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पंडित नेहरू और अन्य महापुरूष

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :234
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6852
आईएसबीएन :978-81-8031-331

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प्रस्तुत पुस्तक में जवाहरलाल नेहरू और तीन अन्य महापुरुषों- स्वामी विवेकानन्द, महर्षि रमण, महात्मा गांधी के विषय में जानकारी दी गई है।

Pandit Nehru Aur Anya Mahapurush - A Hindi Book - by Ramdhari Singh Dinkar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की यह पुस्तक पंडित जवाहरलाल नेहरू और तीन अन्य महापुरुषों-स्वामी विवेकानन्द, महर्षि रमण और महात्मा गांधी-के विषय में हमें विशेष जानकारी देती है।
राष्ट्रकवि दिनकर पंडित जवाहरलाल नेहरू के संस्मरण में लिखते हैं-कि क्या पंडित जवाहरलाल नेहरू तानाशाह थे ? दिनकर जी नेहरू जी के जीवन-दर्शन, गांधी और नेहरू के आपसी रिश्ते और भारतीय एकता के लिए पंडित जी के प्रयासों को हमारे सामने लाते हैं।

इस पुस्तक में दिनकर जी के तीन रेडियो-रूपकों को भी संगृहीत किया गया-जो क्रमश: स्वामी विवेकानन्द, महर्षि रमण और महात्मा गांधी जैसे महापुरुषों के जीवन को आधार बनाकर लिखे गए हैं। इन रूपकों में न केवल उनके प्रेरक जीवन की झलकियाँ हैं, बल्कि उनमें इन महापुरुषों का जीवन-दर्शन भी समाहित है। ये रेडियो-रूपक जितने श्रवणीय हैं, उतने ही पठनीय भी।

प्रकाशकीय


एक नई योजना के अन्तर्गत राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर की वे पुस्तकें, जिनका स्वामित्व उनके पौत्र श्री अरविन्द कुमार सिंह के पास है, नए ढंग से प्रकाशित की जा रही हैं। दिनकरजी ने कविता के साथ-साथ गद्य-साहित्य की भी प्रचुर मात्रा में रचना की है। स्वभावत: वे पुस्तकें गद्य की भी हैं और पद्य की भी। गद्य की पुस्तकों में से दो पुस्तकें-‘‘शुद्ध कविता की खोज’ और ‘चेतना की शिखा’ को यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है। सिर्फ उनके नाम में कारणवश परिवर्तन किया गया है। ‘शुद्ध कविता की खोज’ का नाम इस पुस्तक के पहले निबन्ध के आधार पर रखा गया है-‘कविता और शुद्ध कविता’ और ‘चेतना की शिखा’ का नाम उसके पहले निबन्ध के आधार पर-‘श्री अरविन्द : मेरी दृष्टि में’। हमारा खयाल है कि इस नाम परिवर्तन से पुस्तक की विषय-वस्तु का परिचय प्राप्त करने में अधिक स्पष्टता आ जाती है।

‘पंडित नेहरू और अन्य महापुरुष’ नामक पुस्तक में भी दिनकरजी की ‘लोकदेव नेहरू’ और ‘हे राम’ नामक दो पुस्तकें संकलित हैं। दूसरी पुस्तक में तीन महापुरुषों- विवेकानन्द, रमण और गांधी-पर दिनकरजी के तीन रेडियो-रूपक संगृहीत हैं, लेकिन उनकी आत्मा निबन्ध की है। कारण यह है कि उनमें उक्त महापुरुषों के विचार-दर्शन से ही श्रोताओं और पाठकों को परिचित कराने का प्रयास किया गया है। इसीलिए इन्हें साथ रखा गया है। ‘हे राम’ नामक पुस्तक संयुक्त करने के कारण ही संकलन के लिए नया नाम देना पड़ा, लेकिन पंडित नेहरू की प्रधानता के कारण उसमें उनके नाम का उल्लेख आवश्य माना गया है। ‘स्मरणांजलि’ नामक पुस्तक में भी दिनकरजी की मूल पुस्तक ‘मेरी यात्राएँ’ के चार निबन्ध संयुक्त किए गए हैं, क्योंकि यात्रा-वृत्तांत भी एक तरह से संस्मरण ही है। पहले उसे यात्रा-संस्मरण कहा भी जाता था। ‘स्मरणांजलि’ वस्तुत: दिनकरजी की पुस्तक ‘संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ’ का नया नाम है। इसमें सिर्फ निबन्धों को नई तरतीब दी गई है और उसमें यथास्थान ‘साहित्यमुखी’ से लेकर सिर्फ एक निबन्ध जोड़ा गया है-‘निराला जी को श्रद्धांजलि’। ‘व्यक्तिगत निबन्ध और डायरी’ नामक पुस्तक में भी दिनकरजी के निबन्धों का तो एकत्रीकरण है ही, ‘दिनकर की डायरी’ नामक पूरी पुस्तक यथावत् उसमें शामिल है, क्योंकि डायरी व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति का ही तो अतिशय घनीभूत रूप है।

