पौराणिक >> कृष्णा कृष्णायुगेश्वर
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कृष्णा
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘इन खुले केशों को देखा। मेरे ये केश दु:शासन के
रक्त की प्रतीक्षा में खुले हैं। दु:शासन के रक्त से इनका श्रृंगार संभव है। मेरे
पति भीम की ओर देखो। वे दु:शासन का रक्त पीने के लिए अपनी जिह्वा को
आश्वासन देते आ रहे हैं। दु:शासन के तप्त रक्त से ही वे मेरे खुले केशों
को बाँधेंगे।
‘‘मेरी केश नागिन दु:शासन का रक्त पीना चाहती है। मैं प्रतिहिंसा की अग्नि में तेरह वर्षों तक जलती रही हूँ। प्रतिहिंसा के कारण ही जीवन धारण किए हूँ; वरना जिस दिन सभा में दु:शासन ने मेरे केश खींचे थे, मैं उसी दिन प्राणों का विसर्जन कर देती। मैं जानती थी कि जिसके पाँच वीर पति हैं, श्रीकृष्ण जैसे सखा हैं, उसे आत्महत्या का पाप करने की आवश्यकता नहीं। आज तुम्हें और महाराज युधिष्ठिर को दुर्योधन से समझौता करते देख मुझे निराशा होती है। क्या इसी समझौते के लिए मैं वन-वन भटकती रही ? नीच कीचक का पद-प्रहार सहा ? रानी सुदेष्णा की दासी बनी ? तुम लोगों का यह समझौता प्रस्ताव मेरी उपेक्षा है, मेरे साथ अन्याय है, नारी जाति के प्रति अपमान की स्वीकृति है। अन्यायी कौरवों से समझौता कर तुम अन्याय को मान्यता दोगे, धर्म का नाश और आसुरी शक्ति की वृद्धि करोगे साधुता को निराश और पीड़ित करोगे।.....राजा युधिष्ठिर राजा हैं, वे अपनी सहनशीलता रखें, मैं कुछ नहीं कहती; किंतु तुम तो धर्म विरोधियों के नाश के लिए ही पृथ्वी पर आए हो। क्या तुम अपने आगमन को भुला देना चाहते हो ? पाँच या पचास गाँव लेकर तुम और राजा युधिष्ठिर संतुष्ट हो सकते हैं, किंतु काल-नागिन जैसे मेरे इन केशों को संतोष नहीं हो सकता। मुझे इतना दु:ख कभी नहीं हुआ था जितना आज तुम्हारे इस.....’’
‘‘मेरी केश नागिन दु:शासन का रक्त पीना चाहती है। मैं प्रतिहिंसा की अग्नि में तेरह वर्षों तक जलती रही हूँ। प्रतिहिंसा के कारण ही जीवन धारण किए हूँ; वरना जिस दिन सभा में दु:शासन ने मेरे केश खींचे थे, मैं उसी दिन प्राणों का विसर्जन कर देती। मैं जानती थी कि जिसके पाँच वीर पति हैं, श्रीकृष्ण जैसे सखा हैं, उसे आत्महत्या का पाप करने की आवश्यकता नहीं। आज तुम्हें और महाराज युधिष्ठिर को दुर्योधन से समझौता करते देख मुझे निराशा होती है। क्या इसी समझौते के लिए मैं वन-वन भटकती रही ? नीच कीचक का पद-प्रहार सहा ? रानी सुदेष्णा की दासी बनी ? तुम लोगों का यह समझौता प्रस्ताव मेरी उपेक्षा है, मेरे साथ अन्याय है, नारी जाति के प्रति अपमान की स्वीकृति है। अन्यायी कौरवों से समझौता कर तुम अन्याय को मान्यता दोगे, धर्म का नाश और आसुरी शक्ति की वृद्धि करोगे साधुता को निराश और पीड़ित करोगे।.....राजा युधिष्ठिर राजा हैं, वे अपनी सहनशीलता रखें, मैं कुछ नहीं कहती; किंतु तुम तो धर्म विरोधियों के नाश के लिए ही पृथ्वी पर आए हो। क्या तुम अपने आगमन को भुला देना चाहते हो ? पाँच या पचास गाँव लेकर तुम और राजा युधिष्ठिर संतुष्ट हो सकते हैं, किंतु काल-नागिन जैसे मेरे इन केशों को संतोष नहीं हो सकता। मुझे इतना दु:ख कभी नहीं हुआ था जितना आज तुम्हारे इस.....’’
