बहुभागीय पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति 5 चन्द्रकान्ता सन्तति 5देवकीनन्दन खत्री
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हिन्दी का सर्वाधिक चर्चित तिलस्मी उपन्यास - पाँचवां भाग
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सत्रहवाँ भाग
पहिला बयान
हमारे पाठक ‘लीला’ को भूले न होगें। तिलिस्मी
दारोगावाले
बँगले की बर्बादी के पहिले तक इसका नाम आया है, जिसके बाद फिर इसका जिक्र
नहीं आया*।
लीला को जमानिया की खबरदारी पर मुकर्रर करके मायारानी काशीवाले नागर के मकान में चली गयी थी और वहाँ दरोगा के आ जाने पर उसके साथ इन्द्रदेव के यहाँ चली गयी। जब इन्द्रदेव के यहाँ से भी वह भाग गयी और दारोगा तथा शेरअलीखाँ की मदद से रोहतासगढ़ के अन्दर घुसने का प्रबन्ध किया गया जैसाकि सन्तति के बाहरवें भाग के तेरहवें बयान में लिखा गया है, उस समय लीला मायारानी के साथ थी, मगर रोहतासगढ़ में जाने से पहिले मायारानी ने उसे अपनी हिफाजत का जरिया बनाकर पहाड़ के नीचे ही छोड़ दिया था। मायारानी ने अपना तिलिस्मी तमंचा, जिससे बेहोशी के बारुद की गोली चलायी जाती थी, लीला को देकर कह दिया था कि मैं शेरअलीखाँ की मदद से और उन्हीं के भरोसे पर रोहतासगढ़ के अन्दर जाती हूँ, मगर ऐयारों के हाथ मेरा गिरफ्तार हो जाना कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि बीरेन्द्रसिंह के ऐयार बड़े ही चालाक हैं। यद्यपि उनसे बचे रहने की पूरी-पूरी तरकीब की गयी है, लेकिन फिर भी मैं बेफिक नहीं रह सकती, अस्तु यह तिलिस्मी तमंचा तू अपने पास रख और इस पहाड़ के नीचे ही रहकर हम लोगों के बारे में टोह लेती रह, अगर हम लोग अपना काम करके राजी-खुशी के साथ लौट आये तब तो कोई बात
*देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, नौवाँ भाग, आठवाँ बयान।
नहीं, ईश्वर न करे कहीं मैं गिरफ्तार हो गयी तो तू मुझे छुड़ाने का बन्दोबस्त कीजियो और इस तमंचे से काम निकालियो। इसमें चलनेवाली गोलियाँ और वह ताम्रपत्र भी मैं तुझे दिये जाती हूँ, जिसमें गोली बनाने की तरकीब लिखी हुई है।
जब दारोगा और शेरअलीखाँ सहित मायारानी गिरफ्तार हुई और वह खबर शेरअलीखाँ के लश्कर में पहुँची जो पहाड़ के नीचे था तो लीला ने भी सब हाल सुना और वह उसी समय वहाँ से चलकर चुनारगढ़ कहीं छिप रही, फिर भी जब तक राजा बीरेन्द्रसिंह वहाँ से चुनारगढ़ की तरफ रवाना न हुए, वह भी उस इलाके के बाहर न गयी और इसी से शिवदत्त और कल्याणसिंह (जो बहुत से आदमियों को लेकर रोगहतासगढ़ के तहखाने में घुसे थे) वाला मामला भी उसे बखूबी मालूम हो गया था।
माधवी, मनोरमा और शिवदत्त ने जब ऐयारों की मदद से कल्याणसिंह को छुड़ाया था तो भीमसेन भी उसी के साथ ही छुड़ाया गया, मगर भीमसेन कुछ बीमार था, इसलिए शिवदत्त के साथ मिल-जुलकर रोहतासगढ़ के तहखाने में न जा सका था, शिवदत्त ने अपने ऐयारों की हिफाजत में उसे शिवदत्तगढ़, भेज दिया था।
सब बखेड़ों से छुट्टी पाकर जब राजा बीरेन्द्रसिंह कैदियों को लिये हुए चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए तो मायारानी को कैद से छुड़ाने की फिक्र में लीला भी भेष बदले हुए उन्हीं के लश्कर के साथ रवाना हुई। लश्कर में नकली किशोरी, कामिनी और कमला के मारे जानेवाला मामला उसके सामने ही हुआ और तब तक उसे अपनी कार्रवाई करने का कोई मौका न मिला, मगर जब नकली किशोरी, कामिनी और कमला की दाहक्रिया करके राजा साहब आगे बढ़े और दुश्मनों की तरफ से कुछ बेफिक्र हुए, तब लीला को भी अपनी कार्रवाई का मौका मिला और वह उस खेमे के चारों तरफ ज्यादे फेरे लगाने लगी, जिसमें मायारानी कैद थी और चालीस आदमी नंगी तलवार लिये बारी-बारी से उसके चारों ओर पहरा दिया करते थे। एक दिन इत्तिफाक से आँधी-पानी को जोर हो गया और इसीसे उस कमबख्त को अपने काम का अच्छा मौका मिला।
बीरेन्द्रसिंह का लश्कर एक सुहावने जंगल में पड़ा हुआ था। समय बहुत अच्छा था, सन्ध्या होने के पहिले ही से बादलों का शामियाना खड़ा हो गया था, बिजली चमकने लग गयी थी, और हवा के झपेटे पेड़-पत्तों के साथ हाथापाई कर रहे थे। पहर रात-जाते-जाते पानी अच्छी तरह बरसने लग गया और उसके बाद तो आँधी-पानी ने एक भयानक तूफान का रूप धारण कर लिया। उस समय लश्करवालों को बहुत ही तकलीफ हुई। हजारों सिपाही, गरीब बनिए, घसियारे और शागिर्द पेशेवाले जो मौदान में सोया करते थे, इस तूफान से दुखी होकर जान बचाने की फिक्र करने लगे। यद्यपि राजा बीरेन्द्रसिह की रहमदिली और आयापरवरी ने बहुतों को आराम दिया और बहुतसे आदमी खेमों और शामियानों के अन्दर घुस गये, यहाँ तक कि राजा बीरेन्द्रसिंह और तेज सिंह के खेमों से भी सैकड़ों को पनाह मिल गयी, मगर फिर भी हजारों आदमी ऐसे रह गये थे, जिनकी भूँडी किस्मत में दुख भोगना बदा था। यह सबकुछ था, मगर लीला को ऐसे समय भी चैन था और वह दुःख को दुःख नहीं समझती थी, क्योंकि उसे अपना काम साधने के लिए बहुत दिनों बाद आज यही एक मौका अच्छा मालूम हुआ।
जिस खेमे में मायारानी और दारोगा बगैरह कैद थे, उससे चालीस या पचास हाथ की दूरी पर सलई का एक बड़ा और पुराना दरख्त था। इस आँधी-पानी और तूफान का खौफ न करके लीला उसी पेड़ पर चढ़ गयी और कैदियों के खेमें की तरह मुँह करके तिलिस्मी तमंचे का निशाना साधने लगी। जब-जब बिजली चमकती, तब-तब वह अपने निशाने को ठीक करने का उद्योग करती। सम्भव था कि बिजली की चमक में कोई उसे पेड़ पर चढ़ा हुआ देख लेता, मगर जिन सिपाहियों के पहरे में वह खेमा था, उस (कैदियोंवाले) खेमें के आस-पास जो लोग रहते थे, सभी इस तूफान से घबड़ाकर उसी खेमे के अन्दर घुस गये थे, जिसमें मायारानी और दारोगा बगैरह कैद थे। खेमे के बाहर या उस पेड़ के पास कोई भी न था, जिस पर लीला चढ़ी हुई थी।
लीला जब अपने निशाने को ठीक कर चुकी, तब उसने एक गोली (बेहोशी बाली) चलायी। हम पहिले के किसी बयान में लिख चुके हैं कि इस तिलिस्मी तमंचे के चलाने में किसी तरह की आवाज नहीं होती थी, मगर जब गोली जमीन पर गिरती थी, तब कुछ हल्की सी आवाज पटाखे की तरह होती थी।
