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जीवनी/आत्मकथा >> बराक ओबामा पिता से मिले सपने

बराक ओबामा पिता से मिले सपने

अशोक कुमार

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6898
आईएसबीएन :9788184520170

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अपनी मृत्यु के समय पिता मेरे लिए एक मिथक के समान ही रहे- एक व्यक्ति के रूप में अधिक भी और कम भी।

Barack Obama Pita Se Mile Sapne - A Hindi Book - by Ashok Kumar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पिता से मिले सपने (ड्रीम्स फ्रॉम माइ फादर) बराक ओबामा के संस्मरणों की उल्लेखनीय पुस्तक हैं। अश्वेत अफ्रीकी पिता और श्वेत अमेरिकी माँ की संतान ओबामा मात्र दो साल के थे जब उनके पिता परिवार छोड़ कर चले गए थे। कई वर्षों बाद उन्हें नैरोबी से एक फोन आता है-तुम्हारे पिता नहीं रहे ! अचानक मिली यह खबर ओबामा को एक भावनात्मक यात्रा के लिए मजबूर कर देती हैं। वे अपने पिता के जीवन के सच को जानने का, अपनी विभाजित विरासत को समझने-बूझने का संकल्प करते हैं।
यह पुस्तक तब लिखी गई जब ओबामा 33 साल के थे और उन्होंने राजनीतिक जीवन में उतरने के बारे में सोचा तक नहीं था। पिता से मिले सपने एक अविस्मरणीय पाठ है। यह न केवल ओबामा की उस यात्रा पर प्रकाश डालती है बल्कि, अपने इतिहास को, हमें जो बातें एक कौम की शक्ल प्रदान करती हैं, उन्हें समझने की सार्वभौमिक इच्छा को भी स्पष्ट करती हैं।

‘‘इसे अब तक के अमेरिकी राजनेता का सर्वश्रेष्ठ संस्मरण कहा जा सकता है।’’
-जो क्लिन, टाइम

‘‘अपनी ताजगी और ईमानदारी के कारण एक बेस्तसेलर किताब।’’
-क्रिस्टोफर हिचेन्स, संडे टाइम्स

‘‘खूबसूरत शिल्प...मार्मिक और बेबाक।’’
-स्कॉट टुरो

यह पुस्तक पहली बार लगभग दस साल पहले प्रकाशित हुई थी। जैसा कि मैंने मूल भूमिका में लिखा था, इस पुस्तक को लिखने का अवसर मुझे तब मिला था जब मैं लॉ स्कूल में था। तब मैं हार्वर्ड लॉ रिव्यू’ का पहला अफ्रीकी-अमेरिकी अध्यक्ष चुना गया था। प्रकाशक ने मुझे अग्रिम रकम दी थी और इस बात की थोड़ी चर्चा भी हुई थी। मैंने इस विश्वास के साथ इस पुस्तक पर काम शुरू किया था कि मेरे परिवार की कहानी, उस कहानी को समझने-बूझने के मेरे ये प्रयास, अमेरिकी जन-जीवन में नस्लीय विभेद का कुछ खुलासा करेंगे। साथ ही, ये हमारे आधुनिक जीवन में पहचान से जुड़ी अनिश्चितता, समय के साथ हुए बदलावों और संस्कृतियों के टकराव की भी व्याख्या करेंगे।

जैसा कि पहली-पहली बार लेखक बनने वालों के साथ होता है, मैं भी अपनी पुस्तक के प्रकाशन को लेकर उम्मीद और नाउम्मीदी से भरा हुआ था। उम्मीद यह थी कि पुस्तक मेरी युवा अपेक्षाओं से भी ज्यादा सफल होगी। नाउम्मीदी इसलिए थी कि मैं कुछ सार्थक नहीं कह पाया था। लेकिन वास्तविकता कहीं इन दोनों के बीच थी। पुस्तक की जो समीक्षाएँ छपीं वे कुछ सकारात्मक ही थीं। मेरे प्रकाशक ने पुस्तक के पाठ के जो आयोजन किए, उनमें लोग भी अच्छी संख्या में आए। बिक्री शानदार से कम ही कही जाएगी। और कुछ महीने बाद, मैं अपने कामकाज में व्यस्त हो गया, यह सोच कर कि लेखक के रूप में मेरा केरियर छोटा ही रहेगा। मुझे खुशी इस बात की थी कि इस पूरे प्रकरण को मैं कुल मिलाकर अपनी गरिमा के साथ निभा ले गया था।

