तः प्रकृति को जीत लेना इससे भी बड़ी बात है...। अपने भीतर के ‘मनुष्य’ को वश में कर लो, मानव-मन के सूक्ष्म कार्यों के रहस्य को समझ लो और उसके आश्चर्यजनक गुप्त भेद को अच्छी तरह जान लो-ये बातें धर्म के साथ अभेद्य भाव से सम्बद्ध हैं।
* जीवन और मृत्यु में, सुख और दुःख मे ईश्वर समान रूप से विद्यमान है। समस्त विश्व ईश्वर से पूर्ण हैं। अपने नेत्र खोलों और उसे देखों।
* प्रत्येक जीव ही अव्यक्त ब्रह्य है। बाह्य एवं अन्तः-प्रकृति, दोनों का नियमन कर इस अन्तर्निहित ब्रह्य-स्वरूप को अभिव्यक्त करना ही जीवन का ध्येय है। कर्म, भक्ति, योग या ज्ञान के द्वारा इनमें से किसी एक के द्वारा, या एक से अधिक के द्वारा, या सबके सम्मिलत के द्वारा यह ध्येय प्राप्त कर लो और मुक्त हो जाओ। यही धर्म का सर्वस्व है। मत-मतान्तर विधि या अनुष्ठान, ग्रन्थ, मन्दिर –ये सब गौण हैं।
धर्म की प्रत्यक्ष अनुभूति हो सकती है। क्या तुम इसके लिए तैयार हो ? क्या तुम यह चाहते हो ? यदि हां, तो तुम उसे अवश्य प्राप्त कर सकते हो, और तभी तुम यथार्थ धार्मिक होगे। जब तक तुम इसका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं कर लेते, तुममें और नास्तिकों में कोई अन्तर नहीं। नास्तिक ईमानदार है, पर वह मनुष्य जो कहता हैं कि वह धर्म में विश्वास करता है, पर कभी उसे प्रत्यक्ष करने का प्रयत्न नहीं करता, ईमानदार नहीं है।
मैं अभी तक के सभी धर्मों को स्वीकार करता हूँ। और उन सबकी पूजा करता हूँ, मैं उनमें से प्रत्येक के साथ ईश्वर की उपासना करता हूं, वे स्वयं चाहे किसी भी रूप में उपासना करते हो। मैं मुसलमानों की मस्जिद में जाऊंगा मैं ईसाइयों के गिरजा के क्रास के सामने घुटने टेककर प्रार्थना करूंगा, मैं बौद्ध-मन्दिरों में जाकर बुद्ध और उसकी शिक्षा की शरणं लूंगा। मैं जंगल में जाकर हिन्दुओं के साथ ध्यान करूंगा, जो हृदयस्थ ज्योतिस्वरूप परमात्मा को प्रत्यक्ष करने में प्रयत्नशील हैं।
यदि ईश्वर हैं, तो हमें उसे देखना चाहिए, यदि आत्मा है, तो हमें उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कर लेनी चाहिए, अन्यथा उन पर विश्वास न करना ही अच्छा है। ढोंगी बनने की अपेक्षा स्पष्ट रूप से नास्तिक बनना अधिक अच्छा है।
अभ्यास अति आवश्यक है। तुम प्रतिदिन घण्टों बैठकर मेरा उपदेश सुनते रहे, पर यदि तुम उसका अभ्यास नही करते, तो एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकते।
यह सब तो अभ्यास पर ही निर्भर है। जब हम इन बातों का अनुभव नहीं करते, तब तक इन्हें नहीं समझ सकते। हमें इन्हें देखना और अनुभव करना पड़ेगा। सिद्धान्तों और उनकी व्याख्याओं को केवल सुनने से कुछ प्राप्त न होगा।
* धर्म मतवाद या बौद्धिक तर्क में नहीं है, वरन् आत्मा की ब्रह्यस्वरूपता को जान लेना, तदरुप हो जाना और उसका साक्षात्कार, यही धर्म है।
*ईसा के इन शब्दों को स्मरण रखो-‘‘मांगो, वह तुम्हें मिलेगा, ढूँढ़ो, तुम उसे पाओगे, खटखटाओं और वह तुम्हारे लिए खुल जाएगा।’’ ये शब्द पूर्ण रूप से सत्य है, न आलंकारिक हैं, न ही काल्पनिक।
