लेख-निबंध >> भारत विभाजन के गुनहगार भारत विभाजन के गुनहगारराममनोहर लोहिया
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प्रस्तुत पुस्तक में भारत-विभाजन का वर्णन किया गया है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भारत की आजादी के साथ जुड़ी देश-विभाजन की कथा बड़ी व्यथा-भरी है। आजादी
के सुनहरे भविष्य के लालच में देश की जनता ने देश-विभाजन का जहरीला घूँट
दवा की तरह पी लिया, लेकिन यह प्रश्न आज तक अनुत्तिरित ही बना हुआ है। कि
क्या भारत-विभाजन आवश्यक था ही ? इस सम्बन्ध में मौलाना अबुलकलाम आजाद ने
अवश्य लिखा है और उन्होंने विभाजन की जिम्मेदारी तत्कालीन अन्य नेताओं पर
लादी है। डॉ. राममनोहर लोहिया ने विभाजन के निर्णय के समय होने वाली सभी
घटनाओं को प्रत्यक्ष देखा था और इस पुस्तक में उन्होंने देश-विभाजनों के
कारणों और उस समय के नेताओं के अचानक पर बड़ी निर्भीकता से विश्लेषण
प्रस्तुत किया है।
लोहिया जी इस देश-विभाजन को नकली मानते थे और उनका विश्वास था कि एक दिन फिर देश के बँटे हुए टुकड़ें एक होकर पूरा भारत एक बनाएँगे। लोहिया का यह सपना सच हो, यही कामना हम भी करते हैं।
लोहिया जी इस देश-विभाजन को नकली मानते थे और उनका विश्वास था कि एक दिन फिर देश के बँटे हुए टुकड़ें एक होकर पूरा भारत एक बनाएँगे। लोहिया का यह सपना सच हो, यही कामना हम भी करते हैं।
ओंकार शरद
भूमिका
मौलाना आजाद कृत ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ के परिक्षण की
जो बात
मेरे मन में उठी, उसे जब मैंने लिखना शुरू किया तो वह देश के विभाजन का एक
नया वृतांत बन गया। यह वृतांत हो सकता है, बाह्म रूप में, संगतवार व
कालक्रमवार न हो, जैसा कि दूसरे लोग इसे चाहते, लेकिन कदाचित यह अधिक सजीव
व वस्तुनिष्ठ बन पड़ा है। छपाई के दौरान इसके प्रूफ देखते समय इसमें
स्पष्ट हुए दो लक्ष्यों के प्रति मैं सतर्क हुआ। एक गलतियों और झूठे
तथ्यों को जड़ से धोना और कुछ विशेष घटनाओं और सत्य के कुछ पहलुओं को
उजागर करना और दूसरा, उन मूल कारणों को रेखांकित करना जिसके कारण विभाजन
हुआ। इन कारणों में, मैंने आठ मुख्य-कारण गिनाए हैं। एक, ब्रितानी कपट दो,
कांग्रेस नेतत्व का उतारवय, तीन, हिन्दू-मुस्लिम दंगों की प्रत्यक्ष
परिस्थिति, चार जनता में दृढता और सामर्थ्य का अभाव, पाँच गाँधीजी की
अहिंसा, छाः मुस्लिम लीग की फूटनीति, सात आए हुए अवसरों से लाभ उठा सकने
की असमर्थता और आठ हिन्दू अहंकार।
श्री राजगोपालाचारी अथवा कम्युनिस्टों की विभाजन समर्थक नीति और विभाजन के विरोध में कट्टर हिन्दूवादी या दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी नीति को विशेष महत्त्व देने की आवश्यकता नहीं। ये सभी मौलिक महत्त्व के नहीं थे। ये सभी गम्भीर शक्तियों के निरर्थक और महत्त्वहीन अभिव्यक्ति के प्रतीक थे। उदाहरणार्थ, विभाजन के लिए कट्टर हिन्दूवाद का विरोध असल में अर्थहीन था, क्योंकि देश को विभाजित करने वाली प्रमुख शक्तियों में निश्चित रूप से कट्टर हिन्दूवाद भी एक शक्ति थी। यह उसी तरह थी जैसे हत्यारा, हत्या करने के बाद अपने गुनाह मानने से भागे।
