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आदमी का जहर

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6856
आईएसबीएन :9788171780389

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आदमी का जहर एक रहस्यपूर्ण अपराध कथा...

Admi Ka Zaher - A Hindi Book - by Shrilal Shukla

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘आदमी का जहर’ एक रहस्यपूर्ण अपराध कथा है। इसकी शुरुआत एक ईर्ष्यालु पति से होती है जो छिपकर अपनी रूपवती पत्नी का पीछा करता है और एक होटल के कमरे में जाकर उसके साथी को गोली मार देता है। पर दूसरे ही दिन वह साधारण दिखने वाला हत्याकांड अचानक असाधारण बन जाता है और घटना को रहस्य की घनी परछाइयाँ ढकने लगती हैं।
उसके बाद के पन्नों में हत्या और दूसरे भयंकर अपराधों का घना अँधेरा है जिसकी कई पर्तों से हम पत्रकार उमाकांत के साथ गुजरते हैं। घटनाओं का तनाव बराबर बढ़ता जाता है और अंत में वह जिस अप्रत्याशित बिंदु पर टूटता है, वह नाटकीय होते हुए भी पूरी तरह विश्वनीय है।
सामान्य पाठक समुदाय के लिए हिंदी में शायद पहली बार एक प्रतिष्ठित लेखक ने ऐसा उपन्यास लिखा है। इसमें पारम्परिक जासूसी कथा-साहित्य की खूबियाँ तो मिलेंगी ही, सबसे बड़ी खूबी यह है कि कथा आज की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों के बीच से निकली है। इसमें संदेह नहीं कि यह उपन्यास, जिसे लेखक खुद मनोरंजन-भर मानता है, पाठकों का मनोरंजन तो करेगी ही, उन्हें कुछ सोचने के लिए भी मजबूर करेगा।
यह उपन्यास हिन्दी के उन असंख्य कथाप्रेमियों को सस्नेह समर्पित है जिसकी परिधि में दास्तावस्की से लेकर काफ़्का और कामू तथा जैनेन्द्र से लेकर अज्ञेय और निर्मल वर्मा जैसे विशिष्ट कृतिकारों का अस्तित्व नहीं है।

 

एक

 

