बहुभागीय पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति 2 चन्द्रकान्ता सन्तति 2देवकीनन्दन खत्री
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हिन्दी का सर्वाधिक चर्चित तिलस्मी उपन्यास - द्वितीय भाग
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पाँचवाँ भाग
पहिला बयान
बेचारी किशोरी को चिता पर बैठकर जिस समय दुष्टा धनपति ने आग लगायी उसी समय बहुत से आदमी जो उसी जंगल में किसी जगह छुपे हुए थे हाथों में नंगी तलवारे लिए ‘मारो-मारो’ कहते हुए उन लोगों पर आ टूटे। उन लोगों
ने सबसे पहले किशोरी को चिता पर से खैंच लिया और इसके बाद धनपति के
साथियों को पकड़ने लगे।
पाठक समझते होंगे कि ऐसे समय में इन लोगों के आ पहुँचने और जान बचाने से किशोरी खुश हुई होगी और इन्द्रजीत से मिलने की कुछ उम्मीद भी उसे हो गई होगी मगर नहीं, अपने बचाने वाले को देखते ही किशोरी चिल्ला उठी और उसके दिल का दर्द पहले से भी ज़्यादे बढ़ गया, किशोरी ने आसमान की तरफ़ देखकर कहा, ‘‘मुझे तो विश्वास हो गया था कि इस चिता में जल कर ठण्डे-ठण्डे बैकुंठ चली जाऊँगी। क्योंकि इसकी आँच कुँअर इन्द्रजीतसिंह की जुदाई की आँच से ज़्यादा गर्म न होगी, मगर हाय, इस बात का गुमान भी न था कि दुष्ट आ पहुँचेगा और मैं सचमुच की तपती हुई भट्ठी में झोंक दी जाऊँगी। ऐ मौत तू कहाँ है ? तू कोई वस्तु है भी या नहीं, मुझे तो इसी में शक है !’’
वह आदमी जिसने ऐसे समय में पहुँचकर किशोरी को बचाया, माधवी का दीवान अग्निदत्त था जिसके चंगुल में फंस कर किशोरी ने राजगृही में बहुत दुःख उठाया था और कामिनी की मदद से –जिसका नाम कुछ दिनों तक किन्नरी—था छुट्टी मिली थी। किशोरी के अपने मरनेकी कुछ भी परवाह न थी और वह अग्निदत्त की सूरत देखने की बनिस्बत मौत को लाख दर्जे उत्तम समझती थी, यही सबब था कि इस समय उसे अपनी जान बचाने का रंज हुआ।
अग्निदत्त और उसके आदमियों ने किशोरी को तो बचा लिया मगर जब उसके दुश्मनों को अर्थात धनपति और उसके साथियों को पकड़ने का इरादा किया तो लड़ाई गहरी हो पड़ी। मौका पाकर धनपति भाग गयी और गहन वन में किसी झाड़ी के अन्दर छिपकर उसने अपनी जान बचायी। उसके साथियों में से एक भी न बचा, सब मारे गए। अग्निदत्त भी केवल दो ही आदमियों के साथ बच गया। उस संगदिल ने रोती और चिल्लाती हुई बेचारी किशोरी को ज़बर्दस्ती उठा लिया और एक तरफ़ का रास्ता लिया।
पाठक आश्चर्य करते होंगे कि अग्निदत्त को तो राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने राजगृही में गिरफ्तार कर चुनार भेज दिया था, वह यकायक यहाँ कैसे आ पहुँचा ?’’ इसलिए अग्निदत्त का थोड़ा-सा हाल इस जगह लिख देना हम मुनासिब समझते हैं।
राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने दीवान अग्निदत्त को गिरफ्तार करके अपने बीस सवारों के पहरे में चुनारगढ़ रवाना कर दिया और एक चीठी भी सब हाल की महाराज सुरेन्द्रसिंह को लिखकर, उन्हीं के मार्फ़त भेजी। अग्निदत्त हथकड़ी डाल घोड़े पर सवार कराया गया और उसके पैर रस्सी से घोड़े की जीन के साथ बाँध दिये गए, घोड़े की लम्बी बागडोर दोनों तरफ़ से दो सवारों ने पकड़ली और सफर शुरू कर दिया। तीसरे दिन जब वे लोग सोन नदी के पास पहुँचे अर्थात जब वह नदी दो कोस बाकी रह गई तब उन लोगों पर डाका पड़ा। पचास आदमियों ने चारों तरफ़ से घेर लिया। घंटे-भर की लड़ाई में राजा बीरेन्द्रसिंह के कुल आदमी मारे गए, खबर पहुँचाने के लिए भी एक आदमी न बचा और अग्निदत्त को उन लोगों के हाथों से छुट्टी मिली। वे डाकू सब अग्निदत्त के तरफ़दार और उन लोगों में से थे, जो गया जी में फ़साद मचाया करते थे और उन लोगों की जाने लेते और घर लूटते थे, जो दीवान अग्निदत्त के विरूद्ध जाने जाते। इस तरह अग्निदत्त को छुट्टी मिली और बहुत दिन तक इस डाके की ख़बर राजा बीरेन्द्रसिंह या उनके आदमियों को नहीं मिली।
यद्यपि दीवान अग्निदत्त के हाथ से गया की दीवानी जाती रही और वह एक साधारण आदमी की तरह मारा-मारा फिरने लगा तथापि वह अपने साथी डाकुओं में मालदार गिना जाता था, क्योंकि उसके पास ज़ुल्म की कमाई हुई दौलत थी और वह उस दौलत को राजगृही से थोड़ी दूर पर एक मढ़ी में, जो पहाड़ी के पीछे थी रखता था, जिसका हाल दस-बारह आदमियों के सिवाय किसी को भी मालूम न था। उस दौलत को निकालने में अग्निदत्त ने विलम्ब न किया और उसे अपने कब्ज़े में लाकर साथी डाकुओं के साथ अपनी धुन में चारों तरफ़ घूमने तथा इस बात की टोह लेने लगा कि राजा बीरेन्द्रसिंह की तरफ़ क्या क्या होता है।
