बहुभागीय पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति 6 चन्द्रकान्ता सन्तति 6देवकीनन्दन खत्री
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हिन्दी का सर्वाधिक चर्चित तिलस्मी उपन्यास - छठा भाग
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इक्कीसवाँ भाग
पहिला बयान
भूतनाथ अपना हाल कहते-कहते कुछ देर के लिए रुक गया औऱ इसके बाद एक लम्बी
साँस लेकर पुनः यों कहने लगा-
‘‘मैं अपने को कैदियों की तरह औऱ सामने अपनी ही स्त्री को सरदारी के ढंग पर बैठे हुए देखकर, एक दफे घबड़ा गया औऱ सोचने लगा कि क्या मामला है ? मेरी स्त्री मुझे सामने ऐसी अवस्था में देखे और सिवाय मुस्कुराने के कुछ न बोले !! अगर वह चाहती तो मुझे अपने पास गद्दी पर बैठा लेती, क्योंकि इस कमरे में जितने दिखायी दे रहे हैं, उन सभों की वह सरदार मालूम पड़ती है, इत्यादि बातों को सोचते-सोचते मुझे क्रोध चढ़ आया औऱ मैंने लाल आँखों से उसकी तरफ देखकर कहा, ‘‘क्या तू मेरी स्त्री वही रामदेई है, जिसके लिए मैंने तरह-तरह के कष्ट उठाये और जो इस समय मुझे कैदियों की अवस्था में अपने सामने देख रही है ?’’
इसके जवाब में मेरी स्त्री ने कहा, ‘‘हाँ, मैं वही रामदेई हूँ, जिसके लड़के को तुम किसी जमाने में अपना होनहार लड़का समझकर चाहते और प्यार करते थे, मगर आज उसे दुश्मनी की निगाह से देख रहे हो, मैं वही रामदेई हूँ, जो तुम्हारे असली भेदों को न जानकर औऱ तुम्हें एक नेक, ईमानदार तथा सच्चा ऐयार समझकर तुम्हारे फन्दे में फँस गयी थी, मगर आज तुम्हारे असली भेदों का पता लग जाने के कारण डरती हुई, तुमसे अलग हुआ चाहती हूँ, मैं वही रामदेई हूँ, जिसे तुमने नकाबपोशों के मकान में देखा था और मैं वही रामदेई हूँ, जिसने उस दिन तुम्हें जंगल में धोखा देकर बैरंग वापस होने पर मजबूर किया था, मगर मैं वह रामदेई नहीं हूँ, जिसे तुम ‘लामाघाटी’ में छोड़ आये हो।’’
मुझे उस औरत की बातों ने ताज्जुब में डाल दिया और मैं हैरानी के साथ उसका मुँह देखने लगा। अनूठी बात तो यह थी कि वह अपनी बातों में शुरू से तो रामदेई अथवा मेरी स्त्री बनती चली आयी, मगर आखीर में बोल बैठी कि ‘मगर मैं वह रामदेई नहीं हूँ, जिसे तुम लामाघाटी में छोड़ आये हो’। आखिर बहुत सोच-विचार कर मैंने पुनः उससे कहा, ‘‘अगर तू वह रामदेई नहीं है, जिसे मैं लामाघाटी में छोड़ आया था तो तू मेरी स्त्री भी नहीं है।’’
स्त्रीः तो यह कौन कहता है कि मैं तुम्हारी स्त्री हूँ।
मैं: अभी इसके पहिले तूने क्या कहा था ?
स्त्रीः (हँसकर) मालूम होता है कि तुम अपने होश में नहीं हो।
इतना सुनते ही मुझे क्रोध चढ़ आया औऱ मैं हथकड़ी-बेड़ी तोड़ने का उद्योग करने लगा। यह हाल देखकर उस औऱत को भी क्रोध आ गया और उसने अपनी एक सखी या लौंडी की तरफ देखकर कुछ इशारा किया। वह लौंडी इशारा पाते ही उठी और उसी जगह आले पर से एक बोतल उठा लायी, जिसमें किसी प्रकार का अर्क था। उस अर्क से चुल्लू-भर उसने दो-तीन छींटे मेरे मुँह पर दिये, जिसके सबब से मैं बेहोश हो गया और मुझे तनोबदन की सुध न रही। मैं यह नहीं बता सकता कि इसके बाद कै घण्टे तक मैं उसके कब्जे में रहा, परन्तु जब होश में आया तो मैंने अपने को जंगल में एक पेड़ की नीचे पाया। घण्टो तक ताज्जुब के साथ चारों तरफ देखता रहा, इसके बाद एक चश्मे के किनारे जाकर हाथ-मुँह धोने के बाद इस तरफ रवाना हुआ। बस यही सबब था कि मुझे हाजिर होने में देर हो गयी।
भूतनाथ की बातें सुनकर सभों को ताज्जुब हुआ मगर वे दोनों नकाबपोश एकदम खिलखिलाकर हँस पड़े और उनमें से एक ने भूतनाथ की तरफ देखकर कहा-
नकाबपोशः भूतनाथ, निःसन्देह तुम धोखे में पड़ गये। उस औऱत ने जो कुछ तुमसे कहा, उसमें शायद ही दो-तीन बातें सच हों।
भूतनाथः (ताज्जुब से) सो क्या ! उसने कौन-सी बात सच कही थी, कौन-सी झूठ ?
नकाबपोशः सो मैं नहीं कह सकता, मगर आशा है कि शीघ्र ही तुम्हें सच-झूठ का पता लग जायगा।
भूतनाथ ने बहुत कुछ चाहा, मगर नकाबपोश ने उसके मतलब की कोई बात न कही। थोड़ी देर तक इधर-उधऱ की बातें करके नकाबपोश बिदा हुए और जाते समय एक सवाल के जवाब में कह गये कि ‘आप लोग दो दिन और सब्र करें, इसके बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के सामने ही सब भेदों का खुलना अच्छा होगा, क्योंकि उन्हें इन बातों के जानने का बड़ा शौक था’।
‘‘मैं अपने को कैदियों की तरह औऱ सामने अपनी ही स्त्री को सरदारी के ढंग पर बैठे हुए देखकर, एक दफे घबड़ा गया औऱ सोचने लगा कि क्या मामला है ? मेरी स्त्री मुझे सामने ऐसी अवस्था में देखे और सिवाय मुस्कुराने के कुछ न बोले !! अगर वह चाहती तो मुझे अपने पास गद्दी पर बैठा लेती, क्योंकि इस कमरे में जितने दिखायी दे रहे हैं, उन सभों की वह सरदार मालूम पड़ती है, इत्यादि बातों को सोचते-सोचते मुझे क्रोध चढ़ आया औऱ मैंने लाल आँखों से उसकी तरफ देखकर कहा, ‘‘क्या तू मेरी स्त्री वही रामदेई है, जिसके लिए मैंने तरह-तरह के कष्ट उठाये और जो इस समय मुझे कैदियों की अवस्था में अपने सामने देख रही है ?’’
इसके जवाब में मेरी स्त्री ने कहा, ‘‘हाँ, मैं वही रामदेई हूँ, जिसके लड़के को तुम किसी जमाने में अपना होनहार लड़का समझकर चाहते और प्यार करते थे, मगर आज उसे दुश्मनी की निगाह से देख रहे हो, मैं वही रामदेई हूँ, जो तुम्हारे असली भेदों को न जानकर औऱ तुम्हें एक नेक, ईमानदार तथा सच्चा ऐयार समझकर तुम्हारे फन्दे में फँस गयी थी, मगर आज तुम्हारे असली भेदों का पता लग जाने के कारण डरती हुई, तुमसे अलग हुआ चाहती हूँ, मैं वही रामदेई हूँ, जिसे तुमने नकाबपोशों के मकान में देखा था और मैं वही रामदेई हूँ, जिसने उस दिन तुम्हें जंगल में धोखा देकर बैरंग वापस होने पर मजबूर किया था, मगर मैं वह रामदेई नहीं हूँ, जिसे तुम ‘लामाघाटी’ में छोड़ आये हो।’’
मुझे उस औरत की बातों ने ताज्जुब में डाल दिया और मैं हैरानी के साथ उसका मुँह देखने लगा। अनूठी बात तो यह थी कि वह अपनी बातों में शुरू से तो रामदेई अथवा मेरी स्त्री बनती चली आयी, मगर आखीर में बोल बैठी कि ‘मगर मैं वह रामदेई नहीं हूँ, जिसे तुम लामाघाटी में छोड़ आये हो’। आखिर बहुत सोच-विचार कर मैंने पुनः उससे कहा, ‘‘अगर तू वह रामदेई नहीं है, जिसे मैं लामाघाटी में छोड़ आया था तो तू मेरी स्त्री भी नहीं है।’’
स्त्रीः तो यह कौन कहता है कि मैं तुम्हारी स्त्री हूँ।
मैं: अभी इसके पहिले तूने क्या कहा था ?
