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हास्य-व्यंग्य >> यथासमय

यथासमय

शरद जोशी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :271
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6929
आईएसबीएन :9788126315352

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यथासमय शरद जी के अप्रकाशित लेकिन महत्त्वपूर्ण व्यंग्यों का संग्रह है...

Yatha Samay - A Hindi Book - by Sharad Joshi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी के प्रमुख व्यंग्यकार शरद जोशी के साहित्यिक अवदान से भला कौन परिचित नहीं है। व्यवस्था तन्त्र में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा आम आदमी को ‘बोनसाई’ बनानेवाली सत्ता-संस्कृति के विरुद्ध वे लगभग जेहादी स्तर पर आजीवन संधर्षरत रहे।
शरद जोशी अपने सहज और बोलचाल के गद्य में ऐसी व्यंजना भरते हैं जो पाठक के मन मस्तिष्क को केवल झकझोरती नहीं, एक नयी सोच भी पैदा करती हैं। वाकई उनके व्यंग्य के तीर’ होते हैं, वे चाहे फिर ‘बैठे ठाले’ लिखें या ‘किसी बहाने’ कुछ लिख दें। इनमें सामाजिक विसंगतियों पर एक रचनाकार की तीखी निगाह है, और इसीलिए उनकी लेखनी समाज मे यंत्र तंत्र सर्वत्र फैले भ्रष्टाचार, शोषण, विकृति और अन्याय पर जमकर प्रहार करती है और सोचने के लिए बाध्य करती है।
भारतीय ज्ञानपीठ शरद जोशी के कई व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित कर चुका है, जिनकी पाठकों द्वारा भूरि भूरि प्रशंसा की गयी है।
‘यथासमय’ शरद जी के अप्रकाशित लेकिन महत्त्वपूर्ण व्यंग्यों का संग्रह है, जिसे बड़े ही जतन से सँजोया गया है। पूर्व प्रकाशित संग्रहों से कुछ भिन्न और नये विषयों के साथ नये शिल्प और तेवर की छवि आपको इसमें मिलेगी।

आज से कुछ साल पहले

समझ छिछली होती जा रही है। गहराई गायब है और उसकी आवश्यकता भी अनुभव नहीं की जातीं। संगीत, में धर्म में, साहित्य या इतिहास में छिछलापन छा गया है जो गहरे हैं उनसे रिश्ता टूटता जा रहा है और वे  अकेले जीने के लिए छोड़ दिये जाते हैं। कुछ साल पहले खबर थी कि विशेषज्ञता का जमाना आएगा। तब विस्तार और गहराई दोनों के प्रति हम आश्वस्त थे। आज उथलापन सर्वोपरि हैं। कृति से, रचना से विचार से व्यक्ति का जुड़ा होना, उसकी निजता अब मायने नहीं रखती। यदि यह उपयोगिता तलाशी जाने लगे तो किसी कम्युनिस्ट का पोप के प्रति आदर जताना या किसी पण्डित का मौलवी से बात न करना समान है, क्योंकि सब-कुछ जरूरत के तराजू पर तोल कर हो रहा है। सिद्धान्त थे तो दृढ़ता थी। मूल्य होते हैं तो उस पर डटे रहने की जिद होती है। अब बयान बदलने का संकोच समाप्त हो गया, धुन चुराने में शर्म नहीं आती, कविता जगह घेर कर प्रसन्न है, इतिहास मात्र एक सन्दर्भ है, अब सफलता सीढ़ियों द्वारा ही केवल नापी जाती है। बिक्री हो जाने की क्षमता श्रेष्ठता का अन्तिम प्रमाण है। केवल उपभोक्ता बाजार में ही गुणवत्ता अपने होने की सूचना दे पाती है। कुछ साल पहले चक स्थितियाँ इतनी गिरी हुई नहीं थी।

