कविता संग्रह >> सिर्फ कवि नहीं सिर्फ कवि नहींबोधिसत्व
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सिर्फ कवि नहीं...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सिर्फ़ कवि नहीं
नहीं मान सकता मैं
कि ठंड से इनका कुछ न बिगड़ेगा
कि आग इन्हें तपा कर
झुलसा तक नहीं पाएगी,
कि हवा
केवल इनकी शाखों में
झूल कर रह जाएगी,
बरसात में
भींग गई है इनकी देह
इनका खड़ा रह पाना
कुछ मुश्किल लग रहा है,
बढ़इयों को चाहिए
कि इनके लिए गढ़ें
कमींज़,
तैयार करें इनके लिए
जूते,
वैसे भी ये
टोपी की माँग
अक्सर नहीं करते
मैं सिर्फ़ कवि नहीं हूँ
समझ रहा हूँ
मौसम कुछ ठीक-ठाक नहीं है।
इसी पुस्तक से
कि ठंड से इनका कुछ न बिगड़ेगा
कि आग इन्हें तपा कर
झुलसा तक नहीं पाएगी,
कि हवा
केवल इनकी शाखों में
झूल कर रह जाएगी,
बरसात में
भींग गई है इनकी देह
इनका खड़ा रह पाना
कुछ मुश्किल लग रहा है,
बढ़इयों को चाहिए
कि इनके लिए गढ़ें
कमींज़,
तैयार करें इनके लिए
जूते,
वैसे भी ये
टोपी की माँग
अक्सर नहीं करते
मैं सिर्फ़ कवि नहीं हूँ
समझ रहा हूँ
मौसम कुछ ठीक-ठाक नहीं है।
इसी पुस्तक से
निराला से
तुम्हारी आँखों में
मधुर आँच में क्या सिझ रहा है
जैसे कविता.....
जैसे बहुत कुछ।
क्या हुआ जो तुम मिले नहीं मुझसे
तुम्हारा अंधकार में दमकता
ललाट मैंने नहीं देखा
पछता नहीं रहा
तुम हुन्नरी थे
मेरे आदि आचार्य !
मैं भरम रहा हूँ
इधर-उधर, नार-खोह में
पौरुषहीन नहीं मैं,
तुम्हारा दिया बहुत कुछ है मेरे-पास
मैं भरमूँगा और पाऊँगा
जो चाहिए मुझे।
मेरे-तुम्हारे बीच
बहुत सारे चेहरे हैं झुलसे हुए
बहुत सारे दुखों के दुख हैं
ओ मेरे पुरनियाँ !
तुम्हारी आँखों में
क्या सिझ रहा है
मेरे लिए-उनके लिए
कविता.........
और बहुत कुछ।
मधुर आँच में क्या सिझ रहा है
जैसे कविता.....
जैसे बहुत कुछ।
क्या हुआ जो तुम मिले नहीं मुझसे
तुम्हारा अंधकार में दमकता
ललाट मैंने नहीं देखा
पछता नहीं रहा
तुम हुन्नरी थे
मेरे आदि आचार्य !
मैं भरम रहा हूँ
इधर-उधर, नार-खोह में
पौरुषहीन नहीं मैं,
तुम्हारा दिया बहुत कुछ है मेरे-पास
मैं भरमूँगा और पाऊँगा
जो चाहिए मुझे।
मेरे-तुम्हारे बीच
बहुत सारे चेहरे हैं झुलसे हुए
बहुत सारे दुखों के दुख हैं
ओ मेरे पुरनियाँ !
तुम्हारी आँखों में
क्या सिझ रहा है
मेरे लिए-उनके लिए
कविता.........
और बहुत कुछ।
घुमन्ता-फिरन्ता
बाबा नागार्जुन !
तुम पटने, बनारस, दिल्ली में
खोजते हो क्या
दाढ़ी-सिर खुजाते
तब तक होगा हमारा गुजर-बसर
टुटही मँड़ई में ऐसे
लाई-लून चबा के।
तुम्हारी यह चीलम-सी नाक
चौड़ा चेहरा-माथा
सिझी हुयी चमड़ी के नीचे
घुड़े खूब तरौनी-गाथा।
तुम हो हमारे हितू, बुजरुक
सच्चे मेंठ
घुमन्ता-फिरन्ता उजबक्-चतुर
मानुष ठेंठ।
मिलना इसी जेठ-बैसाख
या अगले अगहन,
देना हमें हड्डियों में
चिर-संचित धातु गहन।
तुम पटने, बनारस, दिल्ली में
खोजते हो क्या
दाढ़ी-सिर खुजाते
तब तक होगा हमारा गुजर-बसर
टुटही मँड़ई में ऐसे
लाई-लून चबा के।
तुम्हारी यह चीलम-सी नाक
चौड़ा चेहरा-माथा
सिझी हुयी चमड़ी के नीचे
घुड़े खूब तरौनी-गाथा।
तुम हो हमारे हितू, बुजरुक
सच्चे मेंठ
घुमन्ता-फिरन्ता उजबक्-चतुर
मानुष ठेंठ।
मिलना इसी जेठ-बैसाख
या अगले अगहन,
देना हमें हड्डियों में
चिर-संचित धातु गहन।
आसान नहीं है
आसान नहीं है
मुझसे पार पाना
मैं जेठ की गरम लूक हूँ
और दिसम्बर की पाला-मार हवा।
मैं अंधेरे में झुका हुआ
केले का नरम पत्ता हूँ
जिसे चीर जाती है
उतावली हवा
मुहब्बत में।
मैं तमाम जंगलों से दूर
तन कर खड़ा बर का पेड़ हूँ
अपने गाँठों-भरे तने को फैलाता हुआ।
मैं गेहुएँ रंग का पत्थर हूँ
पर उस पर खुदा हुआ
झूठा बखान नहीं हूँ
आसान नहीं है
मुझसे पार पाना।
मुझसे पार पाना
मैं जेठ की गरम लूक हूँ
और दिसम्बर की पाला-मार हवा।
मैं अंधेरे में झुका हुआ
केले का नरम पत्ता हूँ
जिसे चीर जाती है
उतावली हवा
मुहब्बत में।
मैं तमाम जंगलों से दूर
तन कर खड़ा बर का पेड़ हूँ
अपने गाँठों-भरे तने को फैलाता हुआ।
मैं गेहुएँ रंग का पत्थर हूँ
पर उस पर खुदा हुआ
झूठा बखान नहीं हूँ
आसान नहीं है
मुझसे पार पाना।
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