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लेख-निबंध >> जीप पर सवार इल्लियाँ

जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6839
आईएसबीएन :9788171783946

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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...


एक शंख बिन कुतुबनुमा

जिसे कहते हें दिव्य, वे ऐसे ही लग रहे थे। किसी त्वचा मुलायम करनेवाले साबुन से सद्यः नहाए हुए। उन्नत ललाट और उस पर अपेक्षाकृत अधिक उन्नत टीका, लाल और हल्के पीले से मिला ईटवाला शेड। यह रंग कहीं बुशर्ट का होता तो आधुनिक होता। टीके का था तो पुराना, मगर क्या कहने। बाल लम्बे और बिखरे हुए, स्वच्छ बनियान और श्वेत धोतिका (मेरे खयाल से प्राचीन काल में जरूर धोती को धोतिका कहते होंगे), चरणों में खड़-खड़ निनाद करनेवाले खड़ाऊँ। किसी गहरे प्रोग्राम की सम्भावना में डूबी आँखें, हाथ में एक नग उपयोगी शंख। सब कुछ चारू, मारु और विशिष्ट।

उस समय सूर्य चौराहे के ऊपर था। लंच की भारतीय परम्परा के अनुसार डटकर भोजन करने के उपरान्त मैं पान खाने की संस्कृति का मारा चौराहे पर गया हुआ था। वहीं मैंने उस तेजोमय व्यक्तित्व के दर्शन किए।


'बाबू उत्तर कहीं है, किस ओर है?'
मुझे अपने प्रति यह बाबू सम्बोधन अच्छा नहीं लगा। आज मैं सरकारी नौकरी में बना रहता, तो प्रमोशन पाकर छोटा-मोटा अफसर हो गया होता और एक छोटे-से दायरे में साहब कहलाता। खैर, मैंने माइंड नहीं किया। जिस तरह दार्शनिक उलझाव में फँसा हुआ व्यक्ति जीवन के चौराहे पर खड़ा हो एक गम्भीर प्रश्न मन में लिए व्याकुल स्वरों में पुकारे कि उत्तर कहाँ है, कुछ उसी तरह। मैंने मन में समझ लिया कि किसी छायावादी आलोचक की कोई पुस्तक इस व्यक्ति के लिए मुफीद होगी। अपने स्वरों में एक किस्म की जैनेन्द्री गम्भीरता लाकर मैंने पूछा-'कैसा उत्तर भाई, तुम्हारा प्रश्न क्या है?'

अपने दिव्य नेत्रों से उन्होंने मेरी ओर यों देखा, जैसे वे किसी परम मूर्ख की ओर देख रहे हों और बोले, 'मैं उत्तर दिशा को पूछ रहा हूँ बाबू!'
यह सुन मेरा तत्काल भारतीयकरण हो गया। दार्शनिक ऊँचाई से गिरकर एकदम सड़क-छाप स्थिति।
'आपको कहीं जाना है?' मैंने सीधे सवाल किया। शहरों में यही होता है। अगर कोई व्यक्ति दूसरे से पूछे कि पाँच नम्बर बस कहां जाती है, तो जवाब में सुनने को मिलता है कि आपको कहां जाना है? राह कोई नहीं बताता, सब लक्ष्य पूछते हैं, जो उनका नहीं है।

'उत्तर दिशा किस तरफ है बाबू आप पढ़े-लिखे हैं, इतना तो बता सकते हैं...?'
मुझे अच्छा नहीं लगा। हर बात के लिए शिक्षा-प्रणाली को दोषी मानना ठीक नहीं। पढ़े-लिखे लोगों को उत्तर मालूम होता, तो अब तक देश के सभी प्रश्न सुलझ जाते। जहाँ तक मेरी स्थिति है, सही उत्तर मैंने परीक्षा भवन में नहीं दिया, तो यह तो चौराहा है। मैं क्यों देता? और क्या देता?

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