कृष्णा
एक
अर्जुन का मन दुहरे विषाद में डूब गया। यों दूसरे विषाद ने प्रथम विषाद को
कुछ कम कर दिया, जैसे नए अतिथि को पाकर पुराने अतिथि का आदर कम हो जाना
स्वाभाविक है।....भीम भाई से उन्हें यह आशा नहीं थी। उत्तेजना में भी सोच
की एक सीमा होती है। शत्रु तो यही चाहते हैं कि पांडवों में फूट पड़ जाय।
कौरव भलीभाँति जानते हैं कि पांडव पाँच नहीं, छह और सात हैं। पाँच पांडु पुत्रों के अतिरिक्त छठी हैं महारानी द्रौपदी और सातवें हैं श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण पांडवों की आत्मा हैं, जिनके साथ ये छह देह जीवित हैं। श्रीकृष्ण के बाद दूसरा स्थान महारानी पांचाली का है। पांचाली पांडवों की श्री, लक्ष्मी और विद्या हैं। रूप, गुण संपन्न इस देवी को पाकर पांडव प्रसन्न हैं। देवी द्रौपदी पर भगवान वासुदेव की विशेष कृपा है। उन्हीं वासुदेव की कृपा का फल है कि द्रौपदी पांडवों को प्राप्त हुईं।
जब से द्रौपदी पांडवों की प्राप्त हुई, दुर्योधन और कर्ण का पांडवों के प्रति द्वेष और बढ़ गया है। उस दिन की सभा में द्रुपदकुमारी महारानी पांचाली के साथ जो कुछ हुआ वह उसी बढ़ते द्वेष का परिणाम था। उस दिन की घटना के अलग-अलग अर्थ हैं, भिन्न-भिन्न उद्देश्य हैं। किंतु कुल मिलाकर एक बात स्पष्ट है कि कौरवों ने पांडव कुल-लक्ष्मी को रौंद देना चाहा था। पांडवों का सुख उनके लिए असह्य था।
किन्तु ज्येष्ठ भ्राता भीम को क्या कहा जाय ! आज वे अत्यधिक उत्तेजित हैं। इस उत्तेजना में वे क्या करेंगे, कहना कठिन है। कृपा है परमात्मा की कि सभा में उन्होंने उपद्रव नहीं किया। एक बार तो उनका हाथ गदा की ओर गया। वे आवेश में अपने स्थान से उठने लगे थे; किंतु पूज्य भ्राता युधिष्ठिर का संकेत पाकर बैठ गए। दुर्योधन प्रसन्न था। वह चाहता था, आज ही, इसी सभा में पांडव-कौरव समस्या का निर्णय हो जाए। कर्ण उसे उकसा रहा था। उद्वेग का कर्म कभी अच्छा नहीं होता है। उद्वेग विफलता का प्रथम चरण है। इसमें भीम का भी दोष है ! दुर्योधन ने भीम के साथ क्या नहीं किया ? उन्हें विष खिलाकर, लताओं से बाँधकर नदी में बहा दिया।.....लाक्षागृह में सबके साथ उन्हें भी जलाना चाहा था। ‘बैल’ कह-कहकर उन्हें बार-बार अपमानित किया। अग्रज राजा युधिष्ठिर कभी भी भीम को अकेला नहीं छेड़ते थे। पता नहीं दुष्ट दुर्योधन उन्हें कब कहाँ, कैसे नष्ट करने का प्रयत्न करे। यद्यपि भीम भाई का मारना असंभव है। यह जानकर ही दुर्योधन उन्हें अपमानित करने लगा है। किंतु डरता भी कम नहीं है; भीम असाधारण हैं।
एक दिन हम लोग स्नान कर लौट रहे थे। इसी बीच बालकों की मंडली में ‘बैल-बैल’ का शोर हो रहा था। समझते देर नहीं लगी कि यह दुर्योधन का नीच उपक्रम है। उसने निर्दोष बटुकों को प्रलोभन देकर क्षुद्र शोर कराया है। वह समझता है, इससे भीम उत्तेजित होकर बालकों को मारने लगेंगे। लोगों को भीम का अपयश होगा। लोग भैया की वीरता की हँसी उड़ाएँगे। वाह रे भीम ! कौरवों को छोड़ बालकों पर हाथ उठाता है। बालवध करना चाहता है ! अरे भाई ! बालक अबोध