भाषा एवं साहित्य >> व्यावहारिक हिन्दी शुद्ध प्रयोग व्यावहारिक हिन्दी शुद्ध प्रयोगओम प्रकाश
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प्रस्तुत पुस्तक में हिन्दी का जीवन में कैसे प्रयोग करना चाहिए के विषय में बतलाया गया है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
शुद्ध हिन्दी का प्रयोग प्रत्येक हिन्दी भाषा और हिन्दी के विद्यार्थियों
के लिए आवश्यक है। इस विषय की यह नवीनतम पुस्तक है, जिसके 18 अध्यायों में
हिन्दी की वर्तनी, शब्द-निर्माण की प्रक्रिया, पर्यायवाची-शब्द, समानार्थ
शब्द हिन्दी के विराम-चिह्र्न आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। लेखक के
वर्षों के अध्ययन और अध्यापन का निचोड़ इस पुस्तक में दिया गया है।
वक्तव्य
संविधान के भाग 17 में, धारा 343 से धारा 351 तक, राजभाषा के विषय में
निर्देश हैं। धारा 343 के अनुसार ‘‘संघ (=भारत-संघ)
की
राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी’’ है। और धारा 351
के अनुसार
‘उसके शब्द-भण्डार के लिए मुख्यत: संस्कृत से तथा गौणत: अन्य
(‘भारतीय’) भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी
समृद्धि
सुनिश्चित करना संघ का कर्तव्य होगा।’’
धीरे-धीरे राष्ट्रीय गति-विधि के संचालन में जनता का हाथ अधिक होता जा रहा है। अत: यह स्वाभाविक है कि शासन तथा सम्पर्क के लिए भारतीय भाषा का प्रयोग हो और विदेशी भाषा का अधिकार समाप्त किया जाय। उत्तर भारत के (विशेषत: हिन्दी-भाषी) राज्यों की प्रतियोगिता-परीक्षा में ‘सामान्य हिन्दी’ अनिवार्य विषय बन गया है। इसी कारण से विश्वविद्यालयों में विज्ञान, वाणिज्य, चिकित्सा, विधि आदि की उपाधियों के लिए भी ‘सामान्य हिन्दी’ विषय की परीक्षा अनिवार्य है। जिन राज्यों में हिन्दी मातृभाषा के रूप में नहीं पढ़ाई जाती उनमें पढ़-लिखकर आजीविका की सुविधा को ध्यान में रखते हुए हिन्दी-भाषा का अध्ययन तथा प्रमाण-पत्र आवश्यक-सा है।
राजभाषा हिन्दी के मार्ग में चार कठिनाइयां मुख्य हैं। प्रथम तो वह कि जिस वर्ग को अंग्रेजी के कारण वरीयता मिलती रही है वह वर्ग अंग्रेजी की समाप्ति नहीं चाहता; वह खुलकर अंग्रेजी का समर्थन तो नहीं कर सकता परन्तु हिन्दी का हौवा खड़ा करके भोले-भाले लोगों को डराता रहता है। द्वितीय कठिनाई हिन्दी-भाषियों की ओर से है वे लोग हिन्दी-साहित्य को इतर भारतीय साहित्य की अपेक्षा श्रेष्ठ समझते हैं। उनको यह जानना चाहिए की हिन्दी-भाषा तो ‘राजभाषा’ है, परन्तु हिन्दी का साहित्य ‘राज-साहित्य’ कभी समझा नहीं गया। अत: केन्द्रीय सरकार हिन्दी-साहित्य के प्रति (पुरस्कार प्रदान करना आदि) जो पक्षपात दिखलाती है वह इतर साहित्य-सेवियों को बहुत खलता है।