स्त्रीः (हँसकर) मालूम होता है कि तुम अपने होश में नहीं हो।
इतना सुनते ही मुझे क्रोध चढ़ आया औऱ मैं हथकड़ी-बेड़ी तोड़ने का उद्योग करने लगा। यह हाल देखकर उस औऱत को भी क्रोध आ गया और उसने अपनी एक सखी या लौंडी की तरफ देखकर कुछ इशारा किया। वह लौंडी इशारा पाते ही उठी और उसी जगह आले पर से एक बोतल उठा लायी, जिसमें किसी प्रकार का अर्क था। उस अर्क से चुल्लू-भर उसने दो-तीन छींटे मेरे मुँह पर दिये, जिसके सबब से मैं बेहोश हो गया और मुझे तनोबदन की सुध न रही। मैं यह नहीं बता सकता कि इसके बाद कै घण्टे तक मैं उसके कब्जे में रहा, परन्तु जब होश में आया तो मैंने अपने को जंगल में एक पेड़ की नीचे पाया। घण्टो तक ताज्जुब के साथ चारों तरफ देखता रहा, इसके बाद एक चश्मे के किनारे जाकर हाथ-मुँह धोने के बाद इस तरफ रवाना हुआ। बस यही सबब था कि मुझे हाजिर होने में देर हो गयी।
भूतनाथ की बातें सुनकर सभों को ताज्जुब हुआ मगर वे दोनों नकाबपोश एकदम खिलखिलाकर हँस पड़े और उनमें से एक ने भूतनाथ की तरफ देखकर कहा-
नकाबपोशः भूतनाथ, निःसन्देह तुम धोखे में पड़ गये। उस औऱत ने जो कुछ तुमसे कहा, उसमें शायद ही दो-तीन बातें सच हों।
भूतनाथः (ताज्जुब से) सो क्या ! उसने कौन-सी बात सच कही थी, कौन-सी झूठ ?
नकाबपोशः सो मैं नहीं कह सकता, मगर आशा है कि शीघ्र ही तुम्हें सच-झूठ का पता लग जायगा।
भूतनाथ ने बहुत कुछ चाहा, मगर नकाबपोश ने उसके मतलब की कोई बात न कही। थोड़ी देर तक इधर-उधऱ की बातें करके नकाबपोश बिदा हुए और जाते समय एक सवाल के जवाब में कह गये कि ‘आप लोग दो दिन और सब्र करें, इसके बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के सामने ही सब भेदों का खुलना अच्छा होगा, क्योंकि उन्हें इन बातों के जानने का बड़ा शौक था’।
दूसरा बयान
रात आधी से कुछ ज्यादा जा चुकी है। महाराज सुरेन्द्रसिंह अपने कमरे में
पलँग पर लेटे हुए जीतसिंह से धीरे-धीरे कुछ बातें कर रहे हैं, जो चारपाई
के नीचे उनके पास ही बैठे हैं। केवल जीतसिंह ही नहीं, बल्कि उनके पास वे
दोनों नकाबपोश भी बैठे हुए हैं, जो दरबार में आकर लोगों को ताज्जुब में
डाला करते हैं और जिनका नाम रामसिंह औऱ लक्ष्मणसिंह है। हम नहीं कह सकते
कि ये लोग कब से इस कमरे में बैठे हुए हैं, या इसके पहिले इन लोगों में
क्या-क्या बातें हो चुकी हैं, मगर इस समय तो ये लोग कई ऐसे मामलों पर
बातचीत कर रहे हैं, जिनका पूरा होना बहुत जरूरी समझा जाता है।
बात करते-करते एक दफे कुछ रुककर महाराज सुरेन्द्रसिंह ने जीतसिंह से कहा, ‘‘इस राय में गोपालसिंह का भी शरीक होना उचित जान पड़ता है, किसी को भेजकर उन्हें बुलाना चाहिए।’’
‘‘जो आज्ञा’’ कहकर जीतसिंह उठे औऱ कमरे के बाहर जाकर राजा गोपालसिंह को बुलाने के लिए चोबदार को हुक्म देने के बाद, पुनः अपने ठिकाने पर बैठकर बातचीत करने लगे।
जीतसिंहः इसमें तो कोई शक नहीं कि भूतनाथ आदमी चालाक और पूरे दर्जे का ऐयार है, मगर उसके दुश्मन लोग उस पर बेतरह टूट पड़े हैं और चाहते हैं कि जिस तरह बने उसे बर्बाद कर दें औऱ इसलिए उसके पुराने ऐबों को उधेड़कर उसे तरह-तरह की तकलीफें दे रहे हैं।
सुरेन्द्रः ठीक है, मगर हमारे साथ भूतनाथ ने सिवाय एक दफे चोरी करने के और कौन-सी बुराई की है, जिसके लिए उसे हम सजा दें या बुरा कहें ?
जीतः कुछ भी नहीं औऱ वह चोरी भी उसने किसी बुरी नीयत से नहीं की थी, इस विषय में नानक ने जो कुछ कहा था, महाराज सुन ही चुके हैं।
सुरेन्द्रः हाँ, मुझे याद है और उसने हम लोगों पर अहसान भी बहुत किये हैं, बल्कि यों कहना चाहिए कि उसी की बदौलत कमलिनी, किशोरी, लक्ष्मीदेवी और इन्दिरा वगैरह की जानें बचीं और गोपालसिंह को भी उसकी मदद से बहुत फायदा पहुँचा है। इन्हीं सब बातों को सोचके तो देवीसिंह ने उसे अपना दोस्त बना लिया था, मगर साथ ही इसके इस बात को भी समझ रखना चाहिए कि जब तक भूतनाथ का मामला तै नहीं हो जायगा, तब तक लोग उसके ऐबों को खोद-खोकर निकाला ही करेंगे और तरह-तरह की बातें गढ़ते रहेंगे।
एक नकाबपोशः सो तो ठीक ही है, मगर सच पूछिए तो भूतनाथ का मुकदमा ही कैसा और मामला ही क्या ? मुकदमा तो असल में नकली बलभद्रसिंह का है, जिसने इतना बड़ा कसूर करने पर भी भूतनाथ पर इल्जाम लगाया है। उस पीतलवाली सन्दूकड़ी से तो हम लोगों को कोई मतलब ही नहीं। हाँ, बाकी रह गया चीठियोंवाला मुट्ठा, जिसके पढ़ने से भूतनाथ, लक्ष्मीदेवी का कसूरवार मालूम होता है, सो उसका जवाब भूतनाथ काफी तौर पर दे देगा और साबित कर देगा कि वे चीठियाँ उसके हाथ की लिखी हुई होने पर भी वह कसूरवार नहीं है और वास्तव में वह बलभद्रसिंह का दोस्त है, दुश्मन नहीं।
सुरेन्द्रः (लम्बी साँस लेकर) ओफ ओह, इस थोड़े से जमाने में कैसे-कैसे उलटफेर हो गये ! बेचारे गोपालसिंह के साथ कैसी धोखेबाजियाँ की गयीं। इन बातों पर जब हमारा ध्यान जाता है, तो मारे क्रोध के बुरा हाल हो जाता है।
जीतः ठीक है, मगर खैर अब इन बातों पर क्रोध करने की जगह नहीं रही, क्योंकि जो कुछ होना था हो गया। ईश्वर की कृपा से गोपालसिंह भी मौत की तकलीफ उठाकर बच गये और अब हर तरह से प्रसन्न हैं, इसके अतिरिक्त उनके दुश्मन लोग भी गिरफ्तार होकर अपने पंजे में आये हुए हैं।
सुरेन्द्रः बेशक, ऐसा ही है, मगर हमें कोई ऐसी सजा नहीं सूझती, जो उनके दुश्मनों को देकर कलेजा ठण्डा किया जाय और समझा जाय कि अब गोपालसिंह के साथ बुराई करने का बदला ले लिया गया।
महाराज सुरेन्द्रसिंह इतना कह ही रहे थे कि राजा गोपालसिंह कमरे के अन्दर आते हुए दिखायी पड़े, क्योंकि उनका डेरा इस कमरे से बहुत दूर न था।
राजा गोपालसिंह सलाम करके पलँग के पास बैठ गये और इसके बाद दोनों नकाबपोशों से भी साहब सलामत करके मुस्कुराते हुए बोले-
‘‘आप लोग कब से बैठे हैं ?’’
एक नकाबपोशः हम लोगों को आये हुए बहुत देर हो गयी।
सुरेन्द्रः ये बेचारे कई घण्टे से बैठे हुए हमारी तबीयत बहला रहे हैं और कई जरूरी बातों पर विचार कर रहे हैं।
गोपालः वे कौन-सी बातें हैं ?
सुरेन्द्रः यही लड़कों की शादी, भूतनाथ का फैसला, कैदियों का मुकदमा, कमलिनी और लाडिली के साथ उचित बर्ताव इत्यादि विषयों पर बातचीत हो रही है औऱ सोच रहे हैं कि किस तरह क्या किया जाय तथा पहिले क्या काम हो ?