थोड़े ही दिन बाद मौक़ा समझकर वह रोहतासगढ़ के चारों तरफ़ घूमने लगा और जिस तरह किशोरी से मिला उसका हाल आप ऊपर पढ़ ही चुके हैं।
जिस जगह अग्निदत्त किशोरी से मिला था, उससे थोड़ी ही दूर पर एक पहाड़ी थी, जिसमें कई खोह और ग़ार थे। वह किशोरी को उठाकर उस पहाड़ी पर ले गया। रोते और चिल्लाते-चिल्लाते किशोरी बेहोश हो गई थी। अग्निदत्त ने उसे खोह के अन्दर ले जाकर लिटा दिया और आप बाहर चला आया।
पहर रात जाते-जाते जब किशोरी होश में आयी तो उसने अपने को अजब हालत में पाया। ऊपर-नीचे चारों तरफ़ वह पत्थर देखकर समझ गई कि मैं किसी खोह में हूँ। एक तरफ़ चिराग जल रहा था। गुलाब के फूल-सी नाज़ुक किशोरी की अवस्था इस समय बहुत ही नाज़ुक थी। अग्निदत्त की याद से उसे घड़ी-घड़ी रोमांच होता था, उसके धड़कते हुए कलेजे में अजब तरह का दर्द था और इस सोच ने उसे बिलकुल ही निकम्मा कर रखा था कि देखें चाण्डाल अग्निदत्त के पहुँचने पर मेरी क्या दुर्दशा होती है। घण्टों की मेहनत में बड़ी कोशिश करके उसने अपने होश-हवाश दुरुस्त किए और सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए। उसने इस इरादे को तो पक्का कर ही लिया था कि अगर अग्निदत्त मेरे पास आवेगा तो पत्थर पर सिर पटककर अपनी जान दे दूँगी, मगर यह भी सोचती थी कि पत्थर पर सिर पटकने से जान नहीं जा सकती, किसी तरह खोह के बाहर निकलकर ऐसा मौका ढूँढ़ना चाहिए कि अपने को इस पहाड़ के नीचे गिराकर बखेड़ा तय कर दिया जाए। जिसमें हमेशा के लिए इस खिंचाखिची से छुट्टी मिले।
किशोरी चिराग बुझाने के लिए उठी ही थी कि सामने से पैर की चाप मालूम हुई। वह डरकर उसी तरफ़ देखने लगी कि यकायक अग्निदत्त पर नज़र पड़ी। देखते ही वह काँप गयी, ऐसा मालूम हुआ कि रगों में ख़ून की जगह पारा भर गया। वह अपने को किसी तरह सम्हाल न सकी और ज़मीन पर बैठकर रोने लगी। अग्निदत्त सामने आकर खड़ा हो गया और बोला—
अग्निदत्त : तुमने मुझको बड़ा ही धोखा दिया, अपने साथ मेरी भी लड़की को भी मुझसे जुदा कर दिया। अभी तक मुझे इस बात का पता न लगा कि मेरी स्त्री पर क्या बीती और बीरेन्द्रसिंह ने उसके साथ क्या सलूक किया, और यह सब तुम्हारी बदौलत हुआ।
किशोरी : फिर भी मैं कहती हूँ कि तुम मुझे सताकर सुख न पाओगो।
अग्निदत्त : इस समय तुम्हें पाकर मैं बहुत खुश हूँ, दीनदुनिया की फिक्र जाती रही, आगे जो होगा देखा जाएगा।
किशोरी : मैं तुमसे वादा करती हूँ कि यदि मुझे छोड़ दोगे तो मैं राजा बीरेन्द्रसिंह से कहकर तुम्हारे क़सूर माफ़ करा दूँगी और तुम्हारी जीविका निर्वाह के लिए भी बन्दोबस्त हो जाएगा नहीं, तो याद रखना तुम्हारी स्त्री भी......
अग्निदत्त : जो तुम कहोगी वह मैं समझ गया। मेरी स्त्री पर चाहे जो बीते, इसकी परवाह नहीं, न मुझे बीरेन्द्रसिंह का डर है। मुझे दुनिया में तुमसे बढ़कर कोई चीज़ दिखाई नहीं देती है। देखो, तुम्हारे लिए मैंने कितना दुःख भोगा और भोगने को तैयार हूँ, क्या अब भी तुमको मुझपर तरस नहीं आता ! मैं कसम खाकर कहता हूँ कि तुम्हें अपनी जान से ज़्यादा प्यार करूँगा, यदि मेरी होकर रहोगी।
किशोरी : अरे दुष्ट चाण्डाल, ख़बरदार फिर ऐसी बात मुँस से न निकालियो !
अग्निदत्त : (हँसकर) देखूँ तो तू अपने को मुझसे क्योंकर बचाती है। इतना कहकर अग्निदत्त किशोरी को पकड़ने आगे बढ़ा। किशोरी घबड़ाकर उठ खड़ी हुई और दूर हट गयी। थोड़ी देर तक तो इस तंग जगह में दौड़-धूपकर किशोरी ने अपने को बचाया मगर कहाँ तक ? आखिर मर्द के सामने औरत की क्या पेश आ सकती थी ! अग्निदत्त को क्रोध आ गया। उसने किशोरी को पकड़ लिया और ज़मीन पर पटक दिया।
पाठक समझते होंगे कि ऐसे समय में इन लोगों के आ पहुँचने और जान बचाने से किशोरी खुश हुई होगी और इन्द्रजीत से मिलने की कुछ उम्मीद भी उसे हो गई होगी मगर नहीं, अपने बचाने वाले को देखते ही किशोरी चिल्ला उठी और उसके दिल का दर्द पहले से भी ज़्यादे बढ़ गया, किशोरी ने आसमान की तरफ़ देखकर कहा, ‘‘मुझे तो विश्वास हो गया था कि इस चिता में जल कर ठण्डे-ठण्डे बैकुंठ चली जाऊँगी। क्योंकि इसकी आँच कुँअर इन्द्रजीतसिंह की जुदाई की आँच से ज़्यादा गर्म न होगी, मगर हाय, इस बात का गुमान भी न था कि दुष्ट आ पहुँचेगा और मैं सचमुच की तपती हुई भट्ठी में झोंक दी जाऊँगी। ऐ मौत तू कहाँ है ? तू कोई वस्तु है भी या नहीं, मुझे तो इसी में शक है !’’