बाकी जो नवनिर्मित गद्य की पुस्तकें हैं, वे हैं-‘कवि और कविता’, ‘साहित्य और समाज’, ‘चिन्तन के आयाम’ तथा ‘संस्कृति, भाषा और राष्ट्र’ इनमें इनके नामों से संबंधित निबन्ध विभिन्न पुस्तकों से लेकर क्रम से लगाए गए हैं। प्रत्येक निबन्ध के नीचे इस बात का उल्लेख अनिवार्य रूप से किया गया है कि वे किस पुस्तक से लिए गए हैं।

कविता-पुस्तकों में सभी पुस्तकों का मूल रूप सुरक्षित रखा गया है, सिर्फ कमोबेश कविताओं की प्रकृति को देखते हुए दो-दो तीन-तीन पुस्तकों को एक जिल्द में लाने की कोशिश की गई है। स्वभावत: संयुक्त पुस्तकों को एक नाम देना पड़ा है लेकिन वह नाम दिनकर जी कि कविताओं से ही इस सावधानी से चुना गया है कि वह कविताओं के मिजाज का सही ढंग से परिचय दे सके। उदाहरण के लिए ‘धूप और धुआँ’ नाम तय किया गया है, ‘नीम के पत्ते, ‘मृत्ति-तिलक’ और ‘दिनकर के गीत’ नामक पुस्तकों के संयुक्त रूप के लिए ‘अमृत-मंथन’ और ‘प्रणभंग तथा अन्य कविताएँ’, ‘कविश्री’ और ‘दिनकर की सूक्तियाँ’ के संयुक्त रूप के लिए ‘रश्मिमाला’। ‘अमृत-मंथन’ में एक छोटा-सा परिवर्तन यह किया गया है कि ‘मृत्ति-तिलक’ से ‘हे राम !’ शीर्षक कविता हटा दी गई है, क्योंकि वह ‘नीम के पत्ते’ में भी संगृहीत है। एक ही संकलन में पुनरावृत्ति से बचने के लिए यह करना जरूरी था। ‘रश्मिमाला’ नाम इसलिए पसंद किया गया कि इस नाम से दिनकरजी ‘प्रणभंग’ नामक काव्य के बाद अपनी स्फुट कविताओं का एक संकलन निकालना चाहते थे, जो निकल नहीं सका। उसकी तीन-चार कविताएँ उन्होंने ‘रेणुका’ में लेकर उसे छोड़ दिया था। काफी दिनों बाद उन्होंने बाकी कविताएँ ‘प्रणभंग’ के दूसरे संस्करण में, जो ‘प्रणभंग तथा अन्य कविताएँ’ के नाम से निकला, डाल दीं। ‘रश्मिमाला’ में ‘प्रणभंग तथा अन्य कविताएँ’ पूरी पुस्तक दी जा रही है, साथ में ‘कविश्री’ और ‘दिनकर की सूक्तियाँ’ नामक दो संकलन भी। दिनकर की कविताओं का कोई संकलन दिनकर की किरणों का हार ही तो है !

‘समानांतर’ नामक पुस्तक में दिनकरजी की दो पुस्तकें एकत्र की गई हैं-‘सीपी और शंख’ और ‘आत्मा की आँखें’। मूल रूप से ये दोनों पुस्तकें अनूदित कविताओं का संग्रह हैं, लेकिन हमने उनके संयुक्त रूप का नाम ‘समानांतर’ दिया है। इसके पीछे तर्क यह है कि जब विदेशी विद्वानों ने यूरोपीय कवियों के दिनकरजी कृत अनुवाद को मूल कविताओं से मिलाकर देखा, तो उन्हें अनुवाद मानने से इनकार किया और उन्हें उनकी मौलिक कविताएँ मानकर अपने यहाँ से निकलने वाले संकलन में शामिल किया। अधिक से अधिक हम इन्हें मूल का पुनर्सृजन कह सकते हैं, उससे भी आगे बढ़कर इन्हें कवि की समानांतर सृष्टि मानें तो वह उसके गौरव के सर्वथा अनुरूप होगा। गद्य की ‘शुद्ध कविता की खोज’ नामक पुस्तक की तरह ही दिनकरजी की अन्तिम काव्यकृति ‘हारे को हरिनाम’ को भी यथावत् रखा गया है। सिर्फ उक्त पुस्तक की तरह ही इसके नाम में परिर्वतन है। नया नाम ‘भग्न वीणा’ पहले नाम की तरह अर्थ-व्यंजक है और यह पुस्तक की एक प्रतिनिधि कविता के शीर्षक से ही लिया गया है।