खाना खत्म हो चुका था। बैरे ने मेज से जूठी प्लेटें, नैपकिन, छुरी-काँटे आदि हटा दिये; गिलासों में फिर से पानी भर दिया और शीशे के दो प्यालों में आइस्क्रीम लाकर उनके सामने करीने से लगा दी।
हरिश्चन्द्र ने एक बार रूबी की ओर देखा, फिर चुपचाप खाना शुरू कर दिया। रूबी ने एक बार अपने आसपास देखा, फिर धीरे-से अपने सामने दीवार पर लगे शीशे की ओर निगाह फेर ली।
रेस्तराँ की दीवारें बिस्कुट रंग की थीं, जहाँ शीशा नहीं था, वहाँ भी वे शीशे ही जैसी झिलमिलाती थीं। दीवारों में दो फुट की ऊँचाई पर चारों ओर लगभग एक फुट की चौड़ाई के शीशे जड़े गये थे। होटलों और दुकानों की दुनिया में किसी भी जगह को और बड़ी बनाकर दिखाने का एक खूबसूरत फ़रेब। बैठानेवालों को अपना अक्स इन्हीं शीशों में दिखायी देता था।
रूबी ने सोचा-मैं अब भी सुन्दर हूँ। अनजाने ही उसे अपने होंठों के कोनों पर मुस्कान का आभास हुआ। दरअसल छत्तीस साल की उम्र में भी रूबी सिर्फ सुन्दर ही नहीं, बहुत सुन्दर थी। पर उसे लगा, शीशे में न दिखनेवाली इस कमर के पास जितना चाहिए, उससे कुछ ज्यादा भराव आ गया है। ब्लाउज के बाहर, कसी हुई बाँहों पर कुछ ज्यादा गोलाई है। गरदन अब भी पहले जैसी सुडौल है, पर उस पर चारों ओर एक हल्की-सी लकीर पड़ने लगी है।
बैरे को इशारे से पास बुलाकर उसने कहा, ‘‘मेरे लिए कॉफी लाओ !’’ हरिश्चन्द्र ने कहा, ‘‘और यह आइसक्रीम ?’’
‘‘वापस कर दो, या तुम खा लो ! कुछ भी करो।’’
हरिश्चन्द्र हँसकर बोला, ‘‘नहीं डियर, इससे वजन नहीं बढ़ेगा ! मेरी राय में......’’
‘‘ऐसे मामलों में मेरी राय में डाक्टर की राय पर ज्यादा भरोसा करना चाहिए !’’
हरिश्चन्द्र ने नकली गम्भीरता से सिर हिलाया, जैसे किसी ने बड़ी गहरी बात कही हो।
रूबी अपने प्याले में गर्म काफी डालने लगी। उधर से अपनी निगाह हटाये बिना उसने धीरे-से कहा, ‘‘शाम को खाली हो न ?’’
‘‘हूँ भी, और नहीं भी। क्यों ?’’
‘‘ललित कला अकादमी में यतीन्द्र के चित्रों की नुमायश है। हमें चलना है। सात बजे पहुँचना होगा।’’
हरिश्चन्द्र ने सहसा कोई जवाब नहीं दिया। उसकी भौंहें धीरे से सिकुड़ी। कुछ सोचकर बोला, ‘‘कैसे जा सकेंगे डियर ?’’
‘‘क्यों नहीं जा सकेंगे डियर ?’’ उसने चिढ़ाने की कोशिश की।
हरिश्चन्द्र ने इसके जवाब में रूबी पर अपनी निगाह टिका दी। उसे सिर्फ देखता रहा। उस निगाह से ही जाहिर हो गया कि उसे जवाब देने की जरूरत नहीं है। रूबी के चेहरे पर उलझन-सी झलकने लगी। उसने जोर से साँस खींची और दूसरी ओर देखते हुए काफी का प्याला होंठों की ओर बढ़ाया।
हरिश्चन्द्र ने लापरवाही से कहा, ‘‘शाम को मैं खाली नहीं हूँ। इतवार का दिन है। तुम जानती ही हो, आज शाम को हमें कहाँ जाना है !’’
बैरे ने इशारा पाकर बिल पेश किया और थोड़ी देर बाद वे दोनों उठ खड़े हुए। वातानुकूलित कमरे से बाहर आते ही गर्मी और धूप का अचानक अहसास हुआ। रूबी से खरगोश की तरह अदा से नाक सिकोड़ी। पर हरिश्चन्द्र पर इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह अपने में खोया-खोया रहा। बाहर से देखनेवाले यही समझते होंगे, एक खूबसूरत जोड़ा, जिसे ‘मेड फार ईच अदर’ कांटेस्ट में पहला इनाम मिल सकता है, रेस्तराँ से निकलकर सड़क पर इन्तजार करती हुई कार की ओर बढ़ा जा रहा है। पर इस वक्त ये दोनों अपनी-अपनी निजी दुनिया की भूलभुलैया में अकेले भटकने लगे थे।
