उपन्यास >> वध वधमनहर चौहान
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एक वेधक, विचारोत्तेजक एवं रोचक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आधुनिक हिन्दी के सबसे वेधक, विचारोत्तेजक, रोचक उपन्यासों के बीच
‘वध’ का स्थान सुरक्षित है।
‘वध’ के पात्र अपनी अनुभव-यात्रा से किसी चिरन्तन सत्य की ओर बढ़ते दिखा देते हैं। हालात उन्हें मजबूर करते हैं कि वे स्वयं के बुने जाल में स्वयं की काटें। नायक किस प्रकार अपने विश्वास को अन्धविश्वास में बदल जाने से रोक नहीं पाता, अन्ततः किस प्रकार वह अपने अहं से मुक्ति पा कर नियति को स्वीकार कर लेता है; इस का अत्यन्त सहज, सूक्ष्म विवरण यहाँ प्रस्तुत हुआ है।
दुराव जैसे कुछ भी इस कृति में नहीं। फिर भी ‘वध’ अपने पाठक को एक दुर्दम्य रहस्य-लोक में ले जाता है। यह विरोधाभास इस कृति के शिल्प को अप्रतिम सौन्दर्य प्रदान करता है।
‘वध’ का नायक प्रति-नायक भी है। उसके भोगे हुए सत्य-असत्य उसे स्वयं उसी के अन्तस के सामने ला खड़ा करते हैं। आत्म-मूल्यांकन का जो दृश्य ‘वध’ में है, वह विचार-प्रधान होते हए भी दृश्य-प्रधान है।
‘वध’ के पात्र अपनी अनुभव-यात्रा से किसी चिरन्तन सत्य की ओर बढ़ते दिखा देते हैं। हालात उन्हें मजबूर करते हैं कि वे स्वयं के बुने जाल में स्वयं की काटें। नायक किस प्रकार अपने विश्वास को अन्धविश्वास में बदल जाने से रोक नहीं पाता, अन्ततः किस प्रकार वह अपने अहं से मुक्ति पा कर नियति को स्वीकार कर लेता है; इस का अत्यन्त सहज, सूक्ष्म विवरण यहाँ प्रस्तुत हुआ है।
दुराव जैसे कुछ भी इस कृति में नहीं। फिर भी ‘वध’ अपने पाठक को एक दुर्दम्य रहस्य-लोक में ले जाता है। यह विरोधाभास इस कृति के शिल्प को अप्रतिम सौन्दर्य प्रदान करता है।
‘वध’ का नायक प्रति-नायक भी है। उसके भोगे हुए सत्य-असत्य उसे स्वयं उसी के अन्तस के सामने ला खड़ा करते हैं। आत्म-मूल्यांकन का जो दृश्य ‘वध’ में है, वह विचार-प्रधान होते हए भी दृश्य-प्रधान है।
उड़न पहाड़ी
अचानक हड़बड़ा कर मैंने अपनी खटारा साइकिल का ब्रेक ज़ोर से दबा दिया।
डामर की गरम सड़क पर टायर घिसटने का तेज़, रिरियाती आवाज़ हुई। मैं साइकिल
से उतरने लगा। तभी कोई चिल्ला पड़ा, ‘‘रे ! हरामी
!’’ और एक पुरानी साइकिल शांय करती हुई मुझे छुती
निकल गई।
उसे चला रहे मर्द का चेहरा में न देख सका। पीछे, कैरियर पर, उसने कोई औरत
बिठा रखी थी। उसका चटक लाल पल्लू फड़फड़ा कर मेरे चेहरे पर लगा और सरक गया।
तिलमिला कर मैंने पल्लू वाली की तरफ़ देखा। वह मेरी ही तरफ़ देख रही थी, पल्लू सम्भालती हुई। तब तक में अपनी साइकिल से उतरकर सड़क पर आ चुका था। फ़ासला बढ़ने से पल्लू वाले तेज़ी से सिकुड़ कर छोटी हो रही थी। साइकिल के पैडल झटपट घुमा रहा वो मर्द कुछ ऐसे जोश में था, जैसे एकाएक अपनी प्रेमिका को भगा ले जाने का मौक़ा पा गया हो ! कैसी मज़ेदार कल्पना ! मैं मुस्करा दिया। ज़रूर वो पुरानी साइकिल ठीक मेरे पीछे-पीछे आ रही थी। इसीलिए मेरे अचानक ब्रेक लगाने से उसका अगला चक्का मेरे पिछले चक्के से, बस, भिड़ने ही वाला था। मुझे ‘रे ! हरामी !’ कहकर, बगल से काट लगा कर, शांय करता वह मर्द आगे निकल गया था। काश, उसे पता होता; वह कितने ज़बर्दस्त ठिकाने से दूर भाग रहा था !