वह आदमी जिसने ऐसे समय में पहुँचकर किशोरी को बचाया, माधवी का दीवान अग्निदत्त था जिसके चंगुल में फंस कर किशोरी ने राजगृही में बहुत दुःख उठाया था और कामिनी की मदद से –जिसका नाम कुछ दिनों तक किन्नरी—था छुट्टी मिली थी। किशोरी के अपने मरनेकी कुछ भी परवाह न थी और वह अग्निदत्त की सूरत देखने की बनिस्बत मौत को लाख दर्जे उत्तम समझती थी, यही सबब था कि इस समय उसे अपनी जान बचाने का रंज हुआ।
अग्निदत्त और उसके आदमियों ने किशोरी को तो बचा लिया मगर जब उसके दुश्मनों को अर्थात धनपति और उसके साथियों को पकड़ने का इरादा किया तो लड़ाई गहरी हो पड़ी। मौका पाकर धनपति भाग गयी और गहन वन में किसी झाड़ी के अन्दर छिपकर उसने अपनी जान बचायी। उसके साथियों में से एक भी न बचा, सब मारे गए। अग्निदत्त भी केवल दो ही आदमियों के साथ बच गया। उस संगदिल ने रोती और चिल्लाती हुई बेचारी किशोरी को ज़बर्दस्ती उठा लिया और एक तरफ़ का रास्ता लिया।
पाठक आश्चर्य करते होंगे कि अग्निदत्त को तो राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने राजगृही में गिरफ्तार कर चुनार भेज दिया था, वह यकायक यहाँ कैसे आ पहुँचा ?’’ इसलिए अग्निदत्त का थोड़ा-सा हाल इस जगह लिख देना हम मुनासिब समझते हैं।
राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने दीवान अग्निदत्त को गिरफ्तार करके अपने बीस सवारों के पहरे में चुनारगढ़ रवाना कर दिया और एक चीठी भी सब हाल की महाराज सुरेन्द्रसिंह को लिखकर, उन्हीं के मार्फ़त भेजी। अग्निदत्त हथकड़ी डाल घोड़े पर सवार कराया गया और उसके पैर रस्सी से घोड़े की जीन के साथ बाँध दिये गए, घोड़े की लम्बी बागडोर दोनों तरफ़ से दो सवारों ने पकड़ली और सफर शुरू कर दिया। तीसरे दिन जब वे लोग सोन नदी के पास पहुँचे अर्थात जब वह नदी दो कोस बाकी रह गई तब उन लोगों पर डाका पड़ा। पचास आदमियों ने चारों तरफ़ से घेर लिया। घंटे-भर की लड़ाई में राजा बीरेन्द्रसिंह के कुल आदमी मारे गए, खबर पहुँचाने के लिए भी एक आदमी न बचा और अग्निदत्त को उन लोगों के हाथों से छुट्टी मिली। वे डाकू सब अग्निदत्त के तरफ़दार और उन लोगों में से थे, जो गया जी में फ़साद मचाया करते थे और उन लोगों की जाने लेते और घर लूटते थे, जो दीवान अग्निदत्त के विरूद्ध जाने जाते। इस तरह अग्निदत्त को छुट्टी मिली और बहुत दिन तक इस डाके की ख़बर राजा बीरेन्द्रसिंह या उनके आदमियों को नहीं मिली।
यद्यपि दीवान अग्निदत्त के हाथ से गया की दीवानी जाती रही और वह एक साधारण आदमी की तरह मारा-मारा फिरने लगा तथापि वह अपने साथी डाकुओं में मालदार गिना जाता था, क्योंकि उसके पास ज़ुल्म की कमाई हुई दौलत थी और वह उस दौलत को राजगृही से थोड़ी दूर पर एक मढ़ी में, जो पहाड़ी के पीछे थी रखता था, जिसका हाल दस-बारह आदमियों के सिवाय किसी को भी मालूम न था। उस दौलत को निकालने में अग्निदत्त ने विलम्ब न किया और उसे अपने कब्ज़े में लाकर साथी डाकुओं के साथ अपनी धुन में चारों तरफ़ घूमने तथा इस बात की टोह लेने लगा कि राजा बीरेन्द्रसिंह की तरफ़ क्या क्या होता है।
थोड़े ही दिन बाद मौक़ा समझकर वह रोहतासगढ़ के चारों तरफ़ घूमने लगा और जिस तरह किशोरी से मिला उसका हाल आप ऊपर पढ़ ही चुके हैं।
जिस जगह अग्निदत्त किशोरी से मिला था, उससे थोड़ी ही दूर पर एक पहाड़ी थी, जिसमें कई खोह और ग़ार थे। वह किशोरी को उठाकर उस पहाड़ी पर ले गया। रोते और चिल्लाते-चिल्लाते किशोरी बेहोश हो गई थी। अग्निदत्त ने उसे खोह के अन्दर ले जाकर लिटा दिया और आप बाहर चला आया।
पहर रात जाते-जाते जब किशोरी होश में आयी तो उसने अपने को अजब हालत में पाया। ऊपर-नीचे चारों तरफ़ वह पत्थर देखकर समझ गई कि मैं किसी खोह में हूँ। एक तरफ़ चिराग जल रहा था। गुलाब के फूल-सी नाज़ुक किशोरी की अवस्था इस समय बहुत ही नाज़ुक थी। अग्निदत्त की याद से उसे घड़ी-घड़ी रोमांच होता था, उसके धड़कते हुए कलेजे में अजब तरह का दर्द था और इस सोच ने उसे बिलकुल ही निकम्मा कर रखा था कि देखें चाण्डाल अग्निदत्त के पहुँचने पर मेरी क्या दुर्दशा होती है। घण्टों की मेहनत में बड़ी कोशिश करके उसने अपने होश-हवाश दुरुस्त किए और सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए। उसने इस इरादे को तो पक्का कर ही लिया था कि अगर अग्निदत्त मेरे पास आवेगा तो पत्थर पर सिर पटककर अपनी जान दे दूँगी, मगर यह भी सोचती थी कि पत्थर पर सिर पटकने से जान नहीं जा सकती, किसी तरह खोह के बाहर निकलकर ऐसा मौका ढूँढ़ना चाहिए कि अपने को इस पहाड़ के नीचे गिराकर बखेड़ा तय कर दिया जाए। जिसमें हमेशा के लिए इस खिंचाखिची से छुट्टी मिले।
