सिनेमा एवं मनोरंजन >> अमिताभ की संघर्ष-कथा अमिताभ की संघर्ष-कथायुगांक धीर
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अमिताभ की संघर्ष-कथा
Amitabh Ki Sangharsh Katha - A Hindi Book - by Yugank Dheer
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अमिताभ बच्चन के संघर्ष के दिनों (1968-73) के रोमांस को पुनर्जीवित करती हुई, उनकी चामत्कारिक सफलता (1973-1988) के पीछे छिपे उनके व्यक्तित्व के अनछुए पहलुओं को टटोलती हुई, और सत्तर के दशक के सिनेमा और समाज के कई विशिष्ट पहलुओं का चौंका देने वाला अध्ययन करती हुई एक अत्यन्त रोचक, रोमांचक और विचारोत्तेजक पुस्तक !
किसी उपन्यास की तरह दिल थाम कर पढ़ी जाने योग्य !
किसी उपन्यास की तरह दिल थाम कर पढ़ी जाने योग्य !
युगांक धीर
पंजाब में जन्मे, दिल्ली में पले-बढ़े और मुम्बई में कार्यरत रहे (सात वर्ष ‘धर्मयुग’ में भी) युगांक धीर पिछले कुछ वर्षों से लेखन और चिंतन-दर्शन से जुड़े हुए हैं। इस बीच ‘इजाडोरा की प्रेमकथा’, ‘रूसो की आत्मकथा’ और गॉन विद द विंड’ जैसी उनकी लगभग एक दर्जन अनूदित कृतियाँ काफी चर्चित हो चुकी हैं। इस वर्ष वाणी प्रकाशन से अपनी दो मौलिक कृतियों ‘अमिताभ की संघर्ष-कथा’ और ‘सार्त्र का सच’ (ज्यां-पाल सार्त्र की जीवन-कथा) के प्रकाशन से उन्होंने मौलिक लेखन के क्षेत्र में कदम रखा है।
दृढ़-संकल्प...पुरुषार्थ...और अमिताभ
अमिताभ बच्चन की सफलता और लोकप्रियता जितनी चमत्कारपूर्ण है, उनका व्यक्तित्व भी उतना ही चमत्कारपूर्ण है। उनकी अभूतपूर्व सफलता और लोकप्रियता के पीछे कई कारण हो सकते हैं, लेकिन इनमें से सबसे बड़ा कारण उनका दुर्लभ, विशिष्ट और चमत्कारपूर्ण व्यक्तित्व ही है।
इस पुस्तक में उनके व्यक्तित्व के इन्हीं अनछुए पहलुओं के समझने और इनके संदर्भ में उनकी सफलता और लोकप्रियता का आकलन करने का प्रयास किया गया है। और उनके व्यक्तित्व की उन सीमाओं को समझने का प्रयास भी, जिनके कारण अपने फिल्मी-कैरियर की शुरुआती दौर में उन्हें एक के बाद एक कई कष्ट-साध्य और अपमानजनक असफलताओं और अस्वीकृतियों का मुँह देखना पड़ा।
अमिताभ बच्चन एक ऊँचे और असाधारण स्तर के दृढ़-संकल्प और पुरुषार्थ का जीता-जागता उदाहरण हैं। एक ऐसा दृढ़-संकल्प और पुरुषार्थ जो ऊँचे-से ऊँचे आसमानों को छू लेने और अथाह से अथाह सुमद्रों को पार कर जाने की क्षमता रखता है। उनके इस दृढ़-संकल्प और पुरुषार्थ को न सिर्फ आज की युवा पीढ़ी के लिए बल्कि आने वाली कई पीढ़ियों के लिए एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