गोपालः इस समय मैं भी इसी उलझन में पड़ा हुआ था। मैं सोया नहीं था, बल्कि जागता हुआ इन्हीं बातों को सोच रहा था कि आपका सन्देशा पहुँचा और तुरन्त उठकर इस तरफ चला आया। (नकाबपोशों की तरफ बताकर) आप लोग तो अब हमारे घर के व्यक्ति हो रहे हैं। अस्तु, ऐसे विचारों में आप लोगों को शरीक होना ही चाहिए।
सुरेन्द्रः जीतसिंह कहते हैं कि कैदियों का मुकदमा होने और उनको सजा देने के पहिले ही दोनों लड़कों की शादी हो जानी चाहिए, जिससे कैदी लोग भी इस उत्सव को देखकर अपना जी जला लें और समझ लें कि उनकी बेईमानी, हरामजदगी और दुश्मनी का नतीजा क्या निकला। साथ ही इसके एक बात का फायदा औऱ भी होगा, अर्थात् कैदियों के पक्षपाती लोग भी, जो ताज्जुब नहीं कि इस समय भी कहीं इधर-उधर छिपे मन के लड्डू बना रहे हों, समझ जायँगे कि अब उन्हें दुश्मनी करने की कोई जरूरत नहीं रही, और न ऐसा करने से कोई फायदा ही है।
गोपालः ठीक है, जब तक दोनों कुमारों की शादी न हो जायगी, तब तक तरह-तरह के खुटके बने ही रहेंगे। शादी हो जाने के बाद मेहमानों के सामने ही कैदियों को जहन्नुम में पहुँचाकर, दुनिया को दिखा दिया जायगा कि बुरे कर्मों का नतीजा यह होता है।
सुरेन्द्रः खैर, तो आपकी भी यही राय होती है ?
गोपालः बेशक !
सुरेन्द्रः (जीतसिंह की तरफ देखकर) तो अब हमें औऱ किसी से राय मिलाने की जरूरत नहीं रही, आप हर तरह का बन्दोबस्त शुरू कर दें, औऱ जहाँ-जहाँ न्यौता भेजना हो भेजवा दें।
जीतः जो आज्ञा ! अच्छा अब भूतनाथ के विषय में कुछ तै हो जाना चाहिए।
गोपालः हम लोगों में से कौन-सा आदमी ऐसा है, जो भूतनाथ के अहसान के बोझ से दबा हुआ न हो ? बाकी रही यह बात कि जैपाल ने भूतनाथ के हाथ की चीठियाँ कमलिनी और लक्ष्मीदेवी को दिखाकर भूतनाथ को दोषी ठहराया है, सो वास्तव में भूतनाथ दोषी नहीं है और इस बात का सबूत भी वह दे देगा।
सुरेन्द्रः हाँ, तुमको तो इन सब बातों का सच्चा हाल जरूर ही मालूम होगा, क्योंकि तुम्हीं ने कृष्णाजिन्न बनकर उसकी सहायता की थी, अगर वास्तव में वह दोषी होता तो तुम ऐसा करते ही क्यों ?
गोपालः बेशक, यही बात है, इन्दिरा का किस्सा। आपको मालूम ही है क्योंकि मैंने लिख भेजा था और आशा है कि आपको वे बातें याद होंगी ?
सुरेन्द्रः हाँ, मुझे बखूबी याद हैं, बेशक उस जमाने में भूतनाथ ने तुम लोगों की बड़ी सहायता की थी। अस्तु, कब हो सकता है कि भूतनाथ लक्ष्मीदेवी के साथ दगा करता, जोकि दारोगा से दोस्ती और बलभद्रसिंह से दुश्मनी किये बिना हो ही नहीं सकता था ! लेकिन आखिर यह बात क्या है, वे चीठियाँ भूतनाथ की लिखी हैं या नहीं ? फिर, इस जगह एक बात का और भी खयाल होता है, जो यह कि उस मुट्ठे में दोनों तरफ की चीठियाँ मिली हुई हैं, अर्थात् जो रघुबरसिंह ने भेजीं वे भी हैं और जो रघुबरसिंह के नाम आयी थीं वे भी हैं।
गोपालः जी हाँ, और यह बात भी बहुत ही शकों को दूर करती है। असल यह है कि वे सब चीठियाँ भूतनाथ के हाथ की नकल की हुई हैं ! वह रघुबरसिंह, जो दारोगा का दोस्त था और जमानिया में रहता था, उसी की यह सब कार्रवाई है और यह सब विष-बीज उसी के बोये हुए हैं, वह बहुत जगह इशारे के तौर पर अपना नाम ‘भूत’ लिखा करता था। आपने इन्दिरा के हाल में पढ़ा होगा कि भूतनाथ बेनीसिंह बनकर बहुत दिनों तक रघुबरसिंह के यहाँ रह चुका है और उन दिनों यही भूतनाथ हेलासिंह के यहाँ रघुबरसिंह का खत लेकर आया-जाय करता था.....
सुरेन्द्रः ठीक है, मुझे याद है।
गोपालः बस ये सब चीठियाँ, उन्हीं चीठियों की नकलें हैं। भूतनाथ ने मौके पर दुश्मनों को कायल करने के लिए उन चीठियों की नकल कर ली थी और कुछ उनके घर से भी चुरायी थीं। बस भूतनाथ की गलती या बेईमानी जो कुछ समझिए यही हुई कि उस समय कुछ नगदी फायदे के लिए उसने इस मामले को दबा रक्खा और उसी वक्त मुझ पर प्रकट न कर दिया। रिश्वत लेकर दारोगा को छोड़ देना और कलमदान के भेद को छिपा रखना भी भूतनाथ के ऊपर धब्बा लगाता है, क्योंकि अगर ऐसा न होता तो मुझे यह बुरा दिन देखना नसीब न होता और इन्हीं भूलों पर आज भूतनाथ पछताता और अफसोस करता है। मगर आखीर में भूतनाथ ने इन बातों का बदला भी ऐसा अदा किया कि वे सब कसूर माफ कर देने के लायक हो गये।
सुरेन्द्रः उस कलमदान में क्या चीज थी ?
गोपालः उस कलमदान को दारोगा की उस गुप्त सभा का दफ्तर समझिए। सब सभासदों के नाम और सभा के मुख्य-मुख्य भेद उसी में बन्द रहते थे, इसके अतिरिक्त दामोदरसिंह ने जो वसीयतनामा इन्दिरा के नाम लिखा था, वह भी उसी में बन्द था।
सुरेन्द्रः ठीक है, ठीक है, इन्दिरा के किस्से में यह बात भी तुमने लिखी थी, हमें याद आया। मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि उन दिनों लालच में पड़कर भूतनाथ ने बहुत बुरा किया, और उसी सबब से तुम लोगों को तकलीफें उठानी पड़ी।
एक नकाबपोशः शायद भूतनाथ को इस बात की खबर न थी कि इस लालच का नतीजा कहाँ तक बुरा निकलेगा।
सुरेन्द्रः जो हो, मगर उस समय की बातों पर ध्यान देने से यह भी कहना पड़ता है कि उन दिनों भूतनाथ एक हाथ से भलाई कर रहा था और दूसरे हाथ से बुराई।
गोपालः ठीक है, बेशक ऐसी ही बात थी।
सुरेन्द्रः (जीतसिंह की तरफ देखके) भूतनाथ और इन्द्रदेव को भी इसी समय यहाँ बुलाकर इस मामले को तै ही कर देना चाहिए।
‘‘जो आज्ञा’’कहकर जीतसिंह उठे और कमरे के बाहर जाकर चोबदार को हुक्म देने के बाद लौट आये, इसके बाद कुछ देर तक सन्नाटा रहा तब फिर गोपालसिंह ने कहा-
‘‘अपने खयाल में तो भूतनाथ ने कोई बुराई नहीं की थी, क्योंकि बीस हजार अशर्फी दारोगा से वसूल करके उसे छोड़ देने पर भी उसने एक इकरारनामा लिखा लिया था कि वह (दारोगा) ऐसे किसी काम में शरीक न होगा और न खुद ऐसा कोई काम करेगा, जिससे इन्द्रदेव, सर्यू, इन्दिरा और मुझ (गोपालसिंह) को किसी तरह का नुकसान पहुँचे* मगर दारोगा फिर बेईमानी कर ही गया और भूतनाथ एकरारनामे के भरोसे बैठा रह गया। इससे खयाल होता है कि शायद भूतनाथ को भी इन मामलों की ठीक खबर न हो अर्थात् मुन्दर का हाल मालूम न हुआ हो, और वह लक्ष्मीदेवी के बारे में धोखा खा गया हो तो भी ताज्जुब नहीं।
सुरेन्द्रः हो सकता है। (कुछ देर तक चुप रहने के बाद) मगर यह तो बताओ कि इन सब मामलों की खबर तुम्हें कब और क्योंकर लगी ? *इन्दिरा का किस्सा, चन्द्रकान्ता सन्तति पन्द्रहवाँ भाग, पहिला बयान।
गोपालः इन सब बातों का पता मुझे भूतनाथ के गुरुभाई शेरसिंह की जुबानी लगा, जो भूतनाथ को भाई की तरह प्यार करता है, मगर उसकी इन सब लालच भरी कार्रवाई के बुरे नतीजे को सोच और उसे पूरा कसूरवार समझकर उससे डरता और नफरत करता है। जिन दिनों रोहतासगढ़ का राजा दिग्विजयसिंह किशोरी को अपने किले में ले गया था और इस सबब से शेरसिंह ने अपनी नौकरी छोड़ दी थी, उन दिनों भूतनाथ छिपा-छिपा फिरता था। मगर जब शेरसिंह ने उस तिलिस्मी तहखाने में जाकर डेरा डाला* औऱ छिपे-छिपे कमला और कामिनी की मदद करने लगा तो उन्हीं दिनों उस तिलिस्मी तहखाने में जाकर भूतनाथ ने शेरसिंह से एक तौर पर (बहुत दिनों तक गायब रहने के बाद) नयी मुलाकात की, मगर धर्मात्मा शेरसिंह को यह बात बहुत बुरी मालूम हुई.....
