जीवन कथाएँ >> महाभिषग महाभिषगभगवान सिंह
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गौतम बुद्ध के जीवन पर आधारित उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
महाभिषग शीर्षक से ही स्पष्ट है कि यह गौतम बुद्ध के जीवन
पर आधारित उपन्यास है न कि भगवान बुद्ध के। बुद्ध को भगवान बनानेवाले उस
महान उद्देश्य से ही विचलित हो गए थे, जिसे लेकर बुद्ध ने अपना महान
सामाजिक प्रयोग किया था और यह सन्देश दिया था कि जाति या जन्म के कारण कोई
किसी अन्य से श्रेष्ठ नहीं है और कोई भी व्यक्ति यदि संकल्प कर ले और
जीवन-मरण का प्रश्न बनाकर इस बात पर जुट जाए तो वह भी बुद्ध हो सकता है।
महाभिषग इस क्रान्तिकारी द्रष्टा के ऊपर पड़े देववादी खोल को उतारकर उनके मानवीय चरित्र को ही सामने नहीं लाता। यह देववाद के महान गायक अश्वघोष को भी एक पात्र बनाकर सिर के बल खड़ा करने का और देववाद की सीमाओं को उजागर करने का प्रयत्न करता है।
इतिहास की मार्मिक व्याख्या वर्तमान पर कितनी सार्थक टिप्पणी बन सकती है इस दृष्टि से भी वह एक नया प्रयोग है।
महाभिषग इस क्रान्तिकारी द्रष्टा के ऊपर पड़े देववादी खोल को उतारकर उनके मानवीय चरित्र को ही सामने नहीं लाता। यह देववाद के महान गायक अश्वघोष को भी एक पात्र बनाकर सिर के बल खड़ा करने का और देववाद की सीमाओं को उजागर करने का प्रयत्न करता है।
इतिहास की मार्मिक व्याख्या वर्तमान पर कितनी सार्थक टिप्पणी बन सकती है इस दृष्टि से भी वह एक नया प्रयोग है।
[ १ ]
पुरुषपुर नगर के उपकंठ पर स्थित है
शान्ति-विहार।
पश्चिमोत्तर में बुद्ध के अमृत सन्देश के प्रसार का केन्द्र है यह। पूरे
वर्ष धर्म-प्रचार को निकले हुए भिक्षु आषाढ़ पूर्णिमा के दिन चातुर्मास के
लिए लौटकर आते हैं तो वर्षाकाल के चार महीनों के लिए इसके जीवन में एक
व्यस्तता सी आ जाती है, वर्ष के शेष महीनों में विहार के आचार्य, स्थायी
प्रबन्धकों, कुछ भिक्षुओं और भिक्षुणियों के संक्षिप्त परिवार को लेकर वह
विशाल विहार जैसे वर्षागम की प्रतीक्षा में ऊँघता हुआ स्वप्न देखता रहता
हो।
कल आषाढ़ पूर्णिमा है। उपोसथ का दिन। वर्षावास का आरम्भ। पर शताधिक प्रचारक भिक्षु आज भी पहुँच चुके हैं। विहार का कर्मी-वर्ग उनकी प्रबन्ध-सुविधा में व्यस्त है। भांडागारिक, चीवर-प्रतिग्रहक, चीवर-भाजक, आरामिक सभी अपने-अपने विषय को लेकर व्यस्त हैं। मधुपूरित छत्ते पर खजबज चलती मधु-मक्खियों की तरह जनाकुल है संघाराम।