इसके बाद करीब दस वर्षों तक मुझे इस पर कुछ सोचने का समय नहीं मिला। 1992 के चुनाव के दौरान, मैं मतदाता पंजीकरण परियोजनना में लगा रहा, मानवाधिकार से संबंधित मामलों की वकालत में जुटा रहा, शिकागो यूनिवर्सिटी में मैंने संवैधानिक कानून का अध्ययन शुरू कर दिया। मैंने और मेरी पत्नी ने एक मकान खरीदा; हमारी सुंदर, स्वस्थ और नटखट दो बेटियाँ हुई, और हम अपना खर्च चलाने की जद्दोजहद में लगे रहे। प्रांतीय विधायिका में जब एक सीट खाली हुई तो कुछ मित्रों ने मुझे इसके लिए चुनाव लड़ने के वास्ते राज़ी कर लिया, और मैं जीत गया। यह कार्यभार मैं सँभालता, इससे पहले मुझे सावधान किया गया कि प्रांतीय राजनीति में वह ग्लेमर नहीं है जो वाशिंगटन की या राष्ट्रीय राजनीति में है। प्रांतीय राजनीति में गुमनामी में रहकर अधिकतर ऐसे मुद्दों पर मेहनत करनी होती हैं जिनमें कुछ ही लोगों की दिलचस्पी रहती हैं और जिन्हें गली-मुहल्ले के स्त्री-पुरुष आमतौर पर अनदेखा कर देते हैं। (मसलन, मोबाइल होम से संबधित नियम-कानून या कृषि उपकरणों की कीमत में कमी से संबंधित करो के मसले)। जो भी हो, मुझे यह काम संतोषजनक लगा, क्योंकि प्रांतीय राजनीति का दायरा ऐसा है कि आप ठोस नतीजे हासिल कर सकते हैं (उदाहरण के लिए, गरीब बच्चों के वास्ते स्वास्थ्य बीमा योजना के विस्तार या बेकसूर लोगों को मौत की सजा देने से संबंधित कानूनों में संशोधन जैसे मसलों को उपयुक्त समय सीमा में निबटाया जा सकता है) और इसलिए भी कि एक बड़े, औद्योगिक प्रांत की कैपिटल बिल्डिंग में हर दिन आप एक राष्ट्र के चेहरे को निरंतर संवाद करते पा सकते हैं; शहरी माँओ और किसानों, प्रवासी मजदूरों के साथ-साथ उपनगरीय निवेश बैंकरों को अपनी-अपनी कहानी सुनाने के लिए आतुर पाया जा सकता है।

कुछ महीने पहले, मुझे इलिनोइस से अमेरिकी सेनेटर के तौर पर एक सीट के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी से नामजद किया गया। पैसे वाले, कुशल और मशहूर उम्मीदवारों की भीड़ के मद्देनज़र, यह एक कठिन मुकाबला था। और फिर मुझे न तो संगठन का सहारा हासिल था और न मेरे पास अपनी कोई पूँजी थी। मैं एक मजाकिया किस्म के नाम वाला अश्वेत था और मुझे एक कमजोर उम्मीदवार माना जाता था। इसलिए जब मैंने डेमोक्रेटिक पार्टी के प्राइमरी चुनाव में बहुमत में वोट हासिल कर लिए, श्वेत और अश्वेत दोनों क्षेत्रों के अलावा शिकागो सहित उपनगरों में भी जीत गया, तब जो प्रतिक्रिया उभरी उसमें उस प्रतिक्रिया की अनुगूँज सुनाई दी जो ‘लॉ रिव्यू’ के चुनाव में मेरी जीत पर उभरी थी। मुख्यधारा के टीकाकारों ने आश्चर्य ज़ाहिर किया और यह उम्मीद जताई कि मेरी जीत ने हमारी नस्लवादी राजनीति में व्यापक परिवर्तन का संकेत दे दिया है। अश्वेत समुदाय में मेरी उपलब्धि पर गर्व का भाव था। इस गर्व में यह हताशा मिली हुई थी कि ब्राउन बनाम बोर्ड ऑफ एजुकेशन प्रकरण के पचास साल और मताधिकार कानून पास होने के चालीस साल बाद भी हम इस संभावना (यह एक संभावना भर ही थी, क्योंकि मुझे अभी एक बेहद मुश्किल आम चुनाव का सामना करना था) का जश्न मना रहे थे कि मैं सेनेट में दाखिल होने वाला एकमात्र अफ्रीकी-अमेरिकी-‘रिकंस्ट्रक्शन’ के बाद से केवल तीसरा-शख्स बनूँगा। मेरा परिवार, मेरे मित्र और खुद मैं थोड़ा हैरान था कि मुझ पर इतना ध्यान दिया जा रहा था। मीडिया रिपोर्टों की चमकदमक और वास्तविक जीवन की पेचीदा और सांसारिक सचाइयों के बीच की खाई का हमें निरंतर एहसास था।

