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कहानी संग्रह >> गुलमोहर के गुच्छे

गुलमोहर के गुच्छे

मंजुल भगत

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 685
आईएसबीएन :00000

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मंजुल भगत की श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह....

gulmohar ke guchchhe

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

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मिसेज़ वर्मा पाँच बजते ही दफ्तर से निकल पड़ीं। दरवाज़ा खोलते ही झुलसा देने वाली लू का ज़बरदस्त थपेड़ा उनके मुँह पर पड़ा। उन्होंने काले चश्मे को ज़रा-सा नाक पर से सरकाकर सामने चिलचिलाती धूप का मुआयना किया, और उनके मुख से अनायास ही ‘उफ़ !’ के साथ एक लम्बी आह निकल गयी। फिर वही, तपते, सूरज की गरम सलाखों-सी किरणें, बदन पर दाग़ देतीं-सी। बस के अन्दर की उमस, घुटन-भरी ठेल-पेल, पसीने, की सड़ाँध, कुचले पाँव, कामुक घृणित स्पर्श, उतरते समय चढ़ने वालों का रेला। फिर ? फिर, घर ! छोटा-सा आँगन, तार पर फैले उजले-धुले कपड़े।

 हाथ का टिफिन-बॉक्स और पर्स पटककर, सबसे पहले वे उन्हीं को समेटने में लग जायेंगी। कपड़े तहाकर रखते ही उनमें से एक तौलिया छाँट कर कन्धे पर डाल वाश-बेसिन की ओर चल देंगी। आँखों में रड़कते रोहों पर पन्द्रह-बीस बार पानी के ठण्डे छींटें मारेंगी, फिर हाथ-मुँह धोकर, गीले टपकते मुख को पोंछ डालने के पूर्व ही, मिनी फ्रिज’ की बदौलत प्राप्त ठण्डे पानी का गिलास गटागट पी जायेंगी। सवेरे का बँधा जूड़ा भी धीरे-से खोल देंगी। तब जाकर ज़रा-सा संयत हो पायेंगी। अपनी बिखरी हुई हालत को समेटते-न समेटते वर्मा जी की चिर-परिचित पदचाप सुनाई पड़ जायेगी। उनके पति रोज़ की भाँति आज भी सपाट, भावहीन, श्रान्त-क्लान्त चेहरा लिये घर के अन्दर दाखिल होंगे, बेसब्री से आँगन में दो कुरसियाँ घसीटते-घसीटते ही वे चाय की फ़रमाइश करेंगे। तब, मिसेज़ वर्मा ‘नीलिमा’ बन जायेंगी।
बिस्कुटों की कुरकुराहट और चाय की चुस्कियों के साथ, दोनों फिर, कुछ देर सुस्ता लेंगे। इधर-उधर की मतलब-बेमतलब गुफ़्तगू भी होती रहेगी।

‘‘चलती हो नीलिमा, ज़रा मार्केट तक ? सिगरेट लानी है।’’
‘‘हाँ चलो। ड्राई-क्लीनर को कपड़े भी देने हैं, डबल रोटी-मक्खन भी लेते आयेंगे।’’
नीलिमा बालों की ढीली-सी चोटी गूँथते-गूँथते खड़ी हो जायेगी।
मार्केट में टहलते, खरीदते, परखते, चाट की दुकान पर जुटी औरतों की साड़ियाँ निरखते, पानी के बताशे खाने को उसका मन भी मचल पड़ेगा। तब उसके पति भी आलू-पापड़ी का पत्ता लगवाकर खड़े हो जायेंगे। शाम का कुछ हिस्सा यूँ ही गुज़र जायेगा। घर जाकर कुछ पकाना भी तो है, नीलिमा चाट के चटखारे से चिपटी हुई ज़बान को मुँह के अन्दर फिराती हुई सोचेगी।

