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हिन्दी के विशाल वाङ्मय के अंतगर्त ब्रज, अवधी और खड़ी बोली तीनों काव्य आता है...
हिन्दी के विशाल वाङ्मय के अंतगर्त ब्रज, अवधी और खड़ी बोली तीनों का
काव्य आता है; पर खड़ी बोली के प्रति अत्यधिक मोह होने के कारण हमने अपने
को एक गौरवशाली परम्परा से विच्छिन्न कर लिया है और इस प्रकार अपने
उत्तराधिकार से स्वयं वंचित हो गए हैं। अतीत के काव्य का अपना एक महत्त्व
है, एक स्थान है, एक सौन्दर्य है।
आलोचक के लिए साहित्य के सम्पूर्ण विकास की जानकारी अपेक्षित हैं, अत: आधुनिक काव्य को समझने के लिए भी प्राचीन काव्य का अध्ययन अनिवार्य रहेगा-अपनी परम्परा के परिचय के लिए भी और उससे उचित परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने के लिए भी। यदि हम साहित्य के किसी भी काल से अपरिचित हैं, तो हम उसके किसी अन्य काल के प्रति न्याय नहीं कर सकेंगे। हमें अपने साहित्य की सभी युगों की ऊंचाइयों से परिचित होना चाहिये। मेरा विश्वास है कि जो व्यक्ति रामचरितमानस, पद्मावत और सूरसागर की गरिमा को नहीं पहचानता, वह साकेत, कामायनी और प्रिय प्रवास के संबंध में भी अतिरंजित ढंग की बातें करेगा।
रीति-कालीन-काव्य चिंतन-प्रधान भी है। चिंतन जीवन की सीमाओं के भीतर से उसकी ज्वलंत समस्याओं को लेकर हुआ है। जीवन में केवल भावना से काम नहीं चलता, उसके पथ की बाधाओं को पार करने के लिए बुद्धि के सहयोग की भी अपेक्षा है। जीवन की कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के लिए जन-साधारण को अनुभवी लोगों के व्यावहारिक ज्ञान की आवश्यकता पड़ती ही है।
इस समीक्षा ग्रन्थ में चन्द बरदाई से लेकर दीनदयाल गिरि तक सत्रह प्रमुख प्राचीन कवियों के जीवन और काव्य का विवेचन इस रूप में किया गया है, जिससे बीसवीं शताब्दी के पूर्व के सम्पूर्ण ब्रज और अवधी काव्य का सौंदर्य आज के प्रबुद्ध पाठक के सामने प्रत्यक्ष होकर, कबीर और जायसी, सूर और तुलसी, देव और बिहारी आदि में हमारी अनुरक्ति नए सिरे से जगा सके।
आलोचक के लिए साहित्य के सम्पूर्ण विकास की जानकारी अपेक्षित हैं, अत: आधुनिक काव्य को समझने के लिए भी प्राचीन काव्य का अध्ययन अनिवार्य रहेगा-अपनी परम्परा के परिचय के लिए भी और उससे उचित परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने के लिए भी। यदि हम साहित्य के किसी भी काल से अपरिचित हैं, तो हम उसके किसी अन्य काल के प्रति न्याय नहीं कर सकेंगे। हमें अपने साहित्य की सभी युगों की ऊंचाइयों से परिचित होना चाहिये। मेरा विश्वास है कि जो व्यक्ति रामचरितमानस, पद्मावत और सूरसागर की गरिमा को नहीं पहचानता, वह साकेत, कामायनी और प्रिय प्रवास के संबंध में भी अतिरंजित ढंग की बातें करेगा।
रीति-कालीन-काव्य चिंतन-प्रधान भी है। चिंतन जीवन की सीमाओं के भीतर से उसकी ज्वलंत समस्याओं को लेकर हुआ है। जीवन में केवल भावना से काम नहीं चलता, उसके पथ की बाधाओं को पार करने के लिए बुद्धि के सहयोग की भी अपेक्षा है। जीवन की कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के लिए जन-साधारण को अनुभवी लोगों के व्यावहारिक ज्ञान की आवश्यकता पड़ती ही है।