भीड़ आपसे अपरिचित है और आप भीड़ से। अन्य शक्तियों की तरह भीड़ भी अब डराती हैं। चूँकि व्यक्ति के उन्नयन की सम्पूर्ण प्रक्रिया भ्रष्ट हैं, अतः प्रवर्तक शक्ति के रूप में आप भीड़ को देखने में संकोच करते हैं। भीड़ या समाज का समूह अब पावन तालाब या पवित्र गंगा नहीं रहे। इसकी कोई गारण्टी नहीं कि वह आपको सही ढाँचे में ढालकर, निखारकर ले जाएगी। जन की विराट उपस्थिति अब गाँधी या लेनिन को ताकत नहीं देती, न उभारकर लाती है। पहले अकेला आदमी खरीदा जा सकता था, अब भीड़ खरीदी जा सकती है। विदेश का पैसा आपके देश का एक पूरा प्रान्त खरीद सकता है। कुछ साल पहले बुद्धिजीवी यह सोच मन को समझा लेते थे कि जो भी गलत गड़बड़ या अशुभ हैं वह जनशक्ति द्वारा सुलझाया या सँवार लिया जाएगा, यदि ऐसा नहीं होता तो समझने में गड़बड़ है। क्या वह आज भी उतने ही जोर से यह बात कह सकता है ? विचारों के, मान्यताओं के आग्रह जन-विरोधी न हों, पिर भी जन की कोई कसौटी उन्हें परखने के लिए उपलब्ध नहीं है। आदमी को उसके इतिहास से, मानव संस्कृति की धारा से काटकर शुद्ध वर्तमान में बाँधकर खड़ा कर देने की जो साजिश बीस वर्ष पूर्व चालू हुई थी, अब वह अपना रंग दिखा रही है। आज आप राइफल थमाकर आदमी की आत्मा अपने पास गिरवी रख सकते हैं।

इन वर्षों में मरने की खबर कोई खबर नहीं। क्या हो गया कि मनुष्य की संवेदनशीलता इन वर्षों में इतनी कम हो गयी है और जो इसका ढिंढोरा पीटते हैं कि उनकी आत्मा को कष्ट पहुँचा है वे अपनी राजनीति के लिए एक अनिवार्य पाख्णड कर रहे हैं, यह सभी जानते हैं। इन सालों में हमने रोज सुबह की शुरुआत मरने की खबर पढ़कर की और देर रात एक मनोरंजन कार्यक्रम देख सो गये। साँस लेने और साँस छोड़ने की तरह तनाव में जीना और तनाव में मुक्ति ही जीवन की माज्ञ गतिविधि रह गयी है। तीखें, गहरे प्राणलेवा नशे से लेकर लाइब्रेरी से वीडियों कैसेट ला फिल्में देखने तक की क्रियाएँ समस्याओं से पलायन हैं। मनुष्य का यह रूप, मौत के समाचारों की उपेक्षा करेगा ही।

बृहत्तर समाज की समस्याओं के प्रति चिन्तित होना उच्च वर्ग ने तब से छोड़ दिया, जब से देश में नवधनाढ़यों की संस्कृति उभरकर आयी। अब मध्यमवर्ग ने भी यह रुख अपना लिया है। यह जानते हुए भी कि सरकार सारे मामले सुलझा नहीं सकती, लोग हर समस्या सरकार की ओर धकेलते हैं और सरकार जवाब में लोगों की तरह धकेल देती हैं। एकदम अकेले हो जाने और निजी स्वार्थ में सबसे कट जाने के बाद मनुष्य अपने विकास के चोर रास्ते खोज रहा है। अब बाप उँगली पकड़कर अपने बेटे को चौड़े रास्ते पर छोड़ने के बजाय गालियों से आगे बढ़ जाने की सलाह देता है। नवविवाहित दहेज के लिए वधुएँ जलाता है, गाँव की आर्थिक हालत ठीक करने के लिए महिला को सती किया जाता है और दूसरे को नौकरी मिल जाएगी, इस आशंका से उत्पन्न पीड़ा आत्मदाह के लिए प्रवृत्त कर सकती है।
 
