कहानी संग्रह >> दुखवा मैं कासे कहूँ दुखवा मैं कासे कहूँआचार्य चतुरसेन
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आचार्य चतुरसेन की 26 कालजयी कहानियों का संकलन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आचार्य चतुरसेन ने लगभग 450 कहानियाँ लिखीं। इनमें से अनेक कहानियां अमर
हो गईं। ‘दुखवा मैं कासे कहूं’ ऐसी ही एक कालजयी
कहानी है, जो
सदियों तक याद रहेगी। वास्तव में आचार्य चतुरसेन कथा-शिल्प में अपना अनूठा
स्थान रखते हैं और उनके उपन्यास तथा कहानियां निश्चय ही साहित्य की अमूल्य
धरोहर हैं।
आचार्य चतुरसेन की सम्पूर्ण कहानियों को सिलसिलेवार प्रकाशित करने की योजना का यह अगला क़दम है। इस तरह उनकी सम्पूर्ण कहानियों के 5 संकलन बनाए गए हैं। ये अपने में प्रामाणिक मूल पाठ हैं।
इस दूसरे भाग में आचार्य चतुर्सेन की 26 कहानियां शामिल हैं, जो उन्हें कथा के शिखर पुरुष के रूप में स्थापित करती हैं।
आचार्य चतुरसेन की सम्पूर्ण कहानियों को सिलसिलेवार प्रकाशित करने की योजना का यह अगला क़दम है। इस तरह उनकी सम्पूर्ण कहानियों के 5 संकलन बनाए गए हैं। ये अपने में प्रामाणिक मूल पाठ हैं।
इस दूसरे भाग में आचार्य चतुर्सेन की 26 कहानियां शामिल हैं, जो उन्हें कथा के शिखर पुरुष के रूप में स्थापित करती हैं।
कथा-माला के बारे में
आचार्य चतुरसेन की सम्पर्ण कहानियों की श्रृंखला की पहली कड़ी है
‘बाहर-भीतर’। इसमें 18 कहानियां दी गई हैं। अब
‘दुखवा
मैं कासे कहूं’ दूसरी कड़ी के रूप में आपके सामने है। इस दूसरे
भाग
में 26 कहानियाँ संकलित हैं।
अद्वितीय कहानियों और उपन्यासों के महान कथा-शिल्पी आचार्य चतुरसेन ने लगभग 450 कहानियां लिखी। इस पर योग्य सम्पादकीय टीम ने कार्य किया। इस तरह साकार रूप दिया गया। अब ये सभी कहानियां आपको केवल 5 भागों में एक ही जगह उपलब्ध होंगी, ताकि आचार्य चतुरसेन के सम्पूर्ण कथा-सागर को एक ही बार में समग्र रूप में पढ़ने का बेहतर मौका मिल सके आप एक ख़ास क़िस्म का आनन्द प्राप्त कर सकें। इसमें यह तथ्य भी महत्त्व रखता है कि हिन्दी कहानी के अध्येता और शोधकर्ता भी इस महती योजना से लाभ उठा सकते हैं।
इस श्रृंखला की विशेषता यह है कि इसके पहले भाग में ‘कहानीकार का वक्तव्य’ दिया गया है तथा प्रत्येक कहानी के शीर्ष पर कहानी के बारे में टिप्पणी दी गई है। इससे कहानी का सार या पृष्ठभूमि पाठक के दिमाग में पहले से ही बैठ जाती है। उस पर सभी कहानियां प्रामाणिक मूल पाठ हैं और ये किसी भी शंका को तिरोहित करते हैं, ऐसा इनके बारे में कथा-साहित्य के विशेषज्ञों का मत है।
तो आइए, अभी से पढ़ना शुरू करते हैं आगे की तमाम कहानियां और फिर पढ़ते जाएं श्रृंखला के आगे के भाग और इस तरह गुज़र जाएं आचार्य चतुरसेन की 450 कहानियों के रचना-संसार से।