गाड़ी का दरवाजा रूबी के लिए खोलते हुए हरिश्चन्द्र ने लगभग लापरवाही से पूछा, ‘‘और कौन-कौन लोग होंगे ?’’
‘‘कहाँ ?’’
‘‘शाम को ललित कला अकादमी की नुमायश में।’’
रूबी का चेहरा खिंच गया। वह गाड़ी में बैठने जा रही थी पर ठिठक कर खड़ी हो गयी। खिची हुई आवाज में बोली, ‘‘ऐसा क्यों पूछ रहे हो ?’’
हरिश्चन्द्र ने रूबी को दुबारा कड़ी निगाह से देखा। उस निगाह के सामने वह कुछ कसमसाई-सी, पर अभिमान के साथ खड़ी रही। हरिश्चन्द्र ने शान्त स्वर में कहा, ‘‘गाड़ी में बैठ जाओ डार्लिंग।’’ और वह आगे की सीट पर बैठ गयी। उसका चेहरा तमतमाया हुआ था।
हरिश्चन्द्र दूसरी ओर से आकर स्टियरिंग पर बैठ गया। शान्त भाव से उसने गाड़ी स्टार्ट की। दोपहर को सड़क पर भीड़ बहुत कम थी।, फिर आज इतवार का दिन था। शहर के इस हिस्से में दुकानें बन्द थीं, थोड़ी ही देर में गाड़ी दफ्तरों की इमारतों, फैशनेबुल बाजरों, पार्कों आदि को तेजी से पीछे छोड़ती हरिश्चन्द्र के घर की ओर बढ़ने लगी।
रूबी की आवाज अब भी तीखी थी। एक-एक शब्द पर जरूरत से ज्यादा जोर देकर उसने कहा, ‘‘तुम जानना चाहते हो कि अकादमी की नुमायश में कौन-कौन लोग आयेंगे ? साफ-साफ क्यों नहीं पूछते कि अजीत सिंह भी आयेगा या नहीं ?’’
हरिश्चन्द्र ने आँखों पर धूप का काला चश्मा लगा लिया था। उसके चेहरे से नहीं लग रहा था कि उसने कुछ सुना है।
सहसा रूबी ने धीरे स्वर में कहा, ‘‘तुम्हें क्या हो गया है ? तुम समझते क्यों नहीं ? इस तरह कैसे सोचने लगे हो ?’’
जैसे कोई फैसला सुनाया जा रहा हो, हरिश्चन्द्र ने जवाब दिया, ‘‘यह सवाल मुझसे नहीं, अपने-आपसे  करो !’’
रूबी ने अचानक तीखी आवाज में कहा, ‘‘गाड़ी धीमी करो, वरना ऐक्सीडेण्ट हो जायेगा।
सचमुच ही गाड़ी की रफ्तार पचासी किलोमीटर की घण्टे से ऊपर हो गयी थी। यह शहर की एक चौड़ी और वीरान सड़क थी, पर वहाँ भी इस रफ्तार पर चलना खतरनाक था। हरिश्चन्द्र ने ऐक्सिलेटर पर पैर ढीला कर दिया, गाड़ी धीमी हो गयी। रूबी ने जोर की साँस ली।
यह क्रम कई सालों से चल रहा था। वे दोनों इतवार को दोपहर का खाना घर से बाहर खाते थे। खाने के पहले हरिश्चन्द्र एक खास ‘बार’ ‘बियर’ या ‘जिन’ पीता था, और उस वक्त उसके साथ बैठकर अनन्नास का रस पीती थी। फिर दोनों इस रेस्तराँ में आकर खाना खाते थे। दोपहर के बाद वे सोते थे। शाम को साथ-साथ सिनेमा देखते थे। पति-पत्नी कई सालों से इतवार साथ-साथ बिताते थे। पिछले दिनों हरिश्चन्द्र के मन में रूबी के लिए कई बार सन्देह और खीझ का दौर पड़ चुका था, फिर भी इतवार के इस क्रम में कोई खास फर्क नहीं आया था।
उनकी शादी हुए आठ साल हो गए थे। पर अभी तक परिवार में सिर्फ वहीं दोनों थे। शहर के छोर पर एक ‘फैशनेबुल क्षेत्र’ में उनका बँगला था, मखमली दूब का लान था, शहर में सबसे नयी वेरायटी के गुलाब थे जिन पर हर साल मौसम आने पर ‘फ्लावर शो’ में इनाम मिलता था। उनके पास स्वास्थ्य था, सुन्दरता थी, काफी पैसा था और थी अच्छी सामाजिक हैसियत।
हरिश्चन्द्र रेफ्रिजरेटरों का कारोबार करता था। उनकी दुकान शहर की अत्याधुनिक दुकानों में से थी और अपने कारोबार की मार्फत शहर के सभी जाने-माने आदमियों से उनकी जान-पहचान थी।
