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उपन्यास >> उतरती हुई धूप

उतरती हुई धूप

गोविन्द मिश्र

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :115
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6892
आईएसबीएन :9788126706518,8126706511

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आधुनिक भारतीय समाज में कॉलेज जीवन का यथार्थ क्या है ? अध्ययन, प्रेम और रोमांस या ...

Utarti Huee Dhoop - A Hindi Book - by Govind Mishra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आधुनिक भारतीय समाज में कॉलेज-जीवन का यथार्थ क्या है ? अध्ययन, प्रेम और रोमांस या कि हमारी परम्परागत सामाजिकता के विभिन्न दबाव ? निश्चय ही गोविन्द मिश्र का यह उपन्यास हमें इन सवालों के जवाब देता है, लेकिन किसी गणितीय गुणा-भाग से नहीं, बल्कि एक भावप्रवण काव्यात्मक रचाव के साथ।
समर्थ रचनाकार के नाते गोविन्द मिश्र की एक अलग पहचान है और हमारे मध्यवर्गीय जीवन में उलझे नारी-स्वातन्त्र्य तथा प्रेम एवं काम-संबंधों की बहुस्तरीय पड़ताल की है। कहने की आवश्यकता नहीं कि उनका यह बहुचर्चित उपन्यास भी एक ऐसी ही पड़ताल का नतीजा है। इसमें उन्होंने एक कॉलेजियेट युगल के धूप-छाँही रोमांस और परवर्ती परिस्थितियों के परिणामस्वरूप उनके मोहभंग का प्रभावी अंकन किया है। प्रेमिल स्मृतियों और अधूरे सपनों के प्रति उद्दाम आकर्षण के बावजूद अन्तत: उन्हें इस सचाई को स्वीकार करना पड़ता है कि सामाजिक यथार्थ उनके व्यक्तिगत भावावेश से कहीं ज्यादा अहम है। संक्षेप में, अपने तमाम रागात्मक खुलेपन के बावजूद यह कथाकृति हमें सामाजिक दायित्वबोध के स्वीकार की प्रेरणा देती है।

 

एक

होस्टल पहुँचकर उसने रजिस्टर में नाम लिखा और फिर टहलते हुए मेंहदी की पत्तियों को तोड़ने, मसलने और फेंकने में लग गया।
जब तक रजिस्टर सन्देशा अन्दर ले जाता और वह आती, यह इन्तज़ार इसी तरह करता था।
क्रिसमस की छुट्टियों के बाद उससे कम ही मिला था। पिछली बार ही सोचता था कि अब इम्तहान बाद ही मिलेगा, सीधा। बीच में सिर्फ पढ़ाई करेगा.......इधर पढ़ाई भी चल निकली थी........जुटा रहा था, क्योंकि पहले दो सत्र उसके साथ घुमायी भी कसकर की थी। बीच-बीच में पढ़ाई का क्रम टूटता दिखता तो सिनेमा वगैरह देखकर फिर से खुद को नये सिरे से लगाता रहा था.....पढ़ाई, पढ़ाई और पढ़ाई। बीच-बीच में किसी दिन अजीब खालीपन आ घेरता। मन इतना उचाट हो जाता कि कहीं नहीं लगता। पढ़ाई के नाम पर मितली नथुनों तक खिंच आती-वह पूरा दिन बस यों ही खाली जाता। यह सोचता कि दिमाग भी पेट की तरह है-जितना अन्दर गया है उसे पर्त-पर्त बिठायेगा और तभी आगे कुछ लेगा.....
शाम जाकर ही सिलसिला कुछ बाँधने के आसार दिखाता था।

पर आज शाम तक वैसा भी कुछ नहीं हुआ। दो दिन पूरे खालीपन में गुज़र गये थे और शाम तक पहुँचते-पहुँचते खालीपन टूटने में बदल गया....माथा बेहद गरम था।
साल के सबसे खतरनाक हिस्से से भी तो गुज़र रहा था....ऊपर से पाले की तरह गिरना शुरू होता है यह समय और फिर लगातार गिरता ही चला जाता है जब तक धूप में पूरी चौंध नहीं आ जाती या इम्तहान खत्म नहीं हो चुके होते। उधर आम की बौर फूटकर गुच्छों में फूलती है और इधर पढ़ाई का विस्तार तनता है....लड़कियाँ कमबख्त इसी दौर में सबसे ज़्यादा खूबसूरत लगती हैं.....रूमानी प्यास की वह तल्खी पानी के घूँट-पर-घूँट, सन्तरे का रस, पपीते के टुकड़ों से बुझाये नहीं बुझती.....एक कशमकश लड़की और पढ़ाई के बीच ओर-छोर दौड़ती ही रहती है।