मुझे भी तो अभी-अभी ही पता चला था, वो ठिकाना कितना ज़बर्दस्त था। पहले से थोडे कुछ जानता था। अभी, बस, अचानक, जादू की तरह महसूस हुआ था, ‘रुको ! आगे मत बढ़ो। ज़रूर यहाँ कोई करामात छिपी है। उसे समझो।’ और मैंने बेसाख़्ता दोनों ब्रेक एक साथ दबा दिए थे।
एकदम चौकस होकर समझना चाहा, आख़िर क्यों यह ठिकाना इतना ज़बर्दस्त महसूस हुआ। धड़कन बढ़ गई। साइकिल थाम कर, सड़क के किनारे एक पेड़ की छांह में आ खड़ा हुआ। साइकिल पेड से टिका दी। भरपूर नज़र उठा कर सामने देखा।
उधर, ऊंचाई पर, धूप में कैसी चकाचक चमक रही है वो पहाड़ी ! अभी-अभी उड़ती महसूस हुई थी, लेकिन इस वक्त कैसी अटल बैठी है।
दूसरों के लिए भले ही उढ़ी हो, मेरे लिए वो पहाड़ी जरूर उड़ी थी। धरती छोड़ कर ऊपर उठी थी, आसमान में आई थी; उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम छा गई थी। फिर भला कैसे नज़र न पड़ती। प्रेमिका को साइकिल पर बिठा कर जो भगा ले जा रहा था, उसके लिए वो नहीं उड़ी थी। मेरे लिए तो उठी थी। हा-हा ! कैसा अलौकिक इशारा ! सिर्फ़ मेरे लिए। सोने की पहाड़ी ! सिर्फ़ मेरी।
‘कितने टन सोना होगा इसमें ?’ मैंने अन्दाज़ा लगाने की बेवकूफाना कोशिश की। किस माई के लाल ने तौल कर देखा है, जो बता सके ! पहाड़ी कितने टन की है !
दोनों आंखों में सहसा एक-एक आंसू टपक गया। घूरने की भी एक हद होती है। क्या उस हद के बाद भी आंसू न गिरे ! अपने ही माल को भला कोई यूं घूरा करता है ? उजबक की तरह !
वैसे, जो पहाड़ी मेरे लिए अनजानी नहीं थी। कितनी ही बार उसके नज़दीक से गुज़र चुका था। कभी साइकिल पर, कभी टैम्पो से, कभी बस से। पैदल भी, कई बार। आश्चर्य ! पहले कभी ध्यान नहीं गया, पहाड़ी तो सोने की है। शायद आज भी ध्यान न जाता, मगर आज तो पहाड़ी उड़ी। हर बात का एक वक़्त होता है। वक़्त से पहले भगवान भी अवतार नहीं लेते। आज वक़्त था, पहाड़ी के उड़ने का लिहाजा, वो उड़ी।
यह रायपुर और भिलाई को जोड़ती, दिन-रात चलती सड़क है। बसें, कारें, स्कूटर, ट्रक, टैम्पो, बैलगाड़ियां, साइकिलें, पैदल चलते लोग, भरपूर आवाजाही ! पहाड़ी का सोना किसी को भी दीख सकता था। मुझी को क्यों दीखा ?
फटा रूमाल निकाल कर मैं अपने दोनों गालों पर से आंसुओं की धारियां पोंछी। वे आंसू सोने की पहाड़ी को घूरने के तो थे ही; आश्चर्य, आनन्द और रोमांच के भी थे। भगवान जब देता है, छप्पर फाड़ कर देता है।
आमने-सामने....साक्षात् हनुमन्त लेटे हुए थे, पहाड़ी के पहलू पर ! किसी को नहीं दीखेगा, मुझे दीख रहा था, हनुमन्त कैसे मज़े-मजे से लेटे थे। मन-ही-मन सर झुका कर नमस्कार किया, ‘‘प्रभो ! मुझे पापी पर ऐसी कृपा ! आज तो भवसागर पार हो गया। आदेश, महाबली ?’’
अचानक लगा, पुहाड़ी एक बार फिर उड़ान भर रही है। ठीए से उठ कर आकाश में छा रही है। उसके पहलू पर लेटे हनुमन्त मुस्करा रहे हैं। कितने स्नेह से निहार रहे हैं मुझे। उनका स्वर कितना स्पष्ट है, ‘‘रे, मानव ! देखता क्या है ! यह मैं ही हूं। तेरे पिछले जनम के सुकर्मों का फल है, जो तुझे दीख रहा हूं। अकेला तू ही न देख। ऐसी व्यवस्था कर कि दूसरे भी देंखें। आया समझ में ? जा ! आज से तू मेरा विशेष सेवक !’’