पर इस समस्त व्यस्तता से अछूते बैठे हैं आचार्य पुण्यवश। शान्ति-विहार के प्रधान हैं, आचार्य पुण्यवश। पचास से उभरती हुई अवस्था। दीप्त, शान्त मुखमंडल। उद्वेग या व्यस्तता का कोई स्पर्श नहीं। समिति-कक्ष के भीतर सज्जित एक पीठ पर बैठे हैं वह। सम्मुख भूमि पर चटाइयाँ बिछी हैं और उन पर नवागत भिक्षुओं में से अनेक बैठे हैं। सामान्य कुशलोपचार के प्रश्न कर लेते हैं उनसे। बीच-बीच में भारग्राही भिक्षुगण आकर उन्हें स्थिति से अवगत कर जाते हैं। कोई विशेष बात हुई तो उनसे निर्देश भी ले जाते हैं पर सामान्यतः ऐसा नहीं होता। सामान्य स्थितियों के लिए प्रधान भांडागारिक तथा प्रधान कर्मान्तक ही पर्याप्त हैं।
पश्चिमोत्तर अंचल का सबसे विशाल संघाराम है यह। लक्षाधिक की वार्षिक आय। विशाल भू-सम्पदा। एक छोटे-मोटे राज्य का-सा प्रबन्ध। वैसा ही दक्ष कर्मीवर्ग। पर भदन्त पुण्यवश पद्म-किशलय की भाँति जल के भीतर और मल से ऊपर। उन्हें देखकर ही जाना जा सकता है कि राजा जनक अपने राज्य का संचालन किस तरह करते रहे होंगे।
एक भिक्षुणी को अपनी ओर आते देखकर उसकी ओर प्रश्न-चंचल दृष्टि से देखते हैं।
‘‘आचार्य अश्वघोष !’’ भिक्षुणी नम्र स्वर में सूचना देती है।
‘‘अभ्यर्थना सहित उन्हें मेरे कक्ष में पहुँचाओ और शेष भिक्षुओं के आवास का भी प्रबन्ध करो।’
भिक्षुणी लौट पड़ती है। पुण्ययश उसे जाती हुई लक्ष्य करते रहते हैं। कितना उल्लास है उसकी गति में। पुण्ययश के होंठों को उल्लास की एक क्षीण रेखा अधिक स्निग्ध कर जाती है। ओझल हो गई भिक्षुणी। भिक्षुणी जयन्तिका ओझल हो गई है पर पुण्ययश के होंठों की उल्लास-रेखा अब तक नए-नए वक्रों में काँपती जा रही है।
क्या अवस्था होगी इस भिक्षुणी की ? पैंतालीस से कम तो नहीं ही। अश्वघोष सम्प्रति पचास के हैं। समवयस्क हैं पुण्ययश के। यह अधिक-से-अधिक पाँच वर्ष कम होगी अश्वघोष से। दीक्षा लिये भी बीस वर्ष हो गए पर अभी तक मन का राग-भाव नहीं गया। प्रातःकाल से ही सत्र के प्रकोष्ठ पर जाकर जाने कितने व्याजों से उत्तर की ओर, दृष्टि छोर से भी परे तक फैले मार्ग को निहारती रही होगी। वह पथ जो तक्षशिला को जाता है। उस दिशा में जाते और आते हुए सार्थों का अनुगमन करती रही होगी अपनी दृष्टि से और पुनः थककर, निराश होकर लौट आती रही होगी। अश्वघोष अभी तक नहीं आए ! यह भी ध्यान नहीं कि कल कि ही वर्षागम का प्रथम उपोसथ है। यह भी ध्यान नहीं कि उनकी प्रतीक्षा में कोई कितना उद्विग्न होगा।
जैसे भूल गए हों पुण्ययश कि यहाँ और लोग भी बैठे हैं। इस क्षीण सी कल्पना को चूस रहे हों जैसे। जयन्तिका को जिसकी इतनी आतुर प्रतीक्षा थी वह आ गए। अश्वघोष आ गए। पुण्ययश लीन हो गए हैं अपने आपमें। अपने आपमें नहीं, अश्वघोष में।
आयुष्मान अश्वघोष ! बौद्ध और वैदिक वांग्मय के अनन्य अधिकारी !