इस समीक्षा ग्रन्थ में चन्द बरदाई से लेकर दीनदयाल गिरि तक सत्रह प्रमुख प्राचीन कवियों के जीवन और काव्य का विवेचन इस रूप में किया गया है, जिससे बीसवीं शताब्दी के पूर्व के सम्पूर्ण ब्रज और अवधी काव्य का सौंदर्य आज के प्रबुद्ध पाठक के सामने प्रत्यक्ष होकर, कबीर और जायसी, सूर और तुलसी, देव और बिहारी आदि में हमारी अनुरक्ति नए सिरे से जगा सके।
प्राचीन काव्य
वेद हमारे प्राचीनतम ग्रंथ हैं। जिस भाषा में इनकी रचना हुई है, उसे
‘वैदिक भाषा’ कहते हैं। वे किसी पुरुष की कृतियाँ नहीं हैं,
उनका ज्ञान ईश्वरीय कृपा से हम पर प्रकट हुआ है; इसी से वे
‘अपौरूषेय’ कहे जाते हैं। इस भाषा को नियमबद्ध करके
जब
प्रचलित किया गया, तो उसका नाम ‘संस्कृत’ पड़ा।
संस्कृत का
अर्थ ही होता है-संस्कार की हुई वस्तु। प्रत्येक देश में एक विद्वानों की
भाषा होती है। दूसरी जनता की। विद्वानों से भाषा को दुरूह बनाने की
प्रवृत्ति होती है। अत: जब संस्कृत ही दुरूह होने लगी, तो देश में प्रचलित
मूल भाषा से प्राकृत का जन्म हुआ। प्राकृत का अर्थ होता है-स्वाभाविक।
प्राकृत ने समय-समय पर तीन रूप धारण किए-
प्रथम प्राकृत-पाली
द्वितीय प्राकृत-शौरसेनी
तृतीय प्राकृत-अपभ्रंश
अपभ्रंश के दुरूह होने पर जो भाषा अस्तित्व में आई, उसे ‘हिन्दी’ नाम दिया गया। अत: जो लोग संस्कृत को हिंदी की जननी समझते हैं, वे भूल करते हैं। हिन्दी का जन्म अपभ्रंश से हुआ है। आगे चलकर यह हिंदी तीन धाराओं में विभक्त हो गयी-
(1) ब्रज
(2) अवधी और (3) खड़ी बोली।
कुछ विद्वान हिन्दी साहित्य के इतिहास का प्रारंभ बहुत पीछे ले जाकर सातवीं शताब्दी से मानते हैं; पर सन् 1000 ऐसा समय है जिसका विरोध कोई नहीं करता। इस दृष्टि से हिन्दी के पिछले एक सहस्र वर्ष के काव्य का विभाजन चार प्रमुख कालों में किया जाता है-
(1) वीरगाथा-काल सन् 1000-1300
(2) भक्ति-काल सन् 1300-1650
(3) रीति-काल सन् 1650-1850
(4) आधुनिक-काल सन् 1850-अब तक
इस प्रकार हिन्दी साहित्य के इतिहास की धारा पिछले एक हजार वर्ष से अप्रतिहत गति से प्रवाहित होती चली आ रही है। इस बीच इस महान् देश के सिर पर होकर न जाने कितनी राजनीतिक आँधियाँ उतर गयीं, इसकी धरती पर न जाने कितने धार्मिक आंदोलन उठ खड़े हुए और वातावरण में न जाने कितनी सामाजिक तथा अन्य प्रकार की क्रांतियाँ हुई। उन सभी से रस लेकर न जाने कितने छोटे-बड़े स्रोत्र इसमें आकर मिल गए। नदी में आकर नया जल न मिले, तो वह सूख जाती है। अत: किसी प्रवृत्ति की नवीनता साहित्य के किसी काल को उसके इतिहास से पृथक नहीं करती, वरन् जोड़ती है।
आधुनिक कविता को प्राचीन काव्य से पृथक करने वाली मुख्य बात साहित्य में खड़ी बोली का ग्रहण है। इस आधार पर कुछ कुछ लोग आधुनिक साहित्य का अध्यन पृथक रूप से करने लगे हैं और इस प्रयत्न में है कि इसे उसकी गौरवमयी परंपरा से विच्छिन्न कर दें। यह प्रवृत्ति साहित्य के लिये घातक सिद्ध होगी। यह ठीक है कि प्राचीन काव्य में ब्रज और अवधि का विकास विशेष रूप से हुआ-खड़ी बोली के कुछ उदाहरण अमीर खुसरों और रहीम