लड़के-लड़कियों के जोड़े कम्पाउण्डर-भर में बिखरे पड़े थे, थोड़े-थोड़े फासले पर। कालेज की इमारत के बगल में एक झुरमुट था-घने पेड़ों के बीच बनाया गया एक खुला चौकोर बरामदा। खम्भों से सटी हुई पट्टियाँ चारों तरफ थीं, जिससे अन्दर बैठने वाले टिक सकते थे और बाहर से वे आड़ का भी काम करती थीं। वहाँ भी कोई लड़की अपने चहेते को लिये बैठी थी। उस जगह को लेकर लड़कियों में जरूर कुछ धर-पकड़ मचती होगी, यों कि वहाँ बैठे हुओं को बाहर से लड़कियाँ रश्क और भुनभुनाहट के बीच की नजरों से लगातार बींधतीं रहतीं। उस जगह की कुछ खास सहूलियतें थीं-वहाँ थोड़ा-बहुत वह-कुछ किया जा सकता था जो बाहर नहीं बन सकता था। इस लिहाज़ से अगर हिन्दी विभाग के पीछे की पग डण्डी ‘लवलेन’ थी तो यह जगह निश्चित ही ‘लव कॉटेज’ कही जा सकती थी। पहली तो काफी हद तक सिर्फ प्रतीकात्मक थी पर यह असल थी......दिन में झुरमुट की बेचों पर बैठकर लड़कियाँ चाट खाती थीं, एक साथ झुण्ड-की-झुण्ड। बगल के कमरे में चाटवाला बैठता था और कालेज खत्म होते ही वह चाय के बासी माल का ‘स्टाक’ कमरे में बन्द कर चला जाता था।
वह आती दिखी।

उतनी दूर से उसे देखते हुए उसे कुछ ज्यादा दिलचस्पी हो आयी थी। यह उसे काफी गहराई से देखने लगा था-साँवली-सी गसी-गसी देह-कुछ मोटेपन की तरफ़ झुकी हुई, सफेद लिबास में लिपटी-जहाँ-तहाँ से उड़ती हुई साड़ी को सँभालती हुई चली आ रही थी। उसकी चाल उसकी ही तरह गोल-गोल थी। इसकी नज़रें खुद पर ज़मी पाकर वह कुछ सचेष्ट हो आयी और अब कुछ सकुचाकर चलने लगी थी। पास आते-आते शर्म से एकदम लाल पड़ चुकी थी।
-    बड़े, वो हो तुम !
-    -क्यों, क्या हुआ, नहीं आना चाहिए था ?
-    हट.....

-    वह इधर-उधर देखने लगी। चलने से उसे कुछ हाँफी आ गयी थी। उसकी गर्दन के गड्ढे में चिकनी-चिकनी कोई मांसल सुई ऊपर-नीचे हो रही थी। उसने कान में बाल डाल रखे थे। उनकी पृष्ठिभूमि में उसके गाल और भी भरे-भरे और गोल-गोल लग रहे थे और मज़बूत हिप्स की पृष्ठभूमि में स्वयं वे बाले।
-    देर हो गयी आने में क्या ?

वह कुछ नर्वस थी, जानती थी इन्तज़ार करना उसे एकदम उखाड़ देता है।
-    नहीं, कोई खास नहीं....मैं देख रहा था तुम्हारे होस्टल की लड़कियों के नमूने....
वह हँसी-उसके एक-से दाँत चिकने होठों के बीच से थोड़ा-सा फटे। वे बेहद सफेद थे।
-    अजीब इत्तफाक़ है....उसने कहा।
-    क्या ?
-    यही।
-    क्या यही ?
-    कि तुम आ गये.....कितने दिनों से तबीयत थी तुमसे मिलने की, डर लगता था......क्यों विघ्न डालूँ तुम्हारी पढ़ाई में, पर आज सुबह से जाने कैसे और क्यों लग रहा था कि तुम्हें देख सकूँगी कम-से-कम।
उसने नज़रे झुका ली थीं। उस साफ इकरार पर इसे कुछ नाज़ आया। इसने एक नजर कम्पाउण्ड में घुमायी। वह हर लिहाज से वहाँ खड़ी सब लड़कियों से ज्यादा मीठी चीज़ थी.....उस हद तक यह वहाँ खड़े लड़के में सबसे ज्यादा भाग्यवान था।
-    कैसी चल रही है पढ़ाई तुम्हारी ?-इसने पूछा।