* ब्राह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करना बहुत अच्छी और बहुत बात है, पर अन्तः प्रकृति को जीत लेना इससे भी बड़ी बात है...। अपने भीतर के ‘मनुष्य’ को वश में कर लो, मानव-मन के सूक्ष्म कार्यों के रहस्य को समझ लो और उसके आश्चर्यजनक गुप्त भेद को अच्छी तरह जान लो-ये बातें धर्म के साथ अभेद्य भाव से सम्बद्ध हैं।
* जीवन और मृत्यु में, सुख और दुःख मे ईश्वर समान रूप से विद्यमान है। समस्त विश्व ईश्वर से पूर्ण हैं। अपने नेत्र खोलों और उसे देखों।
* प्रत्येक जीव ही अव्यक्त ब्रह्य है। बाह्य एवं अन्तः-प्रकृति, दोनों का नियमन कर इस अन्तर्निहित ब्रह्य-स्वरूप को अभिव्यक्त करना ही जीवन का ध्येय है। कर्म, भक्ति, योग या ज्ञान के द्वारा इनमें से किसी एक के द्वारा, या एक से अधिक के द्वारा, या सबके सम्मिलत के द्वारा यह ध्येय प्राप्त कर लो और मुक्त हो जाओ। यही धर्म का सर्वस्व है। मत-मतान्तर विधि या अनुष्ठान, ग्रन्थ, मन्दिर –ये सब गौण हैं।
सफलता
कोई भी जीवन असफल नहीं हो सकता; संसार में असफल कही जाने वाली कोई वस्तु
है ही नहीं। सैकड़ो बार मनुष्य को चोट पहुँच सकती है, हजारों बार वह
पंछाड़ खा सकता है, पर अन्त में वह यही अनुभव करेगा कि वह स्वयं ही ईश्वर
है।
* एक विचार ले लो। उसी एक विचार के अनुसार अपने जीवन को बनाओ; उसी को सोचो उसी का स्वप्न देखो और उसी पर अवलम्बित रहो। अपने मस्तिष्क मांसपेशियों, स्नायुओं और शरीर के प्रत्येक भाग को उसी विचार से ओत-प्रोत होने दो और दूसरे सब विचारों को अपने से दूर रखो। यही सफलता का मार्ग है और यही वह मार्ग हैं, जिसने महान धार्मिक पुरुषों का निर्माण किया है।
ये महामावन असामान्य नहीं थे; वे तुम्हारे और हमारे समान ही मनुष्य थे पर वे महान योगी थे। उन्होंने यह ब्रह्य स्थिति प्राप्त कर ली थी; हम और तुम भी इसे प्राप्त कर सकते है। वे कोई विशेष व्यक्ति नहीं थे। एक मनुष्य का उस स्थिति में पहुँचना ही इस बात का प्रमाण है कि उसकी प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्भव ही नहीं, बल्कि प्रत्येक मनुष्य अन्त में उस स्थिति को प्राप्त करेगा ही और यही धर्म है।
* ईश्वर मुक्तिस्वरूप है, प्रकृति का नियंता है। तुम उसे मानने से इन्कार नहीं कर सकते। नहीं, क्योंकि तुम स्वतंत्रता के भाव के बिना न कोई कार्य कर सकते हो, न ही जी सकते हो।
* एक विचार ले लो। उसी एक विचार के अनुसार अपने जीवन को बनाओ; उसी को सोचो उसी का स्वप्न देखो और उसी पर अवलम्बित रहो। अपने मस्तिष्क मांसपेशियों, स्नायुओं और शरीर के प्रत्येक भाग को उसी विचार से ओत-प्रोत होने दो और दूसरे सब विचारों को अपने से दूर रखो। यही सफलता का मार्ग है और यही वह मार्ग हैं, जिसने महान धार्मिक पुरुषों का निर्माण किया है।