अद्वितीय कहानियों और उपन्यासों के महान कथा-शिल्पी आचार्य चतुरसेन ने लगभग 450 कहानियां लिखी। इस पर योग्य सम्पादकीय टीम ने कार्य किया। इस तरह साकार रूप दिया गया। अब ये सभी कहानियां आपको केवल 5 भागों में एक ही जगह उपलब्ध होंगी, ताकि आचार्य चतुरसेन के सम्पूर्ण कथा-सागर को एक ही बार में समग्र रूप में पढ़ने का बेहतर मौका मिल सके आप एक ख़ास क़िस्म का आनन्द प्राप्त कर सकें। इसमें यह तथ्य भी महत्त्व रखता है कि हिन्दी कहानी के अध्येता और शोधकर्ता भी इस महती योजना से लाभ उठा सकते हैं।
इस श्रृंखला की विशेषता यह है कि इसके पहले भाग में ‘कहानीकार का वक्तव्य’ दिया गया है तथा प्रत्येक कहानी के शीर्ष पर कहानी के बारे में टिप्पणी दी गई है। इससे कहानी का सार या पृष्ठभूमि पाठक के दिमाग में पहले से ही बैठ जाती है। उस पर सभी कहानियां प्रामाणिक मूल पाठ हैं और ये किसी भी शंका को तिरोहित करते हैं, ऐसा इनके बारे में कथा-साहित्य के विशेषज्ञों का मत है।
तो आइए, अभी से पढ़ना शुरू करते हैं आगे की तमाम कहानियां और फिर पढ़ते जाएं श्रृंखला के आगे के भाग और इस तरह गुज़र जाएं आचार्य चतुरसेन की 450 कहानियों के रचना-संसार से।
सम्पादक की कलम से
दुखवा मैं कासे कहूं मोरी सजनी
यह कहानी सम्भवतः आचार्य की सबसे अधिक प्राचीन कहानी है और सन् 1920 या 21
के लगभग लिखी गई थी। उन दिनों वे चिकित्सक की हैसियत से किसी रियासत में
एक राजकुमारी की चिकित्सा करने गए थे। वहां जो उन्होंने राजकुमारी का
रूप-वैधव्य और उसके शरीर पर लाखों रुपए मूल्य के हीरे-मोती देखे और
राजकुमारी की जो मनोवृत्ति का अध्ययन किया, तो उसी से प्रभावित होकर
उन्होंने इस कहानी की सृष्टि की थी। तब एक बवंडर यह भी उठा था कि यह कहानी
चोरी का माल है। किसी ने उसे गुजराती से, किसी ने मराठी से और किसी ने
उर्दू से चुराई हुई बताया था। तब आचार्य ने इन समालोचक-पुंगवों को एक
संक्षिप्त उत्तर दिया था कि चोरी के जुर्म में वे सूली पर चढ़ने को तैयार
हैं, बशर्ते कि ये समालोचकगण उनकी विधवा क़लम का पाणि-ग्रहण करने को तैयार
हों। अयोग्य समाचोलकों के मुंह पर यह एक करारा तमाचा था। तब से यह कहानी
बहुत प्रसिद्ध हो गई। भारत के भिन्न-भिन्न विश्वविद्यालयों में उसे आज के
तरुणों के पिताओं ने पढ़ा और अब आज के तरुण पढ़ रहे हैं।
कहानी में उत्कट मानसिक घात-प्रतिघातों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तो है ही, मुग़लों के राजसी वैभव के खरे रेखा-चित्र भी हैं, और इन चित्रों का इतना सच्चा उतरने का कारण यह था कि उन दिनों आचार्य का राजा-महाराजाओं के अन्तःपुर में बहुत प्रवेश था। और चिकित्सक के नाते उन्हें गुप्त से गुप्त बातें भी ज्ञात होती रहती थीं। परन्तु कथा का मूलाधार एक मशहूर क़िस्सागो के दन्त-किस्से पर आधारित था। उन दिनों दिल्ली में शाही ज़माने के कुछ क़िस्सागो ज़िन्दा थे, जो शाही परम्परा से रईसों को क़िस्से सुनाने का ख़ानदानी पेशा करते आए थे। एक क़िस्सा सुनाने की उनकी फ़ीस दो रुपए से लेकर पचास रुपए तक होती थी। आचार्य को इन क़िस्सों से बहुत लगाव था। और कहना चाहिए, उनकी कहानी लिखने की ओर प्रवृत्ति किसी साहित्यिक प्रेरणा से नहीं हुई, इन क़िस्सागो लोगों की ही वाणी से हुई। इस प्रकार यह कहानी यदि चोरी का ही माल है, तो किसी साहित्य की चोरी का नहीं, एक क़िस्सागो के मुँह से चुराया हुआ है। इस कहानी के इतिहास में एक और बात यह कहानी है कि क़िस्सागो को इसकी फ़ीस दो रुपए उन्हें देनी पड़ी थी। और जब यह कहानी प्रथम बार ‘सुधा’ में छपी, तो उन्हें मुबलिग़ पाँच रुपए पुरस्कार (?) मिले थे।
