नारी विमर्श >> गोली गोलीआचार्य चतुरसेन
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राजस्थान के राजों-महाराजों और उनकी दासियों के बीच वासना-व्यापार पर ऐतिहासिक कथा-लेखक आचार्य चतुरसेन की कलम से निकला अत्यन्त मार्मिक एवं रोचक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘चिकित्सक के नाते धीरे-धीरे राजस्थान के राजवर्गी
जनों से मेरा सम्पर्क बढ़ा और शीघ्र ही उनके रनिवासों में मेरी पैठ हो गई।
बड़े-बड़े अनहोने चित्र और मानव-चरित्र मेरे सामने आए। बहुत से
राजा-महाराजों के, रानियों के भीतरी आर्तनाद, दुर्बलताएं, मूर्खताएं,
कुत्साएं मुझ पर प्रकट होने लगीं।... और मैं इतिहास में रूचि रखने लगा।
ऐसे मिली लिखने की महती प्रेरणा।’’
आचार्य चतुरसेन
ऐतिहासिक कथा-लेखक के सर्वाधिक प्रसद्धि स्तंभ आचार्य चतुरसेन ने इस
उपन्यास में राजस्थान के रजवाड़ों और उनके रंगमहलों की भीतरी ज़िन्दगी का
बड़ा मार्मिक, रोचक और मनोरंजक चित्रण किया है। उसी परिवेश की एक बदनसीब
गोली की करुण-कथा, जो जीवन-भर राजा की वासना का शिकार बनती रही और उसका
पति उसे छूने का साहस भी नहीं कर सका।
यह विशिष्ट संस्करण सम्पूर्ण मूल पाठ है। इसलिए इसे हमेशा प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में समझा जाएगा।
यह विशिष्ट संस्करण सम्पूर्ण मूल पाठ है। इसलिए इसे हमेशा प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में समझा जाएगा।
गोली
‘‘मैं गोली हूं।
कलमुंहें विधाता ने मुझे जो रूप दिया है,
राजा इसका दीवाना था,
प्रेमी-पतंगा था।
मैं रंगमहल की रोशनी थी।
दिन में, रात में, वह मुझे निहारता।
कभी चम्पा कहता, कभी चमेली...।’’
कलमुंहें विधाता ने मुझे जो रूप दिया है,
राजा इसका दीवाना था,
प्रेमी-पतंगा था।
मैं रंगमहल की रोशनी थी।
दिन में, रात में, वह मुझे निहारता।
कभी चम्पा कहता, कभी चमेली...।’’
यह ‘गोली’ की नायिका चम्पा कहती है।
सुप्रसिद्ध उपन्यासकार आचार्य चतुरसेन ने इस अत्यंत रोचक उपन्यास में राजस्थान के राजमहलों में राजों-महाराजों और उनकी दासियों के बीच चलने वाले वासना-व्यापार के ऐसे मादक चित्र प्रस्तुत किए हैं कि उन्हें पढ़कर आप हैरत में पड़ जाएंगे।
सुप्रसिद्ध उपन्यासकार आचार्य चतुरसेन ने इस अत्यंत रोचक उपन्यास में राजस्थान के राजमहलों में राजों-महाराजों और उनकी दासियों के बीच चलने वाले वासना-व्यापार के ऐसे मादक चित्र प्रस्तुत किए हैं कि उन्हें पढ़कर आप हैरत में पड़ जाएंगे।
गोली...