आदि के काव्य में ही पाये जाते हैं-लेकिन ब्रज, अवधि और खड़ी बोली तीनों ही हिन्दी की उपभाषाएं हैं, जिन्हें समय-समय पर भाषा के रूप में परिवर्तित होने का गौरव प्राप्त हुआ। ऐसी दशा में, इन तीनों का विकास ही हिन्दी का विकास है। इस दृष्टि में हमें ‘कामायनी’ से पहले, ‘रामचरित-मानस’ और ‘सूरसागर’ पर गर्व होना चाहिये। भविष्य में खड़ी बोली की देन कितनी ही महान् क्यों न हो; पर इतना स्मरण रखना चाहिये कि तुलसी-दास को छोड़कर हम जीवित नहीं रह सकते। वे भारतीय संस्कृति के मेरुदण्ड हैं।
आलोचक के लिए साहित्य के सम्पूर्ण विकास की जानकारी अपेक्षित है, अत: आधुनिक काव्य को समझने के लिए भी प्राचीन काव्य का अध्ययन अनिवार्य रहेगा- अपनी परम्परा के परिचय के लिए और उसे उचित परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने के लिए भी। यदि हम साहित्य के किसी भी काल से अपरिचित है, तो हम उसके किसी अन्य काल के प्रति भी न्याय नहीं कर सकेंगे। हमें अपने साहित्य को सभी युगों की ऊंचाइयों से परिचित होना चाहिये। मेरा विश्वास है कि जो व्यक्ति रामचरितमानस, पद्मावत और सूरसागर की गरिमा को नहीं पहचानता, वह साकेत, कामायनी और प्रिय-प्रवास के संबंध में भी अतिरंजित ढंग की बातें करेगा।
प्राचीन काव्य ने भाषा की दृष्टि से जिन बोलियों को स्वीकार किया, उन्होंने तो विकास की चरम सीमा पर पहुँचा दिया, विषयों की विविधता और भावों की उत्कृष्टता एवं गहराई की दृष्टि से भी वह बड़ा समृद्ध है। देश पर आक्रमण करने वालों के विरोध में जिस वीर-काव्य का सृजन हुआ, वह हमारी धमनियों में रक्त संचार करने वाला है। इसके अतिरिक्त एक बड़े विषय के रूप में युद्ध के सामान्य वर्णन भी हृदय में स्पंदन जगाते हैं। इस दिशा में चंद्र बरदायी, जागनिक, भूषण और लाल की वीर-रसात्मक वाणी जैसी ओजमयी है, वैसे ही प्रभावशाली युद्ध के वे वर्णन भी हैं जो तुलसी, जायसी, केशव तथा पद्माकर की लेखनी से निकलते हैं। हमारे कुछ श्रेष्ठ आलोचकों ने चंद तथा भूषण आदि को सामंती तथा जातीय कवि कहकर बड़ी भूल का परिचय दिया है। ये लोग अन्याय के विरुद्ध न्याय के पक्ष में, असत् के विरुद्ध सत् के पक्ष में खड़े होने वाले साहस के पुतले हैं; अत: उनकी वीर वाणी को उसी रूप में ग्रहण करना चाहिए। हमारे ये कवि उतने ही आदर के पात्र हैं, जितने इस युग के राष्ट्रकवि स्वर्गीय मैथलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर और सुभद्राकुमारी चौहान-बल्कि इनसे भी अधिक। ये वे लोग थे जिन्होंने अपने प्राणों को संकट में डालकर तथा युद्ध को अपनी आँखों से देखकर अपने काव्य का सृजन किया था। इसी से अतीत का वीर-काव्य अपनी स्वाभाविकता, शक्ति और प्रभाव में अतुलनीय है।