किशोरी चिराग बुझाने के लिए उठी ही थी कि सामने से पैर की चाप मालूम हुई। वह डरकर उसी तरफ़ देखने लगी कि यकायक अग्निदत्त पर नज़र पड़ी। देखते ही वह काँप गयी, ऐसा मालूम हुआ कि रगों में ख़ून की जगह पारा भर गया। वह अपने को किसी तरह सम्हाल न सकी और ज़मीन पर बैठकर रोने लगी। अग्निदत्त सामने आकर खड़ा हो गया और बोला—
अग्निदत्त : तुमने मुझको बड़ा ही धोखा दिया, अपने साथ मेरी भी लड़की को भी मुझसे जुदा कर दिया। अभी तक मुझे इस बात का पता न लगा कि मेरी स्त्री पर क्या बीती और बीरेन्द्रसिंह ने उसके साथ क्या सलूक किया, और यह सब तुम्हारी बदौलत हुआ।
किशोरी : फिर भी मैं कहती हूँ कि तुम मुझे सताकर सुख न पाओगो।
अग्निदत्त : इस समय तुम्हें पाकर मैं बहुत खुश हूँ, दीनदुनिया की फिक्र जाती रही, आगे जो होगा देखा जाएगा।
किशोरी : मैं तुमसे वादा करती हूँ कि यदि मुझे छोड़ दोगे तो मैं राजा बीरेन्द्रसिंह से कहकर तुम्हारे क़सूर माफ़ करा दूँगी और तुम्हारी जीविका निर्वाह के लिए भी बन्दोबस्त हो जाएगा नहीं, तो याद रखना तुम्हारी स्त्री भी......
अग्निदत्त : जो तुम कहोगी वह मैं समझ गया। मेरी स्त्री पर चाहे जो बीते, इसकी परवाह नहीं, न मुझे बीरेन्द्रसिंह का डर है। मुझे दुनिया में तुमसे बढ़कर कोई चीज़ दिखाई नहीं देती है। देखो, तुम्हारे लिए मैंने कितना दुःख भोगा और भोगने को तैयार हूँ, क्या अब भी तुमको मुझपर तरस नहीं आता ! मैं कसम खाकर कहता हूँ कि तुम्हें अपनी जान से ज़्यादा प्यार करूँगा, यदि मेरी होकर रहोगी।
किशोरी : अरे दुष्ट चाण्डाल, ख़बरदार फिर ऐसी बात मुँस से न निकालियो !
अग्निदत्त : (हँसकर) देखूँ तो तू अपने को मुझसे क्योंकर बचाती है। इतना कहकर अग्निदत्त किशोरी को पकड़ने आगे बढ़ा। किशोरी घबड़ाकर उठ खड़ी हुई और दूर हट गयी। थोड़ी देर तक तो इस तंग जगह में दौड़-धूपकर किशोरी ने अपने को बचाया मगर कहाँ तक ? आखिर मर्द के सामने औरत की क्या पेश आ सकती थी ! अग्निदत्त को क्रोध आ गया। उसने किशोरी को पकड़ लिया और ज़मीन पर पटक दिया।
दूसरा बयान
पाठक अभी भूले न होंगे कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह कहाँ हैं। हम ऊपर लिख आए
हैं कि उस मकान में जो तालाब के अन्दर बना हुआ था, कुँअर इन्द्रजीतसिंह दो
औरतों को देखकर ताज्जुब में आ गए। कुमार उन औरतों का नाम नहीं जानते थे
मगर पहिचानते ज़रूर थे, क्योंकि उन्हें राजगृही में माधवी के यहाँ देख
चुके थे और जानते थे कि ये दोनों माधवी की लौंडियाँ हैं, परन्तु यह जानने
के लिए कुमार व्याकुल हो रहे थे कि ये दोनों यहाँ क्योंकर आयीं, क्या इस
औरत से जो इस मकान की मालिक है और उस माधवी से कोई संबंध है ? इसी समय उन
दोनों औरतों के पीछे-पीछे वह औरत भी आ पहुँची, जिसने इन्द्रजीतसिंह के ऊपर
अहसान किया था और जो उस मकान की मालिक थी। अभी तक इस औरत का नाम मालूम
नहीं हुआ मगर आगे इससे काम बहुत पड़ेगा, इसलिए जब तक इसका असल नाम मालूम न
हो कोई बनावटी नाम रख दिया जाए तो उत्तम होगा। मेरी समझ में कमलिनी नाम
कुछ बुरा न होगा। जिस समय कुँअर इन्द्रजीतसिंह की निगाह उन दोनों औरतों पर
पड़ी। वे हैरान होकर उनकी तरफ़ देखने लगे, उसी समय दौड़ती हुई कमलिनी भी
आयी और दूर से ही बोली—
कमलिनी : कुमार, इन दोनों हरामखोरियों का कोई मुलाहिज़ा न कीजिएगा और न किसी तरह की ज़ुबान ही दीजिएगा, अपनी जान बचाने के लिए ही दोनों आपके पास आयी हैं।
इन्द्रजीत : क्या मामला है, ये दोनों कौन हैं ?
कमलिनी : ये दोनों माधवी की लौडियाँ हैं, आपकी जान लेने आयी थीं, मेरे आदमियों के हाथ गिरफ़्तार हो गयीं।
इन्द्रजीत : तुम्हारे आदमी कहाँ हैं ? मैंने तो इस मकान में सिवाय तुम्हारे किसी को भी नहीं देखा !
कमलिनी : बाहर निकलकर देखिए मेरे सिपाही मौजूद हैं, जिन्होंने इसे गिरफ़्तार किया।
इन्द्रजीत : अगर ये गिरफ़्तार होकर आयी हैं तो इनके हाथ-पैर खुले क्यों हैं ?
