धर्म एवं दर्शन >> सत्संग के मोती सत्संग के मोतीस्वामी अवधेशानन्द गिरि
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मोती अमूल्य है क्योंकि उसके निर्माण में विशेष घटित होता है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मोती अमूल्य है क्योंकि उसके निर्माण में विशेष घटित होता है। कहते हैं कि
जब स्वाति नक्षत्र की बूंद सीप के खुले मुख में पड़ जाती है तो वह मोती बन
जाती है। इस बूंद से ही सीप का मुख बंद हो जाता है अर्थात सीप की तृप्ति
हो जाती है, वह कृतकृत्य हो जाती है।
सत्संग में भी कुछ ऐसा ही अलौकिक घटित होता है। आदि शंकराचार्य ने ‘भज गोविंदम्’ में इसकी सुंदर प्रक्रिया को इन शब्दों में व्यक्त किया है-
सत्संग में भी कुछ ऐसा ही अलौकिक घटित होता है। आदि शंकराचार्य ने ‘भज गोविंदम्’ में इसकी सुंदर प्रक्रिया को इन शब्दों में व्यक्त किया है-
सत्संगत्वे नि:संगत्वं, नि:संगत्वे: निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चल चित्तं, निश्चल चित्ते जीवन्मुक्ति:।।
निर्मोहत्वे निश्चल चित्तं, निश्चल चित्ते जीवन्मुक्ति:।।
सत्संग से असंगता, असंगता से मोह का नाश, निर्मोह की स्थिति से चित्त की
निश्चलता अर्थात स्थिरता और चित्त के स्थिर होने पर जीवन्मुक्ति की
प्राप्ति होती है। जीवनमुक्ति ही अध्यात्म की सर्वोच्च स्थिति है।
इस पुस्तक का प्रत्येक आलेख आपको इस प्रक्रिया से गुजरने के लिए विवश करेगा-ऐसा हमारा विश्वास है।
इस पुस्तक का प्रत्येक आलेख आपको इस प्रक्रिया से गुजरने के लिए विवश करेगा-ऐसा हमारा विश्वास है।
1
जीवन प्रवाह है
मानव जीवन तीन धरातलों पर जिया जा सकता है-पाशविक, मानवीय एवं दैवीय।
पाशविक धरातल पर तो हम सभी जीते हैं, पर हममें से कुछ ऐसे भी हैं जो
मानवीय धरातल पर जीने का प्रयास करते हैं। अर्थात् जीवन में कुछ कर गुजरना
चाहते हैं। ऐसे व्यक्ति किसी न किसी क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ने का
प्रयास करते हैं। दैवीय धरातल तक अपने को उठाने वाले गिने-चुने ही होते
हैं। वे सद्गुणों के धनी होते हैं, इंसानियत की मिसाल बनते हैं और सबके
काम आने का एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं। सही अर्थ में मानव वही है जो
पाशविक से मानवीय से दैवीय धरातल की ओर अग्रसर होने का प्रयास करता है।
जीवन प्रवाह का नाम है, ठहराव का नहीं। जीवन के प्रवाह को बेहतरी की दिशा में ले जाने में ही हमारी सफलता है। सिर्फ भौतिक बेहतरी ही नहीं बल्कि आत्मिक भी। बेहतरी की डगर घाटी से चोटी की ओर ले जाती है। इसके तीन सोपान हैं- आत्म पहचान, आत्म अनुष्ठान और आत्मोत्थान। आत्म पहचान का अर्थ है अपने स्वभावगत गुण का ध्यान। हम बहुधा दूसरों को पहचानने में लगे रहते हैं अपने को नहीं। पर ये दुनियाँ उसको पहचानती है जो स्वयं को पहचान पाता है। एक शायर ने सही कहा है-‘‘जमाने में उसने बड़ी बात कर ली, अपने से जिसने मुलाकात कर ली।’’ हमारे शास्त्रों में भी कहा गया है-यस्य नास्ति आत्म प्रज्ञा शास्त्र: तस्य करोति किम्, लोचनाभ्याम् विहीनस्य दर्पण: किम प्रयोजनम्।