तीसरी कठिनाई उन युवकों ने उत्पन्न की है जो संस्कृत बिल्कुल नहीं जानते और अपनी कमी को अमरीकी भाषाशास्त्र का आयाम करके ढकना चाहते हैं। वे ‘भाषा’ और ‘भाषा-विज्ञान’ में भेद नहीं समझते, और भारतीय भाषाओं की आधारभूत संस्कृत-व्याकरण के ज्ञान के बिना ही योग्य बने रहते हैं। ऐसे लोग राजभाषा हिन्दी का बड़ा अहित कर रहे हैं। चतुर्थ कठिनाई का कारण नौकरीकामी सामान्य जनता है। यह सत्य है कि हिन्दी-बोली सारे देश के नगरों तथा कस्बों में समझी जाती है, संगीत और सिनेमा का इस प्रसंग में असाधारण योगदान है, तथा हिन्दी-बोली की व्यापकता के आधार पर हिन्दी-भाषा को ‘राजभाषा’ का पद प्राप्त हुआ है। परन्तु यह भी सत्य है कि प्रत्येक प्रदेश की ‘हिन्दी-बोली’ अलग दिखलाई दे जाती है, जिस प्रादेशिक छाप के आधार पर हम ‘बंबैया हिन्दी’, ‘कलकतैया हिन्दी’ तथा ‘मदरासी हिन्दी’ जैसी अभिव्यक्तियों का प्रयोग करते हैं। जब कोई ‘बोली’ व्यापक बनकर ‘भाषा’ का रूप लेती है तो उसका ‘एक’ परिनिष्ठित (=स्टेंडर्स) रूप निकल आता है। जनता सामान्य व्यवहार में ‘बोली’ का प्रयोग करती है, परन्तु लिखित साहित्य व्याकरण-सम्मत ‘भाषा’ को मान्यता देती है। राजभाषा हिन्दी का एक ही रूप है जो परम्परागत व्याकरण में आबद्ध है, उसके शब्द-भण्डार का स्पष्टीकरण संविधान की धारा 351 में कर दिया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक की रचना इन्हीं परिस्थितियों तथा कठिनाइयों को ध्यान में रखकर की गई है। इसमें न तो व्याकरण के दांव-पेंच अंकित किये गये हैं और न भाषा-विज्ञान के चित्र सजाये गये हैं मेरा प्रयत्न (अनुभव से जनित) ‘व्यावहारिक हिन्दी’ का ठीक, उचित एवं शुद्ध रूप प्रस्तुत करने का रहा है। आशा है कि विश्वविद्यालयों की सामान्य परीक्षा एवं प्रतियोगिता-परीक्षा में यह पुस्तक सहायक एवं उपयोगी सिद्ध होगी। पुस्तक को अधिक उपयोगी बनाने के लिए जो सुझाव प्राप्त होंगे उनका भावी संस्करणों में लाभ उठाया जायगा।
धीरे-धीरे राष्ट्रीय गति-विधि के संचालन में जनता का हाथ अधिक होता जा रहा है। अत: यह स्वाभाविक है कि शासन तथा सम्पर्क के लिए भारतीय भाषा का प्रयोग हो और विदेशी भाषा का अधिकार समाप्त किया जाय। उत्तर भारत के (विशेषत: हिन्दी-भाषी) राज्यों की प्रतियोगिता-परीक्षा में ‘सामान्य हिन्दी’ अनिवार्य विषय बन गया है। इसी कारण से विश्वविद्यालयों में विज्ञान, वाणिज्य, चिकित्सा, विधि आदि की उपाधियों के लिए भी ‘सामान्य हिन्दी’ विषय की परीक्षा अनिवार्य है। जिन राज्यों में हिन्दी मातृभाषा के रूप में नहीं पढ़ाई जाती उनमें पढ़-लिखकर आजीविका की सुविधा को ध्यान में रखते हुए हिन्दी-भाषा का अध्ययन तथा प्रमाण-पत्र आवश्यक-सा है।