नई योजना को रूप देने में अनेक रचनावलियों और संकलनों के सम्पादक डॉ० नन्दकिशोर नवल और नए समीक्षक डॉ० तरुण कुमार ने विशेष रुचि ली है, जिनकी अत्यधिक सहायता पटना विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग, के शोधप्रज्ञ श्री योगेश प्रताप शेखर ने की है। हम इनके प्रति अपना हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं।
आशा है, हिन्दी का विशाल पाठक-वर्ग दिनकर-साहित्य के इस नए रूप में प्रकाशन को अपनाकर हमारा उत्साहवर्धन करेगा।

पंडितजी के संस्मरण

1

पूज्यवर पंडित जवाहरलाल नेहरू को दूर से देखने के अवसर तो मुझे भी कई बार मिले थे, किन्तु नजदीक से पहले-पहले उन्हें मैंने सन् 1948 ई० में देखा, जब वे किसी राजनैतिक सम्मेलन का उद्घाटन करने को मुजफ्फरपुर आए थे। उस दिन सभा में मुझे एक कविता पढ़नी थी, अतएव लोगों ने मुझे भी मंच पर ही बिठा दिया था। जिस मसनद के सहारे पंडितजी बैठे थे, मैं उसके पीछे था और मेरे ही करीब बिहार के मुख्यमंत्री डॉक्टर श्रीकृष्ण सिंह तथा एक अन्य कांग्रेस नेता श्री नन्दकुमार सिंह भी बैठे थे। उससे थोड़े ही दिन पूर्व मुँगेर में श्रीबाबू को राजर्षि टंडनजी ने एक अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट किया था। इस अभिनन्दन ग्रन्थ के आयोजक श्री नन्दकुमार सिंह थे तथा उसके सम्पादकों में मुख्य नाम मेरा ही था। सुयोग देखकर नन्दकुमार बाबू के ग्रन्थ की एक प्रति जवाहरलालजी के सामने बढ़ा दी। पंडितजी ने उसे कुछ उलटा-पुलटा और देखते-देखते उनके चेहरे पर क्रोध की लाली फैल गई। फिर वे हाथ हिलाकर बुदबुदाने लगे, ‘‘ये गलत बातें हैं। लोग ऐसे काम को बढ़ावा क्यों देते हैं ? मैं कानून बनाकर ऐसी बातों को रोक दूँगा।’’ आवाज़ श्रीबाबू के कान में पड़ी, तो उनका चेहरा फक हो गया। नन्दकुमार बाबू की ओर घूमकर वे सिर्फ इतना बोले, ‘‘आपने मुझे कहीं का नहीं रखा।’’

अजब संयोग कि उन्हीं दिनों अज्ञेयजी और लंकासुन्दरम् नेहरू-अभिनन्दन-ग्रन्थ का सम्पादन कर रहे थे। यह ग्रन्थ सन् 1950 ई० में तैयार हुआ और उसी वर्ष 26 जनवरी के दिन पंडितजी को अर्पित भी किया गया। उस समय तमाशा देखने को मैं भी दिल्ली गया हुआ था। जब राजेन्द्र बाबू ने राष्ट्रपति-भवन में प्रवेश किया, उसके एक दिन पूर्व मैं उनसे मिलने गया था। बातों के सिलसिले में मैंने राजेन्द्र बाबू से जानना चाहा कि पंडितजी को अभिनन्दन-ग्रन्थ कौन भेंट करेगा। राजेन्द्र बाबू ने कहा, ‘‘लोगों की इच्छा है कि ग्रन्थ मेरे ही हाथों दिया जाना चाहिए, मगर पंडितजी इस विचार को पसन्द नहीं करते। वे मेरे पास आए थे और कह रहे थे कि कल से आप राष्ट्रपति हो जाएँगे।

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