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जीवन कथाएँ >> जूझ

जूझ

आनन्द यादव

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :383
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 690
आईएसबीएन :81-263-669-6

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जूझ एक किशोर के देखे और भोगे हुए गँवई जीवन के खुरदरे यथार्थ और उसके रंगारंग परिवेश की अत्यन्त विश्वसनीय जीवन्त गाथा है...

Joojh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जूझ मराठी के प्रख्यात कथाकार डॉ. आनन्द यादव का बहुचर्चित एवं बहुप्रशंसित आत्मकथात्मक उपन्यास है। साहित्य अकादमी पुरस्कार (1990) से सम्मानित इस उपन्यास को मराठी के साहित्यकारों, समीक्षकों और सुधी पाठकों की भरपूर सराहना मिली है। दरअसल आत्मकथात्मक उपन्यास की विधा को सार्थक आयाम देते हुए आनन्द यादव ने अपने इस आंचलिक उपन्यास में मानवीय मूल्यों को गहरी कथात्मक संवेदना के साथ नयी कलात्मक अभिव्यक्ति दी है। जूझ एक किशोर के देखे और भोगे हुए गँवई जीवन के खुरदुरे यथार्थ और उसके रंगारंग परिवेश की अत्यन्त विश्वसनीय जीवन्त गाथा है। इस आत्मकथात्मक उपन्यास में विकट जीवन का मर्मस्पर्शी चित्रण तो है ही, इसमें अस्त-व्यस्त-लेकिन अलमस्त निम्नमध्यवर्गीय ग्रामीण समाज और लड़ते-जूझते किसान-मजदूरों के हाहाकारी संघर्ष की भी अनूठी झाँकी है। अपने कथानक भाषा और शैली-शिल्प तथा एक मूल्यवान जीवनानुभव के लिए विख्यात यह उपन्यास हिन्दी के पाठकों को भी अभिभूत करेगा, यह विश्वास है।

जूझ

अपना विवाह भी हो गया है, यह तारा को मालूम नहीं था। जब वह एक ही वर्ष की थी, तभी उसकी शादी हो गयी थी। विवाह की मौरी उसके पालने से ही बाँध दी गयी थी। ‘रतनू’ उस समय आठ-नौ वर्ष का रहा होगा। ‘इसकी याद है कि मैं बरात के समै लगाम पकड़ के घोड़े पै अकेला ही बैठा था।’ उसने बताया कि उसे बस इतना ही याद है।
रतनू और तारा दोनों के पिता दोस्त थे। रतनू के बाप के दस-बारह बच्चे हुए जिनमें आठ लड़के थे । लेकिन वे एक-डेढ़ वर्ष के होकर, बचपन में ही मर जाते। मर्द-औरत दोनों को शक था, कि उनके बच्चों पर भाई-बन्द कुछ कर देते हैं या नींबू पर मन्तर-जन्तर करवाकर घात देते हैं। भाई-बन्द यानी रतनू के पिता के सगे चार भाई और उनकी औरतें। वे पाँचो भाई अपने पिता के मरने के बाद बालि-सुग्रीव की तरह आपस में लड़ने लगे। लड़ाई-झगड़ा मारपीट और कत्ल-खून करना तो इस घराने में, छठी के दूध में पिलाया जाता है।

इस खानदान का मूल पुरखा, अपनी विधवा बहन के साथ, कर्नाटक से एक रात भागकर, कोल्हापुर रियासत के इस कागल गाँव में आ बसा था। भाग आने का कारण यह था कि उसने कर्नाटक में अपने गाँव के मुखिया का खून कर दिया था। मुखिया ने उसकी विधवा बहन को फँसाने की कोशिश की थी। कागल का इलाका कर्नाटक की सीमा से लगा हुआ है-बिलकुल दो मील के बाद ही सीमा शुरू हो जाती है। उस इलाके में कत्ल-खून करना तो मामूली-सी बात थी।
उसी कन्नड़ी इलाके में हमारे मूल पुरखा का पालन-पोषण हुआ था। वह क्रोधी, झगड़ालू और उल्टी खोपड़ी के स्वभाव का व्यक्ति था। इस मूल पुरूष से रतनू के बाप की पाँचवीं पीढ़ी थी। इस पाँचवीं पीढ़ी में पाँच सगे भाई थे। अपने बाप के रहते वे एकजुट थे और पूरे गाँव-भर में अपनी दादागिरी, धींगामस्ती और गँवारपन के लिए मशहूर थे। इन्हीं पाँचों के बाप का, कागल की ‘मवेशी हाट’ में चुंगी वसूल करने का काम था। बाद में यही काम इन पाँचों को भी मिल गया था। कागल महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमा पर होने के कारण, चुंगी वसूलना बड़ा झंझट का काम था। अनाड़ी देहाती लोग चुंगी देना टालते थे-बिना चुंगी चुकाये अपनी हेकड़ी में, निकल जाने की कोशिश करते थे, कभी-कभी दे भी देते थे। लेकिन ज्यादातर झगड़ा करते थे और हाथा-पाई-मारपीट पर उतर आते थे। लेकिन ये पाँचों पूरी तरह तैयार हो चुके थे। इसी कालखण्ड में यह घराना ‘यादव’ से ‘जकाते’ (चुंगी वसूलिया) कहलाने लगा था।

