जीवनी/आत्मकथा >> युगद्रष्टा विवेकानन्द युगद्रष्टा विवेकानन्दराजीव रंजन
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भारत को जानना चाहते हो तो विवेकाननंद को पढ़िए...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
स्वामी विवेकानंद ने भारत में उस समय अवतार लिया जब यहाँ हिंदू धर्म के
अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे थे। पंडित-पुरोहितों ने हिंदू धर्म को
घोर आडंबरवादी और अंधविश्वासपूर्ण बना दिया था। ऐसे में स्वामी विवेकानंद
ने हिंदू धर्म को पूर्ण पहचान प्रदान की। इसके पहले हिंदू धर्म विभिन्न
छोटे-छोटे संप्रदायों में बँटा हुआ था। तीस वर्ष की आयु में स्वामी
विवेकानंद ने शिकागो, अमेरिका में विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का
प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवाई।
गुरुदेव रवींन्द्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था, ‘‘यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएँगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।’’
रोम्याँ रोलाँ ने उनके बारे में कहा था, ‘‘उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है। वे जहाँ भी गए, सर्वप्रथम हुए। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देखकर ठिठककर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा, ‘शिव !’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।’’
उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानंद जो काम कर गए, वे आनेवाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे।
वे केवल संत ही नहीं थे, एक महान् देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था, ‘‘नया भारत निकल पड़े मोदी की दुकान से, भड़भूंजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।’’
और जनता ने स्वामीजी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। गांधीजी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानंद के आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा-स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं—केवल यहीं—आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है।
उनके कथन—‘‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक रुको नहीं जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।’’
किसी विलक्षण तपस्वी के गुणों को आत्मसात् कर अपना तथा राष्ट्र का कल्याण किया जा सकता है—इसी विश्वास को बल देती है एक अत्यंत प्रेरणादायी पुस्तक युगदृष्टा विवेकानंद।
गुरुदेव रवींन्द्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था, ‘‘यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएँगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।’’
रोम्याँ रोलाँ ने उनके बारे में कहा था, ‘‘उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है। वे जहाँ भी गए, सर्वप्रथम हुए। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देखकर ठिठककर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा, ‘शिव !’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।’’
उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानंद जो काम कर गए, वे आनेवाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे।