पकाने-खाने की व्यस्तता के पश्चात्, राहत-भरा नर्म बिस्तर उनके क्लान्त शरीर को अपने सीने से लगा लेगा। कसमसाती रीढ़ की हड्डी बिस्तर की टेक पर चैन पा जायेगी। पुरसुकूँ, रेशमी अँधेरा उनके माथे की दुखती रगों पर अपने नर्म होंठ रख देगा, जैसे कोई माँ दुलार से चूमकर अपने खीजे बच्चे को शान्त कर ले।
‘‘नीलू !’’ धीरे से उसका गाल सहलाते उसके पति का आग्रह-भरा स्पर्श, साधिकार उसे अपने समीप खींच लेगा। क्षणभंगुर आवेश। घनिष्ठ सामीप्य की सुखद ऊष्मा। आश्वासन देता-सा दुलार, कुछ खोजते-से उष्ण स्पर्श, आनन्द की उठती लहर। और फिर दोनों अपने-अपने बिस्तर पर अलग-अलग द्वीप बन जायेंगे।

तब ‘नीलू’ भी केवल ‘मैं’ रह जायेगी। वह सोचेगी यह ‘मैं’ हूँ। मिसेज़ वर्मा और नीलिमा से भी अधिक महत्त्वपूर्ण केवल ‘मैं’, अनाम किन्तु फिर भी ‘मैं’। न जाने कब, माथे पर से मिटी हर शिकन नींद की मिठास में डूब जायेगी।
कीचड़ में सने पाँव, पानी पीकर भारी हुई रपटती चप्पल; वक्ष से सटा निर्लज्ज भीगा आँचल, मुख पर पड़ी फुहार में जमी बालों की लट लेकर जब मिसेज़ वर्मा दफ़्तर पहुँचतीं, तब उन्हें इस रसिक-प्रिया सावन पर बड़ा क्रोध आता, ‘कवि जी ! छत की मुँडेर से लगे गहरे काले बादलों की पाँत को आकाश में तैरते देखना और बात है, और लदे-फदे, बरसात में घिसटते, दफ्तर पहुँचकर ‘डिग्नीफ़ाइड’ लगने के प्रयत्न में ‘रिडिकुलस’ लगना कुछ और ही बात है। घर की सुरक्षित चहारदीवारी में मौसम को अपने अधीन किया जा सकता है, पर सड़कें नापते समय मौसम का ही पलड़ा भारी पड़ता है।’ सड़क की रपटन पर पचर-पचर चप्पल फटकारती नीलिमा यही सोचे जा रही थी। उसके बाद शीत आयेगा। कुण्डली मारकर कम्बल की नीवास के भीतर गुड़मुड़ हुए, जोड़ा कितना भला लगता है, कितना अपना, बिलकुल मासूम। और सड़क पर ? फरफराते दुशाले के भीतर ठिठुरता बदन, जमते होंठ नीली पड़ती नाक की नोंक, सूजी-फूली पाँव की उँगलियाँ, सुन्न और सख़्त पड़ते हाथ। कितना बेरहम और पराया-सा लगता है तब जाड़ा !

ख़ैर, घर से दफ़्तर और दफ़्तर से घर जाने के लिए कोई मौसम ठीक से बना ही नहीं। इसी मौसम के बदलते तेवर पहचानते-पहचानते, वक़्त आग-आगे सरकता जाता है। वर्ष बनते जाते हैं और एक के ऊपर एक लदते जाते हैं। इस लदान को लादे-लादे सब घिसटते रहते हैं किस ‘ध्येय’ की ओर, और क्यूँ ? कभी तो ऐसा लगता है, जैसे उसका कोई निजी अस्तित्व ही नहीं है; मिसेज़ वर्मा, नीलिमा, नीलू सब अलग-अलग नाटक में किए गए अलग-अलग रोल हैं। उसके अन्दर का जो मैं है, उसका रोल क्या है ? दफ़्तर पति माँ-बाँप यहाँ तक कि घर की धोबन जमादारिन, कहारिन सभी ने उसे एक-एक व्यक्तित्व बख़्श दिया है, जिसके अनुकूल होकर उसे जीना पड़ता है। लगता, मानो नीलिमा, सदा दूसरों के माध्यम से ही जीती आयी है। दूसरे उससे जिसकी अपेक्षा-आशा करते हैं, वही नीलिमा बनती जा रही है। लकीर पीटते-पीटते वह भूल ही गयी है। कि कुछ नया भी उससे हो सकता है। हर परिचय, जो उसे प्राप्त हुआ है किसी-न-किसी के निर्देशन में हुआ है। परिचय देते समय उसके व्यक्तित्व को अनेक परिभाषाओं से व्यक्त किया गया है। सभी परिभाषाओं की एक सीमा रही है।
‘‘इनसे मिलिए, ये मिसेज़ वर्मा हैं। ‘क्रिएटिविटी एडवर्टाइजिंग-एजेंसी’ में कॉपीराइटर हैं। बहुत ‘ओरिजिनल और कल्पनाशील’ हैं।’