बाद में, बाप के देहान्त के बाद, ये पाँचों अलग-अलग हो गये। इनमें से एक के कोई सन्तान नहीं थी-इसलिए बाकी के चारों उसे कोई हिस्सा देने को तैयार नहीं थे। लेकिन उसने झगड़ा किया और अपना हिस्सा-बँटवारा ले ही लिया। उस काल में नोटों की अपेक्षा चाँदी के कलदार रुपयों का अधिक चलन था। सन्तानवाले भाइयों से वह खूब चिढ़ गया था। इसलिए उसने अपने हिस्से में आये सभी रूपयों को एक फटी-पुरानी बोरी में भरकर, उसे भैंसे की पीठ पर लाद दिया, फिर गाँव भर में उस भैंसे को कुदकाया गया। भैंसा पूरे गाँव में रुपये बिखेरता हुआ खैरात बाँटता रहा। ‘‘मैं अपनी सारी जायदाद गाँव-भर में बाँट दूँगा, लेकिन, इन सारे जल्लाद की औलाद भाइयों को एक पाई भी नहीं दूँगा।’’ यह उसकी प्रतिज्ञा थी। जकात वसूली का पैसा तो भरपूर था ही।

आगे चलकर कुछ वर्षों में कागल की मवेशी हाट बन्द हो गयी और कोल्हापुर में लगने लगी। इसके साथ ही इनका जकात (चुंगी) वसूली की ठेकेदारी का धन्धा बन्द हो गया। सिर्फ रह गया ‘जकाते ’ उपनाम। अब ये निठल्ले पाँचों भाई गाँव-भर को परेशान करने लगे। दूसरे नम्बर का इधर-उधर की लगाने-बुझाने में प्रसिद्ध था। तीसरा सरकारी जंगलों को नीलामी पर ले लेता, फिर उन्हें अधिक मुनाफे पर दूसरों को बेच देता। चौथा खेती करता था। पाँचवाँ था रतनू का बाप। खेती की देखभाल करते हुए दूर-दूर के गाँवों से अनाज खरीदता और उसे दूसरे इलाकों में ले जाकर बेच आता। ऐसा धन्धा-व्यापार करने के लिए भुजदण्ड़ों में भरपूर ताकत चाहिए। रास्ते तो पहाड़ों और जंगलों में होकर जाते थे। राहजनी और डकैतियाँ आम बात थी। दूसरे इलाके से आये आदमी के पास की रकम लूट ली जाती थी। इसलिए इस व्यापार में सान धरे हुए फरसे, भाले, कुल्हाड़ी जैसे हथियारों से लैस लड़ाकू जवान साथ लेकर साथ चलना पड़ता था। बहुत बार रतनू भी अपने बाप के साथ, इस प्रकार की खरीदी-बिक्री के लिए जाता था। लेकिन बाद में रतनू के बाप को लगा कि इकलौता बेटा है, इस जोखिम-भरे धन्धे की अपेक्षा अपना खेती करना ही अच्छा है।

...पाँचों भाई अपने अलग-अलग घरों में रहते थे। लेकिन बैर-भाव पूरे जोर से कायम था। एक-दूसरे के खेत काटे जाते, पकी फसलें काट ली जातीं, चोरी-छिपे घास-चारा काट लिया जाता, ईंधन चुराकर जलाया जाता। मौका लगने पर जब-तब किसी पशु के खुर काट दिये जाते-वह मर जाता। फिर प्रत्येक के पेट में संशय का वायुगोला उठने लगता।...रतनू के माँ-बाप को लगता था कि अब इस भैया-बन्दी में तो अपनी कोई भी सन्तान जिन्दा नहीं रहेगी। इसलिए रतनू के बाप ने दूर जाकर ‘माँगवाड़ी’1 के पास एक जगह खरीद ली और एक के पीछे एक ऐसी तीन कोठरियोंवाला एक सादा घर बनवाया। उस घर में उसकी तीन सन्तानें जीवित रहीं। उनमें से ‘रतनू’ बड़ा था, उसके बाद की दो बहनें-‘कम्बला’ और ‘आकणी’... इन तीनों में भी इस खानदान के गुण उतर आये थे।