गर्मी के दिन थे। बादशाह ने उसी फागुन में सलीमा से नई शादी की थी। सल्तनत के झंझटों से दूर रहकर नई दुलहिन के साथ प्रेम और आनन्द की कलोल करने वह सलीमा को लेकर कश्मीर के दौलतख़ाने में चले आए थे।
रात दूध में नहा रही थी। दूर के पहाड़ों की चोटियां बर्फ़ से सफ़ेद होकर चांदनी में बहार दिखा रही थीं। आरामबाग़ के महलों के नीचे पहाड़ी नदी बल खाकर बह रही थी।
मोतीमहल के एक कमरे में शमादान जल रहा था, और उनकी खुली खिड़की के पास बैठी सलीमा रात का सौन्दर्य निहार रही थी। खुले हुए बाल उसकी फ़िरोज़ी रंग की ओढ़नी पर खेल रहे थे। चिकन के काम से सजी और मोतियों से गुंथी हुई उस फ़िरोज़ी रंग की ओढ़नी पर, कसी हुई कमख़ाब की कुरती और पन्नों की कमरपेटी पर अंगूर के बराबर ब़ड़े मोतियों की माला झूम रही थी। सलीमा का रंग भी मोती के समान था। उसकी देह की गठन निराली थी। संगमरमर के समान पैरों में ज़री के काम के जूते पड़े थे, जिन पर दो हीरे दक-दक चमक रहे थे।
कमरे में एक क़ीमती ईरानी कालीन का फ़र्श बिछा हुआ था, जो पैर रखते ही हाथ-भर नीचे धंस जाता था। सुगन्धित मसालों से बने शमादान जल रहे थे। कमरे में चार पूरे क़द के आईने लगे थे। संगमरमर के आधारों पर, सोने-चांदी के फूलदानों में ताज़े फूलों के गुलदस्ते रखे थे। दीवारों और दरवाजों पर चतुराई से गुंथी हुई नागकेसर और चम्पे की मालाएं झूल रही थीं, जिनकी सुगंध से कमरा महक रहा था। कमरे में अनगिनत बहुमूल्य कारीगिरी की देश-विदेश की वस्तुएं करीने से सजी हुई थीं।
बादशाह दो दिन से शिकार को गए थे। इतनी रात होने पर भी नहीं आए थे। सलीमा खिड़की में बैठी प्रतीक्षा कर रही थी। सलीमा ने उकताकर दस्तक दी एक बांदी दस्तबस्ता हाज़िर हुई।
बांदी सुन्दर और कमसिन थी। उसे पास बैठने का हुक्म देकर सलीमा ने कहा :
‘साकी, तुझे बीन अच्छी लगती है या बांसुरी ?’
बांदी ने नम्रता से कहा—हुज़ूर जिसमें खुश हों।
सलीमा ने कहा—पर तू किसमें खुश है ?
बांदी ने कम्पित स्वर में कहा—सरकार ! बांदियों की ख़ुशी ही क्या !
सलीमा हंसते-हंसते लोट गई। बांदी ने वंशी लेकर कहा—क्या सुनाऊं ?
बेगम ने कहा—ठहर, कमरा बहुत गरम मालूम देता है, इसके तमाम दरवाज़े और खिड़कियां खोल दे। चिरागों को बुझा दे, चटखती चांदनी का लुफ्त उठाने दे, और वे फूलमालाएं मेरे पास रख दे।
बांदी उठी। सलीमा बोला—सुन, पहले एक गिलास शरबत दे, बहुत प्यासी हूं।
बांदी ने सोने के गिलास में खुशबूदार शरबत बेगम के सामने ला धरा। बेगम ने कहा—उफ् ! यह तो बहुत गर्म है। क्या इसमें गुलाब नहीं दिया ?