गोपालसिंह इतना कह ही रहे थे कि भूतनाथ और इन्द्रदेव कमरे के अन्दर आ पहुँचे और सलाम करके आज्ञानुसार जीतसिंह के पास बैठ गये।
जीतः (भूतनाथ और इन्द्रदेव से) आप लोग बहुत जल्द आ गये।
इन्द्रदेवः हम दोनों इसी जगह बरामदे के नीचे बाग में टहल रहे थे, इसलिए चोबदार नीचे उतरने के साथ ही हम लोगों से जा मिला।
जीतः खैर, (गोपालसिंह से) हाँ तब ?
गोपालः अपनी नेकनामी में धब्बा लगने और बदनाम होने के डर से भूतनाथ की सूरत देखना भी शेरसिंह पसन्द नहीं करता था, बल्कि उसका तो यही बयान है कि ‘मुझे भूतनाथ से मिलने की आशा न थी और मैं समझे हुए था कि अपने दोषों से लज्जत होकर भूतनाथ ने जान दे दी’। मगर जिस दिन उसने उस तहखाने में भूतनाथ की सूरत देखी, काँप उठा। उसने भूतनाथ की बहुत लानत-मलामत करने के बाद कहा कि ‘‘अब तुम हम लोगों को अपना मुँह मत दिखाओ और हमारी जान और आबरू पर दया करके किसी दूसरे देश में चले जाओ’। मगर भूतनाथ ने इस बात को मंजूर न किया औऱ यह कहकर अपने भाई से बिदा हुआ कि, चुपचाप बैठे देखते रहो कि मैं किस तरह अपने पुराने परिचितों में प्रकट होकर खास राजा बीरेन्द्रसिंह का ऐयार बनता हूँ। बस इसके बाद भूतनाथ कमलिनी से जा मिला और जीजान से उसकी मदद करने लगा। मगर शेरसिंह को यह बात पसन्द न आयी। यद्यपि कुछ दिनों तक शेरसिंह ने कमलिनी तथा हम लोगों का साथ दिया, मगर डरते-डरते। आखिर एक दिन शेरसिंह ने एकान्त में मुझसे मुलाकात की और अपने दिल का हाल तथा मेरे विषय में जो कुछ जानता था कहने के बाद बोला, ‘‘यह सब हाल कुछ तो मुझे अपने भाई भूतनाथ की जुबानी मालूम हुआ और कुछ रोहतासगढ़ को इस्तीफा देने के बाद तहकीकात करने से मालूम हुआ, मगर इस बात की खबर हम दोनों भाइयों में से किसी को भी न थी कि आपको मायारानी ने कैद कर रक्खा है। खैर, अब ईश्वर की कृपा से आप छूट गये हैं, इसलिए आपके सम्बन्ध में जो कुछ मुझे मालूम है आपसे कह दिया, जिसमें आप दुश्मनों से अच्छी तरह बदला ले सकें। अब मैं अपना मुँह किसी को दिखाना नहीं चाहता, क्योंकि मेरा भाई भूतनाथ, जिसे मैं मरा हुआ समझता था, प्रकट हो गया औऱ न मालूम क्या-क्या किया चाहता है। कहीं ऐसा न हो कि गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाय। अस्तु, अब मैं जहाँ भागते बनेगा, भाग जाऊँगा। हाँ, अगर भूतनाथ जो कुछ बड़ा जिद्दी और उत्साही है, किसी तरह नेकनामी के साथ राजा बीरेन्द्रसिंह का ऐयार बन गया तो पुनः प्रकट हो जाऊँगा।’’ इतना कहकर शेरसिंह न मालूम कहाँ चला गया, मैंने बहुत कुछ समझाया, मगर उसने एक न मानी। (कुछ रुककर) यही सबब है कि मुझे इन सब बातों से आगाही हो गयी और भूतनाथ के भी बहुत-से भेदों को जान गया।
जीतः ठीक है। (भूतनाथ की तरफ देखके) भूतनाथ, इस समय तुम्हारा ही मामला पेश है ! इस जगह जितने आदमी हैं, सभी कोई तुमसे हमदर्दी रखते हैं, महाराज भी तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। ताज्जुब नहीं कि वह दिन आज ही हो कि तुम्हारे कसूर माफ किये जायँ और तुम महाराज के ऐयार बन जाओ, मगर तुम्हें अपना हाल या जो कुछ तुमसे पूछा जाय, उसका जवाब सच-सच कहना औऱ देना चाहिए। इस समय तुम्हारा ही किस्सा हो रहा है।
भूतनाथः (खड़े होकर सलाम करने के बाद) आज्ञा के विरुद्ध कदापि न करूँगा और कोई बात छिपा न रक्खूँगा।
जीतः यह तो तुम्हें मालूम हो गया कि सर्यू और इन्दिरा भी यहाँ आ गयी हैं, जो जमानिया के तिलिस्म में फँस गयी थीं और उन्होंने अपना अनूठा किस्सा बड़े दर्द के साथ बयान किया था।
भूतनाथः (हाथ जोड़के) जी हाँ, मुझ कम्बख्त की बदौलत उन्हें उस कैद की तकलीफ भोगनी पड़ी। उन दिनों बदकिस्मती ने मुझे हद्द से ज्यादा लालची बना दिया था। अगर मैं लालच में पड़कर दारोगा को न छोड़ देता तो यह बात न होती। आपने सुना ही होगा कि उन दिनों हथेली पर जान लेकर मैंने कैसे-कैसे काम किये थे, मगर दौलत की लालच ने मेरे सब कामों पर मिट्टी डाल दी। अफसोस, मुझे इस बात की कुछ भी खबर न हुई कि दारोगा ने अपनी प्रतिज्ञा के विरुद्ध काम किया, अगर खबर लग जाती तो उससे समझ लेता।
जीतः अच्छा यह बताओ कि तुम्हारा भाई शेरसिंह कहाँ है ?
भूतनाथः मेरे यहाँ होने के सबब से न मालूम वह कहाँ जाकर छिपा बैठा है। उसे विश्वास है कि ‘भूतनाथ जिसने बड़े-बड़े कसूर किये हैं, कभी निर्दोष छूट नहीं सकता बल्कि ताज्जुब नहीं कि उसके सबब से मुझपर भी किसी तरह का इलजाम लगे ! हाँ, अगर वह मुझे बेकसूर छूटा हुआ देखेगा या सुनेगा तो तुरन्त प्रकट हो जायगा।
जीतः वह चीठियोंवाला मुट्ठा तुम्हारे ही हाथ लिखा हुआ है या नहीं ?
भूतनाथः जी, वे सब चीठियाँ हैं तो मेरे ही हाथ की लिखी हुईं मगर वे असल नहीं हैं, बल्कि असली चीठियों की नकल है, जो कि मैंने जैपाल (रघुबरसिंह) के यहाँ से चोरी की थीं। असल में इन चीठियों का लिखने-वाला मैं नहीं बल्कि जैपाल है।
जीतः खैर, तो जब तुमने जैपाल के यहाँ से असल चीठियों की नकल की थी, तो तुम्हें उसी समय मालूम हुआ होगा कि लक्ष्मीदेवी औऱ बलभद्रसिंह पर क्या आफत आने वाली है ?