‘‘यह नीलिमा हैं, मेरी पत्नी। भई, आई एम रियली वेरी-वेरी लकी, घर और बाहर दोनों मैदानों में दक्ष।’
‘‘यह हमारी मँझली बेटी है। दामाद ‘टपोड़िया ब्रदर्स’ में अफ़सर हैं।’’ आदि-आदि।
यदि किसी दिन किसी अजनबी से मुख़ातिब हो अपना परिचय उसे खुद देना पड़े तो ? क्या कहेगी ?
‘‘जी, मैं ‘मैं’ हूँ। सदा बेचैन रहती हूँ। जीवन में न जाने क्या-क्या खोजा करती हूँ। आप सुनाइए। आप ज़िन्दगी में कौन-सा ‘रोल’ अदा कर रहे हैं ? या यूँ कहिए, कौन-सा ‘रोल’ आपको सबसे अधिक प्रिय है ?’’
‘‘सुनो, मेरी एक माह की ‘अर्न्ड लीव’ जमा हो गयी है। सोचती हूँ, ले ही डालूँ। दफ़्तर से जी ऊब गया है।’’
‘‘तो ले लो न, बम्बई हो आओ कुछ रोज। तुम्हारी माँ भी खुश हो जायेंगी। ‘चेंज’ भी हो जायेगा।’’
‘‘तुम भी चलो न !’’
‘‘मैं तो भई, इस समय नहीं चल सकूँगा, बेहद ‘बिज़ी पीरियड’ है, आजकल।’’
चाय की आखिरी चुस्कियों तक फ़ैसला भी हो गया।

नीलिमा बम्बई पहुँच गयी, ‘चेंज’ के लिए कैसा चेंज ? जीवन का क्रम यहाँ भी है। धीरे-धीरे माँ चुक रही हैं। पिता जी ढल रहे हैं। दर्शक बनी वह देख रही है। जीवनी-शक्ति क्षीण पड़ रही है, किन्तु जीवन की गति उतनी ही तीव्र है। बालकनी से दिखलाई पड़ती, जलती-बुझती रोशनियाँ, चौराहों पर चमकते रंगीन पोस्टर, सड़कों पर दौड़ती गाड़ियाँ, कहीं कुछ भी तो जीवन से परे नहीं।
वह जो जाना-पहचाना-सा ख़ूबसूरत चेहरा, अगणित पोस्टरों से झाँकता, इतराता, मुस्कराता दिखलाई पड़ता है, उसको ही लो। उसकी दुनिया भी क्या इस दुनिया से भिन्न होगी ? नाम और शोहरत के उच्चतम शिखर पर पहुँचकर क्या वह कलाकार मन-जीवन से पूर्णतया परितृप्त होगा ? उसे तो आभास भी नहीं कि इस पल नीलिमा नाम का कोई प्राणी धरती पर है और उसके बारे में सोच रहा है, चाहे क्षण-भर को ही।
नीलम वर्मा टैक्सी में है। टैक्सी उसके आदेशानुसार बान्द्रा की ओर भागी जा रही है। रचना स्टूडियो, के गेट पर आकर उसकी चाल धीमी पड़ गयी है। दरबान ने ही रुकने का इशारा कर दिया था। नीलिमा दूर से ही उसे अपने दफ़्तर का विज़िटिंग कार्ड दिखलाकर बड़े इत्मीनान से कहती है-
‘‘रिपोर्टर, ‘धारा-प्रवाह’ समाचार-पत्र।’’
‘‘बढ़े चलो।’’ दरबान इशारा करता है।