तो कुल मिलाकर आज के आदमी का क्या रूप बनता है ! बस साल-भर पहले कश्मीर से जुड़े रहना एक राष्ट्रीय भावना थी। आज ऐसे लोग मिल जाएँगे जो यह पूछते नजर आएँगे कि हम कश्मीर छोड़ क्यों नहीं देंते ? मतलब अपना कारखाना फायदा देता रहे, हमारी फर्श संगमरमर की हो, हमारी गाड़ी फुलटैंक रहे, हमारा कन्साइन्मेंण्ट मंजिल तक पहुँच जाए, मेरे बेटे की दुकान चल जाए इसके आगे आदमी ने सोचना बन्द कर दिया है आज से बीस साल पहले छात्रों के, ट्रेड यूनियनों के आन्दोलनों का राजनीति विहीन करने की जो साजिश तत्कालीन सत्ताधारियों ने आरम्भ की थी और उच्च वर्ग ने राष्ट्रीय विकास का बहाना लेकर जिसकी हाँ-में हाँ मिलाई थी, उसके नतीजे सामने आ गये हैं। कोई दृष्टि नहीं रही। नैतिकावादियों को निरन्तर परेशानियों का सामना करना पड़ता है और खुलेआम स्वार्थ का खेल खेलनेवाले नेताओं की जमीन मजबूत है। आज प्रश्न यह रह गया है कि क्या विचार को, ईमानदारी को जनाधार प्राप्त होगा ? ऐसा प्रश्न इस देश के इतिहास में पहले कभी नहीं उठा।

अँग्रेजी में कहते हैं डोण्ट बॉदर मी यानी मुझे तंग मत करो ! जवाब में मैं तुम्हें बॉदर नहीं करूँगा। मैं बीमार हूँ, तो पड़ोसी मुझे देखने कृपया न आये और वह बीमार है तो मैं क्यों जाँऊ। मैं गड्ढ़े में पड़ा हूँ यह मेरा मामला है और तुझे लोग ग़ड्ढे में ढकेल रहे है, इसकी चिन्ता तू कर ! मानों पीड़ा न हुई, आदमी की निजी बियर की बोतल हो गयी जिसे राष्ट्र के इस अँधेरे बार में, निजी एकान्त खोज पीते समय वह डिस्टर्ब होना पसन्द नहीं करता। यदि वह भीड़ में बम फेंक कर हत्या भी करता है तो वह चाहता है कि इसे उसका निजी मामला माना जाए। उसका आग्रह है कि उसे पर्याप्त आदर मिले-हत्यारे के रूप में आदर मिले। अपराधियों को यह सोच आश्चर्य होता है कि उनके द्वारा किये सामूहिक बलात्कार के कृत्य पर इतनी चर्चा क्यों की जा रही है !

आज से कुछ साल पहले अपराधी सिकुड़कर बैठता था। अब वह चौड़ा होकर बैठता है। उसका किसी से कोई ताल्लुक या सरोकार नहीं। जैसे अपराध एक निजी जीवन-दर्शन हो। जब हम देखते हैं कि दस अपराध करने के बाद भी नेता टी. वी. के सामने न केवल मुस्कराता है बल्कि देश के मामलों में सीना चौड़ा कर बयान देता है, तो हम समझ नहीं पाते कि बेशर्मी का दायरा कितना है ! इतने वर्षों तक हर क्षेत्र में ऐसी सीमाएँ फैलाने के अलावा हमने किया क्या है।

दर्शन ने दर्शन को मारा


दर्शन पर कोई पुस्तक मैने इसलिए नहीं लिखी कि मैं जानता हूँ कि मैं लिखूँगा तो कोई नहीं पढ़ेगा। उससे अधिक खेदजनक स्थिति यह है कि जो पढे़गा उसे समझ नहीं आएगी। और परम दयनीय स्थिति यह है कि यदि मैंने ऐसी कोई पुस्तक लिखने की ठान ही ली तो मैं नहीं जानता कि मैं उसमें क्या लिखूँगा। मेरे लिए दर्शन एक दुर्लभ-सी चीज है। शायद इसीलिए कहा गया है कि दर्शन दुर्लभ भये तिहारे।