भूतनाथः क्यों न मालूम होता ! परन्तु रुपये की लालच में पड़कर अर्थात् कुछ लेकर मैंने जैपाल को छोड़ दिया। मगर बलभद्रसिंह से मैंने इस होनहार के बारे में इशारा जरूर कर दिया था, हाँ जैपाल का नाम नहीं बताया क्योंकि उससे रुपया वसूल कर चुका था। और यह कहना तो मैं भूल ही गया कि रुपये वसूल करने के साथ ही मैंने जैपाल से इस बात की कसम भी खिला ली थी कि अब वह लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह से किसी तरह की बुराई न करेगा। मगर अफसोस, उसने (जैपाल ने) मेरे साथ दगा करके मुझे धोखे में डाल दिया औऱ वह काम कर गुजरा, जो किया चाहता था। इसी तरह मुझे बलभद्रसिंह के बारे में भी धोखा हुआ। दुश्मनों ने उन्हें कैद कर लिया और मुझे हर तरह से विश्वास दिला दिया कि बलभद्रसिंह मर गये। लक्ष्मीदेवी के बारे में जो कुछ चालाकी दारोगा ने की उसका मुझे कुछ भी पता न लगा और न मैं कई वर्षों तक लक्ष्मीदेवी की सूरत ही देख सका कि पहिचान लेता। बहुत दिनों के बाद जब मैंने नकली लक्ष्मीदेवी को देखा भी तो मुझे किसी तरह का शक न हुआ, क्योंकि लड़कपन की सूरत और अधेड़पन की सूरत में बहुत फर्क पड़ जाता है। इसके अतिरिक्त जिन दिनों मैंने नकली लक्ष्मीदेवी को देखा था, उस समय उनकी दोनों बहिनें अर्थात् श्यामा (कमलिनी) और लाडिली भी उसके साथ रहती थीं, जब वे ही दोनों उसकी बहिन होकर धोखे में पड़ गयीं तो मेरी कौन गिनती है ? बहुत दिनों बाद जब यह कागज का मुट्ठा मेरे यहाँ से चोरी हो गया, तब मैं घबड़ाया और डरा कि समय पर वह चोरी गया हुआ मुट्ठा मुझी को मुजरिम बना देगा, और आखिर ऐसा ही हुआ।
दुष्टों ने यही कागजों का मुट्ठा कैदखाने में बलभद्रसिंह को दिखाकर मेरी तरफ से उसका दिल फेर दिया औऱ तमाम दोष मेरे ही सर पर थोपा। इसके बाद औऱ भी कई वर्ष बीत जाने पर, जब राजा गोपालसिंह के मरने की खबर उड़ी और किसी को किसी तरह का शक न रहा, तब धीरे-धीरे मुझे दारोगा औऱ जैपाल की शैतानी का कुछ पता लगा, मगर फिर मैंने जानबूझकर तरह दे दिया और सोचा कि अब इन बातों को खोदने से फायदा ही क्या, जबकि खुद राजा गोपालसिंह ही इस दुनिया से उठ गये तो मैं किसके लिए इन बखेड़ों को उठाऊँ ? (हाथ जोड़कर) बेशक, यही मेरा कसूर है और इसीलिए मेरा भाई भी रंज है। हाँ, इधर जबकि मैंने देखा कि अब श्रीमान राजा बीरेन्द्रसिंह का दौरदौरा है और कमलिनी भी उस घर से निकल खड़ी हुई, तब मैंने भी सर उठाया और अबकी दफे नेकनामी के साथ, नाम पैदा करने का इरादा कर लिया। इस बीच में मुझ पर बड़ी आफतें आयीं, मेरे मालिक रणधीरसिंह भी मुझसे बिगड़ गये और मैं अपना काला मुँह लेकर दुनिया से किनारे हो बैठा तथा अपने को मरा हुआ मशहूर कर दिया इत्यादि कहाँ तक बयान करूँ, बात है कि मैं सर से पैर तक अपने को कसूरवार समझकर भी महाराजा की शरण में आया हूँ।
जीतः तुम्हारी पिछली कार्रवाई का बहुत-सा हाल महाराज को मालूम हो चुका है, उस जमाने में इन्दिरा को बचाने के लिए जो कार्रवाइयाँ तुमने की थीं, उनसे महाराज प्रसन्न हैं, खास करके इसलिए कि तुम्हारे हरएक काम में दबंगता का हिस्सा ज्यादा था और तुम सच्चे दिल से इन्द्रदेव के साथ दोस्ती का हक अदा कर रहे थे, मगर इस जगह एक बात का बड़ा ताज्जुब है।
भूतनाथः वह क्या ?
जीतः इन्दिरा के बारे में जो-जो काम तुमने किये थे, वे इन्द्रदेव से तो तुमने जरूर कहे होंगे ?
भूतनाथः बेशक, जो कुछ काम मैं करता था, इन्द्रदेव से पूरा-पूरा कह देता था।
जीतः तो फिर इन्द्रदेव ने दारोगा को क्यों छोड़ दिया ? सजा देना तो दूर रहा, इन्होंने गुरुभाई का नाता तक नहीं तोड़ा।
भूतनाथः (एक लम्बी साँस लेकर और उँगली से इन्द्रदेव की तरफ इशारा करके) इनके ऐसा भी बहादुर और मुरौवत का आदमी मैंने दुनिया में नहीं देखा। इनके साथ जो कुछ सलूक मैंने किया था, उसका बदला एक ही काम से इन्होंने ऐसा अदा किया कि जो इनके सिवाय दूसरा कर ही नहीं सकता था, और जिससे मैं जन्म भर इनके सामने सर उठाने के लायक न रहा, अर्थात् जब मैंने रिश्वत लेकर दारोगा को छोड़ देने और कलमदान दे देने का हाल इनसे कहा तो सुनते ही इनकी आँखों में आँसू भर आये और एक लम्बी साँस लेकर इन्होंने मुझसे कहा, ‘‘भूतनाथ, तुमने यह काम बहुत ही बुरा किया। किसी दिन इसका नतीजा बहुत ही खराब निकलेगा ! खैर, अब तो जो कुछ होना था हो गया, तुम मेरे दोस्त हो। अस्तु, जो कुछ तुम कर आये उसे मैं मंजूर करता हूँ और दारोगा को एकदम भूल जाता हूँ।
अब मेरी लड़की और स्त्री पर चाहे कैसी आफत क्यों न आये और मुझे भी चाहे कितना ही कष्ट क्यों न भोगना पड़े, मगर आज से दारोगा का नाम भी न लूँगा औऱ न अपनी स्त्री के विषय में ही किसी से कुछ जिक्र करूँगा, जो कुछ तुम्हें करना हो करो औऱ उस कमबख्त दारोगा से भले ही कह दो कि ‘इन बातों की खबर इन्द्रदेव को नहीं दी गयी’। मैं भी अपने को ऐसा ही बनाऊँगा कि दारोगा को किसी तरह का खुटका न होगा और वह मुझे निरा उल्लू ही समझता रहेगा।’’इन्द्रदेव की यह बात मेरे कलेजे में तीर की तरह लगी और मैं यह कहकर उठ खड़ा हुआ कि ‘दोस्त, मुझे माफ करो, बेशक मुझसे बड़ी भूल हुई। अब मैं दारोगा को कभी न छोड़ूँगा और जो कुछ उससे लिया है, उसे वापस कर दूँगा। मगर इतना कहते ही इन्द्रदेव ने मेरी कलाई पकड़ ली और जोर के साथ मुझे बैठाकर कहा, ‘‘भूतनाथ, मैंने यह बात तुमसे ताने के ढंग पर नहीं कही थी कि सुनने के साथ ही तुम उठ खड़े हुए। नहीं नहीं, ऐसा कभी न होने पायेगा, हमने औऱ तुमने जो कुछ किया, सो किया और जो कहा सो कहा, अब उसके विपरीत हम दोनों में से कोई भी न जा सकेगा !’’
बात करते-करते एक दफे कुछ रुककर महाराज सुरेन्द्रसिंह ने जीतसिंह से कहा, ‘‘इस राय में गोपालसिंह का भी शरीक होना उचित जान पड़ता है, किसी को भेजकर उन्हें बुलाना चाहिए।’’
‘‘जो आज्ञा’’ कहकर जीतसिंह उठे औऱ कमरे के बाहर जाकर राजा गोपालसिंह को बुलाने के लिए चोबदार को हुक्म देने के बाद, पुनः अपने ठिकाने पर बैठकर बातचीत करने लगे।
जीतसिंहः इसमें तो कोई शक नहीं कि भूतनाथ आदमी चालाक और पूरे दर्जे का ऐयार है, मगर उसके दुश्मन लोग उस पर बेतरह टूट पड़े हैं और चाहते हैं कि जिस तरह बने उसे बर्बाद कर दें औऱ इसलिए उसके पुराने ऐबों को उधेड़कर उसे तरह-तरह की तकलीफें दे रहे हैं।
सुरेन्द्रः ठीक है, मगर हमारे साथ भूतनाथ ने सिवाय एक दफे चोरी करने के और कौन-सी बुराई की है, जिसके लिए उसे हम सजा दें या बुरा कहें ?