ये महामावन असामान्य नहीं थे; वे तुम्हारे और हमारे समान ही मनुष्य थे पर वे महान योगी थे। उन्होंने यह ब्रह्य स्थिति प्राप्त कर ली थी; हम और तुम भी इसे प्राप्त कर सकते है। वे कोई विशेष व्यक्ति नहीं थे। एक मनुष्य का उस स्थिति में पहुँचना ही इस बात का प्रमाण है कि उसकी प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्भव ही नहीं, बल्कि प्रत्येक मनुष्य अन्त में उस स्थिति को प्राप्त करेगा ही और यही धर्म है।
* ईश्वर मुक्तिस्वरूप है, प्रकृति का नियंता है। तुम उसे मानने से इन्कार नहीं कर सकते। नहीं, क्योंकि तुम स्वतंत्रता के भाव के बिना न कोई कार्य कर सकते हो, न ही जी सकते हो।
बल, शक्ति और विश्वास
* विश्व की समस्त शक्तियां हमारी हैं। हमने अपने हाथ अपनी आंखों पर रख
लिये हैं और चिल्लाते हैं कि चोर ओर अंधेरा है। जान लो कि हमारे चारों ओर
अंधेरा नहीं है, अपने हाथ अलग करो, तुम्हे प्रकाश दिखाई देने लगेगा, जो
पहले भी था। अंधेरा नहीं था, कमजोरी कभी नहीं थी। हम सब मूर्ख हैं जो
चिल्लाते हैं कि हम कमजोर हैं, अपवित्र हैं।
* कमजोरी का इलाज कमजोरी का विचार करना नहीं, पर शक्ति का विचार करना है। मनुष्यों को शक्ति की शिक्षा दो, जो पहले से ही उनमें हैं।
* अपने आप में विश्वास रखने का आदर्श ही हमारा सबसे बड़ा सहायक है। सभी क्षेत्रों में यदि अपने आप में विश्वास करना हमें सिखया जाता और उसका अभ्यास कराया जाता, तो निश्चिय है कि हमारी बुराइयों तथा दुःखों का बहुत बड़ा भाग तक मिट गया होता।
* कर्म करना बहुत अच्छा है, पर वह विचारों से आता है...इसलिए अपने मस्तिष्क को उच्च विचारों और उच्चतम आदर्शों से भर लो, उन्हें रात-दिन अपने सामने रखो; उन्हीं में से महान कार्यों का जन्म होगा।
* संसार की क्रूरता और पापों की बात मत करो। इसी बात पर खेद करो कि तुम अभी भी क्रूरता देखने को विवश हो। इसी का तुमको दुःख होना चाहिए कि तुम अपने चारों ओर केवल पाप देखने के लिए बाध्य हो। यदि तुम संसार की सहायता करना आवश्यक समझते हो, तो उसकी निन्दा मत करो। उसे और अधिक कमजोर मत बनाओ। पाप, दुःख आदि सब क्या है ? कुछ भी नहीं, वे कमजोरी के ही परिणाम हैं। इसी प्रकार के उपदेशों से संसार दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक कमजोर बनाया जा रहा है।
* बाल्यकाल से ही अपने मस्तिष्क में निश्चित, दृढ़ और सहायक विचारों को प्रवेश करने दो। अपने आपको इन विचारों के प्रति उन्मुक्त रखो, न कि कमजोर तथा अकर्मण्य बनाने वाले विचारों के प्रति।
* यदि मानव जाति के आज तक के इतिहास में महान पुरुषों और स्त्रियों के जीवन में सब से बड़ी प्रवर्तक शक्ति कोई है, तो वह आत्मविश्वास ही है। जन्म से ही यह विश्वास रहने के कारण कि वे महान होने के लिए ही पैदा हुए हैं, वे महान बने।
* मनुष्य को, वह जितना नीचे जाता है जाने दो; एक समय ऐसा अवश्य आएगा, जब वह ऊपर उठने का सहारा पाएगा और अपने आप में विश्वास करना सीखेगा। पर हमारे लिए यही अच्छा है कि हम इसे पहले से ही जान लें। अपने आप में विश्वास करना सीखने के लिए हम इस प्रकार के कटु अनुभव क्यो करे ?