भाड़ा चुकाकर, नीलिमा गलियारे में दरवाज़ों पर नेम-प्लेट पढ़ती-पढ़ती सीधे मैनेजर के कमरे में दाख़िल हो जाती है। मैनेजर प्रश्नसूचक नज़रों से उसकी ओर देखता है। नीलिमा फर्राटे से टेप किये हुए संवाद की भाँति बोल जाती है, ‘‘आई एम सॉरी टू डिस्टर्ब यू, बट आई एम ए रिपोर्टर फ्राम डेल्ही। आई एम हीयर ओनली फ़ॉर टू डेज़, आई वुड लाइक टू विज़िट योर सैट्स फ़ॉर माई कॉलम, एण्ड वुड ऑल्सो लाइक टू मीट राकेश कुमार फ़ॉर ए राइट अप ऑन हिम।’’
‘‘रा-के-श कु-मार ?’’
मैनेजर कुछ इस तरह सकपकाया, जैसे नीलिमा भगवान् के दर्शन माँग रही हो।
‘‘राकेश कुमार !’’ अभिभूत मैनेजर ने श्रद्धापूर्वक दोहराया, ‘‘वे तो इस समय मेकअप रूम में हैं। कुछ मूड भी गड़बड़ है। मैं आपको सेट पर ले चलता हूँ। उन्हीं का सीन है, ‘सुनहरा पत्थर’ का। कुछ देर बाद वे भी पहुँच जायेंगे।’’
सेट पर पहुँचकर नीलिमा ने मैनेजर से कहा, ‘‘आप मेरा परिचय राकेश कुमार से करवाकर जाइएगा।’’ मैनेजर एकदम घबरा गया। बोला, ‘‘न बाबा न, यहाँ तक मैं ले आया। अब आप ही जानें।’’ और वहाँ से ऐसा ग़ायब हुआ, जैसे आइसक्रीम के लिए पैसे पाकर बच्चा।

सेट पर बेहद गरमी थी। तकनीशियनों की भरमार, ट्रॉली पर खिसकता मूवी कैमरा, कैट वाक पर चमकती सशक्त रोशनियाँ, दर्शकों की उत्सुक भीड़। इन सबके, बीच चिड़ियाघर में सीख़चों के पीछे क़ैद परिन्दे की मानिन्द ही ‘सुनहरा पत्थर’ की नखरीली हीरोइन बैठी थी। वह लाल, कामदार, जगर-मगर लहँगा-चोली पहने नृत्य-मुद्रा में बैठी, नायक की प्रतीक्षा कर रही थी। रूठे हुए-से होठों की कोर को कभी लिपस्टिक से तीखा करती, कभी ‘पफ़’ से मेकअप जमाती, अपनी प्रदर्शनी का उसे एहसास था। ‘आया !’ बड़ी नज़ाकत से वह अपनी नौकरानी को पुकारती। ‘आया’ भी उसकी उतरन में मिली लाल धक-धक शिफ़ॉन की साड़ी और एकदम ‘फ़िट ब्रा’ में लैस हुमकती फिर रही थी। ‘टेक टू’ की प्रतीक्षा में एक जोड़ी फ़िल्मी माँ-बाप एक ओर खड़े थे। फ़िल्मी माँ जवान थी, किन्तु उसका चेहरा कैमरे में हर कोण से कुछ बड़ा-बड़ा, चपटा और सादा दिखलाई देता था। होठों की हँसी ममतामयी स्निग्धता लिये थी। शायद इसीलिए उसे केवल माँ के ही रोल अदा करने पड़ते थे। फ़िल्मी बाप की सूरत शायद पैदायशी रोनी थी। वह एकदम निरीह, सताया हुआ लग रहा था। वह ‘हीरोइन’ पर गुज़रते सदमों पर, पार्श्व में आँसू बहाता हुआ बहुत फबता था, इसीलिए बहुत ‘डिमाण्ड’ में था। इस समय वह फ़िल्मी माँ से छेड़-छाड़ कर रहा था। बेचारा चुहल करते समय भी मनहूस लग रहा था, ‘‘मानो अभी उसकी हिचकियाँ बँध जायेंगी और वह फूट-फूटकर रो देगा।