इस संबंध में कोई भूल या गलती न हो। अखण्ड के लिए सबसे अधिक व उच्च स्वर में नारा लगाने वाले, वर्तमान जनसंघ और उसके पूर्व पक्षपाती जो हिन्दूवाद की भावना के अहिन्दू तत्त्व के थे, उन्होंने ब्रिटिश और मुस्लिम लीग की देश के विभाजन में सहायता की यदि उनकी नियत को नहीं
1.दिसम्बर 1960 में प्रकाशित मूल अंग्रेजी पुस्तक ‘गिल्टी मेन आफ इंडियाज पार्टीशन’ के प्रथम संस्करण की भूमिका से।
बल्कि उनके कामों के नतीजों को देखा जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा। एक राष्ट्र के अन्तर्गत मुसलमानों को हिन्दुओं के नजदीक लाने के संबंध में उन्होंने कुछ नहीं किया। उन्हें एक दूसरे से पृथक् रखने के लिए लगभग सब कुछ किया। ऐसी पृथक्ता ही विभाजन का मूल-कारण है। पृथक्ता की नीति को अंगीकार करना, साथ ही अखण्ड भारत की भी कल्पना करना अपने आप में घोस आत्मवंचना है, यदि हम यह भी मान लें कि ऐसा करने वाले ईमानदार लोग हैं। उनके कृत्यों को युद्ध के संदर्भ में अर्थ और अभिप्राय माना जाएगा जब कि वे उन्हें दबाने की शक्ति रखते हैं जिन्हें पृथक् करते हैं। ऐसा युद्ध असंभव है, कम से कम हमारी शताब्दी के लिए और यदि कभी यह संभव भी हुआ तो इसका कारण घोषणा न होगी। युद्ध के बिना, अखंड भारत और हिन्दू-मस्लिम पृथक्ता की दो कल्पनाओं का एकीकरण, विभाजन की नीति को समर्थन और पाकिस्तान को संकटकालीन सहायता देने जैसा ही है। भारत के मुसलमानों के विरोधी पाकिस्तान के सहायक हैं। मैं एक असली अखंड भारतवादी वस्तुतः पाकिस्तान के सहायक हैं। मैं एक असली अखंड भारतीय हूँ। मुझे विभाजन मान्य नहीं है। विभाजन की सीमारेखा के दोनों ओर ऐसे लाखों लोग होंगे, लेकिन उन्हें केवल हिन्दू या केवल मुसलमान रहने से अपने को मुक्त करना होगा, तभी अखंड भारत का आकांक्षा के प्रति वे सच्चे रह सकेंगे।
दक्षिण राष्ट्रवादिता की दो धाराएँ हैं, एक धारा ने विभाजन के विचार को समर्थन दिया, जबकि दूसरी ने इसका विरोध किया। जब ये घटनाएँ घटीं, तब उनकी नाराज व खुश करने की शक्ति कम न थी, लेकिन वे घटनाएँ फलहीन थीं। महत्त्वहीन। दक्षिण राष्ट्रवादिता केवल शाब्दिक या शब्दहीन विरोध कर सकती थी, इसमें सक्रिय विरोध करने की ताकत न थी। अतः इसका विरोध समर्पण अथवा राष्ट्रीयता की मूलधारा से दूर होने में मिट गया। इसी तरह, दक्षिण राष्ट्रवादी विचार, जिसने विभाजन में मदद की, उसने थोड़ी भिन्न भूमिका भी अदा की, इस सत्य के बावजूद कि इसके भाषणों से असली राष्ट्रवादी बुरी तरह ऊब चुके थे। इस भाषणबाजी में प्रभाव की शक्ति न थी। दोष उसमें इसी का न था, भारतीय जनता व भारतीय राष्ट्रवादिता ने विभान का समर्थन और विरोध दोनों किया, यह उनके मूल-वृक्ष की निष्पर्ण शाखाएँ थीं। मुझे कभी-कभी आश्चर्य होता है कि क्या देशद्रोही लोग भी कभी इतिहास बनाने में कोई मौलिक भूमिका अदा करते हैं। ऐसे लोग तिरस्करणीय होते हैं, इसमें कोई संशय नहीं, लेकिन वे क्या महत्त्वपूर्ण लोग हैं, मुझमें इससे शक है। ऐसे देशद्रोहियों के काम अर्थहीन होंगे, यदि उन्हें पूरे समाज के गुप्त विश्वासघात का सहयोग न मिले।
