स्वास्थ्य-चिकित्सा >> रोगों का प्राकृतिक उपचार रोगों का प्राकृतिक उपचारहरिकृष्ण बाखरू
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प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध तत्त्वों का उचित उपयोग कर के रोग के मूल कारण को समाप्त करना...
प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली चिकित्सा की एक रचनात्मक विधि है, जिसका
लक्ष्य प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध तत्त्वों के उचित इस्तेमाल
द्वारा रोग का मूल कारण समाप्त करना है। यह न केवल एक चिकित्सा पद्धति है
बल्कि मानव शरीर में उपस्थित आंतरिक महत्त्वपूर्ण शक्तियों या प्राकृतिक
तत्त्वों के अनुरूप एक जीवन-शैली है। यह जीवन कला तथा विज्ञान में एक
संपूर्ण क्रांति है।
इस प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में प्राकृतिक भोजन, विशेषकर ताजे फल तथा कच्ची व हलकी पकी सब्जियाँ विभिन्न बीमारियों के इलाज में निर्णायक भूमिका निभाती हैं। यह मेरे स्वयं के मामले में सही-सही प्रमाणित हुआ है। मैं सोलह वर्ष की उम्र से ही विभिन्न प्रकार के रोगों से पीड़ित था और लगभग चालीस वर्षों तक मैंने बहुत शारीरिक कष्ट तथा मानसिक यंत्रणा सही। किसी भी चिकित्सा प्रणाली से कोई लाभ न देखकर मैंने काफी देर से, यानी पचपन वर्ष की उम्र में, प्राकृतिक चिकित्सा विधियों का आश्रय लेने का निर्णय, किया, जिससे मुझे बहुत लाभ हुआ।
इसने मुझे खाद्य पदार्थों, खासकर, ताजे फलों तथा सब्जियों के चिकित्सीय गुणों को पहचानने में मदद की और मैने कई प्रतिष्ठित समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में इस विषय पर बहुत से लेख लिखे। पाठकों की प्रतिक्रियाएँ बहुत उत्साहजनक थीं। इसने मुझे गहराई से इस विषय का अध्ययन करने तथा पुस्तक के रूप में उसे प्रस्तुत करने के लिए प्रोस्ताहित किया। इस पुस्तक में अन्य जानकारियों के अलावा विशिष्ट रोगों के उपचार में विभिन्न फलों व सब्जियों के इस्तेमाल के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है।
मैं अपनी छोटी उम्र से ही बहुत सी गंभीर बीमारियों से पीड़ित था। सोलह वर्ष की उम्र में मुझे प्लूरिसी (फेफड़े की झिल्ली की सूजन) और लंबे समय तक टाइफाइड हुआ। इन दोनों रोगों से मैं अत्यंत कमजोर हो गया। बाद के वर्षों में मैं कई गंभीर रोगों से जूझता रहा, जिनमें कलेजे की जलन के साथ अति अम्लता (हाइपरएसिडिटी) श्वसन समस्या ब्रेन ट्यूमर आँत का अल्सर, स्पॉण्डिलाइटिस, माइलेजिया, ग्रास नली के पेप्टिक अल्सर के साथ हायटस हर्निया संभावित हृदय रोग अनिद्रा पीठ दर्द और प्रोस्टेट वृद्धि जैसे रोग शामिल थे।
आधुनिक चिकित्सा पद्धति से इनमें मुझे कोई लाभ नहीं पहुँचा और मैं चालीस वर्षों तक शारीरिक पीड़ा एवं मानसिक विक्षोभ से जूझता रहा। जब पचपन वर्ष की उम्र में मैंने प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली का आश्रय लेने का फैसला किया तो मुख्यतः आहार नियंत्रण द्वारा ही मैं विभिन्न प्रकार की गंभीर अक्षमताओं को नियंत्रित करने में सफल हुआ। इससे मुझे यकीन हो गया कि उपयुक्त आहार रोगों को समाप्त करने और स्वास्थ्य तथा जीवंतता बहाल करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। निजी अनुभव पर आधारित इस विश्वास ने ही मुझे इस विषय पर लिखने के लिए प्रेरित किया।