अर्थात् जिसे आत्मज्ञान नहीं होता, उसका शास्त्रों का ज्ञान बेकार है। जैसे कि नेत्रहीन के लिए दर्पण बेकार है। आज तो विज्ञान भी अपने ऐटीट्यूड को पहचानने पर जोर दे रहा है।
दूसरी सीढ़ी है-आत्म अनुष्ठान। इसका अर्थ है अपने स्वभावगत गुण को निखारने के लिए प्रयास करना। इसके लिए अभ्यास जरूरी है। यह मानव स्वभाव है कि हम आरामतलब जिंदगी जीना चाहते हैं और मेहनत से कतराते हैं। पर अपने गुणों को तराशने के लिए परिश्रम आवश्यक है। मेहनत का कोई विकल्प नहीं है अत: अपने गुणों में निपुणता लाने के लिए कर्मनिष्ठा जरूरी है।
तीसरी और अंतिम सीढ़ी है-आत्मोत्थान। यानी अपने को ऊंचे से ऊँचा उठाना। इसके लिए जीवन में ऊंचा लक्ष्य साधने की आवश्यकता है। यह वही कर सकता है जो अनुभव से जीने की कोशिश करता है। हम सामान्यत: आदत से जीते हैं, अनुभव से नहीं। जो अनुभव से सीखकर जिंदगी को संवारता है, वह बेहतरी के मार्ग पर चल पड़ता है। इंसानियत के चार मुख्य गुण हैं-सात्त्विक सोच, सुभाषिता, सदाचार और परोपकार। इन गुणों से मुक्त व्यक्ति को ही हम देवतुल्य कहते हैं। इस मार्ग पर आगे बढ़ें और अपना जीवन सार्थक बनाएं।
जीवन प्रवाह का नाम है, ठहराव का नहीं। जीवन के प्रवाह को बेहतरी की दिशा में ले जाने में ही हमारी सफलता है। सिर्फ भौतिक बेहतरी ही नहीं बल्कि आत्मिक भी। बेहतरी की डगर घाटी से चोटी की ओर ले जाती है। इसके तीन सोपान हैं- आत्म पहचान, आत्म अनुष्ठान और आत्मोत्थान। आत्म पहचान का अर्थ है अपने स्वभावगत गुण का ध्यान। हम बहुधा दूसरों को पहचानने में लगे रहते हैं अपने को नहीं। पर ये दुनियाँ उसको पहचानती है जो स्वयं को पहचान पाता है। एक शायर ने सही कहा है-‘‘जमाने में उसने बड़ी बात कर ली, अपने से जिसने मुलाकात कर ली।’’ हमारे शास्त्रों में भी कहा गया है-यस्य नास्ति आत्म प्रज्ञा शास्त्र: तस्य करोति किम्, लोचनाभ्याम् विहीनस्य दर्पण: किम प्रयोजनम्।
अर्थात् जिसे आत्मज्ञान नहीं होता, उसका शास्त्रों का ज्ञान बेकार है। जैसे कि नेत्रहीन के लिए दर्पण बेकार है। आज तो विज्ञान भी अपने ऐटीट्यूड को पहचानने पर जोर दे रहा है।
दूसरी सीढ़ी है-आत्म अनुष्ठान। इसका अर्थ है अपने स्वभावगत गुण को निखारने के लिए प्रयास करना। इसके लिए अभ्यास जरूरी है। यह मानव स्वभाव है कि हम आरामतलब जिंदगी जीना चाहते हैं और मेहनत से कतराते हैं। पर अपने गुणों को तराशने के लिए परिश्रम आवश्यक है। मेहनत का कोई विकल्प नहीं है अत: अपने गुणों में निपुणता लाने के लिए कर्मनिष्ठा जरूरी है।
तीसरी और अंतिम सीढ़ी है-आत्मोत्थान। यानी अपने को ऊंचे से ऊँचा उठाना। इसके लिए जीवन में ऊंचा लक्ष्य साधने की आवश्यकता है। यह वही कर सकता है जो अनुभव से जीने की कोशिश करता है। हम सामान्यत: आदत से जीते हैं, अनुभव से नहीं। जो अनुभव से सीखकर जिंदगी को संवारता है, वह बेहतरी के मार्ग पर चल पड़ता है। इंसानियत के चार मुख्य गुण हैं-सात्त्विक सोच, सुभाषिता, सदाचार और परोपकार। इन गुणों से मुक्त व्यक्ति को ही हम देवतुल्य कहते हैं। इस मार्ग पर आगे बढ़ें और अपना जीवन सार्थक बनाएं।