कमलिनी : इसके लिए कोई हर्ज़ नहीं, ये मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं, जब तक कि मैं जागती हूँ या अपने होश में हूँ।
इन्द्रजीत : एक (कमलिनी की तरफ़ इशारा करके) ये जो कुछ कहती हैं, ठीक है परन्तु आप वीर पुरुष हैं, आशा है कि हम लोगों का अपराध क्षमा करेंगे !
कुँअर इन्द्रजीतसिंह इन बातों को सुनकर सोच में पड़ गए। उन्हें उन दोनों औरतों की और कमलिनी की बातों का विश्वास न हुआ, बल्कि यकीन हो गया कि ये लोग किसी तरह का धोखा दिया चाहती हैं। आधी घड़ी तक सोचने के बाद कुमार बँगले के बाहर निकले तो देखा क्या कि तालाब के बाहर लगभग बीस सिपाही खड़े आपुस में कुछ बातें कर रहे और घड़ी-घड़ी इसी तरफ़ देख रहे हैं। कुमार वहाँ से लौट आए और कमलिनी का तरफ़ देखकर बोले—
इन्द्रजीत : ख़ैर जो तुम्हारे जी में आए करो, हम इस बारे में कुछ नहीं कह सकते।
कमलिनी : करना क्या है, इन दोनों का सिर काटा जाएगा।
इन्द्रजीत : खुशी तुम्हारी। मैं जरा इस तालाब के बाहर जाना चहता हूँ।
कमलिनी : क्यों ?
इन्द्रजीत : यह समय मज़ेदार है, ज़रा मैदान की हवा खाऊँगा और उस घोड़े की भी खबर लूँगा जिस सवार होकर आया था।
कमलिनी : इस मकान की छत पर चढ़ने से अच्छी और साफ़ हवा आपको मिल सकती है, घोड़े के लिए चिंता न करें, या फिर ऐसा ही है तो सवेरे जाइएगा !
न मालूम क्या सोचकर इन्द्रजीतसिंह चुप हो रहे। कमलिनी ने उन दोनों औरतों का हाथ पकड़ा और धमकाती हुई न जाने कहाँ ले गयी, इसका हाल कुमार को न मालूम हुआ और न उन्होंने जानने का उद्योग ही किया।
यद्यपि इस औरत अर्थात कमलिनी ने कुमार की जान बचायी थी तथापि उन्हें विश्वास हो गया कि कमलिनी ने दोस्ती की राह पर यह काम नहीं किया बल्कि किसी मतलब से किया है। उस मकान में गुलदस्ते के नीचे से जो चीठी कुमार ने पायी थी उसके पढ़ने से कुमार होशियार हो गए थे तथा समझ गये थे कि यह मुझे मकर में लाया चाहती है और किशोरी के साथ भी किसी तरह की बुराई किया चाहती है। इसमें कोई शक नहीं कि कुमार इसे चाहने लगे थे और जान बचाने का बदला चुकाने की फिक्र में थे मगर उस चीठी के पढ़ते ही उनका रंग बदल गया और वे किसी दूसरी ही धुन में लग गए।
कुमार चाहते तो शायद यहाँ से निकल भागते क्योंकि उस औरत की तरफ़ से होशियार हो चुके थे मगर इस काम में उन्होंने यह समझकर जल्दी न की थी कि इस औरत का कुछ हाल मालूम करना चाहिए और जानना चाहिए कि यह कौन है। पर कमलिनी को कुमार के दिल की क्या खबर थी, उसने तो सोच रखा था कि मैंने कुमार पर अहसान किया है और वे किसी तरह मुझसे बदगुमान न होंगे।
कुमार के पास इस समय सिवाय कपड़ों के कोई चीज़ ऐसी न थी जिससे वे अपनी हिफ़जत करते या समय पड़ने पर मतलब निकाल सकते।
कुछ दिन बाकी था, जब कुमार उस मकान की छत पर चढ़ गये और चारों तरफ़ के पहाड़, जंगल तथा मैदान की बहार देखने लगे। कुमार को यह जगह बहुत ही पसंद आयी और उन्होंने दिल में कहा कि यदि ईश्वर की इच्छा हुई तो सब बखेड़ों से छुट्टी पाकर किशोरी के साथ कुछ दिनों तक इस मकान में ज़रूर रहेंगे। थोड़ी देर तक प्रकृति की शोभा देखकर दिल बहलाते रहे, जब सूर्य अस्त हो गया तो कमलिनी भी वहाँ पहुँची और कुमार के पास खड़ी होकर बातचीत करने लगी।
कमलिनी : यहाँ से अच्छी बहार दिखाई देती है।
कुमार : ठीक है, मगर यह छटा मेरे दिल को किसी तरह नहीं बदल सकती।
कमलिनी : सो क्यों ?
कुमार : तरह-तरह की फ़िक्रों और तरद्दुदों ने मुझे दुःखी कर रक्खा है, बल्कि यहाँ आने और तुम्हारे मिलने से तरद्दुद और भी ज़्यादे हो गया।
कमलिनी : यहाँ आकर कौन-सी फ़िक्र बढ़ गयी ?
कुमार : यह तो तब कह सकता हूँ, जब कुछ तुम्हारा हाल मालूम हो, अभी तो मैं यह भी नहीं जानता कि तुम कौन और कहाँ की रहने वाली हो और इस मकान में आके रहने का सबब क्या है।
कमलिनी : कुमार, मुझे आप से बहुत कुछ बातें कहनी हैं। इसमें कोई शक नहीं कि मेरे बारे में आप तरह-तरह की बातें सोचते होंगे, कभी मुझे ख़ैर ख्वाह तो कभी बदख्वाह समझते होंगे, बल्कि बदख्वाह समझने का मौक़ा ही ज़्यादे मिलता होगा। अक्सर उन लोगों ने जो मुझे जानते हैं मुझे शैतान और ख़ूनी समझ रक्खा है, और इसमें उनका कोई कसूर भी नहीं है। मैं उन लोगों का ज़िक्र इस समय केवल इसीलिए करती हूँ कि शायद उन लोगों ने जो केवल दो-तीन ऐयार मात्र हैं, कुछ चर्चा आपसे की हो।
कुमार : नहीं, मैंने किसी से कभी तुम्हारा जिक्र नहीं सुना।
कमलिनी : ख़ैर, ऐसा मौक़ा न पड़ा होगा पर मेरा मतलब यह है कि जब तक मैं अपने मुँह से कुछ न कहूँगी, मेरे बारे में कोई भी अपनी राय ठीक नहीं कर सकता और.....