‘‘प्रभु ! प्रभु, मैं कहाँ इस योग्य !’’
‘‘योग्यता की चिन्ता न कर। तेरा भाग्य है और भाग्य ही तेरी योग्यता है। यूं खड़ा-खड़ा, चुकुर-टुकुर मत देख।’’
‘‘आप ही को देख रहा हूं, भगवन ! कितनी भव्यता से बाईं करवट पर लेटे हैं। पैर ज़रा सिकोड़ रखे हैं। महा-पराक्रमी दुम लहरा कर फैलाई है। बायां हाथ मोड़ कर सिरहाने धर रखा है। दाहिने हाथ में गदा थमी है। दोनों आंखें मुंदी हुई हैं। नींद में भी होंठों पर कैसी मन्द-मधुर मुस्कारन है...’’
‘‘अच्छा ! इतना साफ़ दीख रहा हूं ?’’
‘‘हां, भगवन ! सब आपकी कृपा है।’’
‘‘लेकिन अभी तो मैं ठीक से सामने भी नहीं आया।’’
‘‘दूसरों के लिए नहीं आए होंगे। मेरे लिए तो कब के आ चुके। क्या आप ही के इशारे पर मेरी साइकिल में अपने-आप ब्रेक नहीं लगा ? आहाहा ! कितनी भव्यता से निद्राधीन हैं !’’
‘‘अरे, अभी तो मैं तुझसे बातें कर रहा हूं। निद्राधीन कैसे हूं ?’’
‘‘यही तो है, प्रभु की लीला !’’
‘‘मेरी लीला बाद में। पहले तू अपनी लीला दिखा। तभी तेरा कल्याण होगा।’’
उड़ती पहाड़ी वापस अपने ठीए पर –जस-की-तस बैठ गई है। हनुमन्त मन्द-मन्द झलक रहे हैं, पहलू पर। रेलवे के तीन स्लीपर-कोट क़तार में जोड़ें, इतनी लम्बाई में, साठ-पैंसठ फीट की ऊंचाई पर, पहाड़ी में से एक ज़बर्दस्त चट्टान बाहर निकली हुई है। पहाड़ी तो समूची हरियाली से ढकी पड़ी है, मगर उस चट्टान पर मिट्टी की परत भी नहीं है। शुद्ध, ठोक पत्थर का महापिण्ड ! जो गेरुए रंग का है। मुझे तो वहां सोने का ही रंग दीख रहा है, चकाचक ! क्योंकि वहीं से होगी, सोने की वर्षा। पहाड़ी की ऊंची करवट पर, हरियाली के बीचोंबीच, अलग-थलग झलकती वो चट्टान ! कैसी चमत्कारी ! अपने ही हाथ का तकिया बना कर लेटे हनुमन्त ! लम्बाई रेलवे के तीन स्लीपर-कोच जितनी, तो ऊंचाई दो स्लीपर-कोच जितनी।
नहीं, किसी ने छेनी नहीं चलाई है, चट्टान के पहलू पर कुदरत का ही करिश्मा है। चट्टान ख़ुद-ब-खुद ऐसा कटी-फटी, ऊंची-नीची है कि जहां हनुमन्त का चेहरा होना चाहिए, ठीक वहीं चेहरे का आभास है। मुंदी हुई आंखें भी क्या हू-ब-हू बनी रखी हैं। दो हाथ। दो पैर। मज़बूत गदा। लहराती दुम...सब क़ुदरत ने ही तराश रखा है।
अब ? मेरा पहला क़दम क्या हो ? हनुमन्त ने कितना स्पष्ट आदेश दिया है मुझे, ‘‘जा ! मेरी लीला बाद में। पहले तू अपनी लीला दिखा !’’ हनुमन्त कहीं मखौल के मूड में तो नहीं थे ! नहीं, नहीं। मुझ जैसे तुच्छ मनुष्य के साथ भला वो देव-पुरुष मख़ौल करेंगे ?
लीला तो मुझे दिखानी ही पड़ेगी। तभी यह पहाड़ी, जो आज सिर्फ मिट्टी और पत्थर की है, मेरे लिए ख़ालिस सोने की बन सकेगी। पहा़ड़ी ने तो बाक़ायदा उड़-उड़कर आदेश दिया है; कितना स्पष्ट !