हम देख सकते हैं कि एक और दूसरे मनुष्य के बीच अन्तर होने के कारण उसका अपने आप में विश्वास होना और न होना ही है। अपने आप में विश्वास होने से सब कुछ हो सकता है। मैंने अपने जीवन में इसका अनुभव किया है अब भी कर रहा हूं और जैसे-जैसे मैं बड़ा होता जा रहा हूँ मेरा विश्वास और दृढ़ होता जा रहा है।
* असफलता की चिन्ता मत करो; ये बिल्कुल स्वाभाविक है, ये असफलताएं जीवन का सौन्दर्य हैं। उनके बिना जीवन क्या होता ? जीवन का काव्य। संघर्ष और त्रुटियों की परवाह मत करो। मैंने किसी गाय को झूठ बोलते नहीं सुना, पर वह केवल गाय है, मनुष्य कभी नहीं। इसलिए इन असफलताओं पर ध्यान मत दो, ये छोटी-छोटी फिसलनें हैं। आदर्श को सामने रखकर हजार बार आगे बढ़ने का प्रत्यन करो। यदि तुम हजार बार भी असफल होते हो, तो एक बार फिर प्रयत्न करो।
* तुम अपने जीवाणुकोष (Amoeba) की अवस्था से लेकर इस मनुष्य-शरीर तक की अवस्था का निरीक्षण करो; यह सब किसने किया, तुम्हारी अपनी इच्छाशक्ति ने। यह इच्छाशक्ति सर्वशक्तिमान है, क्या यह तुम अस्वीकार कर सकते हो ? जो तुम्हें यहां तक लायी वही अब भी तुम्हें और ऊंचाई पर ले जा सकती है। तुम्हें केवल चरित्रवान होनो और अपनी इच्छाशक्ति को अधिक बलवती बनाने की आवश्यकता है।
* क्या तुम जानते हो, तुम्हारे भीतर अभी भी कितना तेज, कितनी शक्तियां छिपी हुई हैं ? क्या कोई वैज्ञानिक भी इन्हें जान सका है ? मनुष्य का जन्म हुए लाखों वर्ष हो गये, पर अभी तक उसकी असीम शक्ति का केवल एक अत्यन्त क्षुद्र भाग ही अभिव्यक्त हुआ है। इसलिए तुम्हें यह नहीं कहना चाहिए कि तुम शक्तिहीन हो। तुम क्या जानों कि ऊपर दिखाई देने वाले पतन की ओट में शक्ति की कितनी सम्भावनाएं हैं ? जो शक्ति तुममें है, उसके बहुत ही कम भाग को तुम जानते हो।तुन्हारे पीछे अनन्त शक्ति और शान्ति का सागर है।
* ‘जड़’ यदि शक्तिशाली है, तो ‘विचार’ सर्वशक्तिमान है। इस विचार को अपने जीवन में उतारों और अपने आपको सर्वशक्तिमान, महिमान्वित और गौरवसम्पन्न अनुभव करो। ईश्वर करे तुम्हारे मस्तिष्क में किसी कुसंस्कार को स्थान न मिले। ईश्वर करे, हम जन्म से ही कुसंस्कार डालने वाले वातावरण में न रहें और कमजोरी तथा बुराई के विचारों से बचें।
* कमजोरी का इलाज कमजोरी का विचार करना नहीं, पर शक्ति का विचार करना है। मनुष्यों को शक्ति की शिक्षा दो, जो पहले से ही उनमें हैं।
* अपने आप में विश्वास रखने का आदर्श ही हमारा सबसे बड़ा सहायक है। सभी क्षेत्रों में यदि अपने आप में विश्वास करना हमें सिखया जाता और उसका अभ्यास कराया जाता, तो निश्चिय है कि हमारी बुराइयों तथा दुःखों का बहुत बड़ा भाग तक मिट गया होता।
* कर्म करना बहुत अच्छा है, पर वह विचारों से आता है...इसलिए अपने मस्तिष्क को उच्च विचारों और उच्चतम आदर्शों से भर लो, उन्हें रात-दिन अपने सामने रखो; उन्हीं में से महान कार्यों का जन्म होगा।
* संसार की क्रूरता और पापों की बात मत करो। इसी बात पर खेद करो कि तुम अभी भी क्रूरता देखने को विवश हो। इसी का तुमको दुःख होना चाहिए कि तुम अपने चारों ओर केवल पाप देखने के लिए बाध्य हो। यदि तुम संसार की सहायता करना आवश्यक समझते हो, तो उसकी निन्दा मत करो। उसे और अधिक कमजोर मत बनाओ। पाप, दुःख आदि सब क्या है ? कुछ भी नहीं, वे कमजोरी के ही परिणाम हैं। इसी प्रकार के उपदेशों से संसार दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक कमजोर बनाया जा रहा है।
* बाल्यकाल से ही अपने मस्तिष्क में निश्चित, दृढ़ और सहायक विचारों को प्रवेश करने दो। अपने आपको इन विचारों के प्रति उन्मुक्त रखो, न कि कमजोर तथा अकर्मण्य बनाने वाले विचारों के प्रति।
* यदि मानव जाति के आज तक के इतिहास में महान पुरुषों और स्त्रियों के जीवन में सब से बड़ी प्रवर्तक शक्ति कोई है, तो वह आत्मविश्वास ही है। जन्म से ही यह विश्वास रहने के कारण कि वे महान होने के लिए ही पैदा हुए हैं, वे महान बने।
* मनुष्य को, वह जितना नीचे जाता है जाने दो; एक समय ऐसा अवश्य आएगा, जब वह ऊपर उठने का सहारा पाएगा और अपने आप में विश्वास करना सीखेगा। पर हमारे लिए यही अच्छा है कि हम इसे पहले से ही जान लें। अपने आप में विश्वास करना सीखने के लिए हम इस प्रकार के कटु अनुभव क्यो करे ?