जैसे-जैसे उमर बढ़ती जा रही थी और शरीर का जोम कम होता जा रहा था, वैसे-वैसे रतनू के बाप का ध्यान खेती-व्यवसाय की ओर अधिक हो रहा था। गाँव में जिस किसी की भी पाँच-सात एकड़ जमीन मिल जाती, वह उसे ठीके पर (ठहराये लगान पर) जोत लेता। उसमें वह ईख, गेहूँ, चना, मिर्ची, सब्जियाँ आदि फसलें उगाता। लगान देने के बाद जो बच रहता, सालभर उसी में गुजर कर लेता। कभी-कभी खेत-खलिहान से फुरसत हो जाने के बाद वह आस-पास के गाँवों में घूम-फिरकर ज्वारी या चावल की खरीदी करता और गाड़ी में लादकर उसे कोल्हापुर में बेच आता। इस काम में उसे कभी चार पैसे मिल जाते और कभी नहीं मिल पाते। हाँ, बैलगाड़ी का भाड़ा और अपने खाने-पीने का खर्चा तो निकल ही आता। ‘‘घर बैठकर खाने के बदले, अपना और बैलों का पेट भर जाना क्या बुरा है ’’ पुरुखों ने कहा है, ‘बैठे से बेगार भली’ यह कहकर वह अपने और अपनी पत्नी के मन को समझा लेता। लेकिन धीरे-धीरे उसने यह धन्धा पूरी तरह छोड़ दिया और बाल-बच्चों के साथ खेती पर ही मेहनत-मजदूरी करने लगा।...बीच-बीच में भाई-बन्दी की कटकट लगी ही रहती। पैदायशी बैरी बीच के भाई ने उसके पड़ोस की खाली जमीन खरीद कर, इसे चिढ़ाने के लिए एक ऊँची शानदार इमारत खड़ी कर दी ।

तारा के दो भाई थे-एक बड़ा था और एक छोटा । नाम थे ‘रामा’ और ‘लिंगाप्पा’। रामा तारा से छह-सात वर्ष बड़ा था और लिगांप्पा तो बहुत ही छोटा था। रामा का बाप-‘शिवाप्पा जाधव’ दूसरों की बिना सिंचाईवाली खेती ठीके पर किया करता था। मृग नक्षत्र से लेकर संक्रान्ति तक उस खेती में लगा रहता। बाकी के दिनों में इधर-उधर मेहनत-मजूरी करता, गुड़ के कोल्हू पर रोजन्दारी करता, सालभर के घरखर्च लायक गुड़ इकट्ठा कर लेता। फसल-कटनी के समय झटपट अपने खेत-खलिहान से फारिग होकर दूसरों के यहाँ धान-ज्वार आदि की कटाई के लिए जाता। उससे रोज दो-चार सेर अनाज मिलता रहता। चौमासे के दिन नजदीक आ जाने पर बाम्हन, बनियों के घरों पर छान-छप्परों की मरम्मत करता। इन सभी कामों में सदा मजदूरी की अपेछा दो-चार आने अधिक ही मिल जाते। पूरे जेठमासे भर इस प्रकार की रोजन्दारी मिलती रहती। रात को देशी दारू की दुकान से रोज ऊपर के दो आनों से नसा कर आता ।
तारा का बाप शिवाप्पा और रतनू का बाप आप्पाजी दोनों की मुलाकात कभी
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1.‘माँग’ नामक जाति की बस्ती।

खेती-क्यारी के धन्धे में हुई थी। धीरे-धीरे वे एक-दूसरे के दोस्त बन गये। छोटे-बड़े मौके पर वे एक-दूसरे की मदद करने लगे-सहारा देने लगे।
रतनू आठ-नौ वर्ष का छोकरा था-इकलौता। एक ही तो बच पाया था, सो बड़े लाड़-प्यार से रहता था। घर की भैंस का घी-दूध अकेला ही खाता-पीता। भाई-बन्दी की दुश्मनी की छाया में खिलाया-पिलाया जा रहा था। सातवें वर्ष से ही अखाड़े में जाकर जोर-कसरत करने लगा था। कंजी और पानीदार आँखें, लम्बी धारदार नाक-फूले हुए नथुने, हट्टा-कट्टा शरीर, ताँबे की झलक का गोरा रंग, गरमी में तपकर गाजर के रंग जैसा दिखाई देता, ‘शाहू महाराजा’ के लाल मिट्टीवाले अखाड़े में लोटकर आता तो, घिसकर माजी हुई ताँबे की गागर जैसा चमकता । जब बोलता तो लगता कि गुस्से में ही बोल रहा है। उस पर भी आवाज स्वभावतः ही ऊँची। जोर से बोलता तो जानवर भी पीछे मुड़कर देखने लगते । अब तो अखाड़े की कसरत के कारण शरीर में सुरसुरी-सी छूटने लगी थी।