हैं। उन्हें क्या पता, वे क्या कर रहे हैं। उन्हें तो जैसी शिक्षा दी जाए.....। इसीलिए बालक अवध्य होते हैं। हमारे समाज में बालक और स्त्री क्षम्य हैं। बालक अबोध है और स्त्री निर्बल। प्रसन्नता है कि भैया भीम उत्तेजित नहीं हुए। उन्होंने बालकों के शोर की पूर्ण उपेक्षा की, जैसे उन्होंने कुछ सुना ही न हो। उपस्थित नगर-जन समझ गए थे। उनमें से कुछ ने साहस कर बालकों को भगा दिया। धीरे-धीरे नगर-जनों में भी दुर्योधन का भय बढ़ रहा है। संभवत: वे पितामह भीष्म और राजा युधिष्ठिर के मौन को देख रहे हैं।
दुर्योधन सबसे अधिक भीम भाई से ही भयभीत रहता है। यह भी जानता है कि भीम भाई शीघ्र उत्तेजित होते हैं। उन्हें उत्तेजित कर वह पांडवों की लोकनिंदा कराना चाहता है। क्योंकि उत्तेजना उन्हें भी पसंद नहीं है जो स्वयं उत्तेजित रहते हैं।
कौरव सभा में जो कुछ घटा, वह किसीके लिए भी दु:खद था। कोई भी सभ्य समाज इसे अच्छा नहीं कहेगा। पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सिर झुके थे। वे कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे। मेरा मन भी क्षुब्ध था। मैं तो राजा की ओर देख रहा था। वे शांत बैठे थे। निश्चय ही उनकी शांति मेरे लिए आश्वासन थी। राजा की शांति में कातरता नहीं, पौरुष मौन था। यही तो अंतर है राजा युधिष्ठिर और भैया भीम में। राजा युधिष्ठिर देश-काल के परे भी देखते हैं, जबकि भ्राता भीम केवल पांडव स्वार्थ की तात्कालिकता ही देख पाते हैं। इसी से वे अग्नि स्फुलिंग सा जलते-बूझते हैं। भैया भीम में ताप है। इस ताप में केवल ध्वंस है। यह ध्वंस कभी निर्माण नहीं बन सकता। राजा को तो सह सबना होता है। शीघ्र उत्तेजित होनेवाला न राजा हो सकता है, न राज्य-रक्षा कर सकता है।
उत्तेजना का ही फल था कि भैया भीम ने अपनी प्रिया पांचाली के बारे में वह कह दिया जो दुर्योधन और कर्ण कहते हैं। दुर्योधन और कर्ण यही तो चाहते हैं, रानी द्रौपदी किसी भी तरह से पांडवों से विमुख हो जाएँ।
उस दिन सभा का दृश्य अत्यंत ही हृदयविदारक था। ऐसा नहीं कि राजा युधिष्ठिर को क्रोध नहीं आया। किंतु ऐसे अवसरों पर वे भी अपने में सिमट जाते हैं। उन्होंने दृढ़ता से अपने आवरण को कस लिया था। कहीं आवेग में आवरण फट न जाए। यही तो अवसर है। इसी अवसर के लिए शांति बनती है, शांति की यवनिका बनती है। देखता होता है कि क्रोध का वायुवेद उस यवनिका को न उड़ाए, न विदीर्ण करे। किंतु भीम भैया के वक्ष में तप्त वायु भर रही थी। यह उनकी फड़कती नासिका से स्पष्ट था।
मैं बड़ी दुविधा में था। एक तरफ थी पांचाली और पांचाली के साथ होनेवाला अन्याय। आखिर पांचाली का क्या ! उसे तो कर्ण भी पा सकता था। किंतु मेरे ही कारण उसने घोषणा की कि वह सूतपुत्र (अर्थात् कर्ण) का वरण नहीं करेगी। नाहम् वरयामि सूतम्। कर्ण के मुख का रंग उतर गया था। जाति ने उसे पुन: अपमानित किया था। उसके पास पौरुष था, शरीर और शस्त्र की शक्ति थी। किंतु जन्म और जाति की शक्ति नहीं थी। उनका जन्म क्षत्रियेतर परिवार में हुआ था। पांडव-द्वेष में दुर्योधन ने कर्ण को राजा बनाया। उसे क्षत्रीत्व देना चाहा, किंतु कर्मणा क्षत्रीत्व को जन्मना की स्वीकृति नहीं मिली। स्वयं कर्ण में क्षत्रिय अभिमान नहीं जाग रहा था। क्षत्रिय गौरव से हीन कर्ण केवल द्वेषी बनकर रह गया। जन्म और जातिहीनता को कर्ण ने अपने बल और दान से पूरा करना चाहा; किंतु हीनता का घुन भीतर-ही-भीतर उसे खोखला करता गया।