राजभाषा हिन्दी के मार्ग में चार कठिनाइयां मुख्य हैं। प्रथम तो वह कि जिस वर्ग को अंग्रेजी के कारण वरीयता मिलती रही है वह वर्ग अंग्रेजी की समाप्ति नहीं चाहता; वह खुलकर अंग्रेजी का समर्थन तो नहीं कर सकता परन्तु हिन्दी का हौवा खड़ा करके भोले-भाले लोगों को डराता रहता है। द्वितीय कठिनाई हिन्दी-भाषियों की ओर से है वे लोग हिन्दी-साहित्य को इतर भारतीय साहित्य की अपेक्षा श्रेष्ठ समझते हैं। उनको यह जानना चाहिए की हिन्दी-भाषा तो ‘राजभाषा’ है, परन्तु हिन्दी का साहित्य ‘राज-साहित्य’ कभी समझा नहीं गया। अत: केन्द्रीय सरकार हिन्दी-साहित्य के प्रति (पुरस्कार प्रदान करना आदि) जो पक्षपात दिखलाती है वह इतर साहित्य-सेवियों को बहुत खलता है।
तीसरी कठिनाई उन युवकों ने उत्पन्न की है जो संस्कृत बिल्कुल नहीं जानते और अपनी कमी को अमरीकी भाषाशास्त्र का आयाम करके ढकना चाहते हैं। वे ‘भाषा’ और ‘भाषा-विज्ञान’ में भेद नहीं समझते, और भारतीय भाषाओं की आधारभूत संस्कृत-व्याकरण के ज्ञान के बिना ही योग्य बने रहते हैं। ऐसे लोग राजभाषा हिन्दी का बड़ा अहित कर रहे हैं। चतुर्थ कठिनाई का कारण नौकरीकामी सामान्य जनता है। यह सत्य है कि हिन्दी-बोली सारे देश के नगरों तथा कस्बों में समझी जाती है, संगीत और सिनेमा का इस प्रसंग में असाधारण योगदान है, तथा हिन्दी-बोली की व्यापकता के आधार पर हिन्दी-भाषा को ‘राजभाषा’ का पद प्राप्त हुआ है। परन्तु यह भी सत्य है कि प्रत्येक प्रदेश की ‘हिन्दी-बोली’ अलग दिखलाई दे जाती है, जिस प्रादेशिक छाप के आधार पर हम ‘बंबैया हिन्दी’, ‘कलकतैया हिन्दी’ तथा ‘मदरासी हिन्दी’ जैसी अभिव्यक्तियों का प्रयोग करते हैं। जब कोई ‘बोली’ व्यापक बनकर ‘भाषा’ का रूप लेती है तो उसका ‘एक’ परिनिष्ठित (=स्टेंडर्स) रूप निकल आता है। जनता सामान्य व्यवहार में ‘बोली’ का प्रयोग करती है, परन्तु लिखित साहित्य व्याकरण-सम्मत ‘भाषा’ को मान्यता देती है। राजभाषा हिन्दी का एक ही रूप है जो परम्परागत व्याकरण में आबद्ध है, उसके शब्द-भण्डार का स्पष्टीकरण संविधान की धारा 351 में कर दिया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक की रचना इन्हीं परिस्थितियों तथा कठिनाइयों को ध्यान में रखकर की गई है। इसमें न तो व्याकरण के दांव-पेंच अंकित किये गये हैं और न भाषा-विज्ञान के चित्र सजाये गये हैं मेरा प्रयत्न (अनुभव से जनित) ‘व्यावहारिक हिन्दी’ का ठीक, उचित एवं शुद्ध रूप प्रस्तुत करने का रहा है। आशा है कि विश्वविद्यालयों की सामान्य परीक्षा एवं प्रतियोगिता-परीक्षा में यह पुस्तक सहायक एवं उपयोगी सिद्ध होगी। पुस्तक को अधिक उपयोगी बनाने के लिए जो सुझाव प्राप्त होंगे उनका भावी संस्करणों में लाभ उठाया जायगा।