एक दशक पहले मुझे मिले प्रचार ने जिस तरह मेरे प्रकाशक की दिलचस्पी जगाई थी, उसी तरह इन नई खबरों ने पुस्तकों को पुनः प्रकाशित करने का उत्साह जगाया। कई वर्षों में पहली बार, मैंने पुस्तक की एक प्रति उठाई और कुछ अध्याय पढ़े, यह देखने के लिए कि इतने वर्षों में मेरे विचार कितने बदले हैँ। मैं स्वीकार करता हूँ कि यदाकदा शब्द के अनुपयुक्त चयन, खराब वाक्य रचना, भावुकता की अति का प्रदर्शन करने वाली किसी अभिव्यक्ति पर अक्सर चौंकता रहा। मुझे पुस्तक के करीब पचास पृष्ठ कम करने की जरूरत महसूस हो रही हैं क्योंकि संक्षेप में बात कहने का मैं कायल हूँ। बहरहाल, मैं ईमानदारी से यह नहीं कह सकता कि इस पुस्तक का जो स्वर है, वह मेरा नहीं है, कि दस साल पहले की तुलना में आज मैं यह कहानी बहुत अलग तरह से कह सकता हूँ, भले ही कुछ अंश राजनीतिक तौर पर असुविधाजनक साबित हुए और पंडिताऊ टीका-टिप्पणी तथा विरोधी शोध का मसाला बने।

अलबत्ता जो चीज नाटकीय, निर्णायक तौर पर बदली है वह है वह संदर्भ, जिसमें इस पुस्तक को अब शायद पढ़ा जाएगा। सिलिकॉन वैली और शेयर बाजार जब उत्कर्ष पर था तब मैंने लिखना शुरू किया। तब बर्लिन की दीवार ढह रही थी, मंडेला धीमे मगर सधे कदमों से जेल से निकल रहे थे एक देश का नेतृत्व करने के लिए, और ओस्लो में शांति समझौतों पर दस्तखत हो रहे थे। हमारे अपने देश मे बंदूकों, गर्भपात और रैप संगीत के इर्दगिर्द केंद्रित सांस्कृतिक विमर्श इतना तीखा दरअसल इसलिए लग रहा था क्योंकि बिल क्लिंटन का ‘थर्ड वे’, जो बड़ी आकांक्षा और तीक्ष्ण दाँतों से रहित कल्याणकारी राज्य था, रोटी-कपड़ा-मकान के मसले पर एक व्यापक आम सहमति को परिभाषित करता दिख रहा था। यह ऐसी आम सहमति थी जिस पर जॉर्ज डब्लू. बुश के पहले अभियान को भी, अपने संवेदनशील रूढ़िवाद’ के साथ, सहमति जतानी पड़ी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, लेखकों ने इतिहास के अंत, मुक्त बाज़ार और उदार लोकतंत्र के उत्कर्ष, देशों के बीच पुरानी नफरतों और लड़ाइयों की जगत वास्तविक समुदायों के बीच टकरावों और बाज़ार में हिस्सेदारी को लेकर संघषों की घोषणा कर दी थी। और फिर 11 सितंबर 2001 को दुनिया दरक गई।

उस दिन और उसके बाद के दिनों को अपनी कलम में बाँधने का कौशल मेरे पास नहीं है-प्रेतों की तरह विमानों का इस्पात और शीशे के ढाँचे में, समा जाना, गगनचुंबी टावरों का धीरे-धीरे भहर जाना, धूल से सनी आकृतियों का सड़क पर भागना, पीड़ा और दहशत। न ही मैं उस नंगे विनाशवाद को समझने का दावा कर सकता हूँ जिसने आतंकवादियों को उस दिन प्रेरित किया था या उनके भाइयों को आज भी प्रेरित कर रहा है। दूसरों के दिलों को समझने, उनकी भावना को महसूस करने की मेरी शक्ति उन लोगों की भावशून्य निगाहों को नहीं भेद सकती, जो रहस्यपूर्ण, गंभीर संतुष्टि के साथ बेकसूरों की हत्या करते हैं।

मैं तो यह जानता हूँ कि इतिहास उस दिन अपने पूरे आवेग के साथ वापस लौटा था; कि, जैसा कि फॉकनर हमें याद दिला चुके हैं, अतीत कभी मरता और दफन नहीं होता-वह तो अतीत भी नहीं होता। यह सामूहिक इतिहास, यह अतीत मेरे अपने अतीत को भी छूता है। सिर्फ इसलिए नहीं कि अल क़ायदा के बमों ने भयावह सटीकता के साथ मेरे जीवन की कुछ छवियों को निशाना बनाया था- नैरोबी, बाली, मैनहटन की इमारतों और सड़कों और चेहरों को-सिर्फ इसलिए नहीं कि 9/11 के एक परिणाम के रूप में मेरा नाम अतिउत्साही रिपब्लिकन कारकूनों की मखौल उड़ाने वाली वेबसाइटों की सहज निशाना बन गया था। बल्कि इसलिए भी कि संपन्नता की दुनियाओं और अभाव की दुनियाओं के बीच; आधुनिक और प्राचीन के बीच; हमारी प्रचुर, आपस में टकराती, खिझाती विविधता को उन मूल्यों के प्रति आग्रह के साथ अपनाने वालों जो हमें एकता के सूत्र में बाँधते हैं, और उन लोगों के बीच जो किसी झंडे या नारे या पवित्र पाठ के तहत उस आश्वस्ति और तर्क को स्वीकार करते हैं जो हमसे भिन्न लोगों के प्रति क्रूरता को जायज ठहराता है, जो टकराव है उसे लघु रूप में इस पुस्तक में भी प्रस्तुत किया गया है।