अवधेशानंद गिरी
2
प्रगति पथ है अध्यात्म
सीढ़ियां चढ़नी हों तो एक के बाद एक कदम बढ़ाना पड़ता है और एक-एक सीढ़ी
पार करते हुए आगे बढ़ना होता है। कोई यदि छलांग लगाकर शीर्ष पर पहुंचना
चाहे, तो दुर्घटना घटे बिना नहीं रह सकती। यही बात आत्मोत्थान के संदर्भ
में भी सही है। मनुष्य जिस परिवार में, समाज में, राष्ट्र और युग में जीता
है, वे उसके लिए आगे बढ़ने और ऊंचा उठने के सोपान के समान हैं। इनसे होकर
ही आगे बढ़ना होता है। प्रगतिक्रम में इनकी उपेक्षा करते हुए कोई यह सोचे
की वह छलांग लगाकर चरम लक्ष्य तक पहुंच जाएगा, तो इसे उसकी प्रवंचना और
अध्यात्म विज्ञान की अवमानना ही समझना चाहिए।
बालक जब छोटा है, तो पहले उसे अक्षर ज्ञान कराना पड़ता है, तभी वह उस स्थिति में पहुंच जाता है कि पुस्तकें पढ़ सके। फिर जैसे-जैसे उसकी योग्यता बढ़ती जाती है, एक-एक कक्षा ऊपर उठते हुए वह स्कूल से कॉलेज में पहुंचता है और स्नातक एवं स्नातकोत्तर की डिग्रियां प्राप्त करता है। यह प्रगति का स्वाभाविक क्रम है। भौतिक सफलता से लेकर आत्मोन्नति तक में इसी सिद्धांत का अनुसरण करना पड़ता है, तभी वह पद प्राप्त होता है, जिस पर गर्व अनुभव किया जा सके।
हाथ पर सरसों जमाने जैसी जल्दबाजी तो बाजीगिरी में ही देखी जाती है, इसलिए तुरत-फुरत का प्रतिफल वहाँ क्षण मात्र में ही समाप्त हो जाता है। अध्यात्म न तो बाजीगरी है और न ऐसा कुछ, जिसमें सुनिश्चित कर्त्तव्यों की उपेक्षा करते हुए कुछ कहने लायक उपलब्धि की आशा की जा सके। इसमें तो परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के हित से जुड़े निर्धारित मार्ग से होकर गुजरना पड़ता है और स्वयं उन कसौटियों पर खरा सिद्ध करके दिखाना पड़ता है, जिन्हें साधना विज्ञान में आवश्यक अनुबंध के रूप में स्वीकारा गया है। संसारी व्यक्तियों के लिए यह दुनिया ही साधना-भूमि है। इससे बढ़कर अनुकूल स्थान साधना के लिए कोई दूसरा नहीं हो सकता।
बालक जब छोटा है, तो पहले उसे अक्षर ज्ञान कराना पड़ता है, तभी वह उस स्थिति में पहुंच जाता है कि पुस्तकें पढ़ सके। फिर जैसे-जैसे उसकी योग्यता बढ़ती जाती है, एक-एक कक्षा ऊपर उठते हुए वह स्कूल से कॉलेज में पहुंचता है और स्नातक एवं स्नातकोत्तर की डिग्रियां प्राप्त करता है। यह प्रगति का स्वाभाविक क्रम है। भौतिक सफलता से लेकर आत्मोन्नति तक में इसी सिद्धांत का अनुसरण करना पड़ता है, तभी वह पद प्राप्त होता है, जिस पर गर्व अनुभव किया जा सके।
हाथ पर सरसों जमाने जैसी जल्दबाजी तो बाजीगिरी में ही देखी जाती है, इसलिए तुरत-फुरत का प्रतिफल वहाँ क्षण मात्र में ही समाप्त हो जाता है। अध्यात्म न तो बाजीगरी है और न ऐसा कुछ, जिसमें सुनिश्चित कर्त्तव्यों की उपेक्षा करते हुए कुछ कहने लायक उपलब्धि की आशा की जा सके। इसमें तो परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के हित से जुड़े निर्धारित मार्ग से होकर गुजरना पड़ता है और स्वयं उन कसौटियों पर खरा सिद्ध करके दिखाना पड़ता है, जिन्हें साधना विज्ञान में आवश्यक अनुबंध के रूप में स्वीकारा गया है। संसारी व्यक्तियों के लिए यह दुनिया ही साधना-भूमि है। इससे बढ़कर अनुकूल स्थान साधना के लिए कोई दूसरा नहीं हो सकता।