‘‘अरे भाई, राकेश जी को बुलाओ न, सेट तैयार है।’’ निर्देशक की सिट-पिटायी-सी आवाज़ थी।
‘‘राकेश जी मेकअप-रूप में है।’’ किसी ने उत्तर दिया।
‘‘अरे, वह तो मैं भी जानता हूँ, पर वह हीरोइन कौन कम है, वह जो सेट पर बैठी है। उसे कौन सँभालेगा ?’’ निर्देशक की सिट्टी-पट्टी गुम हुई जा रही थी। दो-चार चापलूस मेकअप-रूम की ओर दौडे़। ‘‘पंखे की हवा तो छोड़िए न’’, हीरोइन ने ग़ुस्से में हसीना का रोल अदा करते हुए पब्लिक से कहा। दर्शक बलैयाँ लेते-से पंखे की सीध से ज़रा-सा हट गये और निगाहों से गुड़िया-सी हीरोइन को समूचा लीलने का प्रयत्न करने लगे।

पसीने की बूँदें नीलिमा की टाँगों तक फिसल आयी थीं। बेहद उमस थी। तभी राकेश कुमार के सेट की ओर रवानगी की ख़बर फुसफुसाहटों में बिजली की तरह दौड़ गयी। दर्शकों ने उनके लिए राह बनायी और टकटकी बाँधकर उन्हें घूरना शुरू कर दिया। राकेश कुमार जी एक बाँह किसी ‘चमचे’ के कन्धे पर डाले बड़ी अदा से चले आ रहे थे।
‘‘बा-अदब बा-मुलाहिज़ा होशियार, राकेश कुमार जी तशरीफ़ ला रहे हैं....’’, जैसा कुछ हवा में बेआवाज़-सा तैर रहा था। नीलिमा ठीक राह में अड़ी रही। राकेश कुमार ने पल-भर को उसे देखा। कुछ हैरानी का-सा भाव निगाह में तिर गया। नीलिमा ने मौक़ा न चूकते हुए अपना वही टेप चला दिया, ‘‘आई एम ए रिपोर्टर।’’
‘‘आई सी।’’ राकेश साहब समझते हुए बोले।

‘‘मैं अपने समाचार-पत्र के लिए आपसे कुछ पूछना चाहती हूँ।’’
‘‘जी कहिए।’’ राकेश कुमार एकदम फ़िल्मी अन्दाज़ में मुसकराये। मुसकराहट में कशिश थी। नीलिमा बेहद संजीदगी का आवरण ओढ़े रही, एक बेहद अपने काम से काम रखने वाले पत्रकार की तरह। चारों ओर लोग उन्हें घूरने लगे। निर्देशक असहाय-सा खड़ा नायक की सवारी अटकते देखता रहा। राकेश कुमार की धनुष-सी दिलकश मुसकान ज़रा भी ढीली नहीं पड़ी, जैसे ‘क्लोज़अप’ के लिए अपनी भाव-भंगिमा एक खास ऐंगिल पर ‘होल्ड किये हुए हो, पर नीलिमा की आँखों में सम्मोहन न देखकर जैसे एक दुखता-सा विस्मय नायक के मुख पर पुत गया। चौंककर नीलिमा ने कुछ घिसे-पिटे से प्रश्न किये। घिसे-पिटे ही उत्तर भी मिले। फिर बड़े थके-से स्वर में राकेश कुमार ने कहा-‘‘ऐसे नहीं। ‘शॉट’ के बाद बात करेंगे।’’
नीलिमा को लगा, वह एक अजीब दुनिया में आ गयी है। जहाँ केवल नाटक ही नाटक है और वही सत्य है। पर हर एक का उसके अनुरूप ढला रोल है- ‘किसी’ का रोल किसी को अदा नहीं करना पड़ता, शायद।
राकेश कुमार सेट पर ऐण्ट्री लेने को थे। आवाज़ करते पंखे बन्द करवा दिये गये।