मैं जानता हूँ, मैंने देखी है, उन लोगों की हताशा और उनकी अस्त-व्यस्तता जो शक्तिहीन हैं; यह कैसे जकार्ता या नैरोबी की सड़कों पर जीने वाले बच्चों के जीवन को ठीक उसी तरह तोड़-मरोड़ डालती है जिस तरह शिकागों के साउथ साइड के बच्चों के जीवन को तोड़ती है, उनके लिए अपमान और अनियंत्रित आक्रोश के बीच की सड़क कितनी सँकरी है, कितनी आसानी से वे हिंसा और हताशा में उतर जाते हैं। मुझे मालूम है कि इस अव्यवस्था के प्रति ताकतवर की प्रतिक्रिया मसले के हल के लिए अपर्याप्त होती है। यह प्रतिक्रिया ठस अकर्मण्यता से लेकर ताकत के विवेकहीन प्रयोग, लंबी कैद, और अत्याधुनिक सैन्य साजोसामान के प्रयोग के रूप में हो सकती है। मुझे मालूम है कि सख्त रुख, कट्टरपंथ और कबायलीपन को अपनाना, हम सबकों विनाश की ओर ले जाता है।

इसलिए, इस संघर्ष को समझने और उसमें अपनी जगह ढूँढ़ने का मेरा जो अधिक आंतरिक, सघन प्रयास था वह व्यापक सार्वजनिक विमर्श से जुड़ गया है, उस विमर्श से जिसमें मैं पेशेगत तौर पर शरीक हूँ, उससे जो हमारे जीवन और आने वाले कई वर्षों तक हमारे बच्चों के जीवन को दिशा देगा।
इन सबके नीतिगत परिणाम क्या होंगे, यह दूसरी पुस्तक का विषय है। यहाँ मैं अधिक व्यक्तिगत टिप्पणी के साथ बात समाप्त करना चाहूँगा। इस पुस्तक के अधिकतर पात्र मेरे जीवन से जुड़े हैं, बेशक कम-ज़्यादा गहराई से-कामकाज, भूगोल, भाग्य के प्रभावों की वजह से।
लेकिन मेरी माँ सबसे अलग है, जिसे हमने इस पुस्तक के प्रकाशन के कुछ महीने बाद, कैंसर के अचानक क्रूर आघात के कारण खो दिया।

पिछले दस साल, वह अपने मन का काम करती रही थी। दुनिया भर में घूम-घूमकर, वह एशिया तथा अफ्रीका के दूरदराज के गाँवों में, महिलाओं को सिलाई मशीन या गाय खरीदने में, या शिक्षा ग्रहण करने में, मदद कर रही थी ताकि वे विश्व अर्थव्यवस्था में अपना कदम जमा सकें। वह बड़े छोटे तबकों में दोस्त बना रही थी, खूब पैदल चल रही थी, चाँद को निहारा करती थी, दिल्ली या मराकेश के बाज़ारों में स्कार्फ या पत्थर की कोई मूर्ति या ऐसी ही छोटी-मोटी चीजें खरीदा करती थी, जो उसे अच्छी लगती थी या खुश कर देती थीं। वह रिपोर्ट लिखा करती, उपन्यास पढ़ा करती, बच्चों को हिदायतें देती-या पोतों-नातियों के सपने देखा करती।

हम दोनों अक्सर मिला करते थे, हमारा रिश्ता अटूट था। इस पुस्तक को लिखने के दौरान, वह इसकी पांडुलिपियाँ पढ़ती थी, उन प्रसंगों को सही करवाती थी जिन्हें मैनें गलत समझा होता था, मगर खुद उसे मैंने जिस रूप में पेश किया होता, उस पर वह कोई टिप्पणी नहीं करती थी, लेकिन पिता के चरित्र के थोड़े नकारात्मक पहलुओं की व्याख्या करने, या उनका बचाव करने में कोई देरी नहीं करती थी। अपनी बीमारी को उसने गरिमा के साथ हँसते हुए झेला। उसने मुझे और मेरी बहन की, हमारी परेशानियों, अभावों, हताशाओं के बावजूद, जीवन जीने में सहायता की।...

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