वे केवल संत ही नहीं थे, एक महान् देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था, ‘‘नया भारत निकल पड़े मोदी की दुकान से, भड़भूंजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।’’
और जनता ने स्वामीजी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। गांधीजी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानंद के आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा-स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं—केवल यहीं—आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है।
उनके कथन—‘‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक रुको नहीं जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।’’
किसी विलक्षण तपस्वी के गुणों को आत्मसात् कर अपना तथा राष्ट्र का कल्याण किया जा सकता है—इसी विश्वास को बल देती है एक अत्यंत प्रेरणादायी पुस्तक युगदृष्टा विवेकानंद।
1
स्वामी विवेकानन्द : महत्त्वपूर्ण तिथियाँ
विचार बहुत महत्त्वपूर्ण होता है, क्योंकि जो कुछ हम सोचते हैं, वही हम हो
जाते हैं।
-स्वामी विवेकानंद
12 जनवरी,1863 :
कलकत्ता में जन्म
सन् 1879 : प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश
सन् 1880 : जनरल असेंबली इंस्टीट्यूशन में प्रवेश
नवंबर 1881 : श्रीरामकृष्ण परमहंस से प्रथम भेंट
सन् 1882-86 : श्रीरामकृष्ण परमहंस से संबद्ध
सन् 1884 : स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण; पिता का स्वर्गवास
सन् 1885 : श्रीरामकृष्ण परमहंस की अंतिम बीमारी
16 अगस्त, 1886 : श्रीरामकृष्ण परमहंस का निधन
सन् 1886 : वराह नगर मठ की स्थापना
जनवरी 1887 : वराह नगर मठ में संन्यास की औपचारिक प्रतिज्ञा
सन् 1890-93 : परिव्राजक के रूप में भारत-भ्रमण
24 दिसंबर, 1892 : कन्याकुमारी में
13 फरवरी, 1893 : प्रथम सार्वजनिक व्याख्यान सिकंदराबाद में
31 मई, 1893 : बंबई से अमेरिका रवाना
25 जुलाई, 1893 : वैंकूवर, कनाडा पहुँचे
30 जुलाई, 1893 : शिकागो आगमन
अगस्त 1893 : हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रो. जॉन राइट से भेंट
11 सितंबर, 1893 : विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में प्रथम व्याख्यान
27 सितंबर, 1893 : विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में अंतिम व्याख्यान
16 मई, 1894 : हार्वर्ड विश्वविद्यालय में संभाषण
नवंबर 1894 : न्यूयॉर्क में वेदांत समिति की स्थापना
जनवरी 1895 : न्यूयॉर्क में धार्मिक कक्षाओं का संचालन आरंभ
अगस्त 1895 : पेरिस में
अक्तूबर 1895 : लंदन में व्याख्यान
6 दिसंबर, 1895 : वापस न्यूयॉर्क
22-25 मार्च, 1896 : वापस लंदन
मई-जुलाई 1896 : हार्वर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान
15 अप्रैल, 1896 : वापस लंदन
मई-जुलाई 1896 : लंदन में धार्मिक कक्षाएँ
28 मई, 1896 : ऑक्सफोर्ड में मैक्समूलर से भेंट
30 दिसंबर, 1896 : नेपल्स से भारत की ओर रवाना
15 जनवरी, 1897 : कोलंबो, श्रीलंका आगमन
6-15 फरवरी, 1897 : मद्रास में
19 फरवरी, 1897 : कलकत्ता आगमन
1 मई, 1897 : रामकृष्ण मिशन की स्थापना
मई-दिसंबर 1897 : उत्तर भारत की यात्रा
जनवरी 1898: कलकत्ता वापसी
19 मार्च, 1899 : मायावती में अद्वैत आश्रम की स्थापना
20 जून, 1899 : पश्चिमी देशों की दूसरी यात्रा
31 जुलाई, 1899 : न्यूयॉर्क आगमन
22 फरवरी, 1900 : सैन फ्रांसिस्को में वेदांत समिति की स्थापना