लीला की चलायी हुई गोली खेमे के छेद के अन्दर चली गयी और एक सिपाही के बदन पर गिरकर फूटी। उस सिपाही का कुछ नुकसान नहीं हुआ, जिस पर गोली गिरी थी। न तो उसका कोई अंग-भंग हुआ और न कपड़ा जला, केवल हलकी-सी आवाज हुई और बहोशी का बहुत ज्यादे धुआँ चारों तरफ फैलने लगा। मायारानी उस वक्त बैठी हुई अपनी किस्मत पर रो रही थी। पटाके की आवाज से वह चौंककर उसी तरफ देखने लगी और बहुद जल्द समझ गयी कि यह उसी तिलिस्म तमंचे से चलायी गयी गोली है, जो मैं लीला के सुपुर्द कर आयी थी।
मायारानी यद्यपि जान से हाथ धो बैठी थी और उसे विश्वास हो गया था कि अब इस कैद से किसी तरह छुटकारा नहीं मिल सकता, मगर इस समय तिलिस्मी तमंचे की गोली ने खेमे के अन्दर पहुँचकर उसे विश्वास दिला दिया कि अब भी तेरा एक दोस्त मदद करने लायक मौजूद है, जो यहाँ आ पहुँचा और कैद से छुड़ाया ही चाहता है।
वह मायारानी, जिसकी आँखों के आगे मौत की भयानक सूरत धूम रही थी और हर तरह से नाउम्मीद हो चुकी थी, चौंककर सम्हल बैठी। बेहोशी का असर करनेवाला धुआँ बच रहने की मुबारकबाद देता हुआ आँखों के सामने फैलने लगा और तरह-तरह की उम्मीदों ने उसका कलेजा ऊँचा कर दिया। यद्यपि वह जानती थी कि यह धुआँ मुझे भी बेहोश कर देगा, मगर फिर भी वह खुशी की निगाहों से चारों तरफ देखने लगी और इतने में ही एक दूसरी गोली भी उसी ढंग की वहाँ आकर गिरी।
मायारानी और दारोगा को छोड़कर जितने आदमी उस खेमे में थे सभों को उन दोनों गोलियों ने ताज्जुब में डाल दिया। अगर गोली चलाते समय तमंचे में से किसी तरह की आवाज निकलकर उनके कानों तक पहुँचती तो शायद कुछ पता लगाने की नियत से दो-चार आदमी खेमे से बाहर निकलते मगर उस समय सिवाय एक-दूसरे का मुँह देखने के किसी को किसी तरह का गुमान न हुआ और धुएँ ने तेजी के साथ फैलकर अपना असर जमाना शुरु कर दिया। बात-की-बात मे, जितने आदमी उसे खेमे के अन्दर थे, सभों का सक घूमने लगा और एक-दूसरे के ऊपर गिरते हुए सब-के-सब बेहोश हो गये, मायारानी और दारोगा को भी दीन-दुनिया की सुध न रही।
पेड़ पर चढ़ी हुई लीला ने थोड़ी देर तक इन्तजार किया। जब खेमे के अन्दर से किसी को निकलते न देखा और उसे विश्वास हो गया कि खेमे के अन्दरवाले अब बेहोश हो गये होंगे, तब वह पेड़ से उतरी और खेमे के पास आयी। आँधी-पानी का जोर अभी तरक वैसा ही था, मगर लीला ने इसे अच्छी तरह सह लिया और कनात के नीचे से झाँककर खेमे के अन्दर देखा तो सभों को बेहोश पाया।
पाठकों को यह मालूम है कि लीला ऐयारी भी जानती थी। कनात काटकर वह खेमे के अन्दर चली गयी। आदमी बहुत ज्यादे भरे हुए थे इसलिए मायारानी के पास तक पहुँचने में बड़ी कठिनाई हुई, आखिर उसके पास पहुँची और हाथ-पैर खोलने के बाद लखलखा सुँघाकर होश में लायी। मायारानी ने होश में आकर लीला को देखा और धीरे-से कहा’ ‘शाबाश, खूब पहुँची। बस दारोगा को छुड़ाने की कोई जरूरत नहीं।’’ इतना कहकर मायारानी उठ खड़ी हुई और लीला के हाथ का सहारा लेती हुई खेमे के बाहर निकल गयी।
लीला ने चाहा कि लश्कर में से दो घोड़े भी सवारी के लिए चुरा लावे, मगर मायारानी ने स्वीकार न किया और उसी तूफान में दोनों कमबख्तों ने एक तरफ का रास्ता लिया।
लीला को जमानिया की खबरदारी पर मुकर्रर करके मायारानी काशीवाले नागर के मकान में चली गयी थी और वहाँ दरोगा के आ जाने पर उसके साथ इन्द्रदेव के यहाँ चली गयी। जब इन्द्रदेव के यहाँ से भी वह भाग गयी और दारोगा तथा शेरअलीखाँ की मदद से रोहतासगढ़ के अन्दर घुसने का प्रबन्ध किया गया जैसाकि सन्तति के बाहरवें भाग के तेरहवें बयान में लिखा गया है, उस समय लीला मायारानी के साथ थी, मगर रोहतासगढ़ में जाने से पहिले मायारानी ने उसे अपनी हिफाजत का जरिया बनाकर पहाड़ के नीचे ही छोड़ दिया था। मायारानी ने अपना तिलिस्मी तमंचा, जिससे बेहोशी के बारुद की गोली चलायी जाती थी, लीला को देकर कह दिया था कि मैं शेरअलीखाँ की मदद से और उन्हीं के भरोसे पर रोहतासगढ़ के अन्दर जाती हूँ, मगर ऐयारों के हाथ मेरा गिरफ्तार हो जाना कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि बीरेन्द्रसिंह के ऐयार बड़े ही चालाक हैं। यद्यपि उनसे बचे रहने की पूरी-पूरी तरकीब की गयी है, लेकिन फिर भी मैं बेफिक नहीं रह सकती, अस्तु यह तिलिस्मी तमंचा तू अपने पास रख और इस पहाड़ के नीचे ही रहकर हम लोगों के बारे में टोह लेती रह, अगर हम लोग अपना काम करके राजी-खुशी के साथ लौट आये तब तो कोई बात
*देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, नौवाँ भाग, आठवाँ बयान।
नहीं, ईश्वर न करे कहीं मैं गिरफ्तार हो गयी तो तू मुझे छुड़ाने का बन्दोबस्त कीजियो और इस तमंचे से काम निकालियो। इसमें चलनेवाली गोलियाँ और वह ताम्रपत्र भी मैं तुझे दिये जाती हूँ, जिसमें गोली बनाने की तरकीब लिखी हुई है।
जब दारोगा और शेरअलीखाँ सहित मायारानी गिरफ्तार हुई और वह खबर शेरअलीखाँ के लश्कर में पहुँची जो पहाड़ के नीचे था तो लीला ने भी सब हाल सुना और वह उसी समय वहाँ से चलकर चुनारगढ़ कहीं छिप रही, फिर भी जब तक राजा बीरेन्द्रसिंह वहाँ से चुनारगढ़ की तरफ रवाना न हुए, वह भी उस इलाके के बाहर न गयी और इसी से शिवदत्त और कल्याणसिंह (जो बहुत से आदमियों को लेकर रोगहतासगढ़ के तहखाने में घुसे थे) वाला मामला भी उसे बखूबी मालूम हो गया था।
माधवी, मनोरमा और शिवदत्त ने जब ऐयारों की मदद से कल्याणसिंह को छुड़ाया था तो भीमसेन भी उसी के साथ ही छुड़ाया गया, मगर भीमसेन कुछ बीमार था, इसलिए शिवदत्त के साथ मिल-जुलकर रोहतासगढ़ के तहखाने में न जा सका था, शिवदत्त ने अपने ऐयारों की हिफाजत में उसे शिवदत्तगढ़, भेज दिया था।