जीतः कुछ भी नहीं औऱ वह चोरी भी उसने किसी बुरी नीयत से नहीं की थी, इस विषय में नानक ने जो कुछ कहा था, महाराज सुन ही चुके हैं।
सुरेन्द्रः हाँ, मुझे याद है और उसने हम लोगों पर अहसान भी बहुत किये हैं, बल्कि यों कहना चाहिए कि उसी की बदौलत कमलिनी, किशोरी, लक्ष्मीदेवी और इन्दिरा वगैरह की जानें बचीं और गोपालसिंह को भी उसकी मदद से बहुत फायदा पहुँचा है। इन्हीं सब बातों को सोचके तो देवीसिंह ने उसे अपना दोस्त बना लिया था, मगर साथ ही इसके इस बात को भी समझ रखना चाहिए कि जब तक भूतनाथ का मामला तै नहीं हो जायगा, तब तक लोग उसके ऐबों को खोद-खोकर निकाला ही करेंगे और तरह-तरह की बातें गढ़ते रहेंगे।
एक नकाबपोशः सो तो ठीक ही है, मगर सच पूछिए तो भूतनाथ का मुकदमा ही कैसा और मामला ही क्या ? मुकदमा तो असल में नकली बलभद्रसिंह का है, जिसने इतना बड़ा कसूर करने पर भी भूतनाथ पर इल्जाम लगाया है। उस पीतलवाली सन्दूकड़ी से तो हम लोगों को कोई मतलब ही नहीं। हाँ, बाकी रह गया चीठियोंवाला मुट्ठा, जिसके पढ़ने से भूतनाथ, लक्ष्मीदेवी का कसूरवार मालूम होता है, सो उसका जवाब भूतनाथ काफी तौर पर दे देगा और साबित कर देगा कि वे चीठियाँ उसके हाथ की लिखी हुई होने पर भी वह कसूरवार नहीं है और वास्तव में वह बलभद्रसिंह का दोस्त है, दुश्मन नहीं।
सुरेन्द्रः (लम्बी साँस लेकर) ओफ ओह, इस थोड़े से जमाने में कैसे-कैसे उलटफेर हो गये ! बेचारे गोपालसिंह के साथ कैसी धोखेबाजियाँ की गयीं। इन बातों पर जब हमारा ध्यान जाता है, तो मारे क्रोध के बुरा हाल हो जाता है।
जीतः ठीक है, मगर खैर अब इन बातों पर क्रोध करने की जगह नहीं रही, क्योंकि जो कुछ होना था हो गया। ईश्वर की कृपा से गोपालसिंह भी मौत की तकलीफ उठाकर बच गये और अब हर तरह से प्रसन्न हैं, इसके अतिरिक्त उनके दुश्मन लोग भी गिरफ्तार होकर अपने पंजे में आये हुए हैं।
सुरेन्द्रः बेशक, ऐसा ही है, मगर हमें कोई ऐसी सजा नहीं सूझती, जो उनके दुश्मनों को देकर कलेजा ठण्डा किया जाय और समझा जाय कि अब गोपालसिंह के साथ बुराई करने का बदला ले लिया गया।
महाराज सुरेन्द्रसिंह इतना कह ही रहे थे कि राजा गोपालसिंह कमरे के अन्दर आते हुए दिखायी पड़े, क्योंकि उनका डेरा इस कमरे से बहुत दूर न था।
राजा गोपालसिंह सलाम करके पलँग के पास बैठ गये और इसके बाद दोनों नकाबपोशों से भी साहब सलामत करके मुस्कुराते हुए बोले-
‘‘आप लोग कब से बैठे हैं ?’’
एक नकाबपोशः हम लोगों को आये हुए बहुत देर हो गयी।
सुरेन्द्रः ये बेचारे कई घण्टे से बैठे हुए हमारी तबीयत बहला रहे हैं और कई जरूरी बातों पर विचार कर रहे हैं।
गोपालः वे कौन-सी बातें हैं ?
सुरेन्द्रः यही लड़कों की शादी, भूतनाथ का फैसला, कैदियों का मुकदमा, कमलिनी और लाडिली के साथ उचित बर्ताव इत्यादि विषयों पर बातचीत हो रही है औऱ सोच रहे हैं कि किस तरह क्या किया जाय तथा पहिले क्या काम हो ?
गोपालः इस समय मैं भी इसी उलझन में पड़ा हुआ था। मैं सोया नहीं था, बल्कि जागता हुआ इन्हीं बातों को सोच रहा था कि आपका सन्देशा पहुँचा और तुरन्त उठकर इस तरफ चला आया। (नकाबपोशों की तरफ बताकर) आप लोग तो अब हमारे घर के व्यक्ति हो रहे हैं। अस्तु, ऐसे विचारों में आप लोगों को शरीक होना ही चाहिए।
सुरेन्द्रः जीतसिंह कहते हैं कि कैदियों का मुकदमा होने और उनको सजा देने के पहिले ही दोनों लड़कों की शादी हो जानी चाहिए, जिससे कैदी लोग भी इस उत्सव को देखकर अपना जी जला लें और समझ लें कि उनकी बेईमानी, हरामजदगी और दुश्मनी का नतीजा क्या निकला। साथ ही इसके एक बात का फायदा औऱ भी होगा, अर्थात् कैदियों के पक्षपाती लोग भी, जो ताज्जुब नहीं कि इस समय भी कहीं इधर-उधर छिपे मन के लड्डू बना रहे हों, समझ जायँगे कि अब उन्हें दुश्मनी करने की कोई जरूरत नहीं रही, और न ऐसा करने से कोई फायदा ही है।
गोपालः ठीक है, जब तक दोनों कुमारों की शादी न हो जायगी, तब तक तरह-तरह के खुटके बने ही रहेंगे। शादी हो जाने के बाद मेहमानों के सामने ही कैदियों को जहन्नुम में पहुँचाकर, दुनिया को दिखा दिया जायगा कि बुरे कर्मों का नतीजा यह होता है।
सुरेन्द्रः खैर, तो आपकी भी यही राय होती है ?
गोपालः बेशक !
सुरेन्द्रः (जीतसिंह की तरफ देखकर) तो अब हमें औऱ किसी से राय मिलाने की जरूरत नहीं रही, आप हर तरह का बन्दोबस्त शुरू कर दें, औऱ जहाँ-जहाँ न्यौता भेजना हो भेजवा दें।
जीतः जो आज्ञा ! अच्छा अब भूतनाथ के विषय में कुछ तै हो जाना चाहिए।
गोपालः हम लोगों में से कौन-सा आदमी ऐसा है, जो भूतनाथ के अहसान के बोझ से दबा हुआ न हो ? बाकी रही यह बात कि जैपाल ने भूतनाथ के हाथ की चीठियाँ कमलिनी और लक्ष्मीदेवी को दिखाकर भूतनाथ को दोषी ठहराया है, सो वास्तव में भूतनाथ दोषी नहीं है और इस बात का सबूत भी वह दे देगा।
सुरेन्द्रः हाँ, तुमको तो इन सब बातों का सच्चा हाल जरूर ही मालूम होगा, क्योंकि तुम्हीं ने कृष्णाजिन्न बनकर उसकी सहायता की थी, अगर वास्तव में वह दोषी होता तो तुम ऐसा करते ही क्यों ?
गोपालः बेशक, यही बात है, इन्दिरा का किस्सा। आपको मालूम ही है क्योंकि मैंने लिख भेजा था और आशा है कि आपको वे बातें याद होंगी ?
सुरेन्द्रः हाँ, मुझे बखूबी याद हैं, बेशक उस जमाने में भूतनाथ ने तुम लोगों की बड़ी सहायता की थी। अस्तु, कब हो सकता है कि भूतनाथ लक्ष्मीदेवी के साथ दगा करता, जोकि दारोगा से दोस्ती और बलभद्रसिंह से दुश्मनी किये बिना हो ही नहीं सकता था ! लेकिन आखिर यह बात क्या है, वे चीठियाँ भूतनाथ की लिखी हैं या नहीं ? फिर, इस जगह एक बात का और भी खयाल होता है, जो यह कि उस मुट्ठे में दोनों तरफ की चीठियाँ मिली हुई हैं, अर्थात् जो रघुबरसिंह ने भेजीं वे भी हैं और जो रघुबरसिंह के नाम आयी थीं वे भी हैं।
गोपालः जी हाँ, और यह बात भी बहुत ही शकों को दूर करती है। असल यह है कि वे सब चीठियाँ भूतनाथ के हाथ की नकल की हुई हैं ! वह रघुबरसिंह, जो दारोगा का दोस्त था और जमानिया में रहता था, उसी की यह सब कार्रवाई है और यह सब विष-बीज उसी के बोये हुए हैं, वह बहुत जगह इशारे के तौर पर अपना नाम ‘भूत’ लिखा करता था। आपने इन्दिरा के हाल में पढ़ा होगा कि भूतनाथ बेनीसिंह बनकर बहुत दिनों तक रघुबरसिंह के यहाँ रह चुका है और उन दिनों यही भूतनाथ हेलासिंह के यहाँ रघुबरसिंह का खत लेकर आया-जाय करता था.....
सुरेन्द्रः ठीक है, मुझे याद है।
गोपालः बस ये सब चीठियाँ, उन्हीं चीठियों की नकलें हैं। भूतनाथ ने मौके पर दुश्मनों को कायल करने के लिए उन चीठियों की नकल कर ली थी और कुछ उनके घर से भी चुरायी थीं। बस भूतनाथ की गलती या बेईमानी जो कुछ समझिए यही हुई कि उस समय कुछ नगदी फायदे के लिए उसने इस मामले को दबा रक्खा और उसी वक्त मुझ पर प्रकट न कर दिया। रिश्वत लेकर दारोगा को छोड़ देना और कलमदान के भेद को छिपा रखना भी भूतनाथ के ऊपर धब्बा लगाता है, क्योंकि अगर ऐसा न होता तो मुझे यह बुरा दिन देखना नसीब न होता और इन्हीं भूलों पर आज भूतनाथ पछताता और अफसोस करता है। मगर आखीर में भूतनाथ ने इन बातों का बदला भी ऐसा अदा किया कि वे सब कसूर माफ कर देने के लायक हो गये।
सुरेन्द्रः उस कलमदान में क्या चीज थी ?