प्राचीन काव्य का दूसरा बड़ा विषय अध्यात्म है, जिसे निर्गुण और सगुण तथा रहस्यवाद और भक्ति के रूप में विभाजित करके देखा जाता है। अपनी मूल प्रवृत्ति में यह विभाजन एक प्रकार की पूर्णता का परिचायक है। लेकिन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अध्यात्म के विभिन्न स्तरों की चर्चा करते हुये गोस्वामी तुलसीदास का पक्ष लेकर जो इनमें आनुपातिक महत्त्व की बात उठायी है, वह भ्रामक है और उसका निराकरण होना चाहिए। भक्ति-काल के चार प्रमुख कवियों में कबीर और जायसी निर्गुण के उपासक हैं, सूर और तुलसी सगुण के। पहले दो रहस्यमयी हैं, पिछले भक्त। लेकिन इनके काव्य को यदि एक ही अध्यात्म के विविध सोपानों के रूप में हम देखें, तो एक भिन्न प्रकार की बात सिद्ध होती है। कबीर अद्वैतवादी थे, जायसी प्रतिबिंबवादी, सूर शुद्धाद्वैतवादी। दार्शनिक शब्दावली की दुरूहता को हटाकर देखें, तो कबीर निर्गुण के उपासक होते हुए भी जगत को विरक्ति की दृष्टि से देखते थे। जायसी भी निर्गुण के प्रेमी थे; लेकिन वे संसार के सौंदर्य को ब्रह्म के सौंदर्य का प्रतिबिंब मानकर सृष्टि को प्रेम का आस्पद भी स्वीकार करते थे। तुलसी धरती को इसलिए प्रणम्य समझते हैं, क्योंकि इस पर ब्रह्म ने राम के रूप में अवतार लिया है। साथ ही मनुष्य-स्वभाव के सत् और असत् पक्ष पर उनकी दृष्टि हैं; वे इस वसुंधरा पर एक आदर्श जीवन की कल्पना भी करते है। सूर इसे भगवान की लीला-भूमि समझते हैं; यही कारण है कि उनके यहाँ गोस्वामी जी का मर्यादा-भाव शिथिल हो गया है, सूर के इस राधा-भाव ने ही रीति-काव्य को जन्म देकर अध्यात्म के बन्धन से हमें मुक्त दिलायी। जैसा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत है काव्य और लोक की दृष्टि से गोस्वामी की दृष्टि ही अधिक मंगलमयी है; लेकिन जहाँ तक काव्य में आध्यात्मिक दृष्टि का संबंध है, मुझे कबीर की चेतना सबसे अधिक विकसित लगती है। काव्य में ग्रहीत अद्वैतवाद का उच्चतम रूप उन्हीं में पाया जाता है। शेष कवियों की कल्पना तो व्यावहारिक अधिक है। यह बात केवल तात्त्विक दृष्टि से कही जा रही है। वैसे कबीर, कुल मिलाकर, जायसी सूर और तुलसी जैसे बड़े कवि नहीं हैं।
ये कवि मूलत: सत्य के अन्वेषी थे; अत: सभी ने असत् की तुलना में सत् का पक्ष लिया है। काव्य के क्षेत्र में ये सभी चिरंतन, पावन और सुन्दर भावनाओं के पोषक हैं। जीवन में अन्तत: ये आध्यात्मिक मूल्यों के समर्थक हैं। किसी ने खुलकर, किसी ने संकेत से, किसी ने प्रतीक रूप में और किसी ने किसी माध्यम द्वारा मानव-जीवन के उत्थान में ईश्वरीय करुणा को सहायक माना है। गोस्वामी ने तो आत्मा की पुकार को एक महती समस्या के रूप में प्रस्तुत कर ‘विनय-पत्रिका’ नाम से एक स्वतंत्र ग्रंथ की रचना ही कर डाली। ये सभी सच्चे साधक थे और सबसे बड़ी बात यह कि सभी भारतीय संस्कृति के ज्ञाता, व्याख्याता और प्रचारक थे।
पृथक रूप से भी इन कवियों के व्यक्तित्व की अपनी विशेषताएँ हैं। सबसे पहले कबीर का सत्य प्रति आग्रह हमें चकित करता है। उनका व्यक्तित्व अनपढ़ शिला के समान दृढ़ है। धर्म के ढोंग को चीरकर सामने रखने वाला यही एक व्यक्ति हैं पंद्रहवी शताब्दी में पंडितों और मुल्लाओं को जैसी खरी बातें उन्होंने सुनायीं, वैसी बातें कहने का साहस आज भी किसी में नहीं है-विशेष रूप से उस समय जब हमारा युग सभी दिशाओं में खुले भ्रष्टाचार का युग है। सत्य के प्रति इस आग्रह के कारण ही कबीर की वाणी में एक प्रकार का तीखापन, कटु व्यंग्य और खुले प्रहार करने का गुण है। अप्रिय होने पर भी यह वाणी हमें प्रिय लगती है, क्योंकि यह सत्य की वाणी है, एक सच्चे व्यक्ति की आत्मा की वाणी है। कबीर सच्चे अर्थ में जनता के कवि थे।