इस प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में प्राकृतिक भोजन, विशेषकर ताजे फल तथा कच्ची व हलकी पकी सब्जियाँ विभिन्न बीमारियों के इलाज में निर्णायक भूमिका निभाती हैं। यह मेरे स्वयं के मामले में सही-सही प्रमाणित हुआ है। मैं सोलह वर्ष की उम्र से ही विभिन्न प्रकार के रोगों से पीड़ित था और लगभग चालीस वर्षों तक मैंने बहुत शारीरिक कष्ट तथा मानसिक यंत्रणा सही। किसी भी चिकित्सा प्रणाली से कोई लाभ न देखकर मैंने काफी देर से, यानी पचपन वर्ष की उम्र में, प्राकृतिक चिकित्सा विधियों का आश्रय लेने का निर्णय, किया, जिससे मुझे बहुत लाभ हुआ।
इसने मुझे खाद्य पदार्थों, खासकर, ताजे फलों तथा सब्जियों के चिकित्सीय गुणों को पहचानने में मदद की और मैने कई प्रतिष्ठित समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में इस विषय पर बहुत से लेख लिखे। पाठकों की प्रतिक्रियाएँ बहुत उत्साहजनक थीं। इसने मुझे गहराई से इस विषय का अध्ययन करने तथा पुस्तक के रूप में उसे प्रस्तुत करने के लिए प्रोस्ताहित किया। इस पुस्तक में अन्य जानकारियों के अलावा विशिष्ट रोगों के उपचार में विभिन्न फलों व सब्जियों के इस्तेमाल के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है।
मैं अपनी छोटी उम्र से ही बहुत सी गंभीर बीमारियों से पीड़ित था। सोलह वर्ष की उम्र में मुझे प्लूरिसी (फेफड़े की झिल्ली की सूजन) और लंबे समय तक टाइफाइड हुआ। इन दोनों रोगों से मैं अत्यंत कमजोर हो गया। बाद के वर्षों में मैं कई गंभीर रोगों से जूझता रहा, जिनमें कलेजे की जलन के साथ अति अम्लता (हाइपरएसिडिटी) श्वसन समस्या ब्रेन ट्यूमर आँत का अल्सर, स्पॉण्डिलाइटिस, माइलेजिया, ग्रास नली के पेप्टिक अल्सर के साथ हायटस हर्निया संभावित हृदय रोग अनिद्रा पीठ दर्द और प्रोस्टेट वृद्धि जैसे रोग शामिल थे।
आधुनिक चिकित्सा पद्धति से इनमें मुझे कोई लाभ नहीं पहुँचा और मैं चालीस वर्षों तक शारीरिक पीड़ा एवं मानसिक विक्षोभ से जूझता रहा। जब पचपन वर्ष की उम्र में मैंने प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली का आश्रय लेने का फैसला किया तो मुख्यतः आहार नियंत्रण द्वारा ही मैं विभिन्न प्रकार की गंभीर अक्षमताओं को नियंत्रित करने में सफल हुआ। इससे मुझे यकीन हो गया कि उपयुक्त आहार रोगों को समाप्त करने और स्वास्थ्य तथा जीवंतता बहाल करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। निजी अनुभव पर आधारित इस विश्वास ने ही मुझे इस विषय पर लिखने के लिए प्रेरित किया।
हरिकृष्ण बाखरू
अस्थमा
अस्थमा या दमा एक अथवा एक से अधिक पदार्थों (एलर्जेन) के प्रति शारीरिक
प्रणाली की अस्वीकृति (एलर्जी) है। इसका अर्थ है कि हमारे शरीर की प्रणाली
उन विशेष पदार्थों को सहन नहीं कर पाती और जिस रूप में अपनी प्रतिक्रिया
या विरोध प्रकट करती है, उसे एलर्जी कहते हैं। हमारी श्वसन प्रणाली जब