जब वे लोग घर पहुँचे, तब लगभग तीन बज रहे थे। हरिश्चन्द्र ने पोर्टिको में कार रोककर रूबी की ओर का दरवाजा खोला। वह तेजी से उतरकर चिकने फर्श पर ऊँची एड़ी की सैण्डिलों से खट-खट की आवाज की चोटें देती हुई बँगले के अन्दर चली गयी। जाते-जाते सिर घुमाकर हरिश्चन्द्र से कहती गयी, शाम को कार मेरे लिए छोड़ देना।’’
ज्यादातर वह इतवार को दोपहर के बाद दो-तीन घण्टे सो लिया करता था, पर आज वह सोने के कमरे में नहीं गया। उसने यह जानने की कोशिश नहीं कि रूबी कहाँ है। और क्या कर रही है। वह ड्राइंगरूम में ही सोफे के ऊपर कूलर चलाकर बिना कपड़े उतारे पड़ रहा। उसे नींद नहीं आयी। एक घण्टे तक वह करवटें बदलता रहा। उसके बाद वह ड्राइंग रूम से ही लगे हुए एक कमरे में जाकर बैठ गया। इस कमरे का इस्तेमाल पड़ने और दफ्तर के काम के लिए होता था। एक रंगीन पत्रिका के पन्नों में वह थोड़ी देर सिर गड़ाये रहा। पर बाद में वह पन्ने पर रुक गया सिर्फ उसे देखता रहा।
अचानक हरिश्चन्द्र ने झटके से पत्रिका बन्द कर दी। उसे कोने में रखी हुई एक निचली मेज पर लापरवाही से फेंक दिया। सामने मेज पर टेलीफोन रखा था। उसका रिसीवर उठाकर उसने एक नम्बर घुमाया।
रिसीवर कान में लगाये वह किसी के बोलने का इन्तजार करता रहा। उधर घण्टी बजती रही। हरिश्चन्द्र के माथे पर दो लकींरे पड़ गयीं। ऊबकर वह रिसीवर रखने ही जा रहा था कि उधर से उसे आवाज सुनायी दी। वह कुर्सी खिसकाकर इत्मीनान से बैठ गया।
‘‘हलो, हाँ, मैं हरिश्चन्द्र.....’’
उस तरफ से किसी ने कोई हँसीवाली बात कही होगी। जवाब में हरिश्चन्द्र ने फोन पर एक खोखली हँसी हँसने की कोशिश की। कहा, ‘‘आज मुझे तुम्हारी कार की जरूरत पड़ेगी।....नहीं-नहीं, ड्राइवर की फिक्र मत करो। वह छुट्टी पर है तो उसे वापस मत बुलाना। अभी घण्टे-भर बाद मैं खुद आकर तुम्हारे यहाँ से गाड़ी ले लूंगा।’’ ...वह फिर हँसा,....‘‘घबराओं नहीं, गाड़ी स्मग्लिंग के लिए इस्तेमाल नहीं होगी।’’
साढ़े पाँच बजे के बाद वह जब घर से बाहर निकला तब उसका चेहरा शान्त, पर गम्भीर था। उसकी आँखों पर मोटे फ्रेम का काला चश्मा लगा हुआ था।
लॉन में माली काम कर रहा था। उससे कहा, ‘‘मेम साहब सो रही होंगी। जगें तो बता देना-चाभी कार में ही लगी है। मैं एक दोस्त के घर जा रहा हूँ। देर से लौटूँगा।
बँगले से बाहर आकर वह पैदल ही छायादार पेड़ों के नीचे फुटपाथ पर चल दिया।
लगभग पौन घण्टे बाद वह उसी सड़क पर एक कार से वापस लौटा। वह हल्के नीले रंग की एक फिएट थी। इस तरह की कारें शहर में सैकड़ों की तादाद में होंगी। बँगले के सामने से निकलकर उसने कार की खिड़की के बाहर देखा। उसकी गाड़ी-काली ऐम्बेसेडर-अभी पोर्टिंको में ही खड़ी थी। काफी तेज रफ्तार से वह बँगले से आगे निकल गया। सड़क चौड़ी और सीधी थी और लगभग डेढ़ फर्लांग तक उस पर कोई चौराहा नहीं पड़ता था। अपने मकान से लगभग दो सौ गज आगे जाकर उसने कार सड़क के किनारे एक घने पेड़ के नीचे खड़ी कर दी। उसके बायीं ओर बच्चों का एक मॉन्टेसरी स्कूल था, जो गर्मियों के कारण बन्द हो गया था। वह गाड़ी में, सड़क की ओर पीठ का कुछ रुख देकर चुपचाप बैठा रहा और कार के ‘बैकव्यू मिरर’ में पीछे से सड़क पर आनेवाले लोगों को देखता रहा।

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