इतना असमझनीय कठिन विषय होने के बाद भी भारत देश में दर्शन शब्द का जिस तरह उलट-पलट कर मनचाहा उपयोग होता है, वह काबिले दर्शन है। बात यहीं तक नहीं कि लोग अपने देखने लायक बेटे का नाम दर्शनसिंह रख देते हैं और कालन्तर में उस बालक को हाकी खिलाड़ी इसी कारण बनना अर्थात् जिसकी खिड़की से सड़क के आसपास का भारत नजर आता है, लोग उस बस का नामकरण पूरे गर्व से भारत-दर्शन कर देते है। उस समय कोई यह विचार नहीं करेगा कि दर्शन का विचार और ज्ञान से कोई ताल्लुक है। आप यह कर सकते हैं कि भारत से दर्शन इसलिए गायब हो गया, क्योंकि लोग दर्शनों में लग गये। यदि महापुरुष के दर्शनों से तृप्ति होती हो, आत्मा को सुख मिल रहा हो तो यह जानने की आवश्यकता क्या है कि उस महापुरुष का दर्शन क्या है। बुद्ध की सुन्दर मूर्तियाँ बनीं, वे दर्शन के पात्र हो गये और लोग भूल गये कि बुद्ध का दर्शन क्या था। गाँधी की मूर्तियाँ लग गयीं और गाँधी-दर्शन गायब हो गया। मतलब यह कि इस देश पर तो दर्शन ने दर्शन को मारा।

जो दार्शनिक होता है वह दर्शनीय प्रायः नहीं होता और जो दर्शनीय होते हैं, लोग उनके दर्शन की परवाह नहीं करते। अर्थात् उनके विचार जानने को उत्सुक नहीं होते। देखने लायक चीज सिर्फ देख ली जाती है।
बम्बई में जिस इमारत से समन्दर दिखाई देता है उसका नामकरण सागर दर्शन’ होते देर नहीं लगती। इमारतों को यह नाम मातृछाया साईंकृपा गुरुकृपा आदि की तरह सामान्य है। जहाँ से जुहू दिखता है उसका नाम जुहू दर्शन। हवाई अड्डे के पास बनी एक सोसायटी का नाम है जम्बों दर्शन। शायद इसलिए कि खिड़की से जम्बोजेट जाता –उतरता दिखाई देता हो। न भी देखें तो कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि इन तथाकथित सागर दर्शनों से सागर कितना दिखाई देता है, यह भी बहस का विषय है। मकानों के नामकरण के इस नियम के अन्तर्गत कोई ताज्जुब नहीं कल से अभिताभ बच्चन के बँगले के पास बने किसी फ्लैट का नाम हो अभिताभ दर्शन। फिर चाहे वह नजर आये भी या नहीं।

इसी दर्शनक्रम में एक इमारत के नामकरण ने मुझे सर्वाधिक आकर्षित किया। नाम था ‘मार्गदर्शन’। विशेषतः यह कि यह मकान एक चौड़ी सड़क के किनारे बना था और इसकी खिडकी से एक चहल-पहल भरी सड़क दिखाई देती है। जिसकी खिड़की से सागर दिखाई देता है यदि वह अपने मकान का नाम मार्गदर्शन तो रख ही सकता है तो जिसकी खिड़की से मार्ग दिखाई देता है वह अपने मकान का नाम मार्गदर्शन तो रख ही सकता है। भारत में अधिकांश मकान मार्गदर्शन हैं क्योंकि वे सड़क की ओर खुलते हैं।

अब इसे इस देश की दार्शनिक ट्रेजेडी ही कहिए कि मार्गदर्शन, जो आदिकाल से एक क्रिया मानी जाती थी, इन वर्षों में संज्ञा हो गयी। वह भी भाववाचक नहीं। नेताओं के, जो नेता इसलिए कहलाते थे क्योंकि वे आगे चलते थे, जब स्थायी बँगले बनने लगे और आगे चलने का सवाल ही नहीं रहा तब मार्गदर्शन का अर्थ भी घर बना कर रहना ही हो जाए तो क्या आश्चर्य। आजादी के इतने वर्षों में जनता को यही मार्गदर्शन मिला, और यही दर्शन उसने सीखा कि बेटे मकान बनाओ और चैन से रहो। मात्र एक जीवन की फिलॉसफी।

दर्शन शब्द ही इतना भ्रामक है कि उस पर बिना स्वयं भ्रमित हुए पुस्तक लिखना कठिन है। दर्शन का अर्थ होगा देखना, दिखाना, देखने की व्यवस्था करना, देखने का कोण चुनना या स्वयं को दिखाना। कुछ भी हो सकता है। या न हो। मेरे ख्याल से भारतीय सन्दर्भ में जिस देखे को हम अनदेखा कर देते हैं, वही दर्शन है, जो अबूझ इसलिए है कि उसे बूझने से हमें मतलब क्या है ?



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