कर्ण ने शिष्य मर्यादा से भी छल किया। महान् गुरु परशुराम को धोखा दिया। शिक्षा में असत्य का प्रवेश कराया। असत्य से प्राप्त शिक्षा शापित हो गई।
ओ कर्ण ! तुमसे अच्छा तो वह जंगली था, उसने झूठ का प्रयोग नहीं किया। उसकी निष्ठा ने उसे असत्याचरण से रोका। अँगूठा देते समय भी वह आत्मविश्वासी बना रहा। गुरु की मृण्मयमूर्ति से सीखा। अँगूठा देकर भी उसने अपनी निष्ठा का तिरस्कार नहीं किया। उसने कभी असत्य का पक्ष भी नहीं लिया। यद्यपि निषाद एकलव्य महाराज युधिष्ठिर के राजसयू यज्ञ में सम्मानित अतिथि था। भगवान् श्रीकृष्ण के विरोधी शिशुपाल ने उसे उकसाने का पूरा प्रयत्न किया; किंतु वह तटस्थ ही रहा। स्यात् उसने सोचा होगा, पारिवारिक द्वंद्व में परिवार से बाहरवालों का पड़ना अनुचित है। कर्ण....। न क्षत्रिय हो सका, न निषाद। चक्रवर्ती हो नहीं सकता था। सूत कर्म से विरत हो चुका था।....
पांचाली ने उसे और भी मर्माहत कर दिया था। कर्ण का हठ और उत्साह तो देखो। वह बार-बार क्षत्रियों की सभा में जाता। दैव योग से उसे बार-बार पांडवों से ही हार मिलती।
पांचाली कर्ण को अस्वीकार कर रही थी। किंतु उसकी दृष्टि कर्ण पर नहीं थी। वह कर्ण को नहीं को नहीं देख रही थी। वह कभी पांडवों को और कभी उद्वेलित जन-समुद्र को देखती।
पांडवों को पहचाननेवाले सर्वप्रथम श्रीकृष्ण थे। वे बलदेव भाई के कानों में इस पहचान को बता रहे थे ?
पांचाली ने तो पांडवों को कभी देखा नहीं था। फिर भी उसने उन्हें कैसे पहचाना ?
पहचाना क्या ? कृष्ण जैसी पहचान तो थी नहीं, उसका दृढ़ निश्चय ही उसकी पहचान थी। वह कर्ण को नहीं चाहती है। उसके जीवन में कर्ण का प्रवेश संभव न था।
पांचाली को पूरा विश्वास था। प्रेम की शक्ति अन्य सभी शक्तियों से बलवान् है। प्रेम आंतरिक शक्ति है। यह आंतरिक शक्ति अर्जुन को यहाँ अवश्य उपस्थित करेगी।
यह सच था। अर्जुन किसी अज्ञात प्रेरमा से खिंचे जा रहे थे। जिस अज्ञात शक्ति ने उन्हें लाक्षागृह में जलने से बचाया था वही पांचाल ले आई। वही द्रौपदी प्राप्त कराएगी।
शाम होते ही गउँए भूखे वत्स के लिए वन की हरीतिमी छोड़कर भागने लगती हैं। उनके थन भारी हो जाते हैं। उनसे रस टपकने लगता हैं। वे धूल उड़ाती दौड़ने लगती हैं। एक व्याकुल भूख की प्रतीक्षा उन्हें व्याकुल कर देती है।
अर्जुन की आँखों में मछली की आँख थी; किंतु द्रौपदी केवल अर्जुन को देख रही थी।
द्रौपदी के कल्पना-मन में अर्जुन की एक छवि थी। लक्ष्यभेद के लिए आगे बढ़ते अर्जुन को देखकर द्रौपदी ने अपनी कल्पना मूर्ति को अर्जुन के बलिष्ठ शरीर से मिलाकर देखा। ठीक वही, ठीक वही। कल्पना की साकार प्रतिमा।.....