सूफीमत की विशेष देन सौंदर्य की विश्व-व्यापी चेतना है। जायसी में प्रकृति की सुन्दरता भी। सुन्दरता के जितने पहलुओं से इस एक कवि का परिचय है, उतना और किसी का नहीं। जायसी ने धरती-आकाश की सुन्दरता को एक कर दिया है। ‘पद्मावत’ के अध्ययन से सौंदर्य प्रसंगों में पाठक जिस आनन्द की अनुभूति करता है, वह अवर्णनीय है।
सूरदास मन की मुक्ति के कवि हैं। स्त्री और पुरुष की कल्पना उन्होंने प्रकृति के दो स्वतंत्र एवं पूरक तत्वों के रूप में की है। प्रणय का जैसा उन्मुक्त वातावरण उनके काव्य में पाया जाता है, वैसा आज के स्वच्छंदतावादी कवियों के काव्य में भी नहीं। रास उस महानंद का प्रतीक है।
तुलसी आस्था के हिमगिरि हैं। जीवन और जगत, कर्म उपासना ज्ञान, भाव विचार और कल्पना, अपने स्थान पर सब ठीक हैं; पर इनके बीच से प्रवाहित होने वाली जो प्राण-शक्ति है, उसका नाम है कवि की आस्था। जीवन में उनकी खोज का आदि मध्य और अवसान, यह आस्था ही है। ऐसा पवित्र आत्म-निवेदन और कहाँ मिलेगा ?
इस प्रकार भक्ति-काल में कबीर सत्य के, जायसी सौन्दर्य के, सूर प्रेम के और तुलसी आस्था के कवि हैं।
भक्ति-काल में जैसे काव्य का प्रमुख विषय अध्यात्म था, रीति काल में वैसे नारी हो गई। अध्यात्म था, रीति-काल में वैसे ही नारी हो गई। अध्यात्म के उतार के चिन्ह सूरदास में ही विद्यमान हैं। अष्टछाप के अन्य कवियों में यह प्रवृत्ति और बढ़ती दिखाई देती है। भक्ति और श्रृंगार के मेल का परिणाम यही होता है। माधुर्य भाव की उपासिका मीराबाई में लौकिक संकेतों की कमी नहीं हैं। ‘रसखान’ में, जिन्होंने भक्त को लोक-प्रिय बनाने का प्रयत्न किया, मानवीय दुर्बलताओं की ओर झुकाव और भी स्पष्ट है। रीति-काल के कवियों, जैसे देव और बिहारी में अध्यात्म का यह ह्नास पूर्ण हो गया। इस प्रकार, रीति-काव्य लौकिक-भावना का काव्य हैं। यह परिवर्तन काव्य और जीवन दोनों के विकास के लिए आवश्यक था।
प्रथम प्राकृत-पाली
द्वितीय प्राकृत-शौरसेनी
तृतीय प्राकृत-अपभ्रंश
अपभ्रंश के दुरूह होने पर जो भाषा अस्तित्व में आई, उसे ‘हिन्दी’ नाम दिया गया। अत: जो लोग संस्कृत को हिंदी की जननी समझते हैं, वे भूल करते हैं। हिन्दी का जन्म अपभ्रंश से हुआ है। आगे चलकर यह हिंदी तीन धाराओं में विभक्त हो गयी-
(1) ब्रज
(2) अवधी और (3) खड़ी बोली।
कुछ विद्वान हिन्दी साहित्य के इतिहास का प्रारंभ बहुत पीछे ले जाकर सातवीं शताब्दी से मानते हैं; पर सन् 1000 ऐसा समय है जिसका विरोध कोई नहीं करता। इस दृष्टि से हिन्दी के पिछले एक सहस्र वर्ष के काव्य का विभाजन चार प्रमुख कालों में किया जाता है-
(1) वीरगाथा-काल सन् 1000-1300
(2) भक्ति-काल सन् 1300-1650
(3) रीति-काल सन् 1650-1850
(4) आधुनिक-काल सन् 1850-अब तक