सब बखेड़ों से छुट्टी पाकर जब राजा बीरेन्द्रसिंह कैदियों को लिये हुए चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए तो मायारानी को कैद से छुड़ाने की फिक्र में लीला भी भेष बदले हुए उन्हीं के लश्कर के साथ रवाना हुई। लश्कर में नकली किशोरी, कामिनी और कमला के मारे जानेवाला मामला उसके सामने ही हुआ और तब तक उसे अपनी कार्रवाई करने का कोई मौका न मिला, मगर जब नकली किशोरी, कामिनी और कमला की दाहक्रिया करके राजा साहब आगे बढ़े और दुश्मनों की तरफ से कुछ बेफिक्र हुए, तब लीला को भी अपनी कार्रवाई का मौका मिला और वह उस खेमे के चारों तरफ ज्यादे फेरे लगाने लगी, जिसमें मायारानी कैद थी और चालीस आदमी नंगी तलवार लिये बारी-बारी से उसके चारों ओर पहरा दिया करते थे। एक दिन इत्तिफाक से आँधी-पानी को जोर हो गया और इसीसे उस कमबख्त को अपने काम का अच्छा मौका मिला।
बीरेन्द्रसिंह का लश्कर एक सुहावने जंगल में पड़ा हुआ था। समय बहुत अच्छा था, सन्ध्या होने के पहिले ही से बादलों का शामियाना खड़ा हो गया था, बिजली चमकने लग गयी थी, और हवा के झपेटे पेड़-पत्तों के साथ हाथापाई कर रहे थे। पहर रात-जाते-जाते पानी अच्छी तरह बरसने लग गया और उसके बाद तो आँधी-पानी ने एक भयानक तूफान का रूप धारण कर लिया। उस समय लश्करवालों को बहुत ही तकलीफ हुई। हजारों सिपाही, गरीब बनिए, घसियारे और शागिर्द पेशेवाले जो मौदान में सोया करते थे, इस तूफान से दुखी होकर जान बचाने की फिक्र करने लगे। यद्यपि राजा बीरेन्द्रसिह की रहमदिली और आयापरवरी ने बहुतों को आराम दिया और बहुतसे आदमी खेमों और शामियानों के अन्दर घुस गये, यहाँ तक कि राजा बीरेन्द्रसिंह और तेज सिंह के खेमों से भी सैकड़ों को पनाह मिल गयी, मगर फिर भी हजारों आदमी ऐसे रह गये थे, जिनकी भूँडी किस्मत में दुख भोगना बदा था। यह सबकुछ था, मगर लीला को ऐसे समय भी चैन था और वह दुःख को दुःख नहीं समझती थी, क्योंकि उसे अपना काम साधने के लिए बहुत दिनों बाद आज यही एक मौका अच्छा मालूम हुआ।
जिस खेमे में मायारानी और दारोगा बगैरह कैद थे, उससे चालीस या पचास हाथ की दूरी पर सलई का एक बड़ा और पुराना दरख्त था। इस आँधी-पानी और तूफान का खौफ न करके लीला उसी पेड़ पर चढ़ गयी और कैदियों के खेमें की तरह मुँह करके तिलिस्मी तमंचे का निशाना साधने लगी। जब-जब बिजली चमकती, तब-तब वह अपने निशाने को ठीक करने का उद्योग करती। सम्भव था कि बिजली की चमक में कोई उसे पेड़ पर चढ़ा हुआ देख लेता, मगर जिन सिपाहियों के पहरे में वह खेमा था, उस (कैदियोंवाले) खेमें के आस-पास जो लोग रहते थे, सभी इस तूफान से घबड़ाकर उसी खेमे के अन्दर घुस गये थे, जिसमें मायारानी और दारोगा बगैरह कैद थे। खेमे के बाहर या उस पेड़ के पास कोई भी न था, जिस पर लीला चढ़ी हुई थी।
लीला जब अपने निशाने को ठीक कर चुकी, तब उसने एक गोली (बेहोशी बाली) चलायी। हम पहिले के किसी बयान में लिख चुके हैं कि इस तिलिस्मी तमंचे के चलाने में किसी तरह की आवाज नहीं होती थी, मगर जब गोली जमीन पर गिरती थी, तब कुछ हल्की सी आवाज पटाखे की तरह होती थी।
लीला की चलायी हुई गोली खेमे के छेद के अन्दर चली गयी और एक सिपाही के बदन पर गिरकर फूटी। उस सिपाही का कुछ नुकसान नहीं हुआ, जिस पर गोली गिरी थी। न तो उसका कोई अंग-भंग हुआ और न कपड़ा जला, केवल हलकी-सी आवाज हुई और बहोशी का बहुत ज्यादे धुआँ चारों तरफ फैलने लगा। मायारानी उस वक्त बैठी हुई अपनी किस्मत पर रो रही थी। पटाके की आवाज से वह चौंककर उसी तरफ देखने लगी और बहुद जल्द समझ गयी कि यह उसी तिलिस्म तमंचे से चलायी गयी गोली है, जो मैं लीला के सुपुर्द कर आयी थी।
मायारानी यद्यपि जान से हाथ धो बैठी थी और उसे विश्वास हो गया था कि अब इस कैद से किसी तरह छुटकारा नहीं मिल सकता, मगर इस समय तिलिस्मी तमंचे की गोली ने खेमे के अन्दर पहुँचकर उसे विश्वास दिला दिया कि अब भी तेरा एक दोस्त मदद करने लायक मौजूद है, जो यहाँ आ पहुँचा और कैद से छुड़ाया ही चाहता है।
वह मायारानी, जिसकी आँखों के आगे मौत की भयानक सूरत धूम रही थी और हर तरह से नाउम्मीद हो चुकी थी, चौंककर सम्हल बैठी। बेहोशी का असर करनेवाला धुआँ बच रहने की मुबारकबाद देता हुआ आँखों के सामने फैलने लगा और तरह-तरह की उम्मीदों ने उसका कलेजा ऊँचा कर दिया। यद्यपि वह जानती थी कि यह धुआँ मुझे भी बेहोश कर देगा, मगर फिर भी वह खुशी की निगाहों से चारों तरफ देखने लगी और इतने में ही एक दूसरी गोली भी उसी ढंग की वहाँ आकर गिरी।
मायारानी और दारोगा को छोड़कर जितने आदमी उस खेमे में थे सभों को उन दोनों गोलियों ने ताज्जुब में डाल दिया। अगर गोली चलाते समय तमंचे में से किसी तरह की आवाज निकलकर उनके कानों तक पहुँचती तो शायद कुछ पता लगाने की नियत से दो-चार आदमी खेमे से बाहर निकलते मगर उस समय सिवाय एक-दूसरे का मुँह देखने के किसी को किसी तरह का गुमान न हुआ और धुएँ ने तेजी के साथ फैलकर अपना असर जमाना शुरु कर दिया। बात-की-बात मे, जितने आदमी उसे खेमे के अन्दर थे, सभों का सक घूमने लगा और एक-दूसरे के ऊपर गिरते हुए सब-के-सब बेहोश हो गये, मायारानी और दारोगा को भी दीन-दुनिया की सुध न रही।
पेड़ पर चढ़ी हुई लीला ने थोड़ी देर तक इन्तजार किया। जब खेमे के अन्दर से किसी को निकलते न देखा और उसे विश्वास हो गया कि खेमे के अन्दरवाले अब बेहोश हो गये होंगे, तब वह पेड़ से उतरी और खेमे के पास आयी। आँधी-पानी का जोर अभी तरक वैसा ही था, मगर लीला ने इसे अच्छी तरह सह लिया और कनात के नीचे से झाँककर खेमे के अन्दर देखा तो सभों को बेहोश पाया।
पाठकों को यह मालूम है कि लीला ऐयारी भी जानती थी। कनात काटकर वह खेमे के अन्दर चली गयी। आदमी बहुत ज्यादे भरे हुए थे इसलिए मायारानी के पास तक पहुँचने में बड़ी कठिनाई हुई, आखिर उसके पास पहुँची और हाथ-पैर खोलने के बाद लखलखा सुँघाकर होश में लायी। मायारानी ने होश में आकर लीला को देखा और धीरे-से कहा’ ‘शाबाश, खूब पहुँची। बस दारोगा को छुड़ाने की कोई जरूरत नहीं।’’ इतना कहकर मायारानी उठ खड़ी हुई और लीला के हाथ का सहारा लेती हुई खेमे के बाहर निकल गयी।
लीला ने चाहा कि लश्कर में से दो घोड़े भी सवारी के लिए चुरा लावे, मगर मायारानी ने स्वीकार न किया और उसी तूफान में दोनों कमबख्तों ने एक तरफ का रास्ता लिया।
दूसरा बयान