द्रौपदी मन-ही-मन प्रसन्न हुई। उसने सूतपुत्र को निमित्त बनाकर अनेक क्षत्रिय राजाओं का उत्साह छीन लिया था। अनेक राजा तो द्रौपदी की तेजस्विता से प्रभावहीन हो गए थे। इतनी तेजस्वी, ज्वलंतशील, तप्तांगार नारी उनकी कल्पना में नहीं थी।
द्रौपदी जब से कुछ समझने लगी थी, वह अर्जुन के बारे में सुनती। कर्ण की भी चर्चा होती। समाज कर्ण में शील, सौजन्य का अभाव देखता। कर्ण का उद्धत स्वभाव लोगों को पसंद नहीं था। इस कारण उसकी दान महिना भी धूमिल रहती।
द्रौपदी के मन में कर्ण के धर्मदान की कोई छवि नहीं थी। वह कर्ण को नितांत दंभी समझती थी। स्यात् उसका दान भी दंभ था।
स्वयंभर सभा में कर्ण की उपस्थिति से अनेक राजा अत्यंत प्रभावित थे। कर्ण की खुली भुजा और बलिष्ठ देह पर प्राकृत कवच और कानों में कुंडल की चमक थी। दिन के प्रकाश में सूर्य की किरणों द्वारा कवच एवं कुंडल की चटक और भी बढ़ जाती थी। कर्ण के चारों ओर उसी के प्रभामंडल ने घेर रखा था। अपने तीव्र प्रभा प्रकाश में कर्ण सूर्य-सा तप रहा था। स्वयं दुर्योधन कर्ण के प्रभामंडल में था। लोग आश्चर्य से कर्ण की ओर देख रहे थे।
कौरव भलीभाँति जानते हैं कि पांडव पाँच नहीं, छह और सात हैं। पाँच पांडु पुत्रों के अतिरिक्त छठी हैं महारानी द्रौपदी और सातवें हैं श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण पांडवों की आत्मा हैं, जिनके साथ ये छह देह जीवित हैं। श्रीकृष्ण के बाद दूसरा स्थान महारानी पांचाली का है। पांचाली पांडवों की श्री, लक्ष्मी और विद्या हैं। रूप, गुण संपन्न इस देवी को पाकर पांडव प्रसन्न हैं। देवी द्रौपदी पर भगवान वासुदेव की विशेष कृपा है। उन्हीं वासुदेव की कृपा का फल है कि द्रौपदी पांडवों को प्राप्त हुईं।
जब से द्रौपदी पांडवों की प्राप्त हुई, दुर्योधन और कर्ण का पांडवों के प्रति द्वेष और बढ़ गया है। उस दिन की सभा में द्रुपदकुमारी महारानी पांचाली के साथ जो कुछ हुआ वह उसी बढ़ते द्वेष का परिणाम था। उस दिन की घटना के अलग-अलग अर्थ हैं, भिन्न-भिन्न उद्देश्य हैं। किंतु कुल मिलाकर एक बात स्पष्ट है कि कौरवों ने पांडव कुल-लक्ष्मी को रौंद देना चाहा था। पांडवों का सुख उनके लिए असह्य था।
किन्तु ज्येष्ठ भ्राता भीम को क्या कहा जाय ! आज वे अत्यधिक उत्तेजित हैं। इस उत्तेजना में वे क्या करेंगे, कहना कठिन है। कृपा है परमात्मा की कि सभा में उन्होंने उपद्रव नहीं किया। एक बार तो उनका हाथ गदा की ओर गया। वे आवेश में अपने स्थान से उठने लगे थे; किंतु पूज्य भ्राता युधिष्ठिर का संकेत पाकर बैठ गए। दुर्योधन प्रसन्न था। वह चाहता था, आज ही, इसी सभा में पांडव-कौरव समस्या का निर्णय हो जाए। कर्ण उसे उकसा रहा था। उद्वेग का कर्म कभी अच्छा नहीं होता है। उद्वेग विफलता का प्रथम चरण है। इसमें भीम का भी दोष है ! दुर्योधन ने भीम के साथ क्या नहीं किया ? उन्हें विष खिलाकर, लताओं से बाँधकर नदी में बहा दिया।.....