जून 1900 : न्यूयॉर्क में अंतिम कक्षा
26 जुलाई, 1900 : यूरोप रवाना
24 अक्तूबर, 1900 : विएना, हंगरी, कुस्तुनतुनिया, ग्रीस, मिस्र आदि देशों की यात्रा
26 नवंबर, 1900 : भारत रवाना
9 दिसंबर, 1900 : बेलूर मठ आगमन
जनवरी 1901 : मायावती की यात्रा
मार्च-मई 1901 : पूर्वी बंगाल और असम की तीर्थयात्रा
जनवरी-फरवरी 1902 : बोधगया और वारणसी की यात्रा
मार्च 1902 : बेलूर मठ में वापसी
4 जुलाई, 1902 : महासमाधि।
सन् 1879 : प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश
सन् 1880 : जनरल असेंबली इंस्टीट्यूशन में प्रवेश
नवंबर 1881 : श्रीरामकृष्ण परमहंस से प्रथम भेंट
सन् 1882-86 : श्रीरामकृष्ण परमहंस से संबद्ध
सन् 1884 : स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण; पिता का स्वर्गवास
सन् 1885 : श्रीरामकृष्ण परमहंस की अंतिम बीमारी
16 अगस्त, 1886 : श्रीरामकृष्ण परमहंस का निधन
सन् 1886 : वराह नगर मठ की स्थापना
जनवरी 1887 : वराह नगर मठ में संन्यास की औपचारिक प्रतिज्ञा
सन् 1890-93 : परिव्राजक के रूप में भारत-भ्रमण
24 दिसंबर, 1892 : कन्याकुमारी में
13 फरवरी, 1893 : प्रथम सार्वजनिक व्याख्यान सिकंदराबाद में
31 मई, 1893 : बंबई से अमेरिका रवाना
25 जुलाई, 1893 : वैंकूवर, कनाडा पहुँचे
30 जुलाई, 1893 : शिकागो आगमन
अगस्त 1893 : हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रो. जॉन राइट से भेंट
11 सितंबर, 1893 : विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में प्रथम व्याख्यान
27 सितंबर, 1893 : विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में अंतिम व्याख्यान
16 मई, 1894 : हार्वर्ड विश्वविद्यालय में संभाषण
नवंबर 1894 : न्यूयॉर्क में वेदांत समिति की स्थापना
जनवरी 1895 : न्यूयॉर्क में धार्मिक कक्षाओं का संचालन आरंभ
अगस्त 1895 : पेरिस में
अक्तूबर 1895 : लंदन में व्याख्यान
6 दिसंबर, 1895 : वापस न्यूयॉर्क
22-25 मार्च, 1896 : वापस लंदन
मई-जुलाई 1896 : हार्वर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान
15 अप्रैल, 1896 : वापस लंदन
मई-जुलाई 1896 : लंदन में धार्मिक कक्षाएँ
28 मई, 1896 : ऑक्सफोर्ड में मैक्समूलर से भेंट
30 दिसंबर, 1896 : नेपल्स से भारत की ओर रवाना
15 जनवरी, 1897 : कोलंबो, श्रीलंका आगमन
6-15 फरवरी, 1897 : मद्रास में
19 फरवरी, 1897 : कलकत्ता आगमन
1 मई, 1897 : रामकृष्ण मिशन की स्थापना
मई-दिसंबर 1897 : उत्तर भारत की यात्रा
जनवरी 1898: कलकत्ता वापसी
19 मार्च, 1899 : मायावती में अद्वैत आश्रम की स्थापना
20 जून, 1899 : पश्चिमी देशों की दूसरी यात्रा
31 जुलाई, 1899 : न्यूयॉर्क आगमन
22 फरवरी, 1900 : सैन फ्रांसिस्को में वेदांत समिति की स्थापना
जून 1900 : न्यूयॉर्क में अंतिम कक्षा
26 जुलाई, 1900 : यूरोप रवाना
24 अक्तूबर, 1900 : विएना, हंगरी, कुस्तुनतुनिया, ग्रीस, मिस्र आदि देशों की यात्रा
26 नवंबर, 1900 : भारत रवाना
9 दिसंबर, 1900 : बेलूर मठ आगमन
जनवरी 1901 : मायावती की यात्रा
मार्च-मई 1901 : पूर्वी बंगाल और असम की तीर्थयात्रा
जनवरी-फरवरी 1902 : बोधगया और वारणसी की यात्रा
मार्च 1902 : बेलूर मठ में वापसी
4 जुलाई, 1902 : महासमाधि।
2
स्वामी विवेकानंद : जन्म
‘‘जितने ऊँचे चढ़ोगे उतने ही नीचे गिरने का भय बराबर
बना रहता है।’’
-स्वामी विवेकानंद
प्रकाश हमारे लिए आवश्यक ही नहीं प्रत्यत अनिवार्य भी है। दिवस के अवसान
अर्थात् अतिशय विशाल सूर्य के अस्त होने के पश्चात् अतिशय लघुकाय दीपक से
ही प्रकाश की अपेक्षा तो हमें होती ही है। दीपक से हमारा काम भले ही चल
जाए, पूर्ण प्रकाशमय परिवेश हमें प्राप्त नहीं हो पाता। वह तो किसी दिव्य
प्रकाश-पुंज से ही संभव होती है; परंतु हाँ, यह एक अकाट्य तथ्य है कि ये
दिव्य प्रकाश-पुंज कहीं भी, कभी भी हमें नहीं मिल जाते। ये तो एक दीर्घ
कालखंड में एक व्यापक भूखंड पर सौभाग्यवश कभी-कभी मिल जाते हैं।
ऐसे ही प्रकाश-पुंज थे स्वामी विवेकानंद, जिनका जीवन हमारे वर्तमान और भविष्य के लिए प्रेरणास्रोत रहेगा।
कलकत्ता महानगर के उत्तरी भाग में एक पुराना मोहल्ला है—सिमुलिया। यहाँ की एक प्रमुख सड़क का नाम है—गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट। इसी सड़क के एक ओर दत्त परिवार का एक पुराना विशाल मकान आज भी अपने गौरवमय अतीत की गाथा गाता हुआ प्रतीत होता है। कलकत्ता के कुलीन वर्ग में दत्त परिवार को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त था—इस स्तर तक कि ‘बारह महीने में तेरह उत्सव’ की उक्ति उस परिवार पर लागू होती थी। इन्हीं कारणों से उस परिवार का वैभव और ऐश्वर्य कई परिवारों के लिए ईर्ष्या का कारण था। उस परिवार के मुखिया थे कलकत्ता सुप्रीमो कोर्ट के लब्ध प्रतिष्ठित अधिवक्ता एवं नगर के प्रभावशाली व्यक्तित्व श्री राममोहन दत्त। ऐश्वर्य-लिप्सा एवं धनोपार्जन-प्रवृत्ति उनमें सदैव हिलोरें लेती रहती थी। वे जितना अधिक अर्जित करते थे उतना ही विलासी जीवन व्यतीत करते थे।
राममोहन दत्त के सुपुत्र दुर्गाचरण दत्त ने तत्कालीन प्रथा के अनुसार संस्कृत एवं फारसी भाषा में शिक्षा प्राप्त की। उन्हें हिंदी का भी यथेष्ट ज्ञान था एवं कामचलाऊ अंग्रेजी भी आती थी, क्योंकि तब देश पर अंग्रेजों का शासन होने के कारण राजभाषा अंग्रेजी ही थी। कहना न होगा कि उनकी बुद्धि प्रखर थी। लिहाजा उनके पिता ने उन्हें अपने ही नक्शे कदम पर चलाकर वकालत शुरू कराई। इस प्रकार युवावस्था में ही उन्होंने भी यथेष्ट द्रव्योपार्जन करने के मार्ग पर चलना शुरू तो कर दिया, किंतु तत्कालीन कुलीन समाज के सदस्यों की भाँति उनमें भोग-विलास की प्रवृत्ति नहीं थी। वे धर्मानुरागी थे और यथावसर शास्त्रों-पुराणों पर वार्तालाप व सत्संग कर लिया करते थे। अन्य प्रांतों से बंगाल पधारने वाले हिंदीभाषी वेदांती साधुओं का भी सान्निध्य प्राप्त करने लगे।
उनके पिता राममोहन दत्त को यह सब बहुत सुखद नहीं लगता था। उन्होंने अपने सुपुत्र दुर्गाचरण को इस संबंध में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समझाया; मगर दुर्गाचरण तो दूसरी ही मिट्टी के बने थे। उन्हें न तो पिता की बातों ने प्रभावित किया, न संसार और समाज की चमक-दमक ने। मात्र पच्चीस वर्ष की आयु में उन्हें संन्यास ग्रहण कर ग्रह-त्याग कर दिया। भगवान बुद्ध की तरह वे अपने घर में छोड़ गए अपनी धर्मपत्नी तथा अपने पुत्र विश्वनाथ को।
कहा जाता है कि कुछ वर्षों के बाद काशी में विश्वनाथ मंदिर के द्वार पर संन्यासी दुर्गाचरण की पत्नी को उनका दर्शन अकस्मात हो गया था। उसके बाद दोनों ने एक-दूसरे को कभी नहीं देखा। दुर्गाचरण के संन्यास-ग्रहण करने के ग्यारह वर्ष पश्चात् उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया। उसके एक वर्ष पश्चात्, अर्थात् संन्यास ग्रहण करने के बारह वर्ष पश्चात्, संन्यासियों के नियमानुसार दुर्गाचरण अपने जन्म-स्थान का दर्शन करने आए और उसी समय अपने पुत्र विश्वनाथ को आशीर्वाद दिया। तदुपरांत उन्हें किसी भी परिजन, इष्टमित्र, संबंधी आदि ने नहीं देखा।