बांदी ने नम्रता से कहा—दिया तो है सरकार !
‘अच्छा, इसमें थोड़ा सा इस्तम्बोल और मिला।’
साक़ी गिलास लेकर दूसरे कमरे में चली गई। इस्तम्बोल मिलाया, और भी एक चीज़ मिलाई। फिर वह सुवासित मदिरा का पात्र बेगम के सामने ला धरा।
एक ही सांस में उसे पीकर बेगम ने कहा—अच्छा, अब सुनो। तूने कहा था कि तू मुझे प्यार करती है; सुना, कोई प्यार का ही गाना सुना।
इतना कह और गिलास को गलीचे पर लुढ़काकर मदमाती सलीमा उस कोमल मखमली मसनद पर ख़ुद भी लुढ़क गई, और रस-भरे नेत्रों से साक़ी की ओर देखने लगी। साकी ने वंशी का सुर मिलाकर गाना शुरू किया :
दुखवा मैं कासे कहूं मोरी सजनी.....
बहुत देर तक साकी की वंशी और कंठ-ध्वनि में घूम-घूमकर रोती रही धीर-धीरे साक़ी खुद भी रोनी लगी। साक़ी मदिरा और यौवन के नशे में चूर होकर झूमने लगी।
कहानी में उत्कट मानसिक घात-प्रतिघातों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तो है ही, मुग़लों के राजसी वैभव के खरे रेखा-चित्र भी हैं, और इन चित्रों का इतना सच्चा उतरने का कारण यह था कि उन दिनों आचार्य का राजा-महाराजाओं के अन्तःपुर में बहुत प्रवेश था। और चिकित्सक के नाते उन्हें गुप्त से गुप्त बातें भी ज्ञात होती रहती थीं। परन्तु कथा का मूलाधार एक मशहूर क़िस्सागो के दन्त-किस्से पर आधारित था। उन दिनों दिल्ली में शाही ज़माने के कुछ क़िस्सागो ज़िन्दा थे, जो शाही परम्परा से रईसों को क़िस्से सुनाने का ख़ानदानी पेशा करते आए थे। एक क़िस्सा सुनाने की उनकी फ़ीस दो रुपए से लेकर पचास रुपए तक होती थी। आचार्य को इन क़िस्सों से बहुत लगाव था। और कहना चाहिए, उनकी कहानी लिखने की ओर प्रवृत्ति किसी साहित्यिक प्रेरणा से नहीं हुई, इन क़िस्सागो लोगों की ही वाणी से हुई। इस प्रकार यह कहानी यदि चोरी का ही माल है, तो किसी साहित्य की चोरी का नहीं, एक क़िस्सागो के मुँह से चुराया हुआ है। इस कहानी के इतिहास में एक और बात यह कहानी है कि क़िस्सागो को इसकी फ़ीस दो रुपए उन्हें देनी पड़ी थी। और जब यह कहानी प्रथम बार ‘सुधा’ में छपी, तो उन्हें मुबलिग़ पाँच रुपए पुरस्कार (?) मिले थे।
गर्मी के दिन थे। बादशाह ने उसी फागुन में सलीमा से नई शादी की थी। सल्तनत के झंझटों से दूर रहकर नई दुलहिन के साथ प्रेम और आनन्द की कलोल करने वह सलीमा को लेकर कश्मीर के दौलतख़ाने में चले आए थे।
रात दूध में नहा रही थी। दूर के पहाड़ों की चोटियां बर्फ़ से सफ़ेद होकर चांदनी में बहार दिखा रही थीं। आरामबाग़ के महलों के नीचे पहाड़ी नदी बल खाकर बह रही थी।