लाक्षागृह में सबके साथ उन्हें भी जलाना चाहा था। ‘बैल’ कह-कहकर उन्हें बार-बार अपमानित किया। अग्रज राजा युधिष्ठिर कभी भी भीम को अकेला नहीं छेड़ते थे। पता नहीं दुष्ट दुर्योधन उन्हें कब कहाँ, कैसे नष्ट करने का प्रयत्न करे। यद्यपि भीम भाई का मारना असंभव है। यह जानकर ही दुर्योधन उन्हें अपमानित करने लगा है। किंतु डरता भी कम नहीं है; भीम असाधारण हैं।
एक दिन हम लोग स्नान कर लौट रहे थे। इसी बीच बालकों की मंडली में ‘बैल-बैल’ का शोर हो रहा था। समझते देर नहीं लगी कि यह दुर्योधन का नीच उपक्रम है। उसने निर्दोष बटुकों को प्रलोभन देकर क्षुद्र शोर कराया है। वह समझता है, इससे भीम उत्तेजित होकर बालकों को मारने लगेंगे। लोगों को भीम का अपयश होगा। लोग भैया की वीरता की हँसी उड़ाएँगे। वाह रे भीम ! कौरवों को छोड़ बालकों पर हाथ उठाता है। बालवध करना चाहता है ! अरे भाई ! बालक अबोध हैं। उन्हें क्या पता, वे क्या कर रहे हैं। उन्हें तो जैसी शिक्षा दी जाए.....। इसीलिए बालक अवध्य होते हैं। हमारे समाज में बालक और स्त्री क्षम्य हैं। बालक अबोध है और स्त्री निर्बल। प्रसन्नता है कि भैया भीम उत्तेजित नहीं हुए। उन्होंने बालकों के शोर की पूर्ण उपेक्षा की, जैसे उन्होंने कुछ सुना ही न हो। उपस्थित नगर-जन समझ गए थे। उनमें से कुछ ने साहस कर बालकों को भगा दिया। धीरे-धीरे नगर-जनों में भी दुर्योधन का भय बढ़ रहा है। संभवत: वे पितामह भीष्म और राजा युधिष्ठिर के मौन को देख रहे हैं।
दुर्योधन सबसे अधिक भीम भाई से ही भयभीत रहता है। यह भी जानता है कि भीम भाई शीघ्र उत्तेजित होते हैं। उन्हें उत्तेजित कर वह पांडवों की लोकनिंदा कराना चाहता है। क्योंकि उत्तेजना उन्हें भी पसंद नहीं है जो स्वयं उत्तेजित रहते हैं।
कौरव सभा में जो कुछ घटा, वह किसीके लिए भी दु:खद था। कोई भी सभ्य समाज इसे अच्छा नहीं कहेगा। पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सिर झुके थे। वे कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे। मेरा मन भी क्षुब्ध था। मैं तो राजा की ओर देख रहा था। वे शांत बैठे थे। निश्चय ही उनकी शांति मेरे लिए आश्वासन थी। राजा की शांति में कातरता नहीं, पौरुष मौन था। यही तो अंतर है राजा युधिष्ठिर और भैया भीम में। राजा युधिष्ठिर देश-काल के परे भी देखते हैं, जबकि भ्राता भीम केवल पांडव स्वार्थ की तात्कालिकता ही देख पाते हैं। इसी से वे अग्नि स्फुलिंग सा जलते-बूझते हैं। भैया भीम में ताप है। इस ताप में केवल ध्वंस है। यह ध्वंस कभी निर्माण नहीं बन सकता। राजा को तो सह सबना होता है। शीघ्र उत्तेजित होनेवाला न राजा हो सकता है, न राज्य-रक्षा कर सकता है।