इसी तरह काम्युनिस्ट-विश्वासघात ने कोई मौलिक भूमिका अदा नहीं की। इससे कोई नत़ीजा नहीं निकला, नतीजे का कारण अन्यत्र है। विभाजन के कम्युनिस्ट समर्थन ने पाकिस्तान को नहीं बनाया। अधिक से अधिक, इसकी भूमिका अण्डा सेने जैसी रही। अब तो कोई यह याद भी नहीं करता सिवा कम्युनिज्म विरोधी बासी प्रचार-तर्क के रूप में। मैं तो कम्युनिस्ट-विश्वासघात के इस कपटी पहलू को दक्षिण मानता हूँ। जिसका लोगों पर कोई प्रभाव नहीं है, लेकिन दूसरे देशद्रोही ऐसे भाग्यशाली नहीं हैं। अच्छा तो यह होगा कि कम्युनिस्टों की अन्दरूनी जाँच कर के पता लगाया जाए कि जब उन्होंने विभाजन का समर्थन किया तब उसके मन में क्या था।
सम्भवतः भारतीय काम्युनिस्टों ने विभाजन का समर्थन इस आशा से किया था कि नवजात राज्य पाकिस्तान पर उनका प्रभाव रहेगा, भारतीय मुसलमानों में असर रहेगा। और हिन्दू मन की दुर्बलता के कारण उनसे मन फटने का कोई भारी खतरा भी न रहेगा, लेकिन उनकी योजना गलत सिद्ध हुई, सिवा थोड़े क्षेत्र को छोड़कर, जहाँ कि उन्होंने भारतीय मुसलमानों में कुछ छिटपुट प्रभाव-स्थल बनाए और हिन्दुओं में अपने लिए क्रोध न उभरने दिया। इस तरह उन्होंने अपने साथ अधिक धूर्तता नहीं की और साथ ही देश के लिए भी कोई लाभदायक काम नहीं किया।
अपने स्वभाव से कम्युनिस्टी दाँवपेंच का स्वरूप ऐसा है कि तभी जनता में शक्ति ला सकता है जब उनकी सफलता हो, अन्यतः लाजमी तौर पर यदि सफलता न मिले तो जनता को कमजोर करने में ही वे सहायक होते हैं। राष्ट्रीयता में आत्मविश्वास रूस के लिए निरर्थक है, इसका प्रचार-महत्त्व तो जारकालीन रूस में ही समाप्त हो गया था। साम्यवाद तो पृथक्वाद है, जब यह शक्तिहीन रहता है, अपने शत्रु को कमजोर करने के लिए, सशक्त राष्ट्रीयता का सहारा लेता है। जब यह राष्ट्रीयता का प्रतिनिधित्व करता है तब वह पृथकवाद नहीं रहता। साम्यवाद कोरिया और वियतनाम में, एकतावादी है और जर्मनी में पृथक्वादी। अधिकार लोग प्रत्यक्ष उदाहरण देखते हैं, अनुमान पर राय नहीं बनाते। जब साम्यवाद के एकतावादी शक्तिदायक उदाहरण दिखाने की आवश्कता होती है तब सोवियत रूस और वियतनाम के उदाहरण रखे जाते हैं और जब स्वतन्त्रता की भावना का उदाहरण रखना होता है तब भारत और जर्मनी का उदाहरण रखा जाता है। इस बात का पेंच कहीं और है। साम्यवाद के लिए कामगर राज्य के सिद्धान्त के अलावा कोई अन्य सिद्धान्त लाजिमी तौर पर किसी भी राष्ट्र को कमजोर बनाता है, विशेष परिस्थितियों को छोड़ कर। इसी सिद्धान्त ने भारतीय राष्ट्र को सदैव कमजोर बनाया है। लेकिन आशामय भविष्य की आशा में इनके अनुचर इस तथ्य के प्रति अंधे बने रहे हैं, साथ ही भारतीय जनता भी अंधी बनी रही है, जिसका कारण साम्यवादी कपट नहीं, बल्कि राष्ट्रवादी या लोकसत्तावादी शक्तियों की मूलभूत कमजोरी रही है।
मैं नहीं समझता कि जो कारण मैंने गिनाए हैं इनके अलावा भी देश-विभाजन के अन्य कोई मौलिक कारण रहे हैं। हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न को लेकर देश की जिस परिस्थिति का निर्माण हुआ है उससे दो महत्त्व के तथ्य सामने आए हैं। हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों के पिछले आठ सौ वर्षों में, हिन्दू और मुसलमान दोनों लगातार पृथक् भाव और समीपता के लुका-छिपी के खेल के शिकार रहे हैं जिससे एक राष्ट्र के प्रति उनकी भावनात्मक एकाग्रता खण्डित रही है, साथ ही भारतीय जन का यह स्वभाव भी परिस्थिति के साथ घुलने-मिलने और सहनशीलता तथा समर्पण की कला को इस हद तक सीख गया है कि दुनिया में कहीं भी परतंत्रता को विश्व-भाईचारे या राजनीतिक कपट का इस प्रकार पर्याय नहीं माना गया। मूलरूप से इन्हीं दो तथ्यों द्वारा हिन्दू-मुस्लिम समस्या को प्रेरित किया गया है। इनके बिना, ब्रिटिश कुटिलनीति अथवा काँग्रेस नेतृत्व के उतारवय का कारण इतिहास की दृष्टि से महत्त्वहीन होता और उसका जो कड़ुवा फल मिला वह कदापि न मिलता।
स्वतंत्र भारत में भी हिन्दू-मुसलमानों में पृथक्-भावना बनी रही है। मुझे शक है कि विभाजन-पूर्व के मुकाबले आज यह पृथक्-भाव अधिक है। पृथक्-भवना ने ही विभाजन को जन्म दिया और इसलिए अपने आप यह भावना पूरी तरह नहीं मिट सकी। परिणाम में ही कारण भी घुलमिल गया। आजादी के इन वर्षों में मुसलनों को हिन्दुओं के निकट लाने का न कोई प्रयत्न किया गया न उनकी आत्मा से पृथकता का बीज समाप्त करने का ही प्रयत्न किया गया। काँग्रेसी सरकार के अक्षम्य अपराधों में विशेष उल्लेखनीय अपराध यही है-पृथक् भावना वाली आत्माओं को निकट लाने में असफलता-बल्कि इस काम के प्रति बेमन से किया गया असफल प्रयास।
श्री राजगोपालाचारी अथवा कम्युनिस्टों की विभाजन समर्थक नीति और विभाजन के विरोध में कट्टर हिन्दूवादी या दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी नीति को विशेष महत्त्व देने की आवश्यकता नहीं। ये सभी मौलिक महत्त्व के नहीं थे। ये सभी गम्भीर शक्तियों के निरर्थक और महत्त्वहीन अभिव्यक्ति के प्रतीक थे। उदाहरणार्थ, विभाजन के लिए कट्टर हिन्दूवाद का विरोध असल में अर्थहीन था, क्योंकि देश को विभाजित करने वाली प्रमुख शक्तियों में निश्चित रूप से कट्टर हिन्दूवाद भी एक शक्ति थी। यह उसी तरह थी जैसे हत्यारा, हत्या करने के बाद अपने गुनाह मानने से भागे।
इस संबंध में कोई भूल या गलती न हो। अखण्ड के लिए सबसे अधिक व उच्च स्वर में नारा लगाने वाले, वर्तमान जनसंघ और उसके पूर्व पक्षपाती जो हिन्दूवाद की भावना के अहिन्दू तत्त्व के थे, उन्होंने ब्रिटिश और मुस्लिम लीग की देश के विभाजन में सहायता की यदि उनकी नियत को नहीं
1.दिसम्बर 1960 में प्रकाशित मूल अंग्रेजी पुस्तक ‘गिल्टी मेन आफ इंडियाज पार्टीशन’ के प्रथम संस्करण की भूमिका से।
बल्कि उनके कामों के नतीजों को देखा जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा। एक राष्ट्र के अन्तर्गत मुसलमानों को हिन्दुओं के नजदीक लाने के संबंध में उन्होंने कुछ नहीं किया। उन्हें एक दूसरे से पृथक् रखने के लिए लगभग सब कुछ किया। ऐसी पृथक्ता ही विभाजन का मूल-कारण है। पृथक्ता की नीति को अंगीकार करना, साथ ही अखण्ड भारत की भी कल्पना करना अपने आप में घोस आत्मवंचना है, यदि हम यह भी मान लें कि ऐसा करने वाले ईमानदार लोग हैं। उनके कृत्यों को युद्ध के संदर्भ में अर्थ और अभिप्राय माना जाएगा जब कि वे उन्हें दबाने की शक्ति रखते हैं जिन्हें पृथक् करते हैं। ऐसा युद्ध असंभव है, कम से कम हमारी शताब्दी के लिए और यदि कभी यह संभव भी हुआ तो इसका कारण घोषणा न होगी। युद्ध के बिना, अखंड भारत और हिन्दू-मस्लिम पृथक्ता की दो कल्पनाओं का एकीकरण, विभाजन