लेकिन यह मेरा भ्रम भी तो हो सकता है....पहाड़ी उड़ी ही नहीं, मुझे लगा कि उड़ी। हनुमन्त ने आदेश दिया ही नहीं, मुझे लगा कि दिया।
हिश्ट ! ऐसे कैसे भ्रम हो जाएगा। बाल धूप में सफ़ेद नहीं किए हैं। भला कौन-सा घाट है ऐसा, जहां का पानी नहीं पीया। चार जवान सन्तानें हैं। तीन बेटे। एक बेटी। ज़ाहिर है, बीवी भी है एक। पचास की हो चुकी। चालीस की लगती है। मैं भी बावन का कहां लगता हूं। बयालीस का ही लगता हूं, ज्यादा-से-ज्यादा। ह-ह-ह ! मुझे भ्रम ? सवाल ही नहीं।
चलूं, चलूं। घर पहुंचूं। सबको बताऊं। जिस पहाड़ी को दुनिया रोज़ यूं ही देखा करती है, उसी को आज मैंने किस नज़र से देखा। अब, जल्द-से-जल्द, ऐसा क्या किया जाए कि पहाड़ी से सोना बरस पड़े ? बरसे भी ऐसे कि सिर्फ़ हमीं पर बरसे। अलौकिक आदेश है। सोने की पहाड़ी आज से मेरी ! दम हो, तो इसी वक़्त उठा कर ले जाऊं। सिफ़त हो, तो छिपा कर रख लूं।
नहीं, इतनी बड़ी पहाड़ी उठा तो सकता नहीं। छिपा भी नहीं सकता। पहा़ड़ी मेरे पास नहीं आएगी। मुझे को पहाड़ी के पास जाना होगा। सरेआम क़ब्जा कर, तमाम मिट्टी-पत्थर को सोने में बदलना होगा....कुछ ऐसे कि कोई दूसरा न तो आ सके, न पा सके।
लेकिन यह होगा कैसे ? आख़िर कैसे ? यूं लगा, जैसे दिमाग घूम जाएगा, इसी वक्त। फिर लगा, नहीं घूमेगा। हनुमन्त ने कुछ सोच-समझ कर ही कृपा की होगी।
रायपुर की सड़कों पर साइकिल मैंने आहिस्ता-आहिस्ता चलाई। किधर मुड़ना है, सामने से क्या आ रहा है, होश किसे था ! ऐसे में कस कर पैडल मारना ख़रनाक रहता। शहर के मशहूर बूढ़े तालाब का पानी दूर से चमक छोड़ता दीखने लगा। मैंने साइकिल गली में मोड़ी और अपने पुश्तैनी कच्चे मकान के सामने रोक दी।
तब तक एक फ़ैसला मन-ही-मन पक्का हो गया था। विशाल चट्टान पर कुदरती बने हनुमान की बात, आज, तत्काल, घर में किसी को नहीं बताऊंगा। मेरे बापू कहा करते थे, कोई भी नाजुक बात किसी को बताने से पहले एक रात ज़रूर गुज़रने देनी चाहिए। नींद इन्सान को ताक़त देती है और अक़ल भी।
घर के अन्दर मैं लगातार चुप बना रहा, लेकिन मेरा चेहरा दमक रहा था।
‘‘लगता है, बाऊजी की कहीं नौकरी लग गई है।’’ भुच्चड़ ने कुरेदा। भुच्चड़ याने मेरा बड़ा लड़का। पूरा नाम : भैरोसिंह। भुच्चड़ के नाम से मशहूर, रायपुर का दादा।
‘‘नहीं, भुच्चू ! सेठ से मुलाकात ही न हो पाई। रिश्तेदारी में कहीं ग़मी का मौक़ा था, अचानक वो उधर चला गया था।’’ मैंने बताया, ‘‘दो दिन बाद लौटेगा, तब फिर कोशिश करूंगा।’’
एक भट्ठे में, ईंटों का लदान के लिए ट्रक-ड्राइवर की नौकरी ख़ाली थी। उसी के फेर में कुम्हारी रोड पर साइकिल चलाता। दसेक किलोमीटर दूर के उस भट्ठे तक जा पहुंचा था। वहीं से लौटते में दीखी ती वो उड़न-पहाड़ी।
आधी रात के बाद, नींद में, अचानक मैंने हंसना शुरू कर दिया। मज़ा यह कि थोड़ा-थोड़ा मुझे भी पता चला कि हंस रहा हूं। सम्भल कर, फ़ौरन चुप हो गया। करवट बदल कर, मुंह ढांक कर सोने लगा, मगर आध-पौन घण्टे बाद फिर वही खी-खी-खी ! चुप हो सकता, उससे पहले ही स्विच ऑन होने की टिच्च ! और पूरा कमरा रोशनी से लबालब ! देखता क्या हूं, घर का एक-एक जना उठ पड़ा है।
सब मुझे छेड़ने लगे के ऐसी भी क्या खुशख़बरी है, जिसे मैं छिपा-छिपा कर हंस रहा हूं। ‘कहां की ख़ुशख़बरी ! नौकरी लगेगी, तो छिपाने की क्या बात ! चलो, चलो, सो जाओ सब। ऐसी कोई बात ही नहीं है।’’ और मैंने सर से पांव तक चादर खींच ली।
अगले दिन, सुबह की चाय पी रहे भुच्चड़ से मैने पूछा, ‘‘क्यों रे ! आज दिन में क्या कर रहा है तू ?’’