ओमप्रकाश
अध्याय एक
समान प्रतीत होने वाले शब्द
शब्दों की पहिचान के अनेक रूप हैं। इनमें से एक रूप वह है जिसमें दो शब्द
सामान्यत: एक जैसे लगते हैं परन्तु उन शब्दों के अर्थ समान नहीं होते।
इनका प्रयोग (असावधानी के कारण) एक-दूसरे के स्थान पर कर दिया जाता है।
वस्तुत: ये दोनों शब्द अलग-अलग हैं। इस वर्ग के लगभग ढाई-सौ शब्द-युग्म
नीचे दिये जा रहे हैं।
अगर-अगरु
‘अगर’ विदेशी शब्द है, इसका प्रयोग ‘यदि’ के स्थान पर होता है। ‘अगरु’ सुगन्धित वृक्ष की लकड़ी का नाम है, इसका उपयोग पूजा में सुगन्धि के लिए होता है। व्यापारी-लोग प्राय: ‘अगरु को ‘अगर’ भी बोलते और लिखते हैं, यथा ‘अगर-बत्ती’।
अग्रज- अंग्रेज
अग्र+ज=अग्रज, पहिले (=अग्र) जन्म लेने वाला पुरुष, बड़ा भाई। इसका विलोम शब्द अनु+ज= अनुज बनता है। ‘अग्रज और अनुज दोनों ने, तनिक परस्पर अवलोका’ – (पंचवटी)।
‘अंग्रेज’ ग्रेट ब्रिटेन में रहनेवाली एक जाति का नाम है। अंग्रेजी इसी जाति की भाषा को कहते हैं।
अचल-अंचल
अ+चल= अचल, पर्वत, जो चलता न हो। यथा ‘हिमालय’, ‘विन्ध्याचल’ आदि।
‘अंचल’ शब्द का अर्थ भाग अथवा क्षेत्र है। कपड़े के भाग (विशेषत: नारी के वस्त्र के भाग) को अंचल कहते हैं, यथा ‘छोड़ दो, अंचल, जमाना क्या होगा’। क्षेत्र के अर्थ के प्रयोग हैं-‘उत्तरांचल’, ‘पूर्वांचल’ आदि। इस अर्थ में विशेषण ‘आंचलिक’ बनता है; ‘आंचलिक उपन्यास’, ‘आंचलिक संस्कृति’ आदि।
अजात-आजाद
अ+जात=अजात, जिसने जन्म ही न लिया हो। यथा ‘अजातशत्रु’ अर्थात् जिसके शत्रु ने जन्म ही न लिया हो अर्थात् ‘सर्वप्रिय’। इतिहास में प्रसिद्ध एक राजा का नाम भी है।
‘आजाद’ विदेशी शब्द है, अर्थ है ‘स्वतन्त्र’ (प्राय: राजनीतिक स्वतंत्रता के अर्थ में)। नेताजी ने अंग्रेजों से युद्ध करने के लिए जो सेना खड़ी की थी उसका नाम ‘आजाद हिन्द फौज’ था।
अनल-अनिल
‘अनल’ अग्नि को कहते हैं। यथा दाव+अनल=दावानल, जठर+अनल= जठरानल।
‘अनिल’ वायु को कहते हैं। यथा मलय+अनिल=मलयानिल।
अन्तर-अन्तर्
‘अन्तर’ शब्द का प्रयोग ‘भिन्नता’ अथवा ‘दूरी’ के लिए होता है। ‘पुस्तक के प्रथम तथा द्वितीय संस्करणों में बहुत अन्तर है’, ‘दिल्ली से कलकत्ते का अन्तर....’।
‘अन्तर्’ भी तत्सम है। यथा ‘अन्तर्जातीय’, ‘अन्तर्देशीय’ आदि।
‘अन्तर्’ का प्रयोग ‘अन्त:’ के रूप में भी होता है, यथा ‘अन्त:करण’।
अनुकरण-अनुसरण
‘अनुकरण’ अथवा ‘अनुकृति’ शब्द का अर्थ ‘नकल’ है। यह नकल किसी दूसरे व्यक्ति के व्यवहार की होती है, उससे प्रभावित होने पर।
अनु+करण=अनुकरण।
अनु+सरण=अनुसरण, आंख बंद करके किसी के पीछे चलना।