किन्हीं एलर्जेंस के प्रति एलर्जी प्रकट करती है तो वह अस्थमा होता है। यह
साँस संबंधी रोगों में सबसे अधिक कष्टदायी है। अस्थमा के रोगी को सांस
फूलने या साँस न आने के दौरे बार-बार पड़ते हैं और उन दौरों के बीच वह
अकसर पूरी तरह सामान्य भी हो जाता है।
‘अस्थमा यूनानी शब्द है, जिसका अर्थ है-जल्दी-जल्दी साँस लेना या साँस लेने के लिए जोर लगाना। जब किसी व्यक्ति को अस्थमा का दौरा पड़ता है तो वह सामान्य साँस के लिए भी गहरी-गहरी या लंबी-लंबी साँस लेता है; नाक से ली गई साँस कम पड़ती है तो मुँह खोलकर साँस लेता है। वास्तव में रोगी को साँस लेने की बजाय साँस बाहर निकालने में ज्यादा कठिनाई होती है, क्योंकि फेफड़े के भीतर की छोटी-छोटी वायु नलियाँ जकड़ जाती हैं और दूषित वायु को बाहर निकालने के लिए उन्हें जितना सिकुड़ना चाहिए उतना वे नहीं सिकुड़ पातीं। परिणामस्वरूप रोगी के फेफड़े फूल जाते हैं, क्योंकि रोगी अगली साँस भीतर खींचने से पहले खिंची हुई साँस की हवा को ठीक से बाहर नहीं निकाल पाता।
‘अस्थमा यूनानी शब्द है, जिसका अर्थ है-जल्दी-जल्दी साँस लेना या साँस लेने के लिए जोर लगाना। जब किसी व्यक्ति को अस्थमा का दौरा पड़ता है तो वह सामान्य साँस के लिए भी गहरी-गहरी या लंबी-लंबी साँस लेता है; नाक से ली गई साँस कम पड़ती है तो मुँह खोलकर साँस लेता है। वास्तव में रोगी को साँस लेने की बजाय साँस बाहर निकालने में ज्यादा कठिनाई होती है, क्योंकि फेफड़े के भीतर की छोटी-छोटी वायु नलियाँ जकड़ जाती हैं और दूषित वायु को बाहर निकालने के लिए उन्हें जितना सिकुड़ना चाहिए उतना वे नहीं सिकुड़ पातीं। परिणामस्वरूप रोगी के फेफड़े फूल जाते हैं, क्योंकि रोगी अगली साँस भीतर खींचने से पहले खिंची हुई साँस की हवा को ठीक से बाहर नहीं निकाल पाता।
लक्षण
अस्थमा या तो धीरे-धीरे उभरता है अथवा एकाएक भड़कता है। जब अस्थमा या दमा
एकाएक भड़कता है तो उससे पहले खाँसी का दौरा होता है, किंतु जब दमा
धीरे-धीरे उभरता है तो उससे पहले आमतौर पर श्वास प्रणाली में संक्रमण हो
जाया करता है। अस्थमा का दौरा जब तेज होता है तो दिल की धड़कन और साँस
लेने की रफ्तार दोनों बढ़ जाती हैं तथा रोगी बेचैन व थका हुआ महसूस करता
है। उसे खाँसी आ सकती है, सीने में जकड़न महसूस हो सकती है, बहुत अधिक
पसीना आ सकता है और उलटी भी हो सकती है। दमे के दौरे के समय सीने से
आनेवाली साँय-साँय की आवाज तंग श्वास नलियों के भीतर से हवा बाहर निकलने
के कारण आती है। अस्थमा के सभी रोगियों को रात के समय, खासकर सोते हुए,
ज्यादा कठिनाई महसूस होती है।
कारण
अस्थमा कई कारणों से हो सकता है। अनेक लोगों में यह एलर्जी मौसम, खाद्य
पदार्थ, दवाइयाँ इत्र, परफ्यूम जैसी खुशबू और कुछ अन्य प्रकार के पदार्थों
से हो सकता हैं; कुछ लोग रुई के बारीक रेशे, आटे की धूल, कागज की धूल, कुछ
फूलों के पराग, पशुओं के बाल, फफूँद और कॉकरोज जैसे कीड़े के प्रति
एलर्जित होते हैं। जिन खाद्य पदार्थों से आमतौर पर एलर्जी होती है उनमें
गेहूँ, आटा दूध, चॉकलेट, बींस की फलियाँ, आलू, सूअर और गाय का मांस