इस प्रकार हिन्दी साहित्य के इतिहास की धारा पिछले एक हजार वर्ष से अप्रतिहत गति से प्रवाहित होती चली आ रही है। इस बीच इस महान् देश के सिर पर होकर न जाने कितनी राजनीतिक आँधियाँ उतर गयीं, इसकी धरती पर न जाने कितने धार्मिक आंदोलन उठ खड़े हुए और वातावरण में न जाने कितनी सामाजिक तथा अन्य प्रकार की क्रांतियाँ हुई। उन सभी से रस लेकर न जाने कितने छोटे-बड़े स्रोत्र इसमें आकर मिल गए। नदी में आकर नया जल न मिले, तो वह सूख जाती है। अत: किसी प्रवृत्ति की नवीनता साहित्य के किसी काल को उसके इतिहास से पृथक नहीं करती, वरन् जोड़ती है।
आधुनिक कविता को प्राचीन काव्य से पृथक करने वाली मुख्य बात साहित्य में खड़ी बोली का ग्रहण है। इस आधार पर कुछ कुछ लोग आधुनिक साहित्य का अध्यन पृथक रूप से करने लगे हैं और इस प्रयत्न में है कि इसे उसकी गौरवमयी परंपरा से विच्छिन्न कर दें। यह प्रवृत्ति साहित्य के लिये घातक सिद्ध होगी। यह ठीक है कि प्राचीन काव्य में ब्रज और अवधि का विकास विशेष रूप से हुआ-खड़ी बोली के कुछ उदाहरण अमीर खुसरों और रहीम आदि के काव्य में ही पाये जाते हैं-लेकिन ब्रज, अवधि और खड़ी बोली तीनों ही हिन्दी की उपभाषाएं हैं, जिन्हें समय-समय पर भाषा के रूप में परिवर्तित होने का गौरव प्राप्त हुआ। ऐसी दशा में, इन तीनों का विकास ही हिन्दी का विकास है। इस दृष्टि में हमें ‘कामायनी’ से पहले, ‘रामचरित-मानस’ और ‘सूरसागर’ पर गर्व होना चाहिये। भविष्य में खड़ी बोली की देन कितनी ही महान् क्यों न हो; पर इतना स्मरण रखना चाहिये कि तुलसी-दास को छोड़कर हम जीवित नहीं रह सकते। वे भारतीय संस्कृति के मेरुदण्ड हैं।
आलोचक के लिए साहित्य के सम्पूर्ण विकास की जानकारी अपेक्षित है, अत: आधुनिक काव्य को समझने के लिए भी प्राचीन काव्य का अध्ययन अनिवार्य रहेगा- अपनी परम्परा के परिचय के लिए और उसे उचित परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने के लिए भी। यदि हम साहित्य के किसी भी काल से अपरिचित है, तो हम उसके किसी अन्य काल के प्रति भी न्याय नहीं कर सकेंगे। हमें अपने साहित्य को सभी युगों की ऊंचाइयों से परिचित होना चाहिये। मेरा विश्वास है कि जो व्यक्ति रामचरितमानस, पद्मावत और सूरसागर की गरिमा को नहीं पहचानता, वह साकेत, कामायनी और प्रिय-प्रवास के संबंध में भी अतिरंजित ढंग की बातें करेगा।
प्राचीन काव्य ने भाषा की दृष्टि से जिन बोलियों को स्वीकार किया, उन्होंने तो विकास की चरम सीमा पर पहुँचा दिया, विषयों की विविधता और भावों की उत्कृष्टता एवं गहराई की दृष्टि से भी वह बड़ा समृद्ध है। देश पर आक्रमण करने वालों के विरोध में जिस वीर-काव्य का सृजन हुआ, वह हमारी धमनियों में रक्त संचार करने वाला है। इसके अतिरिक्त एक बड़े विषय के रूप में युद्ध के सामान्य वर्णन भी हृदय में स्पंदन जगाते हैं। इस दिशा में चंद्र बरदायी, जागनिक, भूषण और लाल की वीर-रसात्मक वाणी जैसी ओजमयी है, वैसे ही प्रभावशाली युद्ध के वे वर्णन भी हैं जो तुलसी, जायसी, केशव तथा पद्माकर की लेखनी से निकलते हैं। हमारे कुछ श्रेष्ठ आलोचकों ने चंद तथा भूषण आदि को सामंती तथा जातीय कवि कहकर बड़ी भूल का परिचय दिया है। ये लोग अन्याय के विरुद्ध न्याय के पक्ष में, असत् के विरुद्ध सत् के पक्ष में खड़े होने वाले साहस के पुतले हैं; अत: उनकी वीर वाणी को