अमिताभा बच्चन के संघर्ष और सफलता की कथा जितनी आश्चर्यजनक है, उतनी ही रोमांचक भी; जितनी अविश्वसनीय है, उतनी ही सम्मोहक भी।
अमिताभ बच्चन का उदय-काल (1969-1973) मेरी किशोरावस्था से जुड़ा रहा है—तब जब मैं बहुत उत्साह, उमंगों और अपेक्षाओं के साथ हिंदी सिनेमा के साथ जुडा हुआ था। वह मध्यवर्गीय सपनों का एक असाधारण और अविस्मरणीय दौर था—एक ऐसा क्रांतिकारी और रोमांचक दौर जिसकी आज के इस उच्चवर्गीय और यथास्थितिवादी युग में, या यूँ कहें कि आज के इस ‘शिथिल और सुप्त’ युग में, कल्पना करना भी मुश्किल है।
मैंने ‘सात हिन्दुस्तानी’, ‘रेशमा और शेरा’, ‘आनंद’ और ‘प्यार की कहानी’ से लेकर ‘रास्ते का पत्थर’, ‘बांबे टु गोवा’ और ‘जंजीर’ के पोस्टरों को—और अधिकांश मामलों में दिल्ली और मुंबई के सिनेमाघरों में इन फिल्मों को भी-बहुत उत्साह के साथ देखा था।
अमिताभ बच्चन की सफलता का शुरुआती दौर (1973-1977) मेरे कॉलेज-जीवन से जुड़ा रहा। ‘अभिमान’, ‘नमक हराम’, ‘मजबूर’, ‘दीवार’, ‘शोले’ और ‘कभी-कभी’ जैसे फिल्में मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी के अपने सहपाठियों के साथ देखीं।
1980 के शुरू में, अपने कई अन्य युवा समकालीनों की तरह मुझे भी सलीम-जावेद की जोड़ी की तरह हिंदी फिल्मों की पटकथाएँ लिखने का शौक चर्राया, और मैं मुंबई पहुँचकर वहाँ के ‘फिल्मी-स्ट्रगल’ में शामिल हो गया।
इस अवधि में मुझे उर्दू के वरिष्ठ लेखक श्री सुरेंद्र प्रकाश के साथ फिल्मी-पटकथाएँ लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ—जो उन दिनों यश चोपड़ा के साथ जुड़े हुए थे। यश चोपड़ा तब कुछ अन्य लेखकों के साथ ‘सिलसिला’ बनाने में व्यस्त थे। श्री सुरेंद्र प्रकाश के सान्निध्य में मुझे न सिर्फ यश चोपड़ा बल्कि राज कपूर, महेश भट्ट और आर.के. नैयर जैसी कई अन्य बड़ी हस्तियों के साथ भी फिल्मी बैठकों में शामिल होने का अवसर मिला। यह वह दौर था जब अमिताभ बच्चन अपनी सफलता के शिखर पर थे, और फिल्म-उद्योग के साथ-साथ पूरे देश पर उन्हीं का नशा चढ़ा हुआ था। मुंबई के लगभग हर सिनेमाघर में अमिताभ बच्चन के बड़े-बड़े पोस्टर दिखाई देते थे—कहीं ‘खुद्दार’ तो कहीं ‘दो और दो पाँच’, कहीं ‘लावारिस’ तो कहीं ‘नसीब’, और कहीं ‘जंजीर’ या ‘दीवार’ का ‘रिपीट-रन’ !