इत्यादि शामिल हैं। कुछ अन्य लोगों के शरीर का रसायन असामान्य होता है,
जिसमें उनके शरीर के एंजाइम या फेफड़ों के भीतर मांसपेशियों की दोषपूर्ण
प्रक्रिया शामिल होती है। अनेक बार दमा एलर्जिक और गैर- एलर्जीवाली
स्थितियों के मेल से भड़कता है, जिसमें भावनात्मक दबाव, वायु प्रदूषण,
विभिन्न संक्रमण और आनुवंशिक कारण शामिल हैं। एक अनुमान के अनुसार, जब
माता-पिता दोनों को अस्थमा या हे फीवर (Hay Fever) होता है तो ऐसे 75 से
100 प्रतिशत माता-पिता के बच्चों में भी एलर्जी की संभावनाएँ पाई जाती
हैं।
उपचार
दमा के प्राकृतिक उपचार में निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं-
सुस्ती या कमजोर निर्गमन अंगों को बल प्रदान करना। रोगी पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने के लिए समुचित आहार कार्यक्रम अपनाना। शरीर का पुनर्निमाण करना अथवा शरीर की कमजोरी को दूर करना। योगासन और प्राणायाम का अभ्यास करना, ताकि भोजन ठीक तरह से हजम होकर शरीर को लगे। फेफड़ों को बल मिले, उनमें लचीलापन आए, पाचन क्रिया सुधरे और तेज हो तथा श्वास प्रणाली बलशाली हो। रोगी को एनीमा देकर उसकी आँतों की सफाई करना चाहिए, ताकि उनके भीतर विसंगति न पनप सके। पेट पर गीली पट्टी रखने से बिना पचे हुए खाद्य पदार्थ सड़ नहीं पाएँगे और आँतों की क्रिया तेज होने के कारण, जल्दी ही पानी में भीगा कपड़ा रखने से फेफड़ों की जकड़न कम होती है और उन्हें बल मिलता है। रोगी को भाप, स्नान कराकर उसका पसीना बहाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त उसे गरम पानी में कूल्हों तक या पाँव डालकर बैठाया जा सकता है और धूप स्नान भी करवाया जा सकता है। इससे त्वचा उत्तेजित होगी और उसे बल मिलेगा तथा फेफड़ों की जकड़न दूर होगी।
अपने शरीर की प्रणाली को पोषक तत्त्व प्रदान करने के लिए और हानिकारक तत्त्व बाहर निकालने के लिए रोगी को कुछ दिन तक ताजे फलों का रस ही लेना चाहिए, और कुछ नहीं। इस उपचार के दौरान उसे ताजा फलों के एक गिलास रस में उतना ही पानी मिलाकर दो-दो घंटे के बाद सुबह आठ बजे से शाम आठ बजे तक लेना चाहिए। बाद में धीरे-धीरे ठोस पदार्थ भी शामिल किए जा सकते हैं। किंतु रोगी को सामान्य किस्म की भोजन संबंधी गलतियों से दूर रहना चाहिए। यदि उसके आहार में कार्बोहाइड्रेट चिकनाई एवं प्रोटीन जैसे तेजाब बनाने वाले पदार्थ सीमित मात्रा में रहें और ताजे फल, हरी सब्जियाँ तथा अंकुरित चने जैसे क्षारीय खाद्य पदार्थ भरपूर मात्रा में रहें तो सबसे अच्छा रहता है।
चावल, शक्कर, तिल और दही जैसे कफ या बलगम बनाने वाले पदार्थ तथा तले हुए एवं गरिष्ठ खाद्य पदार्थ न ही खाए जाएँ तो अच्छा है।
अस्थमा के रोगियों को अपनी क्षमता से कम ही खाना चाहिए। उन्हें धीरे-धीरे और अपने भोजन को चबा-चबाकर खाना चाहिए। उन्हें प्रतिदिन कम से कम आठ से दस गिलास पानी पीना चाहिए। भोजन के साथ पानी या किसी तरह का तरल पदार्थ लेने से परहेज करना चाहिए। तेज मसाले, मिर्च अचार बहुत अधिक चाय कॉफी इत्यादि से भी दूर रहना चाहिए।