गोपालः उस कलमदान को दारोगा की उस गुप्त सभा का दफ्तर समझिए। सब सभासदों के नाम और सभा के मुख्य-मुख्य भेद उसी में बन्द रहते थे, इसके अतिरिक्त दामोदरसिंह ने जो वसीयतनामा इन्दिरा के नाम लिखा था, वह भी उसी में बन्द था।
सुरेन्द्रः ठीक है, ठीक है, इन्दिरा के किस्से में यह बात भी तुमने लिखी थी, हमें याद आया। मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि उन दिनों लालच में पड़कर भूतनाथ ने बहुत बुरा किया, और उसी सबब से तुम लोगों को तकलीफें उठानी पड़ी।
एक नकाबपोशः शायद भूतनाथ को इस बात की खबर न थी कि इस लालच का नतीजा कहाँ तक बुरा निकलेगा।
सुरेन्द्रः जो हो, मगर उस समय की बातों पर ध्यान देने से यह भी कहना पड़ता है कि उन दिनों भूतनाथ एक हाथ से भलाई कर रहा था और दूसरे हाथ से बुराई।
गोपालः ठीक है, बेशक ऐसी ही बात थी।
सुरेन्द्रः (जीतसिंह की तरफ देखके) भूतनाथ और इन्द्रदेव को भी इसी समय यहाँ बुलाकर इस मामले को तै ही कर देना चाहिए।
‘‘जो आज्ञा’’कहकर जीतसिंह उठे और कमरे के बाहर जाकर चोबदार को हुक्म देने के बाद लौट आये, इसके बाद कुछ देर तक सन्नाटा रहा तब फिर गोपालसिंह ने कहा-
‘‘अपने खयाल में तो भूतनाथ ने कोई बुराई नहीं की थी, क्योंकि बीस हजार अशर्फी दारोगा से वसूल करके उसे छोड़ देने पर भी उसने एक इकरारनामा लिखा लिया था कि वह (दारोगा) ऐसे किसी काम में शरीक न होगा और न खुद ऐसा कोई काम करेगा, जिससे इन्द्रदेव, सर्यू, इन्दिरा और मुझ (गोपालसिंह) को किसी तरह का नुकसान पहुँचे* मगर दारोगा फिर बेईमानी कर ही गया और भूतनाथ एकरारनामे के भरोसे बैठा रह गया। इससे खयाल होता है कि शायद भूतनाथ को भी इन मामलों की ठीक खबर न हो अर्थात् मुन्दर का हाल मालूम न हुआ हो, और वह लक्ष्मीदेवी के बारे में धोखा खा गया हो तो भी ताज्जुब नहीं।
सुरेन्द्रः हो सकता है। (कुछ देर तक चुप रहने के बाद) मगर यह तो बताओ कि इन सब मामलों की खबर तुम्हें कब और क्योंकर लगी ? *इन्दिरा का किस्सा, चन्द्रकान्ता सन्तति पन्द्रहवाँ भाग, पहिला बयान।
गोपालः इन सब बातों का पता मुझे भूतनाथ के गुरुभाई शेरसिंह की जुबानी लगा, जो भूतनाथ को भाई की तरह प्यार करता है, मगर उसकी इन सब लालच भरी कार्रवाई के बुरे नतीजे को सोच और उसे पूरा कसूरवार समझकर उससे डरता और नफरत करता है। जिन दिनों रोहतासगढ़ का राजा दिग्विजयसिंह किशोरी को अपने किले में ले गया था और इस सबब से शेरसिंह ने अपनी नौकरी छोड़ दी थी, उन दिनों भूतनाथ छिपा-छिपा फिरता था। मगर जब शेरसिंह ने उस तिलिस्मी तहखाने में जाकर डेरा डाला* औऱ छिपे-छिपे कमला और कामिनी की मदद करने लगा तो उन्हीं दिनों उस तिलिस्मी तहखाने में जाकर भूतनाथ ने शेरसिंह से एक तौर पर (बहुत दिनों तक गायब रहने के बाद) नयी मुलाकात की, मगर धर्मात्मा शेरसिंह को यह बात बहुत बुरी मालूम हुई.....
गोपालसिंह इतना कह ही रहे थे कि भूतनाथ और इन्द्रदेव कमरे के अन्दर आ पहुँचे और सलाम करके आज्ञानुसार जीतसिंह के पास बैठ गये।
जीतः (भूतनाथ और इन्द्रदेव से) आप लोग बहुत जल्द आ गये।
इन्द्रदेवः हम दोनों इसी जगह बरामदे के नीचे बाग में टहल रहे थे, इसलिए चोबदार नीचे उतरने के साथ ही हम लोगों से जा मिला।
जीतः खैर, (गोपालसिंह से) हाँ तब ?
गोपालः अपनी नेकनामी में धब्बा लगने और बदनाम होने के डर से भूतनाथ की सूरत देखना भी शेरसिंह पसन्द नहीं करता था, बल्कि उसका तो यही बयान है कि ‘मुझे भूतनाथ से मिलने की आशा न थी और मैं समझे हुए था कि अपने दोषों से लज्जत होकर भूतनाथ ने जान दे दी’। मगर जिस दिन उसने उस तहखाने में भूतनाथ की सूरत देखी, काँप उठा। उसने भूतनाथ की बहुत लानत-मलामत करने के बाद कहा कि ‘‘अब तुम हम लोगों को अपना मुँह मत दिखाओ और हमारी जान और आबरू पर दया करके किसी दूसरे देश में चले जाओ’। मगर भूतनाथ ने इस बात को मंजूर न किया औऱ यह कहकर अपने भाई से बिदा हुआ कि, चुपचाप बैठे देखते रहो कि मैं किस तरह अपने पुराने परिचितों में प्रकट होकर खास राजा बीरेन्द्रसिंह का ऐयार बनता हूँ। बस इसके बाद भूतनाथ कमलिनी से जा मिला और जीजान से उसकी मदद करने लगा। मगर शेरसिंह को यह बात पसन्द न आयी। यद्यपि कुछ दिनों तक शेरसिंह ने कमलिनी तथा हम लोगों का साथ दिया, मगर डरते-डरते। आखिर एक दिन शेरसिंह ने एकान्त में मुझसे मुलाकात की और अपने दिल का हाल तथा मेरे विषय में जो कुछ जानता था कहने के बाद बोला, ‘‘यह सब हाल कुछ तो मुझे अपने भाई भूतनाथ की जुबानी मालूम हुआ और कुछ रोहतासगढ़ को इस्तीफा देने के बाद तहकीकात करने से मालूम हुआ, मगर इस बात की खबर हम दोनों भाइयों में से किसी को भी न थी कि आपको मायारानी ने कैद कर रक्खा है। खैर, अब ईश्वर की कृपा से आप छूट गये हैं, इसलिए आपके सम्बन्ध में जो कुछ मुझे मालूम है आपसे कह दिया, जिसमें आप दुश्मनों से अच्छी तरह बदला ले सकें। अब मैं अपना मुँह किसी को दिखाना नहीं चाहता, क्योंकि मेरा भाई भूतनाथ, जिसे मैं मरा हुआ समझता था, प्रकट हो गया औऱ न मालूम क्या-क्या किया चाहता है। कहीं ऐसा न हो कि गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाय। अस्तु, अब मैं जहाँ भागते बनेगा, भाग जाऊँगा। हाँ, अगर भूतनाथ जो कुछ बड़ा जिद्दी और उत्साही है, किसी तरह नेकनामी के साथ राजा बीरेन्द्रसिंह का ऐयार बन गया तो पुनः प्रकट हो जाऊँगा।’’ इतना कहकर शेरसिंह न मालूम कहाँ चला गया, मैंने बहुत कुछ समझाया, मगर उसने एक न मानी। (कुछ रुककर) यही सबब है कि मुझे इन सब बातों से आगाही हो गयी और भूतनाथ के भी बहुत-से भेदों को जान गया।
जीतः ठीक है। (भूतनाथ की तरफ देखके) भूतनाथ, इस समय तुम्हारा ही मामला पेश है ! इस जगह जितने आदमी हैं, सभी कोई तुमसे हमदर्दी रखते हैं, महाराज भी तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। ताज्जुब नहीं कि वह दिन आज ही हो कि तुम्हारे कसूर माफ किये जायँ और तुम महाराज के ऐयार बन जाओ, मगर तुम्हें अपना हाल या जो कुछ तुमसे पूछा जाय, उसका जवाब सच-सच कहना औऱ देना चाहिए। इस समय तुम्हारा ही किस्सा हो रहा है।
भूतनाथः (खड़े होकर सलाम करने के बाद) आज्ञा के विरुद्ध कदापि न करूँगा और कोई बात छिपा न रक्खूँगा।
जीतः यह तो तुम्हें मालूम हो गया कि सर्यू और इन्दिरा भी यहाँ आ गयी हैं, जो जमानिया के तिलिस्म में फँस गयी थीं और उन्होंने अपना अनूठा किस्सा बड़े दर्द के साथ बयान किया था।
भूतनाथः (हाथ जोड़के) जी हाँ, मुझ कम्बख्त की बदौलत उन्हें उस कैद की तकलीफ भोगनी पड़ी। उन दिनों बदकिस्मती ने मुझे हद्द से ज्यादा लालची बना दिया था। अगर मैं लालच में पड़कर दारोगा को न छोड़ देता तो यह बात न होती। आपने सुना ही होगा कि उन दिनों हथेली पर जान लेकर मैंने कैसे-कैसे काम किये थे, मगर दौलत की लालच ने मेरे सब कामों पर मिट्टी डाल दी। अफसोस, मुझे इस बात की कुछ भी खबर न हुई कि दारोगा ने अपनी प्रतिज्ञा के विरुद्ध काम किया, अगर खबर लग जाती तो उससे समझ लेता।
जीतः अच्छा यह बताओ कि तुम्हारा भाई शेरसिंह कहाँ है ?