इतने ही में सीढ़ी पर किसी के पैर की धमधमाहट मालूम हुई, जिसे सुनकर दोनों चौंके और उसी तरफ़ देखने लगे।
कुमार : इस मकान में तो केवल तुम्हीं रहती हो।
कमलिनी : नहीं और भी कई आदमी रहते हैं, मगर वे लोग उस समय नहीं थे, जब आप आये थे।
दो लौड़ियाँ आते हुए दिखाई पड़ी। एक के हाथ में छोटा-सा गालीचा था, दूसरी के हाथ में शमादान और तीसरी पान दान लिए हुए थी। गालीचा बिछा दिया गया, शमादान और पानदान रखकर, लौडियाँ हाथ जोड़े सामने खड़ी हो गईं। कमलिनी के कहने से कुमार गालीचे पर बैठ गए और कमलिनी भी पास बैठ गई। इसी समय इन तीनों लौडियों का वहाँ पहुँचकर बातचीत में बाधा डालना कुमार को बहुत बुरा मालूम हुआ क्योंकि वे बड़े ही गौर से कमलिनी की बातें सुन रहे थे और इस बीच में उनके दिल की अजीब हालत थी। कुमार ने कमलिनी की तरफ़ देखके कहा, ‘‘हाँ, तुम अपनी बातों का सिलसिला मत तोड़ो।’’
कमलिनी : (लौडियों की तरफ़ देखकर) अच्छा ! तुम लोग जाओ बहुत जल्द खाने का बन्दोबस्त करो।
कुमार : अभी खाने के लिए जल्दी न करो।
कमलिनी : ख़ैर, ये लोग काम पूरा रक्खें, आप जब चाहे भोजन करें।
कुमार : अच्छा हाँ तब ?
कमलिनी : (डिब्बे से पान निकालकर) लीजिए पान खाइए।
कुमार ने पान हाथ में रख लिया और पूछा, ‘‘हाँ तब ?’’
कमलिनी : पान खाइए, आप डरिए मत, इसमें बेहोशी की दवा नहीं मिली है। हाँ, अगर आप ऐसा ख़याल करें भी तो कोई बेमौक़ा नहीं !
कुमार : (हँसकर) इसमें कोई शक नहीं कि इतनी ख़ैरख्वाही करने पर भी मैं तुम्हारी तरफ़ से बदगुमान हूँ, मगर तुम्हारी बातें अजब ढंग पर चल रही हैं। (पान खाकर) अब जो हो, जब तुमने मेरी जान बचायी है तो कब हो सकता है कि तुम अपने हाथ से मुझे ज़हर दो।
कमलिनी : (हँसकर) कुमार, यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि आप मुझ पर शक करें। माधवी की दोनों लौंडियों का मामला भी जो अभी थोड़ी देर पहले हुआ आप देख चुके हैं, मुझ पर शक करने का मौक़ा आपको देगा। मगर नहीं, आप पूरा विश्वास रखिए कि मैं आप के साथ कभी बुराई नहीं करूँगी। कई आदमी मेरी शिकायत आप से करेंगे, आप ही के कई ऐयार असल हाल न जानने के कारण, मेरे दुश्मन हो जाएँगे, मगर सिवाय कसम खाकर कहने के और किस तरह आपको विश्वास दिलाऊँ कि मैं ख़ैरख्वाह हूँ। आप यह भी सोच सकते हैं कि मैं आपके साथ ख़ैरख्वाही क्यों कर रही हूँ।
दुनिया का कायदा है कि बिना मतलब कोई किसी का काम नहीं करता और मैं भी दुनिया के बाहर नहीं हूँ, अस्तु, मैं भी आपसे बहुत कुछ उम्मीद करती हूं, मगर उसे जुबान से कह नहीं सकती। अभी आपको मुझसे वर्षों तक काम पड़ेगा, जब आप हर तरह से निश्चिंत हो जाएंगे, आपकी किशोरी, जो इस समय रोहतास गढ़ में कैद है, आपको मिल जाएगी, इसके अतिरिक्त एक और भी भारी काम आपके हाथ से हो लेगा, तब कहीं मेरी मुराद पूरी होगी
अर्थात उस समय मुझे कुछ आपसे माँगना होगा माँगूँगी। आप मेरी बात याद रखिएगा कि आपही के ऐयार मेरे दुश्मन होंगे और अन्त में झखमार कर मुझसे ही दोस्ती के तौर पर उन्हें सलाह लेनी पड़ेगी। आप यह भी न समझिये कि मैं आज-ही-कल से आपकी तरफ़दार बनी हूँ; नहीं, बल्कि मैं महीनों से आपका काम कर रही हूँ और इस सबब से सैकड़ों आदमी मेरे दुश्मन हो रहे हैं। दुश्मनों ही के डर से मैं इस तालाब में छिपकर बैठी रहती हूँ, क्योंकि जिन्हें इसका भेद मालूम नहीं है, वे इस मकान के अन्दर पैर नहीं रख सकते। आप मुझे अकेली समझते होंगे, मगर मैं अकेली नहीं हूँ। लौंडी, सिपाही और ऐयार मिलाकर इस गयी गुज़री हालत में भी पचास आदमी मेरी ताबेदारी कर रहे हैं।
कमलिनी : कुमार, इन दोनों हरामखोरियों का कोई मुलाहिज़ा न कीजिएगा और न किसी तरह की ज़ुबान ही दीजिएगा, अपनी जान बचाने के लिए ही दोनों आपके पास आयी हैं।
इन्द्रजीत : क्या मामला है, ये दोनों कौन हैं ?