पाठकों को मालूम है कि शिवदत्त और कल्याणसिंह ने जब रोहतासगढ़ पर चढ़ाई की
थी, तब उसके साथ मनोरमा और माधवी भी मौजूद थीं। भूतनाथ और सर्यूसिंह ने
शिवदत्त और कल्याणसिंह को डरा धमकाकर मनोरमा को तो गिरफ्तार कर लिया*
परन्तु माधवी कहाँ गयी या क्या हुई, इसका हाल कुछ लिखा नहीं गया। अस्तु,
अब हम थोड़ा-सा हाल माधवी का लिखना उचित समझते हैं।
जिस जमाने में माधवी गया और राजगृही की रानी कहलाती थी, उस जमाने में उसका राज्य केवल तीन ही आदमियों के भरोसे पर चलता था-एक दीवान अग्निदत्त, दूसरा कोतवाल धर्मसिंह और तीसरा सेनापति कुबेरसिंह। बस ये ही तीनों उसके राज्य का आनन्द लेते थे और इन्हीं तीनों का माधवी को भरोसा था। यद्यपि ये तीनों ही माधवी की चाह में डूबनेवाले थे, मगर कुबेरसिंह और धर्मसिंह प्यासे ही रहे गये, जिसका उन दोनों को बराबर बहुत ही रंज बना रहा।
जह राजगृही और गया की किस्मत ने पलटा खाया, तब धर्मसिंह कोतवाल को तो चपला ने माधवी की सूरत बन और धोखा दे गिरफ्तार कर लिया और दीवान अग्निदत्त बहुत दिनों तक बचा रहकर अन्त में किशोरी के कारण एक खोह के अन्दर मारा गया, परन्तु अभी तक यह न मालूम हुआ कि उसके मर जाने का सबब क्या था। हाँ, सेनापति् कुबेरसिंह जिसने माधवी के राज्य में सबसे ज्यादे दौलत पैदा की थी, बचा रह गया क्योंकि उसने जमाने को पलटा खाते देख चुख चुपचाप अपने घर (मुर्शिदाबाद) का रास्ता लिया, मगर माधवी के हालचाल की खबर लेता रहा, क्योंकि यद्यपि उसने माधवी का राज्य छोड़ दिया था, मगर माधवी के इश्क ने उसके दिल में से अपना राज्य दखल नहीं उठाया था। माधवी की बिगड़ी हुई अवस्था देखकर भी उसकी मुहब्बत पे हाथ न (* देखिए चौदहवाँ भाग, दूसरा बयान।)
धोने का दो सबब था, एक तो माधवी वास्तव में खूबसूरत हसीन और नाजुक थी, दूसरे राजगृही और गाया के राज्य से खारिज होने पर भी वह माधवी को अमीर और हिसाब दौलत का मालिक समझता था और इसलिए वह समय पर ध्यान रखकर माधवी के हालचाल बराबर खबर लेता रहा और वक्त पर काम देने के लिए थोड़ी-सी फौज का मालिक भी बना रहा।
मनोरमा के गिरफ्तार हो जाने के बाद शिवदत्त और कल्याणसिंह के साथ जब माधवी रोहतासगढ़ की तराई में पहुँची तो एक आदमी ने गुप्त रीति पर उसे एक चीठी दी और बहुत जल्द उसका जवाब माँगा। यह चीठी कुबेर सिंह की थी और उसमें यह लिखा हुआ था-
‘‘मुझे आपकी अवस्था पर बहुत रंज और अफसोस है। यद्यपि आपकी हालत बदल गयी है और आप मुझसे बहुत दूर हैं, मगर मैं अभी तक आपकी ख्याली तस्वीर अपने दिल के अन्दर कायम रखकर दिन-रात उसकी पूजा किया करता हूँ। यही सबब है कि बहुत दिनों तक मेहनत करके, मैंने इतनी ताकत पैदा कर ली है कि आपकी मदद कर सकूँ और आपको पुन : राजगृही की गद्दी का मालिक बनाऊँ। आप अपने ही दिल से पूछ देखिए कि अग्निदत्त, जिसके साथ आपने सबकुछ किया, कैसा बेईमान और बेमुरौवत निकला और मैं, जिसे आपने हद से ज्यादे तरसाया, कैसी हालत में आपकी मदद करने को तैयार हूँ ! यदि आप मुनासिब समझें तो इस आदमी के साथ मेरे पास चली आवें, या मुझी को अपने पास बुला लें। यह आदमी जो चीठी लेकर जाता है, मेरा ऐयार है।
आपका-कुबेर।’’
माधवीने ‘उस चीठी को बड़े गौर से दोहराकर पढ़ा और देर तक तरह-तरह की बातें सोचती रही। हम नहीं जानते कि उसका दिल किन-किन बातों का फैसला करता रहा या वह किस विचार में देर तक डूबी रही, हाँ थोड़ी देर बात उसने सिर उठाकर चीठी लानेवाले की तरफ देखा और कहा, ‘‘कुबेरसिंह कहाँ पर है?’’
ऐयार : यहाँ से थोड़ी दूर पर।
माधवी : फिर वह खुद यहाँ क्यों न आया?
ऐयार : इसीलिए कि आप इस समय दूसरों के साथ हैं, जिन्होंने आपको न मालूम किस तरह का भरोसा दिया होगा या आपही ने शायद उनसे किस तरह का इकरार किया हो, ऐसी अवस्था में आपसे दरियाफ्त किये बिना इस लश्कर में आना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा।
माधवी : ठीक है, अच्छा तुम जाकर उसे बहुत जल्द मेरे पास ले आओ कितनी देर में आओगे?
ऐयार : (सलाम करके) आधे घण्टे के अन्दर।
वह ऐयार तेजी के साथ दौड़ता हुआ वहाँ से चला गया और माधवी उसी जगह टहलती हुई इन्तजार करने लगी।
दिन आधे घण्टे से कुछ ज्यादे बाकी था और इस समय माधवी कुछ खुश मालूम होती थी। शिवदत्त और कल्याणसिंह का लश्कर एक जंगल में छिपा हुआ था और माधवी अपने डेरे से निकलकर सौ-सवा सौ कदम की दूरी पर चली गयी थी। माधवी, कुबेरसिंह के अक्षर अच्छी तरह पहिचानची थी, इसलिए उसे किसी तरह का धोखा खाने का शक कुछ भी न और वह बेखौफ उसके आने का इन्तजार करने लगी।
सन्ध्या होने के पहिले ही उसी ऐयार को साथ लिये कुबेरसिंह, माधवी की तरफ आता दिखायी दिया, जो थोड़ी ही देर पहिले उसकी चीठी लेकर आया था। उस समय वह ऐसार भी एक घोड़े पर सवार था और कुबेरसिंह अपनी सूरत शक्ल तथा हैसियत को अच्छी तरह सजाये हुए था। माधवी के पास पहुँचकर दोनों आदमी घोड़े से नीचे उतर पड़े और कुबेरसिंह ने माधवी को सलाम करके कहा, ‘‘आज बहुत दिनों बाद ईश्वर ने मुझे आपसे मिलाया ! मुझे इस बात का बहुत रंज है कि आपने लौंडियों के भड़काने पर चुपचाप घर छोड़ जंगल का रास्ता लिया, और अपने खैरखाह कुबेरसिंह (हम) को याद तक न किया। मैं खूब जानता हूँ कि आपने अपने दीवान अग्निदत्त से डरकर ऐसा किया था मगर उसके बाद भी तो मुझे याद करने का मौका जरूर मिला होगा।’’
माधवी : (मुस्कुराती हुई कुबेरसिंह का हाथ पकड़के) मैं घर से निकलने के बाद ऐसी मुसीबत में पड़ गयी थी कि अपनी भलाई-बुराई पर कुछ भी ध्यान न दे सकी और जब मैंने सुना कि गया और राजगृही में बीरेन्द्रसिंह का राज्य हो गया, तब और भी हताश हो गयी, फिर भी मैं अपने उद्योग की बदौलत बहुतकुछ कर गुजरती, मगर गयाजी में अग्निदत्त की लड़की कामिनी ने मेरे साथ बहुत बुरा वर्ताव किया और मुझे किसी लायक न रक्खा। (अपनी कटी हुई कलाई दिखाकर) यह उसी के बदौलत है।
कुबेर : वह खानदान-का-खानदान ही निमकहराम निकला और इसी फेर में अग्निदत्त माया भी गया।
माधवी : हाँ, उसके मरने का हाल मायारानी की सखी मनोरमा की जुबानी मैंने सुना था। (पीछे की तरफ देखकर) कौन आ रहा है?