हनमन्त के समाचार, सबसे पहले, भुच्चड़ को ही देने का मन था। घर के दूसरे लोगों को कम से थोड़ा-थोड़ा करके ही बताना ठीक रहेगा। बात एकाएक यक़ीन करने लायक नहीं है। भला कुदरती तौर पर उतनी ज़बर्दस्त चट्टान पर हनुमन्त बने-बनाए कैसे हो सकते हैं ! और अगर हैं भी बने-बनाए, तो इससे हमें क्या लाभ ! भुच्च़ड़ को यह सब न केवल बताया जा सकता था, बल्कि उससे सलाह भी मांगी जा सकती थी कि आख़िर ऐसा क्या करें कि जिससे पत्थर और मिट्टी की बनी वो पहाड़ी हमारे लिए सोने की पहाड़ी बन जाए।
तिलमिला कर मैंने पल्लू वाली की तरफ़ देखा। वह मेरी ही तरफ़ देख रही थी, पल्लू सम्भालती हुई। तब तक में अपनी साइकिल से उतरकर सड़क पर आ चुका था। फ़ासला बढ़ने से पल्लू वाले तेज़ी से सिकुड़ कर छोटी हो रही थी। साइकिल के पैडल झटपट घुमा रहा वो मर्द कुछ ऐसे जोश में था, जैसे एकाएक अपनी प्रेमिका को भगा ले जाने का मौक़ा पा गया हो ! कैसी मज़ेदार कल्पना ! मैं मुस्करा दिया। ज़रूर वो पुरानी साइकिल ठीक मेरे पीछे-पीछे आ रही थी। इसीलिए मेरे अचानक ब्रेक लगाने से उसका अगला चक्का मेरे पिछले चक्के से, बस, भिड़ने ही वाला था। मुझे ‘रे ! हरामी !’ कहकर, बगल से काट लगा कर, शांय करता वह मर्द आगे निकल गया था। काश, उसे पता होता; वह कितने ज़बर्दस्त ठिकाने से दूर भाग रहा था !
मुझे भी तो अभी-अभी ही पता चला था, वो ठिकाना कितना ज़बर्दस्त था। पहले से थोडे कुछ जानता था। अभी, बस, अचानक, जादू की तरह महसूस हुआ था, ‘रुको ! आगे मत बढ़ो। ज़रूर यहाँ कोई करामात छिपी है। उसे समझो।’ और मैंने बेसाख़्ता दोनों ब्रेक एक साथ दबा दिए थे।
एकदम चौकस होकर समझना चाहा, आख़िर क्यों यह ठिकाना इतना ज़बर्दस्त महसूस हुआ। धड़कन बढ़ गई। साइकिल थाम कर, सड़क के किनारे एक पेड़ की छांह में आ खड़ा हुआ। साइकिल पेड से टिका दी। भरपूर नज़र उठा कर सामने देखा।
उधर, ऊंचाई पर, धूप में कैसी चकाचक चमक रही है वो पहाड़ी ! अभी-अभी उड़ती महसूस हुई थी, लेकिन इस वक्त कैसी अटल बैठी है।
दूसरों के लिए भले ही उढ़ी हो, मेरे लिए वो पहाड़ी जरूर उड़ी थी। धरती छोड़ कर ऊपर उठी थी, आसमान में आई थी; उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम छा गई थी। फिर भला कैसे नज़र न पड़ती। प्रेमिका को साइकिल पर बिठा कर जो भगा ले जा रहा था, उसके लिए वो नहीं उड़ी थी। मेरे लिए तो उठी थी। हा-हा ! कैसा अलौकिक इशारा ! सिर्फ़ मेरे लिए। सोने की पहाड़ी ! सिर्फ़ मेरी।
‘कितने टन सोना होगा इसमें ?’ मैंने अन्दाज़ा लगाने की बेवकूफाना कोशिश की। किस माई के लाल ने तौल कर देखा है, जो बता सके ! पहाड़ी कितने टन की है !