जिसने बिना शस्त्र ग्रहण किए एक ही वर्ष में इतना बड़ा अखण्ड चक्रवर्ती
राज्य स्थापित कर दिया- जितना न राम का था न कृष्ण का, न अशोक का था न
अकबर का, न लहरों के स्वामी ब्रिटेन का। शरीर उसने अपनी इकलौती बेटी को
सौंप दिया और चेतना अपनी जन्म-भूमि को अर्पित की। पुत्री रात-दिन सेवा-रत
रहती। समय बचाकर सूत कातती। उसी सूत से उसका कुर्ता बनता, धोती बनती। और
जब वह फट जाते तो पुत्री मणि उन्हीं को काट-कूटकर अपनी साड़ी-कुर्ती
बनाती। यही था उस परम सत्व का जीवन-वैभव ! अपने ही में सम्पन्न, अपने ही
में परिपूर्ण !! उन्हीं विश्व के अप्रतिम अपने ही में सम्पन्न, अपने ही
में परिपूर्ण !! उन्ही विश्व के अप्रतिम राजनीति-चक्रवर्ती सार्वभौम सरदार
वल्लभ भाई पटेल की दिवगंत पावन आत्मा को मेरा यह उपन्यास
‘गोली’ सादर समर्पित है।
चतुरसेन
टूटे हुए सिंहासन चीत्कार कर उठे
इस वर्ष मैंने 65वां वर्ष समाप्त कर 66 वें में पदार्पण किया। यह पदार्पण
शुभ है या अशुभ, यह बात अदृष्ट और भविष्य पर निर्भर हैं। स्वास्थ्य मेरा
निरंतर गिरता जा रहा है और इस समय तो मैं अस्वस्थ्य हूं। गत जून मास में
मसूरी गया था, वहीं से घुटनों का दर्द शुरू हो गया। इसी सप्ताह एक्सरे
कराया तो पता लगा, जोड़ बढ़ गए हैं। मूल-ग्रंथियों में भी विकार उत्पन्न
हो गया हैं। इन कारणों से चलने-फिरने से लाचार और कमजोर भी हो गया हूँ।
मानसिक व्याधि शरीर-व्याधि से भी ऊपर है। फिर भी मैं चलता-फिरता हूँ काम
भी करता हूँ। शरीर-व्याधि की अपेक्षा मानसिक व्याधि पर मैंने अधिक सफलता
प्राप्त की है। गत वर्ष इसी अवसर पर मैंने कहा था, ‘मेरे आनंद
में सबका हिस्सा है, केवल मेरा दर्द मेरे लिए हैं।’ आज भी मैं
अपने इस वचन को दुहराता हूं। इन दिनों मैंने एक नई अनुभूति प्राप्त को
है-दर्द की प्यार में विसर्जन। मेरी इसी नई अनुभूति ने मुझसे नया उपन्यास
‘गोली’ लिखवा डाला है, जिसकी नायिका चंपा का मैंने
‘दर्द का प्यार में विसर्जन’ की मनोभूमि में श्रृंगार
किया है। इस श्रृंगार का देवता है किसुन। मैं जानता हूं, मेरी इस चंपा को
आप कभी भूलेंगे नहीं। चंपा के दर्द की एक-एक टीस आप एक बहुमूल्य रत्न की
भांति अपने हृदय में संजोकर रखेंगे। किसुन के दर्द की परवाह करने की आपको
आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि देवताओं को दर्द व्यापता नहीं है।
एक बात और है। अपनी शारीरिक और मानसिक-दोनों ही व्याधियों को मैंने अपने परिश्रम से थका डाला है। आप कदाचित् विश्वास न करें कि यह अस्वस्थ और भग्न पुरूष जीवन के समूचे भार को ढोता हुआ आज भी निरंतर 12 से 18 घंटे तक अपनी मेज पर झुका बैठा रहता है। बहुधा उसका खाना-पीना और कभी-कभी सोना भी वहीं संपन्न हो जाता है। अपने मन को हल्का करने की मैंने अद्भुत विधि निकाली है। अपने आनंद और हास्य को तो मैं अपने मित्रों में बिखेरता रहता हूं और दर्द को अपने पात्रों को बांट देता हूं। अपने पास कुछ नहीं रखता। इसके अतिरिक्त मुझे एक अकल्पित-अतर्कित दौलत तभी मिल गई-मुन्नी। पैंसठ वर्ष की आयु में विधाता ने मुझे अचानक ही एक पुत्री का पिता बनाकर अच्छा मसखरापन किया। मुन्नी मुझे अब एक नया पाठ पढ़ा रही है, निर्द्वंद्व हंसते रहने का। अब तक मेरी जीवन-संगिनी अकेली मेरी कलम थी, जो आधी शताब्दी से अखंड चल रही है। अब तो जीवन-संगिनी हो गई-दूसरी हमारी मुन्नी। दोनों की दो राहें हैं-कलम रुलाती है, मुन्नी हंसाती है। आनंद कहां अधिक पाता हूँ सो नहीं जानता। आप मुझे मूढ़ कह सकते हैं, सो मूढ़ तो मैं हूं ही।