कुबेर : आपही के लश्कर का कोई आदमी है, शायद आपको बुलाने आता हो, नहीं वह दूसरी तरफ घूम गया, मगर अब आपको कुछ सोच-विचार करना किसी से मिलना, या इस जगह खड़े-खड़े बातों में समय नष्ट न करना चाहिए और यह मौका भी बातचीत करने का नहीं है। आप (घोड़े की तरफ इशारा करके) इस घोड़े पर शीघ्र सवार होकर मेरा साथ चली चलें, मैं आपका ताबेदार सब लायक और सबकुछ करने के लिए तैयार हूँ, फिर भी खुशामद की जरूरत ही क्या है? यदि कल्याणसिंह के लश्कर में आप का कुछ असबाब हो तो उसकी परवाह न कीजिए।
माधवी नहीं, अब मुझे किसी की परवाह नहीं रही, मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ।
इतना कहकर माधवी कुबेरसिंह के घोड़े पर सवार हो गयी, कुबेरसिंह अपने ऐयार के घोड़े पर सवार हुआ तथा पैदल ऐयार को साथ लिये हुए दोनों एक तरफ को रवाना हुए।
यही सबब था कि शिवदत्त बगैरह के साथ माधवी रोहतासगढ़ के तहखाने में दाखिल नहीं हुई।
जिस जमाने में माधवी गया और राजगृही की रानी कहलाती थी, उस जमाने में उसका राज्य केवल तीन ही आदमियों के भरोसे पर चलता था-एक दीवान अग्निदत्त, दूसरा कोतवाल धर्मसिंह और तीसरा सेनापति कुबेरसिंह। बस ये ही तीनों उसके राज्य का आनन्द लेते थे और इन्हीं तीनों का माधवी को भरोसा था। यद्यपि ये तीनों ही माधवी की चाह में डूबनेवाले थे, मगर कुबेरसिंह और धर्मसिंह प्यासे ही रहे गये, जिसका उन दोनों को बराबर बहुत ही रंज बना रहा।
जह राजगृही और गया की किस्मत ने पलटा खाया, तब धर्मसिंह कोतवाल को तो चपला ने माधवी की सूरत बन और धोखा दे गिरफ्तार कर लिया और दीवान अग्निदत्त बहुत दिनों तक बचा रहकर अन्त में किशोरी के कारण एक खोह के अन्दर मारा गया, परन्तु अभी तक यह न मालूम हुआ कि उसके मर जाने का सबब क्या था। हाँ, सेनापति् कुबेरसिंह जिसने माधवी के राज्य में सबसे ज्यादे दौलत पैदा की थी, बचा रह गया क्योंकि उसने जमाने को पलटा खाते देख चुख चुपचाप अपने घर (मुर्शिदाबाद) का रास्ता लिया, मगर माधवी के हालचाल की खबर लेता रहा, क्योंकि यद्यपि उसने माधवी का राज्य छोड़ दिया था, मगर माधवी के इश्क ने उसके दिल में से अपना राज्य दखल नहीं उठाया था। माधवी की बिगड़ी हुई अवस्था देखकर भी उसकी मुहब्बत पे हाथ न (* देखिए चौदहवाँ भाग, दूसरा बयान।)
धोने का दो सबब था, एक तो माधवी वास्तव में खूबसूरत हसीन और नाजुक थी, दूसरे राजगृही और गाया के राज्य से खारिज होने पर भी वह माधवी को अमीर और हिसाब दौलत का मालिक समझता था और इसलिए वह समय पर ध्यान रखकर माधवी के हालचाल बराबर खबर लेता रहा और वक्त पर काम देने के लिए थोड़ी-सी फौज का मालिक भी बना रहा।
मनोरमा के गिरफ्तार हो जाने के बाद शिवदत्त और कल्याणसिंह के साथ जब माधवी रोहतासगढ़ की तराई में पहुँची तो एक आदमी ने गुप्त रीति पर उसे एक चीठी दी और बहुत जल्द उसका जवाब माँगा। यह चीठी कुबेर सिंह की थी और उसमें यह लिखा हुआ था-
‘‘मुझे आपकी अवस्था पर बहुत रंज और अफसोस है। यद्यपि आपकी हालत बदल गयी है और आप मुझसे बहुत दूर हैं, मगर मैं अभी तक आपकी ख्याली तस्वीर अपने दिल के अन्दर कायम रखकर दिन-रात उसकी पूजा किया करता हूँ। यही सबब है कि बहुत दिनों तक मेहनत करके, मैंने इतनी ताकत पैदा कर ली है कि आपकी मदद कर सकूँ और आपको पुन : राजगृही की गद्दी का मालिक बनाऊँ। आप अपने ही दिल से पूछ देखिए कि अग्निदत्त, जिसके साथ आपने सबकुछ किया, कैसा बेईमान और बेमुरौवत निकला और मैं, जिसे आपने हद से ज्यादे तरसाया, कैसी हालत में आपकी मदद करने को तैयार हूँ ! यदि आप मुनासिब समझें तो इस आदमी के साथ मेरे पास चली आवें, या मुझी को अपने पास बुला लें। यह आदमी जो चीठी लेकर जाता है, मेरा ऐयार है।
आपका-कुबेर।’’
माधवीने ‘उस चीठी को बड़े गौर से दोहराकर पढ़ा और देर तक तरह-तरह की बातें सोचती रही। हम नहीं जानते कि उसका दिल किन-किन बातों का फैसला करता रहा या वह किस विचार में देर तक डूबी रही, हाँ थोड़ी देर बात उसने सिर उठाकर चीठी लानेवाले की तरफ देखा और कहा, ‘‘कुबेरसिंह कहाँ पर है?’’
ऐयार : यहाँ से थोड़ी दूर पर।
माधवी : फिर वह खुद यहाँ क्यों न आया?
ऐयार : इसीलिए कि आप इस समय दूसरों के साथ हैं, जिन्होंने आपको न मालूम किस तरह का भरोसा दिया होगा या आपही ने शायद उनसे किस तरह का इकरार किया हो, ऐसी अवस्था में आपसे दरियाफ्त किये बिना इस लश्कर में आना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा।
माधवी : ठीक है, अच्छा तुम जाकर उसे बहुत जल्द मेरे पास ले आओ कितनी देर में आओगे?
ऐयार : (सलाम करके) आधे घण्टे के अन्दर।
वह ऐयार तेजी के साथ दौड़ता हुआ वहाँ से चला गया और माधवी उसी जगह टहलती हुई इन्तजार करने लगी।
दिन आधे घण्टे से कुछ ज्यादे बाकी था और इस समय माधवी कुछ खुश मालूम होती थी। शिवदत्त और कल्याणसिंह का लश्कर एक जंगल में छिपा हुआ था और माधवी अपने डेरे से निकलकर सौ-सवा सौ कदम की दूरी पर चली गयी थी। माधवी, कुबेरसिंह के अक्षर अच्छी तरह पहिचानची थी, इसलिए उसे किसी तरह का धोखा खाने का शक कुछ भी न और वह बेखौफ उसके आने का इन्तजार करने लगी।
सन्ध्या होने के पहिले ही उसी ऐयार को साथ लिये कुबेरसिंह, माधवी की तरफ आता दिखायी दिया, जो थोड़ी ही देर पहिले उसकी चीठी लेकर आया था। उस समय वह ऐसार भी एक घोड़े पर सवार था और कुबेरसिंह अपनी सूरत शक्ल तथा हैसियत को अच्छी तरह सजाये हुए था। माधवी के पास पहुँचकर दोनों आदमी घोड़े से नीचे उतर पड़े और कुबेरसिंह ने माधवी को सलाम करके कहा, ‘‘आज बहुत दिनों बाद ईश्वर ने मुझे आपसे मिलाया ! मुझे इस बात का बहुत रंज है कि आपने लौंडियों के भड़काने पर चुपचाप घर छोड़ जंगल का रास्ता लिया, और अपने खैरखाह कुबेरसिंह (हम) को याद तक न किया। मैं खूब जानता हूँ कि आपने अपने दीवान अग्निदत्त से डरकर ऐसा किया था मगर उसके बाद भी तो मुझे याद करने का मौका जरूर मिला होगा।’’
माधवी : (मुस्कुराती हुई कुबेरसिंह का हाथ पकड़के) मैं घर से निकलने के बाद ऐसी मुसीबत में पड़ गयी थी कि अपनी भलाई-बुराई पर कुछ भी ध्यान न दे सकी और जब मैंने सुना कि गया और राजगृही में बीरेन्द्रसिंह का राज्य हो गया, तब और भी हताश हो गयी, फिर भी मैं अपने उद्योग की बदौलत बहुतकुछ कर गुजरती, मगर गयाजी में अग्निदत्त की लड़की कामिनी ने मेरे साथ बहुत बुरा वर्ताव किया और मुझे किसी लायक न रक्खा। (अपनी कटी हुई कलाई दिखाकर) यह उसी के बदौलत है।
कुबेर : वह खानदान-का-खानदान ही निमकहराम निकला और इसी फेर में अग्निदत्त माया भी गया।
माधवी : हाँ, उसके मरने का हाल मायारानी की सखी मनोरमा की जुबानी मैंने सुना था। (पीछे की तरफ देखकर) कौन आ रहा है?