दोनों आंखों में सहसा एक-एक आंसू टपक गया। घूरने की भी एक हद होती है। क्या उस हद के बाद भी आंसू न गिरे ! अपने ही माल को भला कोई यूं घूरा करता है ? उजबक की तरह !
वैसे, जो पहाड़ी मेरे लिए अनजानी नहीं थी। कितनी ही बार उसके नज़दीक से गुज़र चुका था। कभी साइकिल पर, कभी टैम्पो से, कभी बस से। पैदल भी, कई बार। आश्चर्य ! पहले कभी ध्यान नहीं गया, पहाड़ी तो सोने की है। शायद आज भी ध्यान न जाता, मगर आज तो पहाड़ी उड़ी। हर बात का एक वक़्त होता है। वक़्त से पहले भगवान भी अवतार नहीं लेते। आज वक़्त था, पहाड़ी के उड़ने का लिहाजा, वो उड़ी।
यह रायपुर और भिलाई को जोड़ती, दिन-रात चलती सड़क है। बसें, कारें, स्कूटर, ट्रक, टैम्पो, बैलगाड़ियां, साइकिलें, पैदल चलते लोग, भरपूर आवाजाही ! पहाड़ी का सोना किसी को भी दीख सकता था। मुझी को क्यों दीखा ?
फटा रूमाल निकाल कर मैं अपने दोनों गालों पर से आंसुओं की धारियां पोंछी। वे आंसू सोने की पहाड़ी को घूरने के तो थे ही; आश्चर्य, आनन्द और रोमांच के भी थे। भगवान जब देता है, छप्पर फाड़ कर देता है।
आमने-सामने....साक्षात् हनुमन्त लेटे हुए थे, पहाड़ी के पहलू पर ! किसी को नहीं दीखेगा, मुझे दीख रहा था, हनुमन्त कैसे मज़े-मजे से लेटे थे। मन-ही-मन सर झुका कर नमस्कार किया, ‘‘प्रभो ! मुझे पापी पर ऐसी कृपा ! आज तो भवसागर पार हो गया। आदेश, महाबली ?’’
अचानक लगा, पुहाड़ी एक बार फिर उड़ान भर रही है। ठीए से उठ कर आकाश में छा रही है। उसके पहलू पर लेटे हनुमन्त मुस्करा रहे हैं। कितने स्नेह से निहार रहे हैं मुझे। उनका स्वर कितना स्पष्ट है, ‘‘रे, मानव ! देखता क्या है ! यह मैं ही हूं। तेरे पिछले जनम के सुकर्मों का फल है, जो तुझे दीख रहा हूं। अकेला तू ही न देख। ऐसी व्यवस्था कर कि दूसरे भी देंखें। आया समझ में ? जा ! आज से तू मेरा विशेष सेवक !’’
‘‘प्रभु ! प्रभु, मैं कहाँ इस योग्य !’’
‘‘योग्यता की चिन्ता न कर। तेरा भाग्य है और भाग्य ही तेरी योग्यता है। यूं खड़ा-खड़ा, चुकुर-टुकुर मत देख।’’
‘‘आप ही को देख रहा हूं, भगवन ! कितनी भव्यता से बाईं करवट पर लेटे हैं। पैर ज़रा सिकोड़ रखे हैं। महा-पराक्रमी दुम लहरा कर फैलाई है। बायां हाथ मोड़ कर सिरहाने धर रखा है। दाहिने हाथ में गदा थमी है। दोनों आंखें मुंदी हुई हैं। नींद में भी होंठों पर कैसी मन्द-मधुर मुस्कारन है...’’
‘‘अच्छा ! इतना साफ़ दीख रहा हूं ?’’
‘‘हां, भगवन ! सब आपकी कृपा है।’’
‘‘लेकिन अभी तो मैं ठीक से सामने भी नहीं आया।’’
‘‘दूसरों के लिए नहीं आए होंगे। मेरे लिए तो कब के आ चुके। क्या आप ही के इशारे पर मेरी साइकिल में अपने-आप ब्रेक नहीं लगा ? आहाहा ! कितनी भव्यता से निद्राधीन हैं !’’
‘‘अरे, अभी तो मैं तुझसे बातें कर रहा हूं। निद्राधीन कैसे हूं ?’’