हम देख सकते हैं कि एक और दूसरे मनुष्य के बीच अन्तर होने के कारण उसका अपने आप में विश्वास होना और न होना ही है। अपने आप में विश्वास होने से सब कुछ हो सकता है। मैंने अपने जीवन में इसका अनुभव किया है अब भी कर रहा हूं और जैसे-जैसे मैं बड़ा होता जा रहा हूँ मेरा विश्वास और दृढ़ होता जा रहा है।
* असफलता की चिन्ता मत करो; ये बिल्कुल स्वाभाविक है, ये असफलताएं जीवन का सौन्दर्य हैं। उनके बिना जीवन क्या होता ? जीवन का काव्य। संघर्ष और त्रुटियों की परवाह मत करो। मैंने किसी गाय को झूठ बोलते नहीं सुना, पर वह केवल गाय है, मनुष्य कभी नहीं। इसलिए इन असफलताओं पर ध्यान मत दो, ये छोटी-छोटी फिसलनें हैं। आदर्श को सामने रखकर हजार बार आगे बढ़ने का प्रत्यन करो। यदि तुम हजार बार भी असफल होते हो, तो एक बार फिर प्रयत्न करो।
* तुम अपने जीवाणुकोष (Amoeba) की अवस्था से लेकर इस मनुष्य-शरीर तक की अवस्था का निरीक्षण करो; यह सब किसने किया, तुम्हारी अपनी इच्छाशक्ति ने। यह इच्छाशक्ति सर्वशक्तिमान है, क्या यह तुम अस्वीकार कर सकते हो ? जो तुम्हें यहां तक लायी वही अब भी तुम्हें और ऊंचाई पर ले जा सकती है। तुम्हें केवल चरित्रवान होनो और अपनी इच्छाशक्ति को अधिक बलवती बनाने की आवश्यकता है।
* क्या तुम जानते हो, तुम्हारे भीतर अभी भी कितना तेज, कितनी शक्तियां छिपी हुई हैं ? क्या कोई वैज्ञानिक भी इन्हें जान सका है ? मनुष्य का जन्म हुए लाखों वर्ष हो गये, पर अभी तक उसकी असीम शक्ति का केवल एक अत्यन्त क्षुद्र भाग ही अभिव्यक्त हुआ है। इसलिए तुम्हें यह नहीं कहना चाहिए कि तुम शक्तिहीन हो। तुम क्या जानों कि ऊपर दिखाई देने वाले पतन की ओट में शक्ति की कितनी सम्भावनाएं हैं ? जो शक्ति तुममें है, उसके बहुत ही कम भाग को तुम जानते हो।तुन्हारे पीछे अनन्त शक्ति और शान्ति का सागर है।
* ‘जड़’ यदि शक्तिशाली है, तो ‘विचार’ सर्वशक्तिमान है। इस विचार को अपने जीवन में उतारों और अपने आपको सर्वशक्तिमान, महिमान्वित और गौरवसम्पन्न अनुभव करो। ईश्वर करे तुम्हारे मस्तिष्क में किसी कुसंस्कार को स्थान न मिले। ईश्वर करे, हम जन्म से ही कुसंस्कार डालने वाले वातावरण में न रहें और कमजोरी तथा बुराई के विचारों से बचें।
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लोगों की राय
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