1983 में मैंने ‘धर्मयुग’ की नौकरी के रूप में पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा, और अगले चार वर्षों तक, डॉ. धर्मवीर भारती के नेतृत्व में, ‘धर्मयुग’ की आमुख-कथाओं के संयोजन और संपादन से जुड़ा रहा। इस अवधि में मैंने श्रीमती पुष्पा भारती द्वारा लिखित ‘बातें राजीव की, यादें अमिताभ की’ और ‘अमिताभ आख्यान’ जैसी कई लोकप्रिय आमुख-कथाओं का संयोजन एवं संपादन किया।
1987 में मुझे ‘धर्मयुग’ के फिल्मी पृष्ठों का दायित्व सौंपा गया तो मैंने ‘जंजीर’ और अमिताभ बच्चन के संघर्ष पर भी इन पृष्ठों में बहुत कुछ लिखा। इस संबंध में मुझे प्रकाश मेहरा, गुलशन राय और जावेद अख्तर के साथ भी लंबी बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
अमिताभ बच्चन से मैं सिर्फ दो बार मिला हूँ। पहली बार यश चोपड़ा की ‘सिलसिला’ के सेट पर और दूसरी बार आर.के. स्टूडियो में शशि कपूर की ‘अजूबा’ के सेट पर। इन दोनों ही अवसरों पर मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं किसी बहुत बड़े स्टार से बात कर रहा हूँ। मुझे बिलकुल ऐसा लगा मानो मैं कॉलेज के जमाने के अपने किसी बिछुड़े हुए सहपाठी से बात कर रहा हूँ। अमिताभ बच्चन जितने विशिष्ट हैं, उतने ही संयत, शालीन और शिष्ट भी। या यूँ कहें कि उनकी यह ‘शिष्टता’ ही उनकी ‘विशिष्टता’ है। उनका सर हमेशा उनके कंधों पर रहता है और पाँव जमीन पर।
इस पुस्तक में मैंने अमिताभ बच्चन के संघर्ष और सफलता के दौर को समझने का और इसके साथ-साथ अपने मय की सामाजिक परिस्थितियों के साथ हिंदी सिनेमा के अटूट जुड़ाव और संबंधों को भी समझने का प्रयास किया है।
कुल मिलाकर यह प्रयास किया गया है कि यह पुस्तक जितनी रोचक हो, उतनी ही विचारोत्तेजक भी; जितनी रोमांचक हो, उतनी ही सारगर्भित भी।
इस पुस्तक के लेखन के लिए सूचनाएँ जुटाने में ‘माधुरी’, ‘फिल्मफेयर’ और ‘धर्मयुग’ के पुराने अंकों के साथ-साथ स्वर्गीय ख्वाजा अहमद अब्बास और आत्मकथा ‘आय एम नॉट एन आयलैंड’ और सौम्य वंद्योपाध्याय लिखित ‘अमिताभ बच्चन’ से भी कुछ मदद मिली है, जिसके लिए मैं अपना आभार प्रकट करता हूँ।
मुझे पाठकों की प्रतिक्रिया की बहुत उत्साह के साथ प्रतीक्षा रहेगी।
दृढ़-संकल्प...पुरुषार्थ...और अमिताभ
अमिताभ बच्चन की सफलता और लोकप्रियता जितनी चमत्कारपूर्ण है, उनका व्यक्तित्व भी उतना ही चमत्कारपूर्ण है। उनकी अभूतपूर्व सफलता और लोकप्रियता के पीछे कई कारण हो सकते हैं, लेकिन इनमें से सबसे बड़ा कारण उनका दुर्लभ, विशिष्ट और चमत्कारपूर्ण व्यक्तित्व ही है।
इस पुस्तक में उनके व्यक्तित्व के इन्हीं अनछुए पहलुओं के समझने और इनके संदर्भ में उनकी सफलता और लोकप्रियता का आकलन करने का प्रयास किया गया है। और उनके व्यक्तित्व की उन सीमाओं को समझने का प्रयास भी, जिनके कारण अपने फिल्मी-कैरियर की शुरुआती दौर में उन्हें एक के बाद एक कई कष्ट-साध्य और अपमानजनक असफलताओं और अस्वीकृतियों का मुँह देखना पड़ा।