मोतीमहल के एक कमरे में शमादान जल रहा था, और उनकी खुली खिड़की के पास बैठी सलीमा रात का सौन्दर्य निहार रही थी। खुले हुए बाल उसकी फ़िरोज़ी रंग की ओढ़नी पर खेल रहे थे। चिकन के काम से सजी और मोतियों से गुंथी हुई उस फ़िरोज़ी रंग की ओढ़नी पर, कसी हुई कमख़ाब की कुरती और पन्नों की कमरपेटी पर अंगूर के बराबर ब़ड़े मोतियों की माला झूम रही थी। सलीमा का रंग भी मोती के समान था। उसकी देह की गठन निराली थी। संगमरमर के समान पैरों में ज़री के काम के जूते पड़े थे, जिन पर दो हीरे दक-दक चमक रहे थे।
कमरे में एक क़ीमती ईरानी कालीन का फ़र्श बिछा हुआ था, जो पैर रखते ही हाथ-भर नीचे धंस जाता था। सुगन्धित मसालों से बने शमादान जल रहे थे। कमरे में चार पूरे क़द के आईने लगे थे। संगमरमर के आधारों पर, सोने-चांदी के फूलदानों में ताज़े फूलों के गुलदस्ते रखे थे। दीवारों और दरवाजों पर चतुराई से गुंथी हुई नागकेसर और चम्पे की मालाएं झूल रही थीं, जिनकी सुगंध से कमरा महक रहा था। कमरे में अनगिनत बहुमूल्य कारीगिरी की देश-विदेश की वस्तुएं करीने से सजी हुई थीं।
बादशाह दो दिन से शिकार को गए थे। इतनी रात होने पर भी नहीं आए थे। सलीमा खिड़की में बैठी प्रतीक्षा कर रही थी। सलीमा ने उकताकर दस्तक दी एक बांदी दस्तबस्ता हाज़िर हुई।
बांदी सुन्दर और कमसिन थी। उसे पास बैठने का हुक्म देकर सलीमा ने कहा :
‘साकी, तुझे बीन अच्छी लगती है या बांसुरी ?’
बांदी ने नम्रता से कहा—हुज़ूर जिसमें खुश हों।
सलीमा ने कहा—पर तू किसमें खुश है ?
बांदी ने कम्पित स्वर में कहा—सरकार ! बांदियों की ख़ुशी ही क्या !
सलीमा हंसते-हंसते लोट गई। बांदी ने वंशी लेकर कहा—क्या सुनाऊं ?
बेगम ने कहा—ठहर, कमरा बहुत गरम मालूम देता है, इसके तमाम दरवाज़े और खिड़कियां खोल दे। चिरागों को बुझा दे, चटखती चांदनी का लुफ्त उठाने दे, और वे फूलमालाएं मेरे पास रख दे।
बांदी उठी। सलीमा बोला—सुन, पहले एक गिलास शरबत दे, बहुत प्यासी हूं।
बांदी ने सोने के गिलास में खुशबूदार शरबत बेगम के सामने ला धरा। बेगम ने कहा—उफ् ! यह तो बहुत गर्म है। क्या इसमें गुलाब नहीं दिया ?
बांदी ने नम्रता से कहा—दिया तो है सरकार !
‘अच्छा, इसमें थोड़ा सा इस्तम्बोल और मिला।’
साक़ी गिलास लेकर दूसरे कमरे में चली गई। इस्तम्बोल मिलाया, और भी एक चीज़ मिलाई। फिर वह सुवासित मदिरा का पात्र बेगम के सामने ला धरा।
एक ही सांस में उसे पीकर बेगम ने कहा—अच्छा, अब सुनो। तूने कहा था कि तू मुझे प्यार करती है; सुना, कोई प्यार का ही गाना सुना।
इतना कह और गिलास को गलीचे पर लुढ़काकर मदमाती सलीमा उस कोमल मखमली मसनद पर ख़ुद भी लुढ़क गई, और रस-भरे नेत्रों से साक़ी की ओर देखने लगी। साकी ने वंशी का सुर मिलाकर गाना शुरू किया :
दुखवा मैं कासे कहूं मोरी सजनी.....
बहुत देर तक साकी की वंशी और कंठ-ध्वनि में घूम-घूमकर रोती रही धीर-धीरे साक़ी खुद भी रोनी लगी। साक़ी मदिरा और यौवन के नशे में चूर होकर झूमने लगी।
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