‘कागल’-श्रीछत्रपति शाहू महाराज का मूल गाँव-जन्मस्थान। वर्ष में एक बार उर्स के समय कुश्तियों का बहुत बड़ा दंगल लगता था। बैलगाड़ियों की दौड़ स्पर्धा, भैंसों-बकरों की लड़ाइयों का आयोजन, भारी-वजनदार वस्तुओं को उठाने आदि अनेक प्रकार के ताकत दिखाने के आयोजन होते थे। शाहू महाराज जीतनेवालों की पीठ पर हाथ फिराकर शाबासी देते। प्रत्येक किशान की इच्छा रहती की अपने बेटे की पीठ पर शाहू महाराज की थाप पड़े, बकरों, भैंसों के मुँह में उनके हाथों से मुट्ठी भर दाल खिलाई जाए।...सारे गाँव में वर्ष भर चहल-पहल बनी रहती। प्रत्येक गली-कूचे में अखाड़े थे- पौ फटते ही छोटे-छोटे लड़के भी उठते और लाल मिटटी में कुश्तियाँ लड़ते। गाँव के पूर्वी जंगल में बैलगाड़ियों की दौड़ के लिए कायम का एक गोल मैदान बन गया था। चौमासा बीत जाने के बाद उस मैदान में रोज एक-दो बैलगाड़ियाँ अभ्यास के लिए दौड़ती हुई दिखाई देतीं। खेतों पर बच्चे दिन भर बकरों की, पड्डों की टक्कर कराने की शर्तें लगाते रहते। पान के खेतों की तरफ, छोटे-छोटे लड़के दंगल-दंगल खेलते और कुश्तियाँ मारकर बटन, कौड़ियाँ या पैसे-दो पैसे जीत लेते। इस प्रकार शाहू महाराज का यह गाँव बारहों महीने जगमगाता रहता ।

रतनू को भी कुश्ती का चसका लग गया था। उसके बाप को भी लगा कि छोरा शौक करता है तो करने दो। इसलिए उसने खेत पर ही एक छोटा-सा अखाड़ा तैयार कर दिया। शिवाप्पा जाधव का राम, उस तरफ की बस्ती का गणप्पा, मिसाल का लच्छू जैसे कुछ लड़के इस अखाड़े में आने लगे।
गाँव में भाई-बन्दों के लड़के जवानी के घमण्ड में ऐंठ कर चलने लगे थे। रतनू के बाप को भी लगता था कि अपना बेटा भी पीछे नहीं रहना चाहिए-सेर को सवा सेर मिलेगा और शरीर में खूब जोम होगी तभी बचाव होगा, नहीं तो किसी दिन माटी में मिल जाएगा देखते-देखते...इसलिए उसने खेत पर ही अखाड़ा बना दिया था।

लेकिन दूसरे वर्ष गाँव में भयंकर रोग, जंगल की आग की तरह फैल गया। लोगों को धड़ाधड़ उल्टियाँ होने लगीं। चावल के धोवन जैसे सफेद पानी के दस्त, पिचकारी छूटने की तरह होने लगे। हाथ-पैरों में ऐंठन होकर सारा शरीर शक्तिहीन बन जाता। आँखें सफेद हो जातीं और लोग चक्कर खाकर गिर पड़ते। उनके मुहँ का पानी पूरी तरह सूख जाता। जो एक बार गिर जाता, फिर उठता ही नहीं। रतनू के दो चचेरे भाई इसी में चले गये। चचेरे छोटे-भाई की पत्नी मरते-मरते बची। यह महामारी तीन-चार महीने रही । गाँव में ऐसी-वैसी दवाइयों का छिड़काव होता रहा।