संगीत के अनन्य मर्मज्ञ ! आश्चर्य है उनका वीणावादन ! अद्भुत है उनका स्वर-माधुर्य ! श्रुति है कि उनके वीणा के स्वर से पशु-पक्षी तक आत्म-विस्मृत हो जाते हैं। नारद मुनि के विषय में जो कहानी प्रचलित है वह अक्षरशः सत्य होगी, इसे अश्वघोष को वीणा बजाते देखकर ही समझा जा सकता है। लोक में रस की निर्झरिणी बहाते हुए दर्शन के गहन विषयों को काव्यनिबद्ध करके प्रचारित करने की भारत की सुदीर्घ परम्परा की अन्तिम कड़ी हैं अश्वघोष। ठीक नारद की ही भाँति देवलोक से भूलोक तक सर्वत्र गति है अश्वघोष की। नहीं होती तो बुद्ध के जीवन में वह सरसता कहाँ से ला पाते ! पिता, विमाता, युग और लोक की मर्यादा को उज्ज्वल रखते हुए बुद्ध के मन में विराग की भावना का उदय और बुद्ध का गृह-त्याग कैसे दिखा पाते, यदि दैव-गति का आश्रय न लेते तो !
असाधारण है उनकी काव्य-प्रतिभा। चित्र-विलासिनी है उनकी कल्पना। हमें जो शुष्क काष्ठखंड दिखाई देता है उसमें भी तक्षक को सोये हुए फूल और पत्तियाँ दिखाई देती हैं। वह उन्हें देखता है और अपनी तक्षणी के कुशल आघातों से खींचकर बाहर निकाल देता है और उस लोकोत्तर सृष्टि का दर्शन हम कल्पनाशून्य जनों को भी करा देता है। भाष्कर प्रस्तर-शिला में तन्द्रालीन देवों, देवांगनाओं और रूपसियों को देखता ही नहीं, अपनी छेनी से गुदगुदाकर उनकी तन्द्रा भंगकर हमारे सम्मुख स्मिति-विकच मुद्रा में उपस्थित भी कर देता है। और कवि ! उन्हीं अनगढ़ तथ्यों को ऐसी भंगी दे देता है कि उन धूसर, मलिन, निस्सार तथ्यों से सूर्य-रश्मियाँ फूटने लगती हैं। प्रत्येक कवि कुछ मणियाँ हमारे भंडार में छोड़ ही जाता है, पर अश्वघोष जैसा कवि ! स्पर्शमणि की भाँति वह जिस वस्तु का ही स्पर्श करता है उसका रूप स्वर्ण-भास्वर हो उठता है।
और जब तर्क करने लगते हैं अश्वघोष ! कौन कह सकता है कि यह तर्कजीव कहीं सरस भी होगा। कहते हैं, उनकी युक्तियों से तर्क अपने फलक की तीक्ष्णता पहचानता है। उनकी वाक्-शक्ति से हत्प्रभ हो विपक्षी तक साधुवाद देने लगते हैं।
आश्चर्य हैं अश्वघोष ! अपूर्व हैं अश्वघोष ! उनकी एक भी विशेषता किसी अन्य व्यक्ति में हो तो वह मदान्ध हो उठेगा। पर आयुष्मान् अश्वघोष ! समस्त वांग्मय का दोहन कर लेने पर भी यह लगता है कि गर्व, अहंकार जैसे शब्द उनकी दृष्टि में आए ही नहीं।
कल आषाढ़ पूर्णिमा है। उपोसथ का दिन। वर्षावास का आरम्भ। पर शताधिक प्रचारक भिक्षु आज भी पहुँच चुके हैं। विहार का कर्मी-वर्ग उनकी प्रबन्ध-सुविधा में व्यस्त है। भांडागारिक, चीवर-प्रतिग्रहक, चीवर-भाजक, आरामिक सभी अपने-अपने विषय को लेकर व्यस्त हैं। मधुपूरित छत्ते पर खजबज चलती मधु-मक्खियों की तरह जनाकुल है संघाराम।