‘मेकअप’ ‘लाइट स्टार्ट’ की आवाज़ आयी। मूवी कैमरा चल पड़ा। राकेश कुमार उसी सहज स्वाभाविकता से अभिनय करने लगे, जिसके लिए वे प्रख्यात थे। पर लगा जैसे उस स्वाभाविकता में पूर्णता का अभाव है, शायद ‘रुचि’ का भी। नायक को अपनी अदाकारी से जैसे कोई ‘लगाव’ नहीं था। कोई आत्मविस्मृति नहीं। वह सहजता नहीं, कहीं उदासीनता तो नहीं थी ? वह अभिनय जिस पर लोग वाह-वाह कर उठते थे, केवल निष्चेष्ट प्रतिक्रिया थी। कहाँ है कला की वह अनुरक्त साधना ? नीलिमा सोच ही रही थी तभी देखा, सुन्दर-सी नायिका के अनेक क्लोज़अप लिये जा रहे हैं। कैमरा बड़े दुलार से बार-बार उसी के मुख पर जा टिकता। नायक साहब संवाद बोलते-बोलते एकदम से बिगड़ उठे, बोले ‘‘पैकअप ! मूड नहीं जम रहा। अब यह कल होगा।’’

हैं-हैं क्या...क्या हुआ राकेश साहब ? बुदबुदाते निर्देशक साहब उनकी अर्दली में दौड़े। बहुत फुसलाने-मानने पर राकेश कुमार बोले, अरे भई, सीन हम दोनों का है और तुम कैमरा मुझ पर टिकने ही नहीं देते, सारे क्लोजअप इन्हीं के लिए जा रहे हैं-यह भी कोई बात हुई ?
सुनकर नायिका भी फूल गयी। बस, प्रेम-संवाद बोलती प्रेमियों की जोड़ी, डाह और ईर्ष्या से सुगलती, सौतिनों-सी हो गयी। निर्देशक कभी इधर भागता कभी उधर। छिः यही है स्क्रीन का ‘मेलसेक्स सिम्बल’ औरत से होड़ लगाता हुआ।

‘‘मेरे मेकअप-रूम में चली आइए। वहीं बातचीत हो जायेगी।’’ चौंककर नीलिमा ने सुना। हूँ, तो प्रचार की भूख प्रतिदिन नियम से लगती है, इन लोगों को।

मेरे मेकअप-रूम में पहले से कॉलेज की मनचली छात्राओं का एक दल दम साधे प्रतीक्षा कर रहा था। राकेश जी के अन्दर घुसते ही एक सुलगती हुई, ‘आह’ उनके सम्मिलित कण्ठ से फूटी, और वे सब मेमने की भाँति अपने प्रिय हीरो को पिघलती नज़रों से ताकने लगीं। हीरो साहब सोफे पर बैठ गये और इतराते-ऐंठते-से अन्दाज़ में उन्हें अपना दीदार देने लगे। करीब पाँच मिनट तक यह सिलसिला चला। फिर बड़ी अदा से राकेश जी महफिल बरखास्त करते हुए बोले-अच्छा अब आप लोग जाइए, कुछ जरूरी काम है।
लड़कियों ने और भी गहरी आह खींची और ईर्ष्या-भरी नज़र नीलिमा पर फेंकती हुई वहाँ से चली गयीं।
हाँ, तो अब कहिए, क्या पूछना है ?