स्वामी विवेकानंद
3
देह की भाषा
बॉडी लैंग्वेज अर्थात देह-भाषा आंतरिक भाव-विचारों की, देह के हाव-भाव एवं
भाव-भंगिमाओं के रूप में अभिव्यक्ति है। गहरी भावना एवं सजल-संवेदना को
प्रकट करने के लिए प्राय: शब्द एवं वाणी मूक व अक्षम प्रतीत होते हैं।
नवजात शिशु के साथ मातृत्व की वाणी अशाब्दिक होती है। शिशु के हाव-भाव से
ही उसका परिचय होता है। प्रेम भाषा की पुलकन शब्दों से नहीं, अशाब्दिक
संप्रेषण से ही अभिव्यक्ति होती है। जिसे कहने से शब्द असमर्थ होते हैं,
उसे देह भाषा पल भर में समझा देती है। महिलाएं देह भाषा के क्षेत्र में
दक्ष एवं प्रवीण होती हैं। यह अंतर्बोध उन महिलाओं में उन्हें बच्चों के
साथ संवाद स्थापित करने हेतु अशाब्दिक माध्यम पर ही पूर्णरूपेण निर्भर
रहना पड़ता है।
मूलभूत संप्रेषण विश्वभर में अधिकतर एक-सा होता है। खुशी एवं आनंद की अभिव्यक्ति मुस्कुराहट के रूप में होती है। दुख व क्रोध की अवस्था में भृकुटियां चढ़ जाती हैं, नाक फूल जाती है। सिर को ऊपर से नीचे की ओर हिलाने का तात्पर्य ‘हां’ एवं सकारात्मक होता है। ठीक इसी प्रकार प्रत्येक संस्कृति में सिर को एक ओर से दूसरी ओर हिलाने अर्थ ‘नहीं’ एवं नकारात्मक होता है। ‘मुद्राएं’ वाक्यों में भी प्रयोग होती हैं और व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति एवं दृष्टिकोण को भी प्रकट करती हैं। देह भाषा भावनाओं की अभिव्यक्ति में सहायक है। अत: इसकी महत्ता एवं विशेषता भी अधिक होती है। गहरी सांत्वना एवं संवेदना व्यक्त करने के लिए शब्द छोटे पड़ जाते हैं। ऐसे में एक अपनत्व भरी मुस्कुराहट एवं प्यार भरी छुअन से वह सब कुछ कह दिया जाता है जिसे कह पाने में शब्द नाकाफी होते हैं। एक संकेत या भाव हजार शब्दों से भी अधिक ताकतवर एवं भारी होता है।
मूलभूत संप्रेषण विश्वभर में अधिकतर एक-सा होता है। खुशी एवं आनंद की अभिव्यक्ति मुस्कुराहट के रूप में होती है। दुख व क्रोध की अवस्था में भृकुटियां चढ़ जाती हैं, नाक फूल जाती है। सिर को ऊपर से नीचे की ओर हिलाने का तात्पर्य ‘हां’ एवं सकारात्मक होता है। ठीक इसी प्रकार प्रत्येक संस्कृति में सिर को एक ओर से दूसरी ओर हिलाने अर्थ ‘नहीं’ एवं नकारात्मक होता है। ‘मुद्राएं’ वाक्यों में भी प्रयोग होती हैं और व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति एवं दृष्टिकोण को भी प्रकट करती हैं। देह भाषा भावनाओं की अभिव्यक्ति में सहायक है। अत: इसकी महत्ता एवं विशेषता भी अधिक होती है। गहरी सांत्वना एवं संवेदना व्यक्त करने के लिए शब्द छोटे पड़ जाते हैं। ऐसे में एक अपनत्व भरी मुस्कुराहट एवं प्यार भरी छुअन से वह सब कुछ कह दिया जाता है जिसे कह पाने में शब्द नाकाफी होते हैं। एक संकेत या भाव हजार शब्दों से भी अधिक ताकतवर एवं भारी होता है।
श्रीराम शर्मा ‘आचार्य’
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लोगों की राय
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