की नीति को समर्थन और पाकिस्तान को संकटकालीन सहायता देने जैसा ही है। भारत के मुसलमानों के विरोधी पाकिस्तान के सहायक हैं। मैं एक असली अखंड भारतवादी वस्तुतः पाकिस्तान के सहायक हैं। मैं एक असली अखंड भारतीय हूँ। मुझे विभाजन मान्य नहीं है। विभाजन की सीमारेखा के दोनों ओर ऐसे लाखों लोग होंगे, लेकिन उन्हें केवल हिन्दू या केवल मुसलमान रहने से अपने को मुक्त करना होगा, तभी अखंड भारत का आकांक्षा के प्रति वे सच्चे रह सकेंगे।
दक्षिण राष्ट्रवादिता की दो धाराएँ हैं, एक धारा ने विभाजन के विचार को समर्थन दिया, जबकि दूसरी ने इसका विरोध किया। जब ये घटनाएँ घटीं, तब उनकी नाराज व खुश करने की शक्ति कम न थी, लेकिन वे घटनाएँ फलहीन थीं। महत्त्वहीन। दक्षिण राष्ट्रवादिता केवल शाब्दिक या शब्दहीन विरोध कर सकती थी, इसमें सक्रिय विरोध करने की ताकत न थी। अतः इसका विरोध समर्पण अथवा राष्ट्रीयता की मूलधारा से दूर होने में मिट गया। इसी तरह, दक्षिण राष्ट्रवादी विचार, जिसने विभाजन में मदद की, उसने थोड़ी भिन्न भूमिका भी अदा की, इस सत्य के बावजूद कि इसके भाषणों से असली राष्ट्रवादी बुरी तरह ऊब चुके थे। इस भाषणबाजी में प्रभाव की शक्ति न थी। दोष उसमें इसी का न था, भारतीय जनता व भारतीय राष्ट्रवादिता ने विभान का समर्थन और विरोध दोनों किया, यह उनके मूल-वृक्ष की निष्पर्ण शाखाएँ थीं। मुझे कभी-कभी आश्चर्य होता है कि क्या देशद्रोही लोग भी कभी इतिहास बनाने में कोई मौलिक भूमिका अदा करते हैं। ऐसे लोग तिरस्करणीय होते हैं, इसमें कोई संशय नहीं, लेकिन वे क्या महत्त्वपूर्ण लोग हैं, मुझमें इससे शक है। ऐसे देशद्रोहियों के काम अर्थहीन होंगे, यदि उन्हें पूरे समाज के गुप्त विश्वासघात का सहयोग न मिले।
इसी तरह काम्युनिस्ट-विश्वासघात ने कोई मौलिक भूमिका अदा नहीं की। इससे कोई नत़ीजा नहीं निकला, नतीजे का कारण अन्यत्र है। विभाजन के कम्युनिस्ट समर्थन ने पाकिस्तान को नहीं बनाया। अधिक से अधिक, इसकी भूमिका अण्डा सेने जैसी रही। अब तो कोई यह याद भी नहीं करता सिवा कम्युनिज्म विरोधी बासी प्रचार-तर्क के रूप में। मैं तो कम्युनिस्ट-विश्वासघात के इस कपटी पहलू को दक्षिण मानता हूँ। जिसका लोगों पर कोई प्रभाव नहीं है, लेकिन दूसरे देशद्रोही ऐसे भाग्यशाली नहीं हैं। अच्छा तो यह होगा कि कम्युनिस्टों की अन्दरूनी जाँच कर के पता लगाया जाए कि जब उन्होंने विभाजन का समर्थन किया तब उसके मन में क्या था।
सम्भवतः भारतीय काम्युनिस्टों ने विभाजन का समर्थन इस आशा से किया था कि नवजात राज्य पाकिस्तान पर उनका प्रभाव रहेगा, भारतीय मुसलमानों में असर रहेगा। और हिन्दू मन की दुर्बलता के कारण उनसे मन फटने का कोई भारी खतरा भी न रहेगा, लेकिन उनकी योजना गलत सिद्ध हुई, सिवा थोड़े क्षेत्र को छोड़कर, जहाँ कि उन्होंने भारतीय मुसलमानों में कुछ छिटपुट प्रभाव-स्थल बनाए और हिन्दुओं में अपने लिए क्रोध न उभरने दिया। इस तरह उन्होंने अपने साथ अधिक धूर्तता नहीं की और साथ ही देश के लिए भी कोई लाभदायक काम नहीं किया।