अमिताभ बच्चन एक ऊँचे और असाधारण स्तर के दृढ़-संकल्प और पुरुषार्थ का जीता-जागता उदाहरण हैं। एक ऐसा दृढ़-संकल्प और पुरुषार्थ जो ऊँचे-से ऊँचे आसमानों को छू लेने और अथाह से अथाह सुमद्रों को पार कर जाने की क्षमता रखता है। उनके इस दृढ़-संकल्प और पुरुषार्थ को न सिर्फ आज की युवा पीढ़ी के लिए बल्कि आने वाली कई पीढ़ियों के लिए एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
अमिताभा बच्चन के संघर्ष और सफलता की कथा जितनी आश्चर्यजनक है, उतनी ही रोमांचक भी; जितनी अविश्वसनीय है, उतनी ही सम्मोहक भी।
अमिताभ बच्चन का उदय-काल (1969-1973) मेरी किशोरावस्था से जुड़ा रहा है—तब जब मैं बहुत उत्साह, उमंगों और अपेक्षाओं के साथ हिंदी सिनेमा के साथ जुडा हुआ था। वह मध्यवर्गीय सपनों का एक असाधारण और अविस्मरणीय दौर था—एक ऐसा क्रांतिकारी और रोमांचक दौर जिसकी आज के इस उच्चवर्गीय और यथास्थितिवादी युग में, या यूँ कहें कि आज के इस ‘शिथिल और सुप्त’ युग में, कल्पना करना भी मुश्किल है।
मैंने ‘सात हिन्दुस्तानी’, ‘रेशमा और शेरा’, ‘आनंद’ और ‘प्यार की कहानी’ से लेकर ‘रास्ते का पत्थर’, ‘बांबे टु गोवा’ और ‘जंजीर’ के पोस्टरों को—और अधिकांश मामलों में दिल्ली और मुंबई के सिनेमाघरों में इन फिल्मों को भी-बहुत उत्साह के साथ देखा था।
अमिताभ बच्चन की सफलता का शुरुआती दौर (1973-1977) मेरे कॉलेज-जीवन से जुड़ा रहा। ‘अभिमान’, ‘नमक हराम’, ‘मजबूर’, ‘दीवार’, ‘शोले’ और ‘कभी-कभी’ जैसे फिल्में मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी के अपने सहपाठियों के साथ देखीं।
1980 के शुरू में, अपने कई अन्य युवा समकालीनों की तरह मुझे भी सलीम-जावेद की जोड़ी की तरह हिंदी फिल्मों की पटकथाएँ लिखने का शौक चर्राया, और मैं मुंबई पहुँचकर वहाँ के ‘फिल्मी-स्ट्रगल’ में शामिल हो गया।
इस अवधि में मुझे उर्दू के वरिष्ठ लेखक श्री सुरेंद्र प्रकाश के साथ फिल्मी-पटकथाएँ लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ—जो उन दिनों यश चोपड़ा के साथ जुड़े हुए थे। यश चोपड़ा तब कुछ अन्य लेखकों के साथ ‘सिलसिला’ बनाने में व्यस्त थे। श्री सुरेंद्र प्रकाश के सान्निध्य में मुझे न सिर्फ यश चोपड़ा बल्कि राज कपूर, महेश भट्ट और आर.के. नैयर जैसी कई अन्य बड़ी हस्तियों के साथ भी फिल्मी बैठकों में शामिल होने का अवसर मिला। यह वह दौर था जब अमिताभ बच्चन अपनी सफलता के शिखर पर थे, और फिल्म-उद्योग के साथ-साथ पूरे देश पर उन्हीं का नशा चढ़ा हुआ था। मुंबई के लगभग हर सिनेमाघर में अमिताभ बच्चन के बड़े-बड़े पोस्टर दिखाई देते थे—कहीं ‘खुद्दार’ तो कहीं ‘दो और दो पाँच’, कहीं ‘लावारिस’ तो कहीं ‘नसीब’, और कहीं ‘जंजीर’ या ‘दीवार’ का ‘रिपीट-रन’ !