उसी रूप में ग्रहण करना चाहिए। हमारे ये कवि उतने ही आदर के पात्र हैं, जितने इस युग के राष्ट्रकवि स्वर्गीय मैथलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर और सुभद्राकुमारी चौहान-बल्कि इनसे भी अधिक। ये वे लोग थे जिन्होंने अपने प्राणों को संकट में डालकर तथा युद्ध को अपनी आँखों से देखकर अपने काव्य का सृजन किया था। इसी से अतीत का वीर-काव्य अपनी स्वाभाविकता, शक्ति और प्रभाव में अतुलनीय है।
प्राचीन काव्य का दूसरा बड़ा विषय अध्यात्म है, जिसे निर्गुण और सगुण तथा रहस्यवाद और भक्ति के रूप में विभाजित करके देखा जाता है। अपनी मूल प्रवृत्ति में यह विभाजन एक प्रकार की पूर्णता का परिचायक है। लेकिन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अध्यात्म के विभिन्न स्तरों की चर्चा करते हुये गोस्वामी तुलसीदास का पक्ष लेकर जो इनमें आनुपातिक महत्त्व की बात उठायी है, वह भ्रामक है और उसका निराकरण होना चाहिए। भक्ति-काल के चार प्रमुख कवियों में कबीर और जायसी निर्गुण के उपासक हैं, सूर और तुलसी सगुण के। पहले दो रहस्यमयी हैं, पिछले भक्त। लेकिन इनके काव्य को यदि एक ही अध्यात्म के विविध सोपानों के रूप में हम देखें, तो एक भिन्न प्रकार की बात सिद्ध होती है। कबीर अद्वैतवादी थे, जायसी प्रतिबिंबवादी, सूर शुद्धाद्वैतवादी। दार्शनिक शब्दावली की दुरूहता को हटाकर देखें, तो कबीर निर्गुण के उपासक होते हुए भी जगत को विरक्ति की दृष्टि से देखते थे। जायसी भी निर्गुण के प्रेमी थे; लेकिन वे संसार के सौंदर्य को ब्रह्म के सौंदर्य का प्रतिबिंब मानकर सृष्टि को प्रेम का आस्पद भी स्वीकार करते थे। तुलसी धरती को इसलिए प्रणम्य समझते हैं, क्योंकि इस पर ब्रह्म ने राम के रूप में अवतार लिया है। साथ ही मनुष्य-स्वभाव के सत् और असत् पक्ष पर उनकी दृष्टि हैं; वे इस वसुंधरा पर एक आदर्श जीवन की कल्पना भी करते है। सूर इसे भगवान की लीला-भूमि समझते हैं; यही कारण है कि उनके यहाँ गोस्वामी जी का मर्यादा-भाव शिथिल हो गया है, सूर के इस राधा-भाव ने ही रीति-काव्य को जन्म देकर अध्यात्म के बन्धन से हमें मुक्त दिलायी। जैसा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत है काव्य और लोक की दृष्टि से गोस्वामी की दृष्टि ही अधिक मंगलमयी है; लेकिन जहाँ तक काव्य में आध्यात्मिक दृष्टि का संबंध है, मुझे कबीर की चेतना सबसे अधिक विकसित लगती है। काव्य में ग्रहीत अद्वैतवाद का उच्चतम रूप उन्हीं में पाया जाता है। शेष कवियों की कल्पना तो व्यावहारिक अधिक है। यह बात केवल तात्त्विक दृष्टि से कही जा रही है। वैसे कबीर, कुल मिलाकर, जायसी सूर और तुलसी जैसे बड़े कवि नहीं हैं।
ये कवि मूलत: सत्य के अन्वेषी थे; अत: सभी ने असत् की तुलना में सत् का पक्ष लिया है। काव्य के क्षेत्र में ये सभी चिरंतन, पावन और सुन्दर भावनाओं के पोषक हैं। जीवन में अन्तत: ये आध्यात्मिक मूल्यों के समर्थक हैं। किसी ने खुलकर, किसी ने संकेत से, किसी ने प्रतीक रूप में और किसी ने किसी माध्यम द्वारा मानव-जीवन के उत्थान में ईश्वरीय करुणा को सहायक माना है। गोस्वामी ने तो आत्मा की पुकार को एक महती समस्या के रूप में प्रस्तुत कर ‘विनय-पत्रिका’ नाम से एक स्वतंत्र ग्रंथ की रचना ही कर डाली। ये सभी सच्चे साधक थे और सबसे बड़ी बात यह कि सभी भारतीय संस्कृति के ज्ञाता, व्याख्याता और प्रचारक थे।