अनुकरण में पहिले हम प्रभावित होते हैं, फिर उसका-सा व्यवहार करते है। ‘अनुकरण’ में सोचना-समझना प्रभावित होना नहीं होता।
अनुकूल-अनुरूप
‘अनुकूल’ शब्द का विलोम ‘प्रतिकूल’ है। प्राय: अनुकूल व्यवहार मानसिकता पर निर्भर है। ‘अनुकूल’ को मित्र तथा ‘प्रतिकूल’ को शत्रु (इसीलिए) समझा जाता है।
अनु+रूप=अनुरूप शब्द का व्यवहार ऐच्छिक तथा बाह्य होता है।
अनुसार-अनुस्वार
अनु+सार=अनुसार, अनुसरण करते हुए, ‘अकोर्डिंग टु’। ‘सूचना के अनुसार वे यहां छह बजे पहुंच रहे हैं। ‘अनुस्वार’ व्याकरण-शास्त्र का पारिभाषिक शब्द है। ‘अनुस्वार’ वर्ग के पंचम व्यंजन (ङ, ञ्, ण्, न्, म्) का प्रतिनिधि है, इसका उच्चारण पूर्ववर्ती स्वर के पश्चात् होता है। सामान्य भाषा में अनुस्वार को ‘बिन्दु’ तथा अनुनासिक को ‘अर्द्धबिन्दु’ (अथवा ‘चन्द्रबिन्दु’) भी कह दिया जाता है। अनुस्वार तथा अनुनासिक का अन्तर स्पष्ट न होने के कारण (भूल से) ‘गांधी’ को ‘गाँधी’ तथा ‘हँसी’ को ‘हंसी’ लिख दिया जाता है।
अपेक्षा-उपेक्षा
‘अपेक्षा’ का प्रयोग तुलना के प्रसंग में होता है।
‘उपेक्षा’ का अर्थ ‘उदासीनता’ है।
‘इस युवक को माता की अपेक्षा पिता से अधिक उपेक्षा मिलती रही है’।
अनैतिक-अवैतनिक
अ+नैतिक=अनैतिक, नैतिक आचरण के विपरीत, अन-इथीकल।
अ+वैतनिक=अवैतनिक, जिस कार्य के करने में वेतन स्वीकार किया गया हो, ऑनरेरी।
अभाव-प्रभाव
अ+भाव=अभाव, कमी अथवा लोप। ‘इसमें उत्साह का अभाव है।’
प्र+भाव=प्रभाव, असर। ‘उसके प्रभाव में यह भी धूम्र-पान करने लगा है’।
अगर-अगरु
‘अगर’ विदेशी शब्द है, इसका प्रयोग ‘यदि’ के स्थान पर होता है। ‘अगरु’ सुगन्धित वृक्ष की लकड़ी का नाम है, इसका उपयोग पूजा में सुगन्धि के लिए होता है। व्यापारी-लोग प्राय: ‘अगरु को ‘अगर’ भी बोलते और लिखते हैं, यथा ‘अगर-बत्ती’।
अग्रज- अंग्रेज
अग्र+ज=अग्रज, पहिले (=अग्र) जन्म लेने वाला पुरुष, बड़ा भाई। इसका विलोम शब्द अनु+ज= अनुज बनता है। ‘अग्रज और अनुज दोनों ने, तनिक परस्पर अवलोका’ – (पंचवटी)।
‘अंग्रेज’ ग्रेट ब्रिटेन में रहनेवाली एक जाति का नाम है। अंग्रेजी इसी जाति की भाषा को कहते हैं।
अचल-अंचल
अ+चल= अचल, पर्वत, जो चलता न हो। यथा ‘हिमालय’, ‘विन्ध्याचल’ आदि।
‘अंचल’ शब्द का अर्थ भाग अथवा क्षेत्र है। कपड़े के भाग (विशेषत: नारी के वस्त्र के भाग) को अंचल कहते हैं, यथा ‘छोड़ दो, अंचल, जमाना क्या होगा’। क्षेत्र के अर्थ के प्रयोग हैं-‘उत्तरांचल’, ‘पूर्वांचल’ आदि। इस अर्थ में विशेषण ‘आंचलिक’ बनता है; ‘आंचलिक उपन्यास’, ‘आंचलिक संस्कृति’ आदि।
अजात-आजाद
अ+जात=अजात, जिसने जन्म ही न लिया हो। यथा ‘अजातशत्रु’ अर्थात् जिसके शत्रु ने जन्म ही न लिया हो अर्थात् ‘सर्वप्रिय’। इतिहास में प्रसिद्ध एक राजा का नाम भी है।