कुबेर : आपही के लश्कर का कोई आदमी है, शायद आपको बुलाने आता हो, नहीं वह दूसरी तरफ घूम गया, मगर अब आपको कुछ सोच-विचार करना किसी से मिलना, या इस जगह खड़े-खड़े बातों में समय नष्ट न करना चाहिए और यह मौका भी बातचीत करने का नहीं है। आप (घोड़े की तरफ इशारा करके) इस घोड़े पर शीघ्र सवार होकर मेरा साथ चली चलें, मैं आपका ताबेदार सब लायक और सबकुछ करने के लिए तैयार हूँ, फिर भी खुशामद की जरूरत ही क्या है? यदि कल्याणसिंह के लश्कर में आप का कुछ असबाब हो तो उसकी परवाह न कीजिए।
माधवी नहीं, अब मुझे किसी की परवाह नहीं रही, मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ।
इतना कहकर माधवी कुबेरसिंह के घोड़े पर सवार हो गयी, कुबेरसिंह अपने ऐयार के घोड़े पर सवार हुआ तथा पैदल ऐयार को साथ लिये हुए दोनों एक तरफ को रवाना हुए।
यही सबब था कि शिवदत्त बगैरह के साथ माधवी रोहतासगढ़ के तहखाने में दाखिल नहीं हुई।
तीसरा बयान
कैद से छुटकारा मिलने के बाद बीमारी के सबब से यद्यपि भीमसेन को घर जाना
पड़ा और वहाँ उसकी बीमारी बहुत जल्द जाती रही, मगर घर में रहने का जो सुख
उसको मिलना चाहिए, वह न मिला क्योंकि एक तो माँ के मरने का रंज और गम हद्द
से ज्यादे था और अब वह घर काटने को दौड़ता था, दूसरे थोड़े ही दिन बाद बाप
के मरने की खबर भी उसे पहुँची, जिससे वह बहुत ही उदास और बेचैन हो गया। इस
समय उसके ऐयार लोग भी वहीं मौजूद थे, जो बाहर से दुखदायी खबर लेकर लौट आये
थे। पहिले तो उसके ऐयारों ने बहुत समझाया और राजा बीरेन्द्रसिंह से सुलह
कर लेने में बहुतसी भलाइयाँ दिखायीं, मगर उस नालायक के दिल में एक भी न
बैठी और वह राजा बीरेन्द्रसिंह से बदला लेने तथा किशोरी को जान से मार
डालने की कसम खाकर घर से बाहर निकल पड़ा। बाकरअली, खुदाबक्श, अयाबसिंह और
यारअली इत्यादि उसके लालची ऐयारों ने भी लाचार होकर उसका साथ दिया।
उबकी दफे भीमसेन ने अपने ऐयारों के सिवाय और किसी को भी साथ न लिया, हाँ, रूपै, अशर्फी या जवाहिरात की किस्म में से जहाँ तक उससे बना, या जो कुछ उसके पास था, लेकर अपने ऐयारों को लालच-भरी उम्मीदों का सब्जबाग दिखाता रवाना हुआ और थोड़ी दूर जाने के बाद ऐयारों के साथ ही उसने अपनी भी सूरत बदल ली।
‘‘राजा बीरेन्द्रसिंह को किस तरह नीचा दिखाना चाहिए और क्या करना चाहिए?’’ इस विषय पर तीन दिन तक उन लोगों में यह बहस होती रही और अन्त में यह निश्चय किया गया कि राजा बीरेन्द्रसिंह और उनके खानदान तथा आपुसवालों का मुकाबला करने के पहिले उनके दुश्मनों से दोस्ती बढ़ाकर अपना बल पुष्ट कर लेना चाहिए। इस इरादे पर वे लोग कायम भी रहे और माधवी, मायारानी तथा तिलिस्मी दारोगा बगैरह से मुलाकात करने की फिक्र करने लगे।
कई दिनों तक सफर करने और घूमने-फिरने के बाद एक दिन ये लोग दोपहर होते-होते एक घने जंगल में पहुँचे। चार-पाँच घण्टे आराम कर लेना इन लोगों को बहुत जरूरी मालूम हुआ क्योंकि गर्मी के चलाचली का जमाना था और धूप बहुत कड़ी और दुःखदायी थी। मुसाफिरों को तो जाने दीजिए, जंगली जानवरों और आकाश में उड़ने तथा बात-की-बात में दूर-दूर की खबर लानेवाली चिड़ियाओं को भी पत्तों की आड़ से निकलना बुरा मालूम होता था
इस जंगल में एक जगह पानी का झरना भी जारी था और उसके दोनों तरफ पेड़ों को घनाहट के सबब बनिस्बत और जगहों के ठण्ढक ज्यादे थी। ये पाँचों मुसाफिर भी झरने के किनारे पत्थर की साफ चट्टान देखकर बैठ गये और आपुस में इधर-उधर की बातें करने लगे। इसी समय बातचीत की आहट पाने और निगाह दौड़ाने इन पर लोगों की निगाह दस-बारह सिपाहियों पर पड़ी, जिन्हें देख भीमसेन चौंका और उनका पता लगाने के लिए अजायबसिंह से कहा, क्योंकि दोस्तों और दुश्मनों के खयाल से उसका जी एकदम के लिए भी ठिकाने नहीं रहता था और ‘पत्ता खड़का बन्दा भड़का’ की कहावत का नमूना बन रहा था।
भीमसेन की आज्ञानुसार अजायबसिंह ने उन आदमियों का पीछा किया और दो धण्टे तक लौटकर न आया। तब दूसरे ऐयारों को भी चिन्ता हुई और वे अजायबसिंह की खोज में जाने के लिए तैयार हुए, मगर इसकी नौबत न पहुँची, क्योंकि उसी समय अजायबसिंह अपने साथ कई सिपाहियों को लिये भीमसेन की तरफ आता दिखायी दिया।
अजायबसिंह के इस तरह आने के पहिले तो सभों को खुटके में डाल दिया, मगर जब अजायबसिंह ने दूर ही से खुशी का इशारा किया, तब सभों का जी ठिकाने हुआ और उसके आने का इन्तजार करने लगे। पास आने पर अजायबसिंह ने भीमसेन से कहा, ‘‘इस जंगल में आकर टिक जाना हम लोगों के लिए बहुत अच्छा, क्योंकि रानी माधवी से मुलाकात हो गयी। आज ही उनका ढेरा भी इस जंगल में आया है। कुबेरसिंह सेनापति और चार-पाँच सौ सिपाही उनके साथ हैं। जिन लोगों का मैंने पीछा किया था, वे भी उन्हीं के सिपाहियों में से थे और ये भी उन्हीं के सिपाहीं हैं, जो मेरे साथ आपको बुलाने के लिए आये हैं।’’
माधवी की खबर सुनकर भीमसेन उतना ही खुश हुआ, जितना अजायबसिंह की जुबानी भीमसेन के आने की खबर पाकर माधवी खुश हुई थी। अजायबसिंह की बात सुनते ही भीमसेन उठ खड़ा हुआ और अपने ऐयारों को साथ लिये हुए घड़ी-भर के अन्दर ही अपनी बेहया बहिन माधवी से जा मिला। ये दोनों एक दूसरे को देखकर बहुत खुश हुए, मगर उन दोनों की मुलाकात कुबेरसिंह को अच्छी न मालूम पड़ी, जिसका सबब क्या था सो हमारे पाठक लोग खुद ही समझ सकते हैं।
थोड़ी देर तक भीमसेन और माधवी ने कुशल-मंगल पूछने में बिताया। माधवी ने खाने-पीने की चीजें तैयार करने का हुक्म दिया, क्योंकि उसे अपने अनूठे भाई की खातिरदारी आज मंजूर थी और इसलिए बड़ी मुहब्बत के साथ देर तक बातें होती रहीं।
माधवी को इस जंगल में आये आज पाँच दिन हो चुके हैं। पाँचवे दिन दोपहर के समय भीमसेन से मुलाकात हुई थी। उसका (कुबेरसिंह का) ऐयार दुश्मनों की खोज खबर लगाने के लिये कहीं गया हुआ था, क्योंकि माधवी और कुबेरसिंह ने इस जंगल में पहुँचकर निश्चय कर लिया था कि पहिले दुश्मनों का हाल-चाल मालूम करना चाहिए, इसके बाद जो कुछ मुनासिब होगा, किया जायगा।