पृथक रूप से भी इन कवियों के व्यक्तित्व की अपनी विशेषताएँ हैं। सबसे पहले कबीर का सत्य प्रति आग्रह हमें चकित करता है। उनका व्यक्तित्व अनपढ़ शिला के समान दृढ़ है। धर्म के ढोंग को चीरकर सामने रखने वाला यही एक व्यक्ति हैं पंद्रहवी शताब्दी में पंडितों और मुल्लाओं को जैसी खरी बातें उन्होंने सुनायीं, वैसी बातें कहने का साहस आज भी किसी में नहीं है-विशेष रूप से उस समय जब हमारा युग सभी दिशाओं में खुले भ्रष्टाचार का युग है। सत्य के प्रति इस आग्रह के कारण ही कबीर की वाणी में एक प्रकार का तीखापन, कटु व्यंग्य और खुले प्रहार करने का गुण है। अप्रिय होने पर भी यह वाणी हमें प्रिय लगती है, क्योंकि यह सत्य की वाणी है, एक सच्चे व्यक्ति की आत्मा की वाणी है। कबीर सच्चे अर्थ में जनता के कवि थे।
सूफीमत की विशेष देन सौंदर्य की विश्व-व्यापी चेतना है। जायसी में प्रकृति की सुन्दरता भी। सुन्दरता के जितने पहलुओं से इस एक कवि का परिचय है, उतना और किसी का नहीं। जायसी ने धरती-आकाश की सुन्दरता को एक कर दिया है। ‘पद्मावत’ के अध्ययन से सौंदर्य प्रसंगों में पाठक जिस आनन्द की अनुभूति करता है, वह अवर्णनीय है।
सूरदास मन की मुक्ति के कवि हैं। स्त्री और पुरुष की कल्पना उन्होंने प्रकृति के दो स्वतंत्र एवं पूरक तत्वों के रूप में की है। प्रणय का जैसा उन्मुक्त वातावरण उनके काव्य में पाया जाता है, वैसा आज के स्वच्छंदतावादी कवियों के काव्य में भी नहीं। रास उस महानंद का प्रतीक है।
तुलसी आस्था के हिमगिरि हैं। जीवन और जगत, कर्म उपासना ज्ञान, भाव विचार और कल्पना, अपने स्थान पर सब ठीक हैं; पर इनके बीच से प्रवाहित होने वाली जो प्राण-शक्ति है, उसका नाम है कवि की आस्था। जीवन में उनकी खोज का आदि मध्य और अवसान, यह आस्था ही है। ऐसा पवित्र आत्म-निवेदन और कहाँ मिलेगा ?
इस प्रकार भक्ति-काल में कबीर सत्य के, जायसी सौन्दर्य के, सूर प्रेम के और तुलसी आस्था के कवि हैं।
भक्ति-काल में जैसे काव्य का प्रमुख विषय अध्यात्म था, रीति काल में वैसे नारी हो गई। अध्यात्म था, रीति-काल में वैसे ही नारी हो गई। अध्यात्म के उतार के चिन्ह सूरदास में ही विद्यमान हैं। अष्टछाप के अन्य कवियों में यह प्रवृत्ति और बढ़ती दिखाई देती है। भक्ति और श्रृंगार के मेल का परिणाम यही होता है। माधुर्य भाव की उपासिका मीराबाई में लौकिक संकेतों की कमी नहीं हैं। ‘रसखान’ में, जिन्होंने भक्त को लोक-प्रिय बनाने का प्रयत्न किया, मानवीय दुर्बलताओं की ओर झुकाव और भी स्पष्ट है। रीति-काल के कवियों, जैसे देव और बिहारी में अध्यात्म का यह ह्नास पूर्ण हो गया। इस प्रकार, रीति-काव्य लौकिक-भावना का काव्य हैं। यह परिवर्तन काव्य और जीवन दोनों के विकास के लिए आवश्यक था।
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लोगों की राय
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