पर इस समस्त व्यस्तता से अछूते बैठे हैं आचार्य पुण्यवश। शान्ति-विहार के प्रधान हैं, आचार्य पुण्यवश। पचास से उभरती हुई अवस्था। दीप्त, शान्त मुखमंडल। उद्वेग या व्यस्तता का कोई स्पर्श नहीं। समिति-कक्ष के भीतर सज्जित एक पीठ पर बैठे हैं वह। सम्मुख भूमि पर चटाइयाँ बिछी हैं और उन पर नवागत भिक्षुओं में से अनेक बैठे हैं। सामान्य कुशलोपचार के प्रश्न कर लेते हैं उनसे। बीच-बीच में भारग्राही भिक्षुगण आकर उन्हें स्थिति से अवगत कर जाते हैं। कोई विशेष बात हुई तो उनसे निर्देश भी ले जाते हैं पर सामान्यतः ऐसा नहीं होता। सामान्य स्थितियों के लिए प्रधान भांडागारिक तथा प्रधान कर्मान्तक ही पर्याप्त हैं।
पश्चिमोत्तर अंचल का सबसे विशाल संघाराम है यह। लक्षाधिक की वार्षिक आय। विशाल भू-सम्पदा। एक छोटे-मोटे राज्य का-सा प्रबन्ध। वैसा ही दक्ष कर्मीवर्ग। पर भदन्त पुण्यवश पद्म-किशलय की भाँति जल के भीतर और मल से ऊपर। उन्हें देखकर ही जाना जा सकता है कि राजा जनक अपने राज्य का संचालन किस तरह करते रहे होंगे।
एक भिक्षुणी को अपनी ओर आते देखकर उसकी ओर प्रश्न-चंचल दृष्टि से देखते हैं।
‘‘आचार्य अश्वघोष !’’ भिक्षुणी नम्र स्वर में सूचना देती है।
‘‘अभ्यर्थना सहित उन्हें मेरे कक्ष में पहुँचाओ और शेष भिक्षुओं के आवास का भी प्रबन्ध करो।’
भिक्षुणी लौट पड़ती है। पुण्ययश उसे जाती हुई लक्ष्य करते रहते हैं। कितना उल्लास है उसकी गति में। पुण्ययश के होंठों को उल्लास की एक क्षीण रेखा अधिक स्निग्ध कर जाती है। ओझल हो गई भिक्षुणी। भिक्षुणी जयन्तिका ओझल हो गई है पर पुण्ययश के होंठों की उल्लास-रेखा अब तक नए-नए वक्रों में काँपती जा रही है।
क्या अवस्था होगी इस भिक्षुणी की ? पैंतालीस से कम तो नहीं ही। अश्वघोष सम्प्रति पचास के हैं। समवयस्क हैं पुण्ययश के। यह अधिक-से-अधिक पाँच वर्ष कम होगी अश्वघोष से। दीक्षा लिये भी बीस वर्ष हो गए पर अभी तक मन का राग-भाव नहीं गया। प्रातःकाल से ही सत्र के प्रकोष्ठ पर जाकर जाने कितने व्याजों से उत्तर की ओर, दृष्टि छोर से भी परे तक फैले मार्ग को निहारती रही होगी। वह पथ जो तक्षशिला को जाता है। उस दिशा में जाते और आते हुए सार्थों का अनुगमन करती रही होगी अपनी दृष्टि से और पुनः थककर, निराश होकर लौट आती रही होगी। अश्वघोष अभी तक नहीं आए ! यह भी ध्यान नहीं कि कल कि ही वर्षागम का प्रथम उपोसथ है। यह भी ध्यान नहीं कि उनकी प्रतीक्षा में कोई कितना उद्विग्न होगा।
जैसे भूल गए हों पुण्ययश कि यहाँ और लोग भी बैठे हैं। इस क्षीण सी कल्पना को चूस रहे हों जैसे। जयन्तिका को जिसकी इतनी आतुर प्रतीक्षा थी वह आ गए। अश्वघोष आ गए। पुण्ययश लीन हो गए हैं अपने आपमें। अपने आपमें नहीं, अश्वघोष में।
आयुष्मान अश्वघोष ! बौद्ध और वैदिक वांग्मय के अनन्य अधिकारी !