आपके बारे में बहुचर्चित ‘अफेयर्स’ सुने हैं। क्या यह सच है कि आप फिल्म स्टार रजनी से ‘रोमाण्टिकली लिक्ड’ है ? नीलिमा को यही सूझा, बस यही पूछ लिया।
राकेश कुमार बहुत थके-हारे से हँसे। खिन्न-सी आवाज़ में बोले, अरे भई, इस सबके लिए वक्त ही कहाँ है ? दो-दो शिफ्टों में काम करके एकदम पस्त होकर पहुँचता हूँ। फिर, जैसे चौंककर वापस अपना मुखौटा ओढ़ लिया। वही चुस्त, युवा मुसकानवाला। पल-भर को लगा, उस नायक का सत्य केवल वही एक पल था, थका-हारा-सा जिसे उसने एकदम छिपा लिया। जैसे उसके अन्दर का ‘मैं’ अलग-अलग रोल में, भटकते-भटकते राकेश कुमार की छवि का विस्तार भर रह भर गया है-परदे पर भी और परदे से हटाकर भी।
कुछ मोह भंग की स्थिति में वह घर पहुँची।
एक तो दफ्तर की व्यस्तता से छुट्टी, उस पर माँ का घर। इतना आलस्य उसके शरीर में समा गया कि लगता, वह तमाम दिन बस निष्क्रिय तन्द्रिल सी बिस्तर पर आधी पड़ी रहे। पर कुछ रोज में, भोर होते ही उदर की गहराई से उठती मतली राह चलते-चलते सर चकरा जाने-जैसी कुछ अटपटी बातों ने यह रहस्य खोला। नीलिमा ने भौंचक्की हो डॉक्टर का निर्णय सुना, आप फ़ैमिली-वे में है।

माँ की आँखों में नवजीवन-सा कुछ चमक आया। नीलिमा की आँखों के सामने शिशु-मुख मँडराने के बजाय एकदम से पति का मुख घूम गया। मन में एक लगाव-भरी चाहत-सी चिहुँक उठी। लगा, वह कहीं अपने से छिटककर दूर आ पड़ी है। एकदम से किसी ने जैसे उसकी डोर खींच ली हो। ऐसे ही खिंची-बँधी सी वह पति के घर लौट आयी।
दिन बीतने लगे। दिन रात्रि की कालिमा में घुलते रहे, रातें दिवस के उजाले में घुलती रहीं। बढ़ती-फलती कोख में शिशु का प्रथम आभास मिला-हौले से जब एक हलचल हुई। अन्तर से उठती पुलक ने नीलिमा को आत्मविस्तृत कर दिया। जब भी हलचल होती वह निश्चल हो उसका आभास लेती। किलकिती-सी उमंग मन में हुमक उठती। समझ में न आता, इस अति पुरातन रीति में कौतुहल-पूर्ण नवीनता क्यों लग रही है। इतना गर्व-मिश्रित विस्मय क्यों  यह तो सदा से ही होता आया है।   

सृजन की चीरती, भेदती पीड़ा उठी। फिर पाया, मुँदी पलकें, भिंचे होंठ, बँधी मुट्ठियाँ कैसे एक लघु आकार मानव-रूप उसके शरीर से सटा पड़ा है।
वक्ष में कुछ कुछ हिलोर-सा लेने लगा। यही है क्या वह ‘मैं’ जो पकड़ाई में नहीं आ रहा था। यह तो साकार रूप मेरे सम्मुख आ प्रस्तुत हुआ है। क्या मैं इसे ही खोजती फिर रही थी  यह स्थाई रूप क्या पति से क्षणिक घनिष्ठता का ही परिणाम है  या फिर आवेश- भरा क्षण भी पूर्ण था, जिसकी अभिव्यक्ति इस शिशु में हुई है। विवाद करती खिजाती प्रश्न पूछती मेधा विलुप्त हो गई शेष रह गया केवल यही शिशु, उसका ही प्रतिरूप और हिलोरें लेता उसका अपना हृदय।





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