उबकी दफे भीमसेन ने अपने ऐयारों के सिवाय और किसी को भी साथ न लिया, हाँ, रूपै, अशर्फी या जवाहिरात की किस्म में से जहाँ तक उससे बना, या जो कुछ उसके पास था, लेकर अपने ऐयारों को लालच-भरी उम्मीदों का सब्जबाग दिखाता रवाना हुआ और थोड़ी दूर जाने के बाद ऐयारों के साथ ही उसने अपनी भी सूरत बदल ली।
‘‘राजा बीरेन्द्रसिंह को किस तरह नीचा दिखाना चाहिए और क्या करना चाहिए?’’ इस विषय पर तीन दिन तक उन लोगों में यह बहस होती रही और अन्त में यह निश्चय किया गया कि राजा बीरेन्द्रसिंह और उनके खानदान तथा आपुसवालों का मुकाबला करने के पहिले उनके दुश्मनों से दोस्ती बढ़ाकर अपना बल पुष्ट कर लेना चाहिए। इस इरादे पर वे लोग कायम भी रहे और माधवी, मायारानी तथा तिलिस्मी दारोगा बगैरह से मुलाकात करने की फिक्र करने लगे।
कई दिनों तक सफर करने और घूमने-फिरने के बाद एक दिन ये लोग दोपहर होते-होते एक घने जंगल में पहुँचे। चार-पाँच घण्टे आराम कर लेना इन लोगों को बहुत जरूरी मालूम हुआ क्योंकि गर्मी के चलाचली का जमाना था और धूप बहुत कड़ी और दुःखदायी थी। मुसाफिरों को तो जाने दीजिए, जंगली जानवरों और आकाश में उड़ने तथा बात-की-बात में दूर-दूर की खबर लानेवाली चिड़ियाओं को भी पत्तों की आड़ से निकलना बुरा मालूम होता था
इस जंगल में एक जगह पानी का झरना भी जारी था और उसके दोनों तरफ पेड़ों को घनाहट के सबब बनिस्बत और जगहों के ठण्ढक ज्यादे थी। ये पाँचों मुसाफिर भी झरने के किनारे पत्थर की साफ चट्टान देखकर बैठ गये और आपुस में इधर-उधर की बातें करने लगे। इसी समय बातचीत की आहट पाने और निगाह दौड़ाने इन पर लोगों की निगाह दस-बारह सिपाहियों पर पड़ी, जिन्हें देख भीमसेन चौंका और उनका पता लगाने के लिए अजायबसिंह से कहा, क्योंकि दोस्तों और दुश्मनों के खयाल से उसका जी एकदम के लिए भी ठिकाने नहीं रहता था और ‘पत्ता खड़का बन्दा भड़का’ की कहावत का नमूना बन रहा था।
भीमसेन की आज्ञानुसार अजायबसिंह ने उन आदमियों का पीछा किया और दो धण्टे तक लौटकर न आया। तब दूसरे ऐयारों को भी चिन्ता हुई और वे अजायबसिंह की खोज में जाने के लिए तैयार हुए, मगर इसकी नौबत न पहुँची, क्योंकि उसी समय अजायबसिंह अपने साथ कई सिपाहियों को लिये भीमसेन की तरफ आता दिखायी दिया।
अजायबसिंह के इस तरह आने के पहिले तो सभों को खुटके में डाल दिया, मगर जब अजायबसिंह ने दूर ही से खुशी का इशारा किया, तब सभों का जी ठिकाने हुआ और उसके आने का इन्तजार करने लगे। पास आने पर अजायबसिंह ने भीमसेन से कहा, ‘‘इस जंगल में आकर टिक जाना हम लोगों के लिए बहुत अच्छा, क्योंकि रानी माधवी से मुलाकात हो गयी। आज ही उनका ढेरा भी इस जंगल में आया है। कुबेरसिंह सेनापति और चार-पाँच सौ सिपाही उनके साथ हैं। जिन लोगों का मैंने पीछा किया था, वे भी उन्हीं के सिपाहियों में से थे और ये भी उन्हीं के सिपाहीं हैं, जो मेरे साथ आपको बुलाने के लिए आये हैं।’’
माधवी की खबर सुनकर भीमसेन उतना ही खुश हुआ, जितना अजायबसिंह की जुबानी भीमसेन के आने की खबर पाकर माधवी खुश हुई थी। अजायबसिंह की बात सुनते ही भीमसेन उठ खड़ा हुआ और अपने ऐयारों को साथ लिये हुए घड़ी-भर के अन्दर ही अपनी बेहया बहिन माधवी से जा मिला। ये दोनों एक दूसरे को देखकर बहुत खुश हुए, मगर उन दोनों की मुलाकात कुबेरसिंह को अच्छी न मालूम पड़ी, जिसका सबब क्या था सो हमारे पाठक लोग खुद ही समझ सकते हैं।
थोड़ी देर तक भीमसेन और माधवी ने कुशल-मंगल पूछने में बिताया। माधवी ने खाने-पीने की चीजें तैयार करने का हुक्म दिया, क्योंकि उसे अपने अनूठे भाई की खातिरदारी आज मंजूर थी और इसलिए बड़ी मुहब्बत के साथ देर तक बातें होती रहीं।
माधवी को इस जंगल में आये आज पाँच दिन हो चुके हैं। पाँचवे दिन दोपहर के समय भीमसेन से मुलाकात हुई थी। उसका (कुबेरसिंह का) ऐयार दुश्मनों की खोज खबर लगाने के लिये कहीं गया हुआ था, क्योंकि माधवी और कुबेरसिंह ने इस जंगल में पहुँचकर निश्चय कर लिया था कि पहिले दुश्मनों का हाल-चाल मालूम करना चाहिए, इसके बाद जो कुछ मुनासिब होगा, किया जायगा।
चौथा बयान
कैद से छूटने बाद लीला को साथ लिये हुए मायारानी ऐसी भागी कि उसने पीछे की
तरफ फिरके भी नहीं देखा। आँधी और पानी के कारण उन दोनों को भागने में बड़ी
तकलीफ हुई, कई दफे वे दोनों गिरीं और चोट भी लगी, मगर प्यारी जान को बचाकर
ले भागे के खयाल ने उन्हें किसी तरह दम लेने न दिया दो घण्टे के बात
आँधी-पानी का जोर जाता रहा, आसमान साफ हो गया। और चन्द्रमा भी निकल आया,
उस समय उन दोनों को भागने में सुबीता हुआ सवेरा होते तक ये दोनों बहुत दूर
निकल गयीं।
मायारानी यद्यपि खूबसूरत थी, नाजुक थी और अमीरी परले सिरे की कर चुकी थी, मगर इस समय ये सब बातें हवा हो गयीं। पैरों में पीछे छाले पड़जाने पर भी उसने भागने में कसर न की और सवेरा हो जाने पर भी दम न लिया, बराबर भागती ही चली गयीं। दूसरा दिन भी उसके लिए बहुत अच्छा था, आसमान पर बदली छायी हुई थी और धूप को जमीन तक पहुँचने का मौका नहीं मिलता था। अब मायारानी बातचीत करती हुई और पिछली बातें लीला को सुनाती हुई रुककर चलने लगी। थोड़ी दूर जाती फिर जरा दम ले लेती, पुन : उठकर चलती और कुछ दूर बाद दम लेने के लिए बैठ जाती। इस तरह दूसरा दिन भी मायारानी ने सफर ही में बिता दिया और खाने-पीने की कुछ विशेष परवाह न की। सन्ध्या होने के कुछ पहिले वे दोनों एक पहाड़ी की तराई में पहुँची, जहाँ साफ पानी का सुन्दर चश्मा बह रहा था और जंगली बेर तथा मकोय के पेड़ भी बहुतायत से थे। वहाँ पर लीला ने मायारानी से कहा कि अब डरने तथा चलते-चलते जान देने की कोई जरूरत नहीं है, हम लोग बहुत दूर निकल आये हैं और ऐसे रास्ते से आये हैं कि जिधर से किसी मुसाफिर की आमदरफ्त नहीं होती। अस्तु, अब हम लोगों को बेफिकी के साथ आराम करना चाहिए। यह जगह इस लायक है कि हम लोग खा-पीकर अपनी आत्मा को सन्तोष दे लें और अपनी-अपनी सूरतें भी अच्छी तरह बदलकर पहिचाने जाने का खटका मिटा लें !’’