संगीत के अनन्य मर्मज्ञ ! आश्चर्य है उनका वीणावादन ! अद्भुत है उनका स्वर-माधुर्य ! श्रुति है कि उनके वीणा के स्वर से पशु-पक्षी तक आत्म-विस्मृत हो जाते हैं। नारद मुनि के विषय में जो कहानी प्रचलित है वह अक्षरशः सत्य होगी, इसे अश्वघोष को वीणा बजाते देखकर ही समझा जा सकता है। लोक में रस की निर्झरिणी बहाते हुए दर्शन के गहन विषयों को काव्यनिबद्ध करके प्रचारित करने की भारत की सुदीर्घ परम्परा की अन्तिम कड़ी हैं अश्वघोष। ठीक नारद की ही भाँति देवलोक से भूलोक तक सर्वत्र गति है अश्वघोष की। नहीं होती तो बुद्ध के जीवन में वह सरसता कहाँ से ला पाते ! पिता, विमाता, युग और लोक की मर्यादा को उज्ज्वल रखते हुए बुद्ध के मन में विराग की भावना का उदय और बुद्ध का गृह-त्याग कैसे दिखा पाते, यदि दैव-गति का आश्रय न लेते तो !
असाधारण है उनकी काव्य-प्रतिभा। चित्र-विलासिनी है उनकी कल्पना। हमें जो शुष्क काष्ठखंड दिखाई देता है उसमें भी तक्षक को सोये हुए फूल और पत्तियाँ दिखाई देती हैं। वह उन्हें देखता है और अपनी तक्षणी के कुशल आघातों से खींचकर बाहर निकाल देता है और उस लोकोत्तर सृष्टि का दर्शन हम कल्पनाशून्य जनों को भी करा देता है। भाष्कर प्रस्तर-शिला में तन्द्रालीन देवों, देवांगनाओं और रूपसियों को देखता ही नहीं, अपनी छेनी से गुदगुदाकर उनकी तन्द्रा भंगकर हमारे सम्मुख स्मिति-विकच मुद्रा में उपस्थित भी कर देता है। और कवि ! उन्हीं अनगढ़ तथ्यों को ऐसी भंगी दे देता है कि उन धूसर, मलिन, निस्सार तथ्यों से सूर्य-रश्मियाँ फूटने लगती हैं। प्रत्येक कवि कुछ मणियाँ हमारे भंडार में छोड़ ही जाता है, पर अश्वघोष जैसा कवि ! स्पर्शमणि की भाँति वह जिस वस्तु का ही स्पर्श करता है उसका रूप स्वर्ण-भास्वर हो उठता है।
और जब तर्क करने लगते हैं अश्वघोष ! कौन कह सकता है कि यह तर्कजीव कहीं सरस भी होगा। कहते हैं, उनकी युक्तियों से तर्क अपने फलक की तीक्ष्णता पहचानता है। उनकी वाक्-शक्ति से हत्प्रभ हो विपक्षी तक साधुवाद देने लगते हैं।
आश्चर्य हैं अश्वघोष ! अपूर्व हैं अश्वघोष ! उनकी एक भी विशेषता किसी अन्य व्यक्ति में हो तो वह मदान्ध हो उठेगा। पर आयुष्मान् अश्वघोष ! समस्त वांग्मय का दोहन कर लेने पर भी यह लगता है कि गर्व, अहंकार जैसे शब्द उनकी दृष्टि में आए ही नहीं।
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