कमलिनी : ये दोनों माधवी की लौडियाँ हैं, आपकी जान लेने आयी थीं, मेरे आदमियों के हाथ गिरफ़्तार हो गयीं।
इन्द्रजीत : तुम्हारे आदमी कहाँ हैं ? मैंने तो इस मकान में सिवाय तुम्हारे किसी को भी नहीं देखा !
कमलिनी : बाहर निकलकर देखिए मेरे सिपाही मौजूद हैं, जिन्होंने इसे गिरफ़्तार किया।
इन्द्रजीत : अगर ये गिरफ़्तार होकर आयी हैं तो इनके हाथ-पैर खुले क्यों हैं ?
कमलिनी : इसके लिए कोई हर्ज़ नहीं, ये मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं, जब तक कि मैं जागती हूँ या अपने होश में हूँ।
इन्द्रजीत : एक (कमलिनी की तरफ़ इशारा करके) ये जो कुछ कहती हैं, ठीक है परन्तु आप वीर पुरुष हैं, आशा है कि हम लोगों का अपराध क्षमा करेंगे !
कुँअर इन्द्रजीतसिंह इन बातों को सुनकर सोच में पड़ गए। उन्हें उन दोनों औरतों की और कमलिनी की बातों का विश्वास न हुआ, बल्कि यकीन हो गया कि ये लोग किसी तरह का धोखा दिया चाहती हैं। आधी घड़ी तक सोचने के बाद कुमार बँगले के बाहर निकले तो देखा क्या कि तालाब के बाहर लगभग बीस सिपाही खड़े आपुस में कुछ बातें कर रहे और घड़ी-घड़ी इसी तरफ़ देख रहे हैं। कुमार वहाँ से लौट आए और कमलिनी का तरफ़ देखकर बोले—
इन्द्रजीत : ख़ैर जो तुम्हारे जी में आए करो, हम इस बारे में कुछ नहीं कह सकते।
कमलिनी : करना क्या है, इन दोनों का सिर काटा जाएगा।
इन्द्रजीत : खुशी तुम्हारी। मैं जरा इस तालाब के बाहर जाना चहता हूँ।
कमलिनी : क्यों ?
इन्द्रजीत : यह समय मज़ेदार है, ज़रा मैदान की हवा खाऊँगा और उस घोड़े की भी खबर लूँगा जिस सवार होकर आया था।
कमलिनी : इस मकान की छत पर चढ़ने से अच्छी और साफ़ हवा आपको मिल सकती है, घोड़े के लिए चिंता न करें, या फिर ऐसा ही है तो सवेरे जाइएगा !
न मालूम क्या सोचकर इन्द्रजीतसिंह चुप हो रहे। कमलिनी ने उन दोनों औरतों का हाथ पकड़ा और धमकाती हुई न जाने कहाँ ले गयी, इसका हाल कुमार को न मालूम हुआ और न उन्होंने जानने का उद्योग ही किया।
यद्यपि इस औरत अर्थात कमलिनी ने कुमार की जान बचायी थी तथापि उन्हें विश्वास हो गया कि कमलिनी ने दोस्ती की राह पर यह काम नहीं किया बल्कि किसी मतलब से किया है। उस मकान में गुलदस्ते के नीचे से जो चीठी कुमार ने पायी थी उसके पढ़ने से कुमार होशियार हो गए थे तथा समझ गये थे कि यह मुझे मकर में लाया चाहती है और किशोरी के साथ भी किसी तरह की बुराई किया चाहती है। इसमें कोई शक नहीं कि कुमार इसे चाहने लगे थे और जान बचाने का बदला चुकाने की फिक्र में थे मगर उस चीठी के पढ़ते ही उनका रंग बदल गया और वे किसी दूसरी ही धुन में लग गए।
कुमार चाहते तो शायद यहाँ से निकल भागते क्योंकि उस औरत की तरफ़ से होशियार हो चुके थे मगर इस काम में उन्होंने यह समझकर जल्दी न की थी कि इस औरत का कुछ हाल मालूम करना चाहिए और जानना चाहिए कि यह कौन है। पर कमलिनी को कुमार के दिल की क्या खबर थी, उसने तो सोच रखा था कि मैंने कुमार पर अहसान किया है और वे किसी तरह मुझसे बदगुमान न होंगे।
कुमार के पास इस समय सिवाय कपड़ों के कोई चीज़ ऐसी न थी जिससे वे अपनी हिफ़जत करते या समय पड़ने पर मतलब निकाल सकते।
कुछ दिन बाकी था, जब कुमार उस मकान की छत पर चढ़ गये और चारों तरफ़ के पहाड़, जंगल तथा मैदान की बहार देखने लगे। कुमार को यह जगह बहुत ही पसंद आयी और उन्होंने दिल में कहा कि यदि ईश्वर की इच्छा हुई तो सब बखेड़ों से छुट्टी पाकर किशोरी के साथ कुछ दिनों तक इस मकान में ज़रूर रहेंगे। थोड़ी देर तक प्रकृति की शोभा देखकर दिल बहलाते रहे, जब सूर्य अस्त हो गया तो कमलिनी भी वहाँ पहुँची और कुमार के पास खड़ी होकर बातचीत करने लगी।
कमलिनी : यहाँ से अच्छी बहार दिखाई देती है।
कुमार : ठीक है, मगर यह छटा मेरे दिल को किसी तरह नहीं बदल सकती।
कमलिनी : सो क्यों ?
कुमार : तरह-तरह की फ़िक्रों और तरद्दुदों ने मुझे दुःखी कर रक्खा है, बल्कि यहाँ आने और तुम्हारे मिलने से तरद्दुद और भी ज़्यादे हो गया।
कमलिनी : यहाँ आकर कौन-सी फ़िक्र बढ़ गयी ?