अपने स्वभाव से कम्युनिस्टी दाँवपेंच का स्वरूप ऐसा है कि तभी जनता में शक्ति ला सकता है जब उनकी सफलता हो, अन्यतः लाजमी तौर पर यदि सफलता न मिले तो जनता को कमजोर करने में ही वे सहायक होते हैं। राष्ट्रीयता में आत्मविश्वास रूस के लिए निरर्थक है, इसका प्रचार-महत्त्व तो जारकालीन रूस में ही समाप्त हो गया था। साम्यवाद तो पृथक्वाद है, जब यह शक्तिहीन रहता है, अपने शत्रु को कमजोर करने के लिए, सशक्त राष्ट्रीयता का सहारा लेता है। जब यह राष्ट्रीयता का प्रतिनिधित्व करता है तब वह पृथकवाद नहीं रहता। साम्यवाद कोरिया और वियतनाम में, एकतावादी है और जर्मनी में पृथक्वादी। अधिकार लोग प्रत्यक्ष उदाहरण देखते हैं, अनुमान पर राय नहीं बनाते। जब साम्यवाद के एकतावादी शक्तिदायक उदाहरण दिखाने की आवश्कता होती है तब सोवियत रूस और वियतनाम के उदाहरण रखे जाते हैं और जब स्वतन्त्रता की भावना का उदाहरण रखना होता है तब भारत और जर्मनी का उदाहरण रखा जाता है। इस बात का पेंच कहीं और है। साम्यवाद के लिए कामगर राज्य के सिद्धान्त के अलावा कोई अन्य सिद्धान्त लाजिमी तौर पर किसी भी राष्ट्र को कमजोर बनाता है, विशेष परिस्थितियों को छोड़ कर। इसी सिद्धान्त ने भारतीय राष्ट्र को सदैव कमजोर बनाया है। लेकिन आशामय भविष्य की आशा में इनके अनुचर इस तथ्य के प्रति अंधे बने रहे हैं, साथ ही भारतीय जनता भी अंधी बनी रही है, जिसका कारण साम्यवादी कपट नहीं, बल्कि राष्ट्रवादी या लोकसत्तावादी शक्तियों की मूलभूत कमजोरी रही है।
मैं नहीं समझता कि जो कारण मैंने गिनाए हैं इनके अलावा भी देश-विभाजन के अन्य कोई मौलिक कारण रहे हैं। हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न को लेकर देश की जिस परिस्थिति का निर्माण हुआ है उससे दो महत्त्व के तथ्य सामने आए हैं। हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों के पिछले आठ सौ वर्षों में, हिन्दू और मुसलमान दोनों लगातार पृथक् भाव और समीपता के लुका-छिपी के खेल के शिकार रहे हैं जिससे एक राष्ट्र के प्रति उनकी भावनात्मक एकाग्रता खण्डित रही है, साथ ही भारतीय जन का यह स्वभाव भी परिस्थिति के साथ घुलने-मिलने और सहनशीलता तथा समर्पण की कला को इस हद तक सीख गया है कि दुनिया में कहीं भी परतंत्रता को विश्व-भाईचारे या राजनीतिक कपट का इस प्रकार पर्याय नहीं माना गया। मूलरूप से इन्हीं दो तथ्यों द्वारा हिन्दू-मुस्लिम समस्या को प्रेरित किया गया है। इनके बिना, ब्रिटिश कुटिलनीति अथवा काँग्रेस नेतृत्व के उतारवय का कारण इतिहास की दृष्टि से महत्त्वहीन होता और उसका जो कड़ुवा फल मिला वह कदापि न मिलता।
स्वतंत्र भारत में भी हिन्दू-मुसलमानों में पृथक्-भावना बनी रही है। मुझे शक है कि विभाजन-पूर्व के मुकाबले आज यह पृथक्-भाव अधिक है। पृथक्-भवना ने ही विभाजन को जन्म दिया और इसलिए अपने आप यह भावना पूरी तरह नहीं मिट सकी। परिणाम में ही कारण भी घुलमिल गया। आजादी के इन वर्षों में मुसलनों को हिन्दुओं के निकट लाने का न कोई प्रयत्न किया गया न उनकी आत्मा से पृथकता का बीज समाप्त करने का ही प्रयत्न किया गया। काँग्रेसी सरकार के अक्षम्य अपराधों में विशेष उल्लेखनीय अपराध यही है-पृथक् भावना वाली आत्माओं को निकट लाने में असफलता-बल्कि इस काम के प्रति बेमन से किया गया असफल प्रयास।
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