‘आजाद’ विदेशी शब्द है, अर्थ है ‘स्वतन्त्र’ (प्राय: राजनीतिक स्वतंत्रता के अर्थ में)। नेताजी ने अंग्रेजों से युद्ध करने के लिए जो सेना खड़ी की थी उसका नाम ‘आजाद हिन्द फौज’ था।
अनल-अनिल
‘अनल’ अग्नि को कहते हैं। यथा दाव+अनल=दावानल, जठर+अनल= जठरानल।
‘अनिल’ वायु को कहते हैं। यथा मलय+अनिल=मलयानिल।
अन्तर-अन्तर्
‘अन्तर’ शब्द का प्रयोग ‘भिन्नता’ अथवा ‘दूरी’ के लिए होता है। ‘पुस्तक के प्रथम तथा द्वितीय संस्करणों में बहुत अन्तर है’, ‘दिल्ली से कलकत्ते का अन्तर....’।
‘अन्तर्’ भी तत्सम है। यथा ‘अन्तर्जातीय’, ‘अन्तर्देशीय’ आदि।
‘अन्तर्’ का प्रयोग ‘अन्त:’ के रूप में भी होता है, यथा ‘अन्त:करण’।
अनुकरण-अनुसरण
‘अनुकरण’ अथवा ‘अनुकृति’ शब्द का अर्थ ‘नकल’ है। यह नकल किसी दूसरे व्यक्ति के व्यवहार की होती है, उससे प्रभावित होने पर।
अनु+करण=अनुकरण।
अनु+सरण=अनुसरण, आंख बंद करके किसी के पीछे चलना।
अनुकरण में पहिले हम प्रभावित होते हैं, फिर उसका-सा व्यवहार करते है। ‘अनुकरण’ में सोचना-समझना प्रभावित होना नहीं होता।
अनुकूल-अनुरूप
‘अनुकूल’ शब्द का विलोम ‘प्रतिकूल’ है। प्राय: अनुकूल व्यवहार मानसिकता पर निर्भर है। ‘अनुकूल’ को मित्र तथा ‘प्रतिकूल’ को शत्रु (इसीलिए) समझा जाता है।
अनु+रूप=अनुरूप शब्द का व्यवहार ऐच्छिक तथा बाह्य होता है।
अनुसार-अनुस्वार
अनु+सार=अनुसार, अनुसरण करते हुए, ‘अकोर्डिंग टु’। ‘सूचना के अनुसार वे यहां छह बजे पहुंच रहे हैं। ‘अनुस्वार’ व्याकरण-शास्त्र का पारिभाषिक शब्द है। ‘अनुस्वार’ वर्ग के पंचम व्यंजन (ङ, ञ्, ण्, न्, म्) का प्रतिनिधि है, इसका उच्चारण पूर्ववर्ती स्वर के पश्चात् होता है। सामान्य भाषा में अनुस्वार को ‘बिन्दु’ तथा अनुनासिक को ‘अर्द्धबिन्दु’ (अथवा ‘चन्द्रबिन्दु’) भी कह दिया जाता है। अनुस्वार तथा अनुनासिक का अन्तर स्पष्ट न होने के कारण (भूल से) ‘गांधी’ को ‘गाँधी’ तथा ‘हँसी’ को ‘हंसी’ लिख दिया जाता है।
अपेक्षा-उपेक्षा
‘अपेक्षा’ का प्रयोग तुलना के प्रसंग में होता है।
‘उपेक्षा’ का अर्थ ‘उदासीनता’ है।
‘इस युवक को माता की अपेक्षा पिता से अधिक उपेक्षा मिलती रही है’।
अनैतिक-अवैतनिक
अ+नैतिक=अनैतिक, नैतिक आचरण के विपरीत, अन-इथीकल।
अ+वैतनिक=अवैतनिक, जिस कार्य के करने में वेतन स्वीकार किया गया हो, ऑनरेरी।
अभाव-प्रभाव
अ+भाव=अभाव, कमी अथवा लोप। ‘इसमें उत्साह का अभाव है।’
प्र+भाव=प्रभाव, असर। ‘उसके प्रभाव में यह भी धूम्र-पान करने लगा है’।
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लोगों की राय
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