जीवन से मोह मुझे सदा ही रहा है, आज भी है। मुन्नी ने उसमें और इजाफा किया है। पर शरीर-धर्म तो अपनी राह चलेगा ही। मैं इन बातों पर ध्यान नहीं देता। पर इस जन्मदिन ने मेरा ध्यान इधर खींच लिया। सो शरीर अपनी राह पर जाए, मुझे चिंता नहीं हैं, मैं तो अपना काम ईमानदारी से कर रहा हूं। जब तक संभव होगा, करता रहूंगा। इस वर्ष परिश्रम मैंने बहुत-बहुत किया, पर नाम लेने योग्य ग्रंथ तो एक ही दिया-‘गोली’। परंतु इसके अतिरिक्त भी इस जन्मदिवस के क्षण में अपने चिर साध्य ‘भारतीय संस्कृति के इतिहास’ की पांडुलिपि की समाप्ति पर भी हस्ताक्षर किए।
जब से ‘गोली’ का साप्ताहिक हिंदुस्तान में धारावाही रूप में छपना आरंभ हुआ, मेरे पास इसके संबंध में पत्रों का तांता बंध गया। यह सिलसिला अब भी टूटा नहीं है। इनमें जो प्रशंसात्मक थे, उन्हें पढ़कर मैं खुश हुआ और चूमकर चुपचाप रख लिया, जवाब नहीं दिया। परंतु जिनमें शंकाएं होती थीं, आलोचना होती थी या कुछ पूछा जाता था, उनका जवाब तो देना ही पड़ता था। फिर भी कुछ पत्र ऐसे आए हैं जिनका जवाब चुपचाप देना मैं उचित नहीं समझता। उन्हें मैं जवाब ऊंची आवाज में देना चाहता हूँ ताकि और बहरे कान भी उसे सुन लें। कुछ पत्र मेरे पास इस अभिप्राय के आए हैं जिनमें पूछा गया है कि इस उपन्यास को आपने क्यों लिखा हैं ? कहीं आप राजा-महाराजाओं की पेंशन तो बंद करना नहीं चाहते ? या इन गोली-गुलाम दारोगाओं-को भी पेंशन का हकदार बनाना चाहते हैं ? कुछ पत्र इनसे भी दो कदम आगे हैं। उनका कहना है- कदाचित् आप ऐसा साहित्य लिखकर अपना मुंह बंद करने के एवज में राजा-महाराजाओं से लाख-पचास हजार रूपया घूस में ऐंठ लेना चाहते हैं।
अफसोस है कि मेरा इस प्रकार का कोई उद्देश्य नहीं हैं। मैंने तो राजस्थान के साठ हजार निरीह नर-नारियों की एक इकाई के रूप में चंपा और किसुन को आपके सामने उपस्थित किया है। चंपा एक ऐसी नारी हैं जिसकी समता की स्त्री आप संसार के पर्दें पर नहीं ढूंढ़ सकते। जिसका व्यक्तित्व निराला है, जीवन निराला है, आदर्श भी निराले हैं, धर्म निराला है, सुख-दुःख और संसार निराला है। जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। उसका और जिन साठ हजार नर-नारियों का वह प्रतिनिधित्व करती है, यह अदभूत-अतर्कित जीवन राजस्थान के राजओं-रईसों ने दिया है। दुनिया में भारतीय राजाओं के बड़े-बड़े ऐश्वर्य के किस्से सुने होंगे। पर इन साठ हजार नर-नारियों की दर्दनाक चीत्कार तो मैं ही विश्व के कानों में पहुंचा रहा हूं।