ऐसे ही प्रकाश-पुंज थे स्वामी विवेकानंद, जिनका जीवन हमारे वर्तमान और भविष्य के लिए प्रेरणास्रोत रहेगा।
कलकत्ता महानगर के उत्तरी भाग में एक पुराना मोहल्ला है—सिमुलिया। यहाँ की एक प्रमुख सड़क का नाम है—गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट। इसी सड़क के एक ओर दत्त परिवार का एक पुराना विशाल मकान आज भी अपने गौरवमय अतीत की गाथा गाता हुआ प्रतीत होता है। कलकत्ता के कुलीन वर्ग में दत्त परिवार को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त था—इस स्तर तक कि ‘बारह महीने में तेरह उत्सव’ की उक्ति उस परिवार पर लागू होती थी। इन्हीं कारणों से उस परिवार का वैभव और ऐश्वर्य कई परिवारों के लिए ईर्ष्या का कारण था। उस परिवार के मुखिया थे कलकत्ता सुप्रीमो कोर्ट के लब्ध प्रतिष्ठित अधिवक्ता एवं नगर के प्रभावशाली व्यक्तित्व श्री राममोहन दत्त। ऐश्वर्य-लिप्सा एवं धनोपार्जन-प्रवृत्ति उनमें सदैव हिलोरें लेती रहती थी। वे जितना अधिक अर्जित करते थे उतना ही विलासी जीवन व्यतीत करते थे।
राममोहन दत्त के सुपुत्र दुर्गाचरण दत्त ने तत्कालीन प्रथा के अनुसार संस्कृत एवं फारसी भाषा में शिक्षा प्राप्त की। उन्हें हिंदी का भी यथेष्ट ज्ञान था एवं कामचलाऊ अंग्रेजी भी आती थी, क्योंकि तब देश पर अंग्रेजों का शासन होने के कारण राजभाषा अंग्रेजी ही थी। कहना न होगा कि उनकी बुद्धि प्रखर थी। लिहाजा उनके पिता ने उन्हें अपने ही नक्शे कदम पर चलाकर वकालत शुरू कराई। इस प्रकार युवावस्था में ही उन्होंने भी यथेष्ट द्रव्योपार्जन करने के मार्ग पर चलना शुरू तो कर दिया, किंतु तत्कालीन कुलीन समाज के सदस्यों की भाँति उनमें भोग-विलास की प्रवृत्ति नहीं थी। वे धर्मानुरागी थे और यथावसर शास्त्रों-पुराणों पर वार्तालाप व सत्संग कर लिया करते थे। अन्य प्रांतों से बंगाल पधारने वाले हिंदीभाषी वेदांती साधुओं का भी सान्निध्य प्राप्त करने लगे।
उनके पिता राममोहन दत्त को यह सब बहुत सुखद नहीं लगता था। उन्होंने अपने सुपुत्र दुर्गाचरण को इस संबंध में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समझाया; मगर दुर्गाचरण तो दूसरी ही मिट्टी के बने थे। उन्हें न तो पिता की बातों ने प्रभावित किया, न संसार और समाज की चमक-दमक ने। मात्र पच्चीस वर्ष की आयु में उन्हें संन्यास ग्रहण कर ग्रह-त्याग कर दिया। भगवान बुद्ध की तरह वे अपने घर में छोड़ गए अपनी धर्मपत्नी तथा अपने पुत्र विश्वनाथ को।
कहा जाता है कि कुछ वर्षों के बाद काशी में विश्वनाथ मंदिर के द्वार पर संन्यासी दुर्गाचरण की पत्नी को उनका दर्शन अकस्मात हो गया था। उसके बाद दोनों ने एक-दूसरे को कभी नहीं देखा। दुर्गाचरण के संन्यास-ग्रहण करने के ग्यारह वर्ष पश्चात् उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया। उसके एक वर्ष पश्चात्, अर्थात् संन्यास ग्रहण करने के बारह वर्ष पश्चात्, संन्यासियों के नियमानुसार दुर्गाचरण अपने जन्म-स्थान का दर्शन करने आए और उसी समय अपने पुत्र विश्वनाथ को आशीर्वाद दिया। तदुपरांत उन्हें किसी भी परिजन, इष्टमित्र, संबंधी आदि ने नहीं देखा।
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