‘‘यही तो है, प्रभु की लीला !’’
‘‘मेरी लीला बाद में। पहले तू अपनी लीला दिखा। तभी तेरा कल्याण होगा।’’
उड़ती पहाड़ी वापस अपने ठीए पर –जस-की-तस बैठ गई है। हनुमन्त मन्द-मन्द झलक रहे हैं, पहलू पर। रेलवे के तीन स्लीपर-कोट क़तार में जोड़ें, इतनी लम्बाई में, साठ-पैंसठ फीट की ऊंचाई पर, पहाड़ी में से एक ज़बर्दस्त चट्टान बाहर निकली हुई है। पहाड़ी तो समूची हरियाली से ढकी पड़ी है, मगर उस चट्टान पर मिट्टी की परत भी नहीं है। शुद्ध, ठोक पत्थर का महापिण्ड ! जो गेरुए रंग का है। मुझे तो वहां सोने का ही रंग दीख रहा है, चकाचक ! क्योंकि वहीं से होगी, सोने की वर्षा। पहाड़ी की ऊंची करवट पर, हरियाली के बीचोंबीच, अलग-थलग झलकती वो चट्टान ! कैसी चमत्कारी ! अपने ही हाथ का तकिया बना कर लेटे हनुमन्त ! लम्बाई रेलवे के तीन स्लीपर-कोच जितनी, तो ऊंचाई दो स्लीपर-कोच जितनी।
नहीं, किसी ने छेनी नहीं चलाई है, चट्टान के पहलू पर कुदरत का ही करिश्मा है। चट्टान ख़ुद-ब-खुद ऐसा कटी-फटी, ऊंची-नीची है कि जहां हनुमन्त का चेहरा होना चाहिए, ठीक वहीं चेहरे का आभास है। मुंदी हुई आंखें भी क्या हू-ब-हू बनी रखी हैं। दो हाथ। दो पैर। मज़बूत गदा। लहराती दुम...सब क़ुदरत ने ही तराश रखा है।
अब ? मेरा पहला क़दम क्या हो ? हनुमन्त ने कितना स्पष्ट आदेश दिया है मुझे, ‘‘जा ! मेरी लीला बाद में। पहले तू अपनी लीला दिखा !’’ हनुमन्त कहीं मखौल के मूड में तो नहीं थे ! नहीं, नहीं। मुझ जैसे तुच्छ मनुष्य के साथ भला वो देव-पुरुष मख़ौल करेंगे ?
लीला तो मुझे दिखानी ही पड़ेगी। तभी यह पहाड़ी, जो आज सिर्फ मिट्टी और पत्थर की है, मेरे लिए ख़ालिस सोने की बन सकेगी। पहा़ड़ी ने तो बाक़ायदा उड़-उड़कर आदेश दिया है; कितना स्पष्ट !
लेकिन यह मेरा भ्रम भी तो हो सकता है....पहाड़ी उड़ी ही नहीं, मुझे लगा कि उड़ी। हनुमन्त ने आदेश दिया ही नहीं, मुझे लगा कि दिया।
हिश्ट ! ऐसे कैसे भ्रम हो जाएगा। बाल धूप में सफ़ेद नहीं किए हैं। भला कौन-सा घाट है ऐसा, जहां का पानी नहीं पीया। चार जवान सन्तानें हैं। तीन बेटे। एक बेटी। ज़ाहिर है, बीवी भी है एक। पचास की हो चुकी। चालीस की लगती है। मैं भी बावन का कहां लगता हूं। बयालीस का ही लगता हूं, ज्यादा-से-ज्यादा। ह-ह-ह ! मुझे भ्रम ? सवाल ही नहीं।
चलूं, चलूं। घर पहुंचूं। सबको बताऊं। जिस पहाड़ी को दुनिया रोज़ यूं ही देखा करती है, उसी को आज मैंने किस नज़र से देखा। अब, जल्द-से-जल्द, ऐसा क्या किया जाए कि पहाड़ी से सोना बरस पड़े ? बरसे भी ऐसे कि सिर्फ़ हमीं पर बरसे। अलौकिक आदेश है। सोने की पहाड़ी आज से मेरी ! दम हो, तो इसी वक़्त उठा कर ले जाऊं। सिफ़त हो, तो छिपा कर रख लूं।
नहीं, इतनी बड़ी पहाड़ी उठा तो सकता नहीं। छिपा भी नहीं सकता। पहा़ड़ी मेरे पास नहीं आएगी। मुझे को पहाड़ी के पास जाना होगा। सरेआम क़ब्जा कर, तमाम मिट्टी-पत्थर को सोने में बदलना होगा....कुछ ऐसे कि कोई दूसरा न तो आ सके, न पा सके।