चौमासा लगते ही महामारी वर्षा के पानी में बह गयी। लेकिन रतनू का बाप हिम्मत हार गया था। हरेक चौमासे में दमा की बीमारी-जैसी खाँसी हो जाती थी उसे। इस वर्ष कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था यह रोग। उसे लगने लगा की अब ज्यादा दिन नहीं चलेगी यह काया-आज है, कल रहे-न-रहे। परमेश्वर की मेहरबानी कि घर-द्वार पर जमदूतों की फेरी नहीं हुई...‘‘पर, भाई-बन्द यदि मौका देखकर हल्ला कर बैठे तो  अब पहले-जैसी दम-खम नहीं रही। बेटा एक ही है। अपने बाद इस लड़के को किसी का सहारा नहीं मिलेगा। कम-से-कम पिण्ड-पानी देने लायक तो हो कोई आगे। इस भाई-बन्दी और महामारी से बचाव होने तक तो मुझे जिन्दा रहना ही चाहिए। मैं यदि अचानक चला गया तो पीछे से इस लड़के का विवाह कौन करेगा ’’
दोनों मर्द-औरत बतियाते रहे और विचार करते-करते इरादा कर लिया कि, ‘‘छोरे का ब्याह अभी कर डालें। सात-आठ वर्ष का है-उसे सयाना होने में अभी बारह-चौदह वर्ष लगेंगे। यह बाप बनने लायक और लड़की अपना आँचल सँभालने लायक हो जाए, तभी इनका गौना हो-ऐसी लड़की ढूँढ़नी चाहिए।’’

पड़ोसी शिवाप्पा जाधव से बातचीत हो गयी। रतनू के बाप ने सोचा पड़ोसी है और नाते-गोते में भी जम रहा है। इसे ही समधी बना लेना चाहिए। मेंड़ से मेंड़ लगा खेत है-खेत रहेगा जब तक रहेगा लेकिन दोनों के घर तो एक हो जाएँगे। बच्चे हिल-मिलकर खेलते-खाते बड़े होते रहेंगे...शिवाप्पा का बड़ा लड़का रामा तो लगभग रतनू की उम्र का ही था-दोनों अखाड़े में एक साथ जोर करते थे।

शिवाप्पा भी विचार करने लगा, आप्पा जकाते जैसा शेर अपने आप हमारी दामरी में बँध रहा है। गाँव भर में, अब हमारी ओर टेड़ी आँख से देखने की हिम्मत कोई नहीं करेगा। अपनी दोस्ती और भी गहरी होगी और वक्त-बे वक्त एक-दूसरे की मदद भी होगी।’
रिश्ता पक्का हो गया। लड़की अभी पूरे एक वर्ष की भी नहीं हुई थी।
इस विवाह में लड़की-लड़के के माँ-बापों ने अपनी-अपनी हौंस पूरी की। रतनू को अपना विवाह एक खेल-तमाशे की तरह लगा।

...विवाह के पूरे उत्सव में तारा अपने पालने में पड़ी हुई पालने से बाँधी गयी रंग-बिरंगी मौरी की ओर, काजल अँजी हुई आँखों से चकित-सी देखती इधर-उधर हाथ-पैर हिलाती हाऽ-हूऽऽ करती हुई पड़ी रही।
बीच-बीच में ऐन पच्चीसी की उसकी चचेरी बहन उसे धीरे से उठाती और हल्दी स्नान आदि के लिए मण्डप में ले जाती। एक वर्ष की तारा के गले में बाँधा गया मंगल-सूत्र एवं कण्ठुला बड़ा विचित्र लग रहा था। आगे बीस एक वर्ष के बाद गदराये शरीर में लगाई जानेवाली हल्दी, जवान चचेरी बहन की गोदी में पड़ी तारा के कोमल शरीर पर लगाई जाती, पीठ पर बेसन का उबटन लगाकर नहान कराया जाता। वही उस नन्ही-सी बच्ची की आँखों में काजल लगाते-लगाते, माँग में सिन्दूर भरती, माथे पर कुमकुम की बड़ी-सी बिन्दी लगा देती। उसके पालने का बिछौना बदलते हुए उसके सामने ब्याह में आया ‘शालू’ घड़ी मारकर रख देती-यही घड़ी आगे पन्द्रह-सोलह वर्षों के बाद खोली जानेवाली थी।...मंगल-सूत्र लपेटे गये, ताँबे के भरे हुए लोटे को हाथ में थामे, रतनू घोड़े पर अकेला बैठा ससुराल से लौटा। उधर वर्ष भर की उसकी पत्नी पालने में गहरी नींद में पड़ी हुई। उसे कुछ भी बोध नहीं हुआ। इधर उसके भाग्य का विधान उसके माँ-बाप ने पहले ही लिख दिया था। सास-ससुर, समधी-समधिनें अपनी-अपनी हौंस पूरी कर रहे थे।

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