भूतनाथः मेरे यहाँ होने के सबब से न मालूम वह कहाँ जाकर छिपा बैठा है। उसे विश्वास है कि ‘भूतनाथ जिसने बड़े-बड़े कसूर किये हैं, कभी निर्दोष छूट नहीं सकता बल्कि ताज्जुब नहीं कि उसके सबब से मुझपर भी किसी तरह का इलजाम लगे ! हाँ, अगर वह मुझे बेकसूर छूटा हुआ देखेगा या सुनेगा तो तुरन्त प्रकट हो जायगा।
जीतः वह चीठियोंवाला मुट्ठा तुम्हारे ही हाथ लिखा हुआ है या नहीं ?
भूतनाथः जी, वे सब चीठियाँ हैं तो मेरे ही हाथ की लिखी हुईं मगर वे असल नहीं हैं, बल्कि असली चीठियों की नकल है, जो कि मैंने जैपाल (रघुबरसिंह) के यहाँ से चोरी की थीं। असल में इन चीठियों का लिखने-वाला मैं नहीं बल्कि जैपाल है।
जीतः खैर, तो जब तुमने जैपाल के यहाँ से असल चीठियों की नकल की थी, तो तुम्हें उसी समय मालूम हुआ होगा कि लक्ष्मीदेवी औऱ बलभद्रसिंह पर क्या आफत आने वाली है ?
भूतनाथः क्यों न मालूम होता ! परन्तु रुपये की लालच में पड़कर अर्थात् कुछ लेकर मैंने जैपाल को छोड़ दिया। मगर बलभद्रसिंह से मैंने इस होनहार के बारे में इशारा जरूर कर दिया था, हाँ जैपाल का नाम नहीं बताया क्योंकि उससे रुपया वसूल कर चुका था। और यह कहना तो मैं भूल ही गया कि रुपये वसूल करने के साथ ही मैंने जैपाल से इस बात की कसम भी खिला ली थी कि अब वह लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह से किसी तरह की बुराई न करेगा। मगर अफसोस, उसने (जैपाल ने) मेरे साथ दगा करके मुझे धोखे में डाल दिया औऱ वह काम कर गुजरा, जो किया चाहता था। इसी तरह मुझे बलभद्रसिंह के बारे में भी धोखा हुआ। दुश्मनों ने उन्हें कैद कर लिया और मुझे हर तरह से विश्वास दिला दिया कि बलभद्रसिंह मर गये। लक्ष्मीदेवी के बारे में जो कुछ चालाकी दारोगा ने की उसका मुझे कुछ भी पता न लगा और न मैं कई वर्षों तक लक्ष्मीदेवी की सूरत ही देख सका कि पहिचान लेता। बहुत दिनों के बाद जब मैंने नकली लक्ष्मीदेवी को देखा भी तो मुझे किसी तरह का शक न हुआ, क्योंकि लड़कपन की सूरत और अधेड़पन की सूरत में बहुत फर्क पड़ जाता है। इसके अतिरिक्त जिन दिनों मैंने नकली लक्ष्मीदेवी को देखा था, उस समय उनकी दोनों बहिनें अर्थात् श्यामा (कमलिनी) और लाडिली भी उसके साथ रहती थीं, जब वे ही दोनों उसकी बहिन होकर धोखे में पड़ गयीं तो मेरी कौन गिनती है ? बहुत दिनों बाद जब यह कागज का मुट्ठा मेरे यहाँ से चोरी हो गया, तब मैं घबड़ाया और डरा कि समय पर वह चोरी गया हुआ मुट्ठा मुझी को मुजरिम बना देगा, और आखिर ऐसा ही हुआ।
दुष्टों ने यही कागजों का मुट्ठा कैदखाने में बलभद्रसिंह को दिखाकर मेरी तरफ से उसका दिल फेर दिया औऱ तमाम दोष मेरे ही सर पर थोपा। इसके बाद औऱ भी कई वर्ष बीत जाने पर, जब राजा गोपालसिंह के मरने की खबर उड़ी और किसी को किसी तरह का शक न रहा, तब धीरे-धीरे मुझे दारोगा औऱ जैपाल की शैतानी का कुछ पता लगा, मगर फिर मैंने जानबूझकर तरह दे दिया और सोचा कि अब इन बातों को खोदने से फायदा ही क्या, जबकि खुद राजा गोपालसिंह ही इस दुनिया से उठ गये तो मैं किसके लिए इन बखेड़ों को उठाऊँ ? (हाथ जोड़कर) बेशक, यही मेरा कसूर है और इसीलिए मेरा भाई भी रंज है। हाँ, इधर जबकि मैंने देखा कि अब श्रीमान राजा बीरेन्द्रसिंह का दौरदौरा है और कमलिनी भी उस घर से निकल खड़ी हुई, तब मैंने भी सर उठाया और अबकी दफे नेकनामी के साथ, नाम पैदा करने का इरादा कर लिया। इस बीच में मुझ पर बड़ी आफतें आयीं, मेरे मालिक रणधीरसिंह भी मुझसे बिगड़ गये और मैं अपना काला मुँह लेकर दुनिया से किनारे हो बैठा तथा अपने को मरा हुआ मशहूर कर दिया इत्यादि कहाँ तक बयान करूँ, बात है कि मैं सर से पैर तक अपने को कसूरवार समझकर भी महाराजा की शरण में आया हूँ।
जीतः तुम्हारी पिछली कार्रवाई का बहुत-सा हाल महाराज को मालूम हो चुका है, उस जमाने में इन्दिरा को बचाने के लिए जो कार्रवाइयाँ तुमने की थीं, उनसे महाराज प्रसन्न हैं, खास करके इसलिए कि तुम्हारे हरएक काम में दबंगता का हिस्सा ज्यादा था और तुम सच्चे दिल से इन्द्रदेव के साथ दोस्ती का हक अदा कर रहे थे, मगर इस जगह एक बात का बड़ा ताज्जुब है।
भूतनाथः वह क्या ?
जीतः इन्दिरा के बारे में जो-जो काम तुमने किये थे, वे इन्द्रदेव से तो तुमने जरूर कहे होंगे ?
भूतनाथः बेशक, जो कुछ काम मैं करता था, इन्द्रदेव से पूरा-पूरा कह देता था।
जीतः तो फिर इन्द्रदेव ने दारोगा को क्यों छोड़ दिया ? सजा देना तो दूर रहा, इन्होंने गुरुभाई का नाता तक नहीं तोड़ा।
भूतनाथः (एक लम्बी साँस लेकर और उँगली से इन्द्रदेव की तरफ इशारा करके) इनके ऐसा भी बहादुर और मुरौवत का आदमी मैंने दुनिया में नहीं देखा। इनके साथ जो कुछ सलूक मैंने किया था, उसका बदला एक ही काम से इन्होंने ऐसा अदा किया कि जो इनके सिवाय दूसरा कर ही नहीं सकता था, और जिससे मैं जन्म भर इनके सामने सर उठाने के लायक न रहा, अर्थात् जब मैंने रिश्वत लेकर दारोगा को छोड़ देने और कलमदान दे देने का हाल इनसे कहा तो सुनते ही इनकी आँखों में आँसू भर आये और एक लम्बी साँस लेकर इन्होंने मुझसे कहा, ‘‘भूतनाथ, तुमने यह काम बहुत ही बुरा किया। किसी दिन इसका नतीजा बहुत ही खराब निकलेगा ! खैर, अब तो जो कुछ होना था हो गया, तुम मेरे दोस्त हो। अस्तु, जो कुछ तुम कर आये उसे मैं मंजूर करता हूँ और दारोगा को एकदम भूल जाता हूँ।
अब मेरी लड़की और स्त्री पर चाहे कैसी आफत क्यों न आये और मुझे भी चाहे कितना ही कष्ट क्यों न भोगना पड़े, मगर आज से दारोगा का नाम भी न लूँगा औऱ न अपनी स्त्री के विषय में ही किसी से कुछ जिक्र करूँगा, जो कुछ तुम्हें करना हो करो औऱ उस कमबख्त दारोगा से भले ही कह दो कि ‘इन बातों की खबर इन्द्रदेव को नहीं दी गयी’। मैं भी अपने को ऐसा ही बनाऊँगा कि दारोगा को किसी तरह का खुटका न होगा और वह मुझे निरा उल्लू ही समझता रहेगा।’’इन्द्रदेव की यह बात मेरे कलेजे में तीर की तरह लगी और मैं यह कहकर उठ खड़ा हुआ कि ‘दोस्त, मुझे माफ करो, बेशक मुझसे बड़ी भूल हुई। अब मैं दारोगा को कभी न छोड़ूँगा और जो कुछ उससे लिया है, उसे वापस कर दूँगा। मगर इतना कहते ही इन्द्रदेव ने मेरी कलाई पकड़ ली और जोर के साथ मुझे बैठाकर कहा, ‘‘भूतनाथ, मैंने यह बात तुमसे ताने के ढंग पर नहीं कही थी कि सुनने के साथ ही तुम उठ खड़े हुए। नहीं नहीं, ऐसा कभी न होने पायेगा, हमने औऱ तुमने जो कुछ किया, सो किया और जो कहा सो कहा, अब उसके विपरीत हम दोनों में से कोई भी न जा सकेगा !’’
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