दमा, विशेषकर तेज दमे का दौरा, हाजमे को खराब करता है। ऐसे मामलों में रोगी पर खाने के लिए जोर मत दीजिए, ऐसे मामलों में जब तक दमे का दौरा दूर न हो जाए तब तक रोगी को लगभग उपवास करने दीजिए। रोगी हर दो घंटे के बाद एक प्याला गरम पानी पी सकता है। ऐसे मामले में यदि रोगी एनीमा लेता है तो उसे बहुत फायदा होता है।
सुस्ती या कमजोर निर्गमन अंगों को बल प्रदान करना। रोगी पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने के लिए समुचित आहार कार्यक्रम अपनाना। शरीर का पुनर्निमाण करना अथवा शरीर की कमजोरी को दूर करना। योगासन और प्राणायाम का अभ्यास करना, ताकि भोजन ठीक तरह से हजम होकर शरीर को लगे। फेफड़ों को बल मिले, उनमें लचीलापन आए, पाचन क्रिया सुधरे और तेज हो तथा श्वास प्रणाली बलशाली हो। रोगी को एनीमा देकर उसकी आँतों की सफाई करना चाहिए, ताकि उनके भीतर विसंगति न पनप सके। पेट पर गीली पट्टी रखने से बिना पचे हुए खाद्य पदार्थ सड़ नहीं पाएँगे और आँतों की क्रिया तेज होने के कारण, जल्दी ही पानी में भीगा कपड़ा रखने से फेफड़ों की जकड़न कम होती है और उन्हें बल मिलता है। रोगी को भाप, स्नान कराकर उसका पसीना बहाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त उसे गरम पानी में कूल्हों तक या पाँव डालकर बैठाया जा सकता है और धूप स्नान भी करवाया जा सकता है। इससे त्वचा उत्तेजित होगी और उसे बल मिलेगा तथा फेफड़ों की जकड़न दूर होगी।
अपने शरीर की प्रणाली को पोषक तत्त्व प्रदान करने के लिए और हानिकारक तत्त्व बाहर निकालने के लिए रोगी को कुछ दिन तक ताजे फलों का रस ही लेना चाहिए, और कुछ नहीं। इस उपचार के दौरान उसे ताजा फलों के एक गिलास रस में उतना ही पानी मिलाकर दो-दो घंटे के बाद सुबह आठ बजे से शाम आठ बजे तक लेना चाहिए। बाद में धीरे-धीरे ठोस पदार्थ भी शामिल किए जा सकते हैं। किंतु रोगी को सामान्य किस्म की भोजन संबंधी गलतियों से दूर रहना चाहिए। यदि उसके आहार में कार्बोहाइड्रेट चिकनाई एवं प्रोटीन जैसे तेजाब बनाने वाले पदार्थ सीमित मात्रा में रहें और ताजे फल, हरी सब्जियाँ तथा अंकुरित चने जैसे क्षारीय खाद्य पदार्थ भरपूर मात्रा में रहें तो सबसे अच्छा रहता है।
चावल, शक्कर, तिल और दही जैसे कफ या बलगम बनाने वाले पदार्थ तथा तले हुए एवं गरिष्ठ खाद्य पदार्थ न ही खाए जाएँ तो अच्छा है।
अस्थमा के रोगियों को अपनी क्षमता से कम ही खाना चाहिए। उन्हें धीरे-धीरे और अपने भोजन को चबा-चबाकर खाना चाहिए। उन्हें प्रतिदिन कम से कम आठ से दस गिलास पानी पीना चाहिए। भोजन के साथ पानी या किसी तरह का तरल पदार्थ लेने से परहेज करना चाहिए। तेज मसाले, मिर्च अचार बहुत अधिक चाय कॉफी इत्यादि से भी दूर रहना चाहिए।
दमा, विशेषकर तेज दमे का दौरा, हाजमे को खराब करता है। ऐसे मामलों में रोगी पर खाने के लिए जोर मत दीजिए, ऐसे मामलों में जब तक दमे का दौरा दूर न हो जाए तब तक रोगी को लगभग उपवास करने दीजिए। रोगी हर दो घंटे के बाद एक प्याला गरम पानी पी सकता है। ऐसे मामले में यदि रोगी एनीमा लेता है तो उसे बहुत फायदा होता है।
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