-    मेरा क्या....उसने एक उसाँस ली और उड़ी-उड़ी हुई नज़रों से सामने देखने लगी।
-    अँधेरा गिरना शुरू हो गया था और उसके शरीर की हर लकीर गहरे पन से उभर रही थी-बड़ी-बड़ी आँखें, खूबसूरत नाक और उसके नीचे होठों की साफ-सुथरी लकीरें....होंठ कितने एक-से और सुड़ौल थे। यह उसे तभी पास घसीट लेता अगर वे अकेले होते.....जैसे एक शाम उस बड़े बरगद के पेड़ के नीचे घसीट लिया था.....
-    मिलते समय ही उस शाम बारिश का अच्छा-खासा अन्देशा होने लगा था मगर बातें......कि खिंचती चली गयीं। बारिश रास्ते में मिलेगी, छाता लेते जाओ.....उसने कहा था। छाता लाने में और देर हो गयी और जब तक छाता लेकर आयी, मोटी-मोटी बूँदे आ भी गयीं और यह गेट से निकलता-निकलता रह गया......

बचाव के लिए यह पहले से ही एक पेड़ के नीचे खड़ा हो गया था। आकर उसने वहीं छतरी खोल दी। पानी तेज हो रहा था इसलिए वे बरगद के बड़े पेड़ के नीचे को दौड़ गये और यह पानी की पहली तेज़ी के धीमा होने का इन्तज़ार करने लगा था। वह छाता लेडीज था और बारिश से बचने की कोशिश में दोनों छाते के बीचों-बीचों सिमट रहे थे। तभी इसने उसे एकदम पास खींच लिया। छाते के बाहर बौछार का धन्धा था जिसमें कालेज की इमारत, लान, गलियारे सभी कुछ डूब चुके थे......वह इसके इतने पास पहले कभी नहीं हुई थी......सामीप्य का उतना गहरा अहसास भी पहले कभी नहीं हुआ था। इसने उसके माथे को हल्के-से चूमा लिया और हटकर उसे देखा.....उसकी आँखें मुसकुराहट में दीयों की तरह सुलग रही थीं। यह अपनी जीभ उसकी पलकों पर फेर गया और फिर फिसलता हुआ उसके गालों पर उतर आया-भरे-भरे गदराये फलों के माफिक वहाँ सख्त फिर भी मुलायम चमड़े का स्वाद था। उसकी आँखें बन्द हो गयी थीं और अब वहाँ सिर्फ उसका चेहरा-ही-चेहरा था-यह एक अजीब वहशीपन में उसके सारे चेहरे को भड़ा-भड़ चूम रहा था-आर-पार, हर कोण से, हर हिस्से को.....कि तभी इसके होंठ उसके होठों की रसीली सिल पर उतर गये थे.....बेहद भरा-भरा था वहाँ। उन दो पंखुड़ियों में जैसे व्यक्तित्व का सारा रस, सारी मिठास भरी हुई थी....पहली बार वह सिर्फ उन्हें छू सका और झुलसकर लौट आया, अगली बार उन्हें फिर छुआ और भरा....वह सिर्फ मुसकुरा रही थी.....उन तारों से जैसे इसे और पास खींच रही थी......

वह पहली शाम थी जब इसने उसे उतने पास से छुआ था, एक खूब सूरत दर्द होठों में लेकर लौटा था। अगले दो दिनों तक होंठ उस दर्द में रिसते रहे थे-वह तरल पदार्थ जो तब इसने चाटा था, अब इसके अपने होठों से चू रहा था और यह उसे की चाटता रहा था......
मांस की पहली गन्ध, होठों से बूँद-बूँद चूती हुई गन्ध। उसके होठों में तब वह था जो एक अछूती क्वाँरी और वह भी जिसके होठों पर लिपिस्टक न फेरी गयी हो, उसी होठों में हो सकता है।
-    तुम अपनी सुनाओ, तैयारी कैसी है.....वह कह रही थी।
-    जा रही चली भैंसागाड़ी....थक जाता हूँ।
-    कौन-सा ‘रिवीजन’ चल रहा है ?

-    रिवीज़न....अरे अभी तो कितनी चीज़ें ऐसी हैं जो एक बार भी नहीं देखीं।
-    अच्छा सुनो, खाना कैसा है तुम्हारे उधर......यहाँ तो काफी खराब हो गया है अभी से।
-    बाढ़ के काफी पहले ही जैसे गँदला पानी आने लगता है वैसे ही इम्तहान के काफी पहले होस्टल के खाने में.....इधर खाया भी कम जाता है।


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