1983 में मैंने ‘धर्मयुग’ की नौकरी के रूप में पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा, और अगले चार वर्षों तक, डॉ. धर्मवीर भारती के नेतृत्व में, ‘धर्मयुग’ की आमुख-कथाओं के संयोजन और संपादन से जुड़ा रहा। इस अवधि में मैंने श्रीमती पुष्पा भारती द्वारा लिखित ‘बातें राजीव की, यादें अमिताभ की’ और ‘अमिताभ आख्यान’ जैसी कई लोकप्रिय आमुख-कथाओं का संयोजन एवं संपादन किया।
1987 में मुझे ‘धर्मयुग’ के फिल्मी पृष्ठों का दायित्व सौंपा गया तो मैंने ‘जंजीर’ और अमिताभ बच्चन के संघर्ष पर भी इन पृष्ठों में बहुत कुछ लिखा। इस संबंध में मुझे प्रकाश मेहरा, गुलशन राय और जावेद अख्तर के साथ भी लंबी बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
अमिताभ बच्चन से मैं सिर्फ दो बार मिला हूँ। पहली बार यश चोपड़ा की ‘सिलसिला’ के सेट पर और दूसरी बार आर.के. स्टूडियो में शशि कपूर की ‘अजूबा’ के सेट पर। इन दोनों ही अवसरों पर मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं किसी बहुत बड़े स्टार से बात कर रहा हूँ। मुझे बिलकुल ऐसा लगा मानो मैं कॉलेज के जमाने के अपने किसी बिछुड़े हुए सहपाठी से बात कर रहा हूँ। अमिताभ बच्चन जितने विशिष्ट हैं, उतने ही संयत, शालीन और शिष्ट भी। या यूँ कहें कि उनकी यह ‘शिष्टता’ ही उनकी ‘विशिष्टता’ है। उनका सर हमेशा उनके कंधों पर रहता है और पाँव जमीन पर।
इस पुस्तक में मैंने अमिताभ बच्चन के संघर्ष और सफलता के दौर को समझने का और इसके साथ-साथ अपने मय की सामाजिक परिस्थितियों के साथ हिंदी सिनेमा के अटूट जुड़ाव और संबंधों को भी समझने का प्रयास किया है।
कुल मिलाकर यह प्रयास किया गया है कि यह पुस्तक जितनी रोचक हो, उतनी ही विचारोत्तेजक भी; जितनी रोमांचक हो, उतनी ही सारगर्भित भी।
इस पुस्तक के लेखन के लिए सूचनाएँ जुटाने में ‘माधुरी’, ‘फिल्मफेयर’ और ‘धर्मयुग’ के पुराने अंकों के साथ-साथ स्वर्गीय ख्वाजा अहमद अब्बास और आत्मकथा ‘आय एम नॉट एन आयलैंड’ और सौम्य वंद्योपाध्याय लिखित ‘अमिताभ बच्चन’ से भी कुछ मदद मिली है, जिसके लिए मैं अपना आभार प्रकट करता हूँ।
मुझे पाठकों की प्रतिक्रिया की बहुत उत्साह के साथ प्रतीक्षा रहेगी।
युगांक धीर
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बंबई के मैरिन ड्राइव की एक रंगीन शाम। एक तरफ समुद्र के विशाल फैलाव को अपनी बाँहों में समेटे इसका लंबा, गोलाईदार किनारा...बीच में लंबी, खूबसूरत सड़क पर दौड़ती एक-से-एक महँगी देशी-विदेशी कारें....और दूसरी तरफ भव्य बहुमंजिली इमारतें। इन्हीं भव्य इमारतों की एक ऊँची मंजिल की बाल्कनी में खड़ा एक युवक बंबई की इस चकाचौंध को देख रहा था।
सूर्यास्त हो चला था। सड़क के खंभों की जगमगाती रोशनी ने ‘क्वींस नेकलेस’ कहे जाने वाले बंबई के इस रमणीय स्थल को और भी लुभावना बना दिया था। समुद्र किनारे की चौड़ी दीवार पर बैठे सैकड़ों रोमानी जोड़े महारानी के इस ‘हार’ में गुँथे सुगंधित फूलों की तरह प्रतीत हो रहे थे।
रंगों और रोशनियों, अँधेरों और उजालों का एक अत्यंत मनोरम और रोमांचकारी संगम। किसी खूबसूरत और रंगीन सपने के जमीन पर उतर आने की तरह।
वह युवक इस शहर में नया था—या यूँ कहें कि कुछ ही महीने पुराना था—और उसकी अपनी आँखों में भी ऐसा ही एक खूबसूरत और रंगीन सपना टँगा था।
अभिनय करने का सपना। हिंदी सिनेमा के भव्य पर्दे पर एक यादगार अभिनेता बनने का सपना
लेकिन पिछले कुछ महीने के जी-तोड़ संघर्ष के बाद छटपटाहट और निराशा के अलावा कुछ भी हाथ नहीं आया था। जो कुछ मिला था वह उसे संतुष्ट या व्यस्त रखने के लिए ना काफी था। वह अकसर खाली रहता था और हलचलों और हंगामों भरे इस शबर में अपने –आपको बेकार और नाकारा महसूस करता था।
क्या सपने सिर्फ दूर से देखने की चीज थे ? समुद्र के किनारे खड़ी मौरिन ड्राइव की इस रंगीन साँझ की तरह क्या उन्हें जमीन पर नहीं उतारा जा सकता था ? साकार नहीं किया जा सकता था ?