लीला की बात मायारानी ने स्वीकार की और चश्मे के पानी से हाथ-मुँह धोने और जरा दम लेने बाद सबके पहिले सूरत बदलने का बन्दोबस्त करने लगी, क्योंकि दिन नाममात्र को रह गया था और रात हो जाने पर बिना रोशनी के सहारे यह काम अच्छी तरह नहीं हो सकता था।
सूरत-शक्ल के हेर-फेर से छुट्टी पाने बाद दोनों ने जंगली बेर और मकोय को अच्छे-से-अच्छा मेवास समझकर भोजन किया और चश्मे का जल पीकर आत्मा को सन्तोष दिया, तब निश्चित होकर बैठीं और यों बातचीत करने लगी-
माया : अब जरा जी ठिकाने हुआ, मगर शरीर चूर-चूर हो गया। खैर, किसी तरह तेरी बदौलत जान बच गयी, नहीं तो मैं हर तरह से नाउम्मीद हो चुकी थी और राह देखती थी कि मेरी जान किस तरह ली जाती है।
लीला : चाहे तुम्हारे बिलकुल नौकर-चाकर तुम्हारे अहसानों को भूल जायें और तुम्हारे नमक का खयाल न करें, मगर मैं कब ऐसा कर सकती हूँ, मुझे दुनियाँ में तुम्हारे बिना चैन कब पड़ सकता है, जब तक तुम्हें कैद से छुड़ा न लिया, अन्न का दाना मुँह में न डाला, बल्कि अभी तक जंगली बेर और मकोय पर ही गुजारा कर रही हूँ।
माया : शाबाश ! मैं तुम्हारे इस अहसान को जन्म-भर नहीं भूल सकती, जिस तरह आप रहूँगी, उसी तरह तुम्हें भी रक्खूँगी, यह जान तुमने बचायी है, इसलिए जब तक इस दुनिया मैं रहूँगी, इस जान का मालिक तुम्हीं को समझूँगी।
लीला : (तिलिस्मी तमंचा और गोली मायारानी के सामने रखकर) यह अपनी अमानत आप लीजिए और अब इसे अपने पास रखिए, इसने बड़ा काम किया।
माया : (तमंचा उठाकर और थोड़ी-सी गोली लीला को देकर) इन गोलियों को अपने पास रक्खो, बिना तमंचे के भी ये बड़ा काम देंगी, जिस तरफ फेंक दोगी या जहाँ जमीन पर पटकोगी, उसी जगह ये अपना गुण दिखलावेंगी।
लीला : (गोली रखकर) बेशक ये बड़े बक्त पर काम दे सकती हैं। अच्छा यह कहिए कि अब हम लोगों को क्या करना और कहाँ जाना चाहिए?
माया : इसका जवाब भी तुम्हीं बहुत अच्छा दे सकती हो, मैं केवल इतना ही कहूँगी कि गोपालसिंह और कमलिनी को इस दुनिया से उठा देना सबसे पहिला और जरूरी काम समझना चाहिए। किशोरी, कामिनी और कमला को मारकर मनोरमा ने कुछ भी न किया, उतनी ही मेहनत अगर गोपालसिंह और कमलिनी को मारने के लिए करती तो इस समय मैं पुन : तिलिस्म की रानी कहलाने लायक हो सकती थी।
मायारानी यद्यपि खूबसूरत थी, नाजुक थी और अमीरी परले सिरे की कर चुकी थी, मगर इस समय ये सब बातें हवा हो गयीं। पैरों में पीछे छाले पड़जाने पर भी उसने भागने में कसर न की और सवेरा हो जाने पर भी दम न लिया, बराबर भागती ही चली गयीं। दूसरा दिन भी उसके लिए बहुत अच्छा था, आसमान पर बदली छायी हुई थी और धूप को जमीन तक पहुँचने का मौका नहीं मिलता था। अब मायारानी बातचीत करती हुई और पिछली बातें लीला को सुनाती हुई रुककर चलने लगी। थोड़ी दूर जाती फिर जरा दम ले लेती, पुन : उठकर चलती और कुछ दूर बाद दम लेने के लिए बैठ जाती। इस तरह दूसरा दिन भी मायारानी ने सफर ही में बिता दिया और खाने-पीने की कुछ विशेष परवाह न की। सन्ध्या होने के कुछ पहिले वे दोनों एक पहाड़ी की तराई में पहुँची, जहाँ साफ पानी का सुन्दर चश्मा बह रहा था और जंगली बेर तथा मकोय के पेड़ भी बहुतायत से थे। वहाँ पर लीला ने मायारानी से कहा कि अब डरने तथा चलते-चलते जान देने की कोई जरूरत नहीं है, हम लोग बहुत दूर निकल आये हैं और ऐसे रास्ते से आये हैं कि जिधर से किसी मुसाफिर की आमदरफ्त नहीं होती। अस्तु, अब हम लोगों को बेफिकी के साथ आराम करना चाहिए। यह जगह इस लायक है कि हम लोग खा-पीकर अपनी आत्मा को सन्तोष दे लें और अपनी-अपनी सूरतें भी अच्छी तरह बदलकर पहिचाने जाने का खटका मिटा लें !’’
लीला की बात मायारानी ने स्वीकार की और चश्मे के पानी से हाथ-मुँह धोने और जरा दम लेने बाद सबके पहिले सूरत बदलने का बन्दोबस्त करने लगी, क्योंकि दिन नाममात्र को रह गया था और रात हो जाने पर बिना रोशनी के सहारे यह काम अच्छी तरह नहीं हो सकता था।
सूरत-शक्ल के हेर-फेर से छुट्टी पाने बाद दोनों ने जंगली बेर और मकोय को अच्छे-से-अच्छा मेवास समझकर भोजन किया और चश्मे का जल पीकर आत्मा को सन्तोष दिया, तब निश्चित होकर बैठीं और यों बातचीत करने लगी-
माया : अब जरा जी ठिकाने हुआ, मगर शरीर चूर-चूर हो गया। खैर, किसी तरह तेरी बदौलत जान बच गयी, नहीं तो मैं हर तरह से नाउम्मीद हो चुकी थी और राह देखती थी कि मेरी जान किस तरह ली जाती है।
लीला : चाहे तुम्हारे बिलकुल नौकर-चाकर तुम्हारे अहसानों को भूल जायें और तुम्हारे नमक का खयाल न करें, मगर मैं कब ऐसा कर सकती हूँ, मुझे दुनियाँ में तुम्हारे बिना चैन कब पड़ सकता है, जब तक तुम्हें कैद से छुड़ा न लिया, अन्न का दाना मुँह में न डाला, बल्कि अभी तक जंगली बेर और मकोय पर ही गुजारा कर रही हूँ।
माया : शाबाश ! मैं तुम्हारे इस अहसान को जन्म-भर नहीं भूल सकती, जिस तरह आप रहूँगी, उसी तरह तुम्हें भी रक्खूँगी, यह जान तुमने बचायी है, इसलिए जब तक इस दुनिया मैं रहूँगी, इस जान का मालिक तुम्हीं को समझूँगी।
लीला : (तिलिस्मी तमंचा और गोली मायारानी के सामने रखकर) यह अपनी अमानत आप लीजिए और अब इसे अपने पास रखिए, इसने बड़ा काम किया।
माया : (तमंचा उठाकर और थोड़ी-सी गोली लीला को देकर) इन गोलियों को अपने पास रक्खो, बिना तमंचे के भी ये बड़ा काम देंगी, जिस तरफ फेंक दोगी या जहाँ जमीन पर पटकोगी, उसी जगह ये अपना गुण दिखलावेंगी।
लीला : (गोली रखकर) बेशक ये बड़े बक्त पर काम दे सकती हैं। अच्छा यह कहिए कि अब हम लोगों को क्या करना और कहाँ जाना चाहिए?
माया : इसका जवाब भी तुम्हीं बहुत अच्छा दे सकती हो, मैं केवल इतना ही कहूँगी कि गोपालसिंह और कमलिनी को इस दुनिया से उठा देना सबसे पहिला और जरूरी काम समझना चाहिए। किशोरी, कामिनी और कमला को मारकर मनोरमा ने कुछ भी न किया, उतनी ही मेहनत अगर गोपालसिंह और कमलिनी को मारने के लिए करती तो इस समय मैं पुन : तिलिस्म की रानी कहलाने लायक हो सकती थी।
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