कुमार : यह तो तब कह सकता हूँ, जब कुछ तुम्हारा हाल मालूम हो, अभी तो मैं यह भी नहीं जानता कि तुम कौन और कहाँ की रहने वाली हो और इस मकान में आके रहने का सबब क्या है।
कमलिनी : कुमार, मुझे आप से बहुत कुछ बातें कहनी हैं। इसमें कोई शक नहीं कि मेरे बारे में आप तरह-तरह की बातें सोचते होंगे, कभी मुझे ख़ैर ख्वाह तो कभी बदख्वाह समझते होंगे, बल्कि बदख्वाह समझने का मौक़ा ही ज़्यादे मिलता होगा। अक्सर उन लोगों ने जो मुझे जानते हैं मुझे शैतान और ख़ूनी समझ रक्खा है, और इसमें उनका कोई कसूर भी नहीं है। मैं उन लोगों का ज़िक्र इस समय केवल इसीलिए करती हूँ कि शायद उन लोगों ने जो केवल दो-तीन ऐयार मात्र हैं, कुछ चर्चा आपसे की हो।
कुमार : नहीं, मैंने किसी से कभी तुम्हारा जिक्र नहीं सुना।
कमलिनी : ख़ैर, ऐसा मौक़ा न पड़ा होगा पर मेरा मतलब यह है कि जब तक मैं अपने मुँह से कुछ न कहूँगी, मेरे बारे में कोई भी अपनी राय ठीक नहीं कर सकता और.....
इतने ही में सीढ़ी पर किसी के पैर की धमधमाहट मालूम हुई, जिसे सुनकर दोनों चौंके और उसी तरफ़ देखने लगे।
कुमार : इस मकान में तो केवल तुम्हीं रहती हो।
कमलिनी : नहीं और भी कई आदमी रहते हैं, मगर वे लोग उस समय नहीं थे, जब आप आये थे।
दो लौड़ियाँ आते हुए दिखाई पड़ी। एक के हाथ में छोटा-सा गालीचा था, दूसरी के हाथ में शमादान और तीसरी पान दान लिए हुए थी। गालीचा बिछा दिया गया, शमादान और पानदान रखकर, लौडियाँ हाथ जोड़े सामने खड़ी हो गईं। कमलिनी के कहने से कुमार गालीचे पर बैठ गए और कमलिनी भी पास बैठ गई। इसी समय इन तीनों लौडियों का वहाँ पहुँचकर बातचीत में बाधा डालना कुमार को बहुत बुरा मालूम हुआ क्योंकि वे बड़े ही गौर से कमलिनी की बातें सुन रहे थे और इस बीच में उनके दिल की अजीब हालत थी। कुमार ने कमलिनी की तरफ़ देखके कहा, ‘‘हाँ, तुम अपनी बातों का सिलसिला मत तोड़ो।’’
कमलिनी : (लौडियों की तरफ़ देखकर) अच्छा ! तुम लोग जाओ बहुत जल्द खाने का बन्दोबस्त करो।
कुमार : अभी खाने के लिए जल्दी न करो।
कमलिनी : ख़ैर, ये लोग काम पूरा रक्खें, आप जब चाहे भोजन करें।
कुमार : अच्छा हाँ तब ?
कमलिनी : (डिब्बे से पान निकालकर) लीजिए पान खाइए।
कुमार ने पान हाथ में रख लिया और पूछा, ‘‘हाँ तब ?’’
कमलिनी : पान खाइए, आप डरिए मत, इसमें बेहोशी की दवा नहीं मिली है। हाँ, अगर आप ऐसा ख़याल करें भी तो कोई बेमौक़ा नहीं !
कुमार : (हँसकर) इसमें कोई शक नहीं कि इतनी ख़ैरख्वाही करने पर भी मैं तुम्हारी तरफ़ से बदगुमान हूँ, मगर तुम्हारी बातें अजब ढंग पर चल रही हैं। (पान खाकर) अब जो हो, जब तुमने मेरी जान बचायी है तो कब हो सकता है कि तुम अपने हाथ से मुझे ज़हर दो।
कमलिनी : (हँसकर) कुमार, यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि आप मुझ पर शक करें। माधवी की दोनों लौंडियों का मामला भी जो अभी थोड़ी देर पहले हुआ आप देख चुके हैं, मुझ पर शक करने का मौक़ा आपको देगा। मगर नहीं, आप पूरा विश्वास रखिए कि मैं आप के साथ कभी बुराई नहीं करूँगी। कई आदमी मेरी शिकायत आप से करेंगे, आप ही के कई ऐयार असल हाल न जानने के कारण, मेरे दुश्मन हो जाएँगे, मगर सिवाय कसम खाकर कहने के और किस तरह आपको विश्वास दिलाऊँ कि मैं ख़ैरख्वाह हूँ। आप यह भी सोच सकते हैं कि मैं आपके साथ ख़ैरख्वाही क्यों कर रही हूँ।
दुनिया का कायदा है कि बिना मतलब कोई किसी का काम नहीं करता और मैं भी दुनिया के बाहर नहीं हूँ, अस्तु, मैं भी आपसे बहुत कुछ उम्मीद करती हूं, मगर उसे जुबान से कह नहीं सकती। अभी आपको मुझसे वर्षों तक काम पड़ेगा, जब आप हर तरह से निश्चिंत हो जाएंगे, आपकी किशोरी, जो इस समय रोहतास गढ़ में कैद है, आपको मिल जाएगी, इसके अतिरिक्त एक और भी भारी काम आपके हाथ से हो लेगा, तब कहीं मेरी मुराद पूरी होगी
अर्थात उस समय मुझे कुछ आपसे माँगना होगा माँगूँगी। आप मेरी बात याद रखिएगा कि आपही के ऐयार मेरे दुश्मन होंगे और अन्त में झखमार कर मुझसे ही दोस्ती के तौर पर उन्हें सलाह लेनी पड़ेगी। आप यह भी न समझिये कि मैं आज-ही-कल से आपकी तरफ़दार बनी हूँ; नहीं, बल्कि मैं महीनों से आपका काम कर रही हूँ और इस सबब से सैकड़ों आदमी मेरे दुश्मन हो रहे हैं। दुश्मनों ही के डर से मैं इस तालाब में छिपकर बैठी रहती हूँ, क्योंकि जिन्हें इसका भेद मालूम नहीं है, वे इस मकान के अन्दर पैर नहीं रख सकते। आप मुझे अकेली समझते होंगे, मगर मैं अकेली नहीं हूँ। लौंडी, सिपाही और ऐयार मिलाकर इस गयी गुज़री हालत में भी पचास आदमी मेरी ताबेदारी कर रहे हैं।
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