कोई नहीं था जो उसके इन प्रश्नों का उत्तर दे सके। उसकी इस छटपटाहट, इस पीड़ा को बाँट सके। हर रोज यही बालकनी होती थी और उसका अकेलापन। और सैकड़ों-हजारों रंग-बिरंगे सपनों से सजी मैरिन ड्राइव की यही झिलमिलाती शाम। जिसे उसके दिल में मचलते सपनों की जैसे कोई परवाह ही नहीं थी, जैसे उसे उनसे कोई सरोकार ही नहीं था। सड़क पर तेजी से दौड़ती चमचमाती कारों और समुद्र किनारे की दीवार पर एक-दूसरे की आँखों में खोए रोमानी जोड़ों की तरह !
यह शहर कितना गतिशील था—और वह खुद कितना गतिहीन
सूर्यास्त हो चला था। सड़क के खंभों की जगमगाती रोशनी ने ‘क्वींस नेकलेस’ कहे जाने वाले बंबई के इस रमणीय स्थल को और भी लुभावना बना दिया था। समुद्र किनारे की चौड़ी दीवार पर बैठे सैकड़ों रोमानी जोड़े महारानी के इस ‘हार’ में गुँथे सुगंधित फूलों की तरह प्रतीत हो रहे थे।
रंगों और रोशनियों, अँधेरों और उजालों का एक अत्यंत मनोरम और रोमांचकारी संगम। किसी खूबसूरत और रंगीन सपने के जमीन पर उतर आने की तरह।
वह युवक इस शहर में नया था—या यूँ कहें कि कुछ ही महीने पुराना था—और उसकी अपनी आँखों में भी ऐसा ही एक खूबसूरत और रंगीन सपना टँगा था।
अभिनय करने का सपना। हिंदी सिनेमा के भव्य पर्दे पर एक यादगार अभिनेता बनने का सपना
लेकिन पिछले कुछ महीने के जी-तोड़ संघर्ष के बाद छटपटाहट और निराशा के अलावा कुछ भी हाथ नहीं आया था। जो कुछ मिला था वह उसे संतुष्ट या व्यस्त रखने के लिए ना काफी था। वह अकसर खाली रहता था और हलचलों और हंगामों भरे इस शबर में अपने –आपको बेकार और नाकारा महसूस करता था।
क्या सपने सिर्फ दूर से देखने की चीज थे ? समुद्र के किनारे खड़ी मौरिन ड्राइव की इस रंगीन साँझ की तरह क्या उन्हें जमीन पर नहीं उतारा जा सकता था ? साकार नहीं किया जा सकता था ?
कोई नहीं था जो उसके इन प्रश्नों का उत्तर दे सके। उसकी इस छटपटाहट, इस पीड़ा को बाँट सके। हर रोज यही बालकनी होती थी और उसका अकेलापन। और सैकड़ों-हजारों रंग-बिरंगे सपनों से सजी मैरिन ड्राइव की यही झिलमिलाती शाम। जिसे उसके दिल में मचलते सपनों की जैसे कोई परवाह ही नहीं थी, जैसे उसे उनसे कोई सरोकार ही नहीं था। सड़क पर तेजी से दौड़ती चमचमाती कारों और समुद्र किनारे की दीवार पर एक-दूसरे की आँखों में खोए रोमानी जोड़ों की तरह !
यह शहर कितना गतिशील था—और वह खुद कितना गतिहीन
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