लेकिन यह होगा कैसे ? आख़िर कैसे ? यूं लगा, जैसे दिमाग घूम जाएगा, इसी वक्त। फिर लगा, नहीं घूमेगा। हनुमन्त ने कुछ सोच-समझ कर ही कृपा की होगी।
रायपुर की सड़कों पर साइकिल मैंने आहिस्ता-आहिस्ता चलाई। किधर मुड़ना है, सामने से क्या आ रहा है, होश किसे था ! ऐसे में कस कर पैडल मारना ख़रनाक रहता। शहर के मशहूर बूढ़े तालाब का पानी दूर से चमक छोड़ता दीखने लगा। मैंने साइकिल गली में मोड़ी और अपने पुश्तैनी कच्चे मकान के सामने रोक दी।
तब तक एक फ़ैसला मन-ही-मन पक्का हो गया था। विशाल चट्टान पर कुदरती बने हनुमान की बात, आज, तत्काल, घर में किसी को नहीं बताऊंगा। मेरे बापू कहा करते थे, कोई भी नाजुक बात किसी को बताने से पहले एक रात ज़रूर गुज़रने देनी चाहिए। नींद इन्सान को ताक़त देती है और अक़ल भी।
घर के अन्दर मैं लगातार चुप बना रहा, लेकिन मेरा चेहरा दमक रहा था।
‘‘लगता है, बाऊजी की कहीं नौकरी लग गई है।’’ भुच्चड़ ने कुरेदा। भुच्चड़ याने मेरा बड़ा लड़का। पूरा नाम : भैरोसिंह। भुच्चड़ के नाम से मशहूर, रायपुर का दादा।
‘‘नहीं, भुच्चू ! सेठ से मुलाकात ही न हो पाई। रिश्तेदारी में कहीं ग़मी का मौक़ा था, अचानक वो उधर चला गया था।’’ मैंने बताया, ‘‘दो दिन बाद लौटेगा, तब फिर कोशिश करूंगा।’’
एक भट्ठे में, ईंटों का लदान के लिए ट्रक-ड्राइवर की नौकरी ख़ाली थी। उसी के फेर में कुम्हारी रोड पर साइकिल चलाता। दसेक किलोमीटर दूर के उस भट्ठे तक जा पहुंचा था। वहीं से लौटते में दीखी ती वो उड़न-पहाड़ी।
आधी रात के बाद, नींद में, अचानक मैंने हंसना शुरू कर दिया। मज़ा यह कि थोड़ा-थोड़ा मुझे भी पता चला कि हंस रहा हूं। सम्भल कर, फ़ौरन चुप हो गया। करवट बदल कर, मुंह ढांक कर सोने लगा, मगर आध-पौन घण्टे बाद फिर वही खी-खी-खी ! चुप हो सकता, उससे पहले ही स्विच ऑन होने की टिच्च ! और पूरा कमरा रोशनी से लबालब ! देखता क्या हूं, घर का एक-एक जना उठ पड़ा है।
सब मुझे छेड़ने लगे के ऐसी भी क्या खुशख़बरी है, जिसे मैं छिपा-छिपा कर हंस रहा हूं। ‘कहां की ख़ुशख़बरी ! नौकरी लगेगी, तो छिपाने की क्या बात ! चलो, चलो, सो जाओ सब। ऐसी कोई बात ही नहीं है।’’ और मैंने सर से पांव तक चादर खींच ली।
अगले दिन, सुबह की चाय पी रहे भुच्चड़ से मैने पूछा, ‘‘क्यों रे ! आज दिन में क्या कर रहा है तू ?’’
हनमन्त के समाचार, सबसे पहले, भुच्चड़ को ही देने का मन था। घर के दूसरे लोगों को कम से थोड़ा-थोड़ा करके ही बताना ठीक रहेगा। बात एकाएक यक़ीन करने लायक नहीं है। भला कुदरती तौर पर उतनी ज़बर्दस्त चट्टान पर हनुमन्त बने-बनाए कैसे हो सकते हैं ! और अगर हैं भी बने-बनाए, तो इससे हमें क्या लाभ ! भुच्च़ड़ को यह सब न केवल बताया जा सकता था, बल्कि उससे सलाह भी मांगी जा सकती थी कि आख़िर ऐसा क्या करें कि जिससे पत्थर और मिट्टी की बनी वो पहाड़ी हमारे लिए सोने की पहाड़ी बन जाए।
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