एक बात और है। अपनी शारीरिक और मानसिक-दोनों ही व्याधियों को मैंने अपने परिश्रम से थका डाला है। आप कदाचित् विश्वास न करें कि यह अस्वस्थ और भग्न पुरूष जीवन के समूचे भार को ढोता हुआ आज भी निरंतर 12 से 18 घंटे तक अपनी मेज पर झुका बैठा रहता है। बहुधा उसका खाना-पीना और कभी-कभी सोना भी वहीं संपन्न हो जाता है। अपने मन को हल्का करने की मैंने अद्भुत विधि निकाली है। अपने आनंद और हास्य को तो मैं अपने मित्रों में बिखेरता रहता हूं और दर्द को अपने पात्रों को बांट देता हूं। अपने पास कुछ नहीं रखता। इसके अतिरिक्त मुझे एक अकल्पित-अतर्कित दौलत तभी मिल गई-मुन्नी। पैंसठ वर्ष की आयु में विधाता ने मुझे अचानक ही एक पुत्री का पिता बनाकर अच्छा मसखरापन किया। मुन्नी मुझे अब एक नया पाठ पढ़ा रही है, निर्द्वंद्व हंसते रहने का। अब तक मेरी जीवन-संगिनी अकेली मेरी कलम थी, जो आधी शताब्दी से अखंड चल रही है। अब तो जीवन-संगिनी हो गई-दूसरी हमारी मुन्नी। दोनों की दो राहें हैं-कलम रुलाती है, मुन्नी हंसाती है। आनंद कहां अधिक पाता हूँ सो नहीं जानता। आप मुझे मूढ़ कह सकते हैं, सो मूढ़ तो मैं हूं ही।
जीवन से मोह मुझे सदा ही रहा है, आज भी है। मुन्नी ने उसमें और इजाफा किया है। पर शरीर-धर्म तो अपनी राह चलेगा ही। मैं इन बातों पर ध्यान नहीं देता। पर इस जन्मदिन ने मेरा ध्यान इधर खींच लिया। सो शरीर अपनी राह पर जाए, मुझे चिंता नहीं हैं, मैं तो अपना काम ईमानदारी से कर रहा हूं। जब तक संभव होगा, करता रहूंगा। इस वर्ष परिश्रम मैंने बहुत-बहुत किया, पर नाम लेने योग्य ग्रंथ तो एक ही दिया-‘गोली’। परंतु इसके अतिरिक्त भी इस जन्मदिवस के क्षण में अपने चिर साध्य ‘भारतीय संस्कृति के इतिहास’ की पांडुलिपि की समाप्ति पर भी हस्ताक्षर किए।
जब से ‘गोली’ का साप्ताहिक हिंदुस्तान में धारावाही रूप में छपना आरंभ हुआ, मेरे पास इसके संबंध में पत्रों का तांता बंध गया। यह सिलसिला अब भी टूटा नहीं है। इनमें जो प्रशंसात्मक थे, उन्हें पढ़कर मैं खुश हुआ और चूमकर चुपचाप रख लिया, जवाब नहीं दिया। परंतु जिनमें शंकाएं होती थीं, आलोचना होती थी या कुछ पूछा जाता था, उनका जवाब तो देना ही पड़ता था। फिर भी कुछ पत्र ऐसे आए हैं जिनका जवाब चुपचाप देना मैं उचित नहीं समझता। उन्हें मैं जवाब ऊंची आवाज में देना चाहता हूँ ताकि और बहरे कान भी उसे सुन लें। कुछ पत्र मेरे पास इस अभिप्राय के आए हैं जिनमें पूछा गया है कि इस उपन्यास को आपने क्यों लिखा हैं ? कहीं आप राजा-महाराजाओं की पेंशन तो बंद करना नहीं चाहते ? या इन गोली-गुलाम दारोगाओं-को भी पेंशन का हकदार बनाना चाहते हैं ? कुछ पत्र इनसे भी दो कदम आगे हैं। उनका कहना है- कदाचित् आप ऐसा साहित्य लिखकर अपना मुंह बंद करने के एवज में राजा-महाराजाओं से लाख-पचास हजार रूपया घूस में ऐंठ लेना चाहते हैं।
अफसोस है कि मेरा इस प्रकार का कोई उद्देश्य नहीं हैं। मैंने तो राजस्थान के साठ हजार निरीह नर-नारियों की एक इकाई के रूप में चंपा और किसुन को आपके सामने उपस्थित किया है। चंपा एक ऐसी नारी हैं जिसकी समता की स्त्री आप संसार के पर्दें पर नहीं ढूंढ़ सकते। जिसका व्यक्तित्व निराला है, जीवन निराला है, आदर्श भी निराले हैं, धर्म निराला है, सुख-दुःख और संसार निराला है। जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। उसका और जिन साठ हजार नर-नारियों का वह प्रतिनिधित्व करती है, यह अदभूत-अतर्कित जीवन राजस्थान के राजओं-रईसों ने दिया है। दुनिया में भारतीय राजाओं के बड़े-बड़े ऐश्वर्य के किस्से सुने होंगे। पर इन साठ हजार नर-नारियों की दर्दनाक चीत्कार तो मैं ही विश्व के कानों में पहुंचा रहा हूं।
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