उत्तेजना का ही फल था कि भैया भीम ने अपनी प्रिया पांचाली के बारे में वह कह दिया जो दुर्योधन और कर्ण कहते हैं। दुर्योधन और कर्ण यही तो चाहते हैं, रानी द्रौपदी किसी भी तरह से पांडवों से विमुख हो जाएँ।
उस दिन सभा का दृश्य अत्यंत ही हृदयविदारक था। ऐसा नहीं कि राजा युधिष्ठिर को क्रोध नहीं आया। किंतु ऐसे अवसरों पर वे भी अपने में सिमट जाते हैं। उन्होंने दृढ़ता से अपने आवरण को कस लिया था। कहीं आवेग में आवरण फट न जाए। यही तो अवसर है। इसी अवसर के लिए शांति बनती है, शांति की यवनिका बनती है। देखता होता है कि क्रोध का वायुवेद उस यवनिका को न उड़ाए, न विदीर्ण करे। किंतु भीम भैया के वक्ष में तप्त वायु भर रही थी। यह उनकी फड़कती नासिका से स्पष्ट था।
मैं बड़ी दुविधा में था। एक तरफ थी पांचाली और पांचाली के साथ होनेवाला अन्याय। आखिर पांचाली का क्या ! उसे तो कर्ण भी पा सकता था। किंतु मेरे ही कारण उसने घोषणा की कि वह सूतपुत्र (अर्थात् कर्ण) का वरण नहीं करेगी। नाहम् वरयामि सूतम्। कर्ण के मुख का रंग उतर गया था। जाति ने उसे पुन: अपमानित किया था। उसके पास पौरुष था, शरीर और शस्त्र की शक्ति थी। किंतु जन्म और जाति की शक्ति नहीं थी। उनका जन्म क्षत्रियेतर परिवार में हुआ था। पांडव-द्वेष में दुर्योधन ने कर्ण को राजा बनाया। उसे क्षत्रीत्व देना चाहा, किंतु कर्मणा क्षत्रीत्व को जन्मना की स्वीकृति नहीं मिली। स्वयं कर्ण में क्षत्रिय अभिमान नहीं जाग रहा था। क्षत्रिय गौरव से हीन कर्ण केवल द्वेषी बनकर रह गया। जन्म और जातिहीनता को कर्ण ने अपने बल और दान से पूरा करना चाहा; किंतु हीनता का घुन भीतर-ही-भीतर उसे खोखला करता गया।
कर्ण ने शिष्य मर्यादा से भी छल किया। महान् गुरु परशुराम को धोखा दिया। शिक्षा में असत्य का प्रवेश कराया। असत्य से प्राप्त शिक्षा शापित हो गई।
ओ कर्ण ! तुमसे अच्छा तो वह जंगली था, उसने झूठ का प्रयोग नहीं किया। उसकी निष्ठा ने उसे असत्याचरण से रोका। अँगूठा देते समय भी वह आत्मविश्वासी बना रहा। गुरु की मृण्मयमूर्ति से सीखा। अँगूठा देकर भी उसने अपनी निष्ठा का तिरस्कार नहीं किया। उसने कभी असत्य का पक्ष भी नहीं लिया। यद्यपि निषाद एकलव्य महाराज युधिष्ठिर के राजसयू यज्ञ में सम्मानित अतिथि था। भगवान् श्रीकृष्ण के विरोधी शिशुपाल ने उसे उकसाने का पूरा प्रयत्न किया; किंतु वह तटस्थ ही रहा। स्यात् उसने सोचा होगा, पारिवारिक द्वंद्व में परिवार से बाहरवालों का पड़ना अनुचित है। कर्ण....। न क्षत्रिय हो सका, न निषाद। चक्रवर्ती हो नहीं सकता था। सूत कर्म से विरत हो चुका था।....
पांचाली ने उसे और भी मर्माहत कर दिया था। कर्ण का हठ और उत्साह तो देखो। वह बार-बार क्षत्रियों की सभा में जाता। दैव योग से उसे बार-बार पांडवों से ही हार मिलती।
पांचाली कर्ण को अस्वीकार कर रही थी। किंतु उसकी दृष्टि कर्ण पर नहीं थी। वह कर्ण को नहीं को नहीं देख रही थी। वह कभी पांडवों को और कभी उद्वेलित जन-समुद्र को देखती।
पांडवों को पहचाननेवाले सर्वप्रथम श्रीकृष्ण थे। वे बलदेव भाई के कानों में इस पहचान को बता रहे थे ?
पांचाली ने तो पांडवों को कभी देखा नहीं था। फिर भी उसने उन्हें कैसे पहचाना ?
पहचाना क्या ? कृष्ण जैसी पहचान तो थी नहीं, उसका दृढ़ निश्चय ही उसकी पहचान थी। वह कर्ण को नहीं चाहती है। उसके जीवन में कर्ण का प्रवेश संभव न था।
पांचाली को पूरा विश्वास था। प्रेम की शक्ति अन्य सभी शक्तियों से बलवान् है। प्रेम आंतरिक शक्ति है। यह आंतरिक शक्ति अर्जुन को यहाँ अवश्य उपस्थित करेगी।
यह सच था। अर्जुन किसी अज्ञात प्रेरमा से खिंचे जा रहे थे। जिस अज्ञात शक्ति ने उन्हें लाक्षागृह में जलने से बचाया था वही पांचाल ले आई। वही द्रौपदी प्राप्त कराएगी।
शाम होते ही गउँए भूखे वत्स के लिए वन की हरीतिमी छोड़कर भागने लगती हैं। उनके थन भारी हो जाते हैं। उनसे रस टपकने लगता हैं। वे धूल उड़ाती दौड़ने लगती हैं। एक व्याकुल भूख की प्रतीक्षा उन्हें व्याकुल कर देती है।
अर्जुन की आँखों में मछली की आँख थी; किंतु द्रौपदी केवल अर्जुन को देख रही थी।
द्रौपदी के कल्पना-मन में अर्जुन की एक छवि थी। लक्ष्यभेद के लिए आगे बढ़ते अर्जुन को देखकर द्रौपदी ने अपनी कल्पना मूर्ति को अर्जुन के बलिष्ठ शरीर से मिलाकर देखा। ठीक वही, ठीक वही। कल्पना की साकार प्रतिमा।.....
द्रौपदी मन-ही-मन प्रसन्न हुई। उसने सूतपुत्र को निमित्त बनाकर अनेक क्षत्रिय राजाओं का उत्साह छीन लिया था। अनेक राजा तो द्रौपदी की तेजस्विता से प्रभावहीन हो गए थे। इतनी तेजस्वी, ज्वलंतशील, तप्तांगार नारी उनकी कल्पना में नहीं थी।
द्रौपदी जब से कुछ समझने लगी थी, वह अर्जुन के बारे में सुनती। कर्ण की भी चर्चा होती। समाज कर्ण में शील, सौजन्य का अभाव देखता। कर्ण का उद्धत स्वभाव लोगों को पसंद नहीं था। इस कारण उसकी दान महिना भी धूमिल रहती।
द्रौपदी के मन में कर्ण के धर्मदान की कोई छवि नहीं थी। वह कर्ण को नितांत दंभी समझती थी। स्यात् उसका दान भी दंभ था।
स्वयंभर सभा में कर्ण की उपस्थिति से अनेक राजा अत्यंत प्रभावित थे। कर्ण की खुली भुजा और बलिष्ठ देह पर प्राकृत कवच और कानों में कुंडल की चमक थी। दिन के प्रकाश में सूर्य की किरणों द्वारा कवच एवं कुंडल की चटक और भी बढ़ जाती थी। कर्ण के चारों ओर उसी के प्रभामंडल ने घेर रखा था। अपने तीव्र प्रभा प्रकाश में कर्ण सूर्य-सा तप रहा था। स्वयं दुर्योधन कर्ण के प्रभामंडल में था। लोग आश्चर्य से कर्ण की ओर देख रहे थे।
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