महान व्यक्तित्व >> भारत के राष्ट्रपति भारत के राष्ट्रपतिभगवतीशरण मिश्र
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सुविख्यात लेखक डॉ. भगवतीशरण मिश्र ने बड़ी गहन दृष्टि से भारत के निर्माण में उनके योगदान पर प्रामाणिक ढंग से लिखा हैं...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यह हमारे देश का सौभाग्य है कि प्रारम्भ से लेकर आज तक जितने भी
राष्ट्रपति हुए हैं, सभी अपने-अपने स्थान पर अत्यन्त विशिष्ट व्यक्ति रहे।
उनका जीवन देशभक्ति, त्याग, तपस्या से प्रेरित था, दूसरी ओर वे अत्यन्त
विचारशील साहित्यिक प्रतिभा के व्यक्ति भी थे। इस पुस्तक में प्रथम
राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद जी से लेकर वर्तमान राष्ट्रपति
डॉ.अब्दुल कलाम तक सभी के व्यक्तित्व और उपलब्धियों का विस्तृत परिचय
दिया गया है। सुविख्यात लेखक डॉ. भगवतीशरण मिश्र ने बड़ी गहन दृष्टि से
इनके जीवन पर प्रकाश डाला ही है, साथ ही भारत के निर्माण में उनके योगदान
पर भी प्रामाणिक ढंग से लिखा हैं। पाठकों, पत्रकारों, विद्यार्थियों सभी
के लिए अत्यन्त रोचक, जानकारीपूर्ण पुस्तक।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद जी से लेकर आज के हमारे राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम तक, सभी के जीवन-चरित्र, उनके व्यक्तित्व, कार्यशैली और उपलब्धियों पर बहुत ही सरस शैली में सचित्र खोजपूर्ण जानकारी।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद जी से लेकर आज के हमारे राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम तक, सभी के जीवन-चरित्र, उनके व्यक्तित्व, कार्यशैली और उपलब्धियों पर बहुत ही सरस शैली में सचित्र खोजपूर्ण जानकारी।
यह पुस्तक क्यों ?
भारत के राष्ट्रपति का पद एक अत्यंत ही गरिमामय माना जाता है और है भी।
इस पर एक से एक महान् विभूतियाँ पदस्थापित हुईं हैं। इनमें राष्ट्र के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर वर्तमान राष्ट्रपति अब्दुल कलाम सम्मिलित हैं। चुनावों को जीतकर अथवा मनोनीत होकर सासंद या विधायक बनना तो आसान है, और ऐसा एक सामान्य विद्या-बुद्धिवाला या भारतीय संविधान को दृष्टिगत रखें, तो निरक्षर भट्टाचार्य भी बन सकता है।
इन्हीं में से मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री भी चयनित होते हैं। भारतीय स्वतंत्रता के प्रायः 57 वर्षों के इतिहास में ऐसे कुछ कम मुख्यमंत्री नहीं हुए हैं जो अपनी अयोग्यता के साथ-साथ भ्रष्टता के कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं।
एक-दो प्रधानमंत्री भी ऐसे हो चुके हैं जिनका व्यक्तित्व इस पद की गरिमा के अनुकूल नहीं था।
किन्तु राष्ट्रपति सीधे जनता द्वारा नहीं, अपितु विधान-सभाओं और संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों द्वारा मनोनीत होता है। अत: यह अपेक्षा सर्वथा उचित है कि इस पद तक कोई विशिष्ट व्यक्ति ही पहुँच सकता है।
विशिष्ट व्यक्तियों के आचरण का अनुसरण कर ही कोई अपने में विशेष गुणों की अभिवृद्धि में सहायक हो सकता है। अतः ऐसे व्यक्तियों के व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित कराना इस पुस्तक का प्रधान लक्ष्य है- दूसरे शब्दों में, व्यक्तित्व-निर्माण !
राष्ट्रपति इस तरह हमारा प्रेरणा-पुरुष हुआ और जब तक हम उसकी सारी विशेषताओं से परिचित नहीं होते, सम्यक् प्रेरणा प्राप्त नहीं कर सकते।
दूसरी बात यह कि राष्ट्रपति हमारा राष्ट्राध्यक्ष है। इस रूप में वह इस राष्ट्र की संस्कृति, परम्परा एवं अस्मिता का प्रतिनिधित्व राष्ट्र तक ही नहीं, राष्ट्र की सीमाओं के बाहर भी करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह विदेशी भूमि पर इस भूमि की पहचान के रूप में आंका जाता है।
ऐसी स्थिति में, अपने राष्ट्रपतियों के संबंध में अधिक-से-अधिक जानना हर नागरिक की इच्छा होती है। एक जागरूक नागरिक का दायित्व भी बनता है। इस पुस्तक में हम पाएँगे कि अब तक हुए 11 राष्ट्रपतियों में ऐसी कौन-सी विशेषताएँ थीं जिन्होंने उन्हें देश के शिखरस्थ पद तक पहुँचाया। उनके देशी-विदेशी शिक्षण, उनके आचरण, उनके राजनीतिक एवं अन्य अनुभव, उनकी आस्था-अनास्था तथा उनकी रुचियों के साथ-साथ उनकी नेतृत्व-शक्ति से भी हम परिचित होंगे।
राष्ट्रपति इतिहास गढ़ता है।
भारतीय राष्ट्रपति भारतीय इतिहास का शायद सबसे बड़ा पृष्ठ है। कई राष्ट्रपतियों के संबंध में लोगों की भिज्ञता या तो संक्षिप्त होती है या अधूरी अथवा प्राय: शून्य ! मनुष्य की स्मरण- शक्ति दुर्बल होती है। इतिहास-लेखक अपनी दुर्बल स्मृतियों और ऊपर वर्णित संक्षिप्त अथवा कह लें, विवादपूर्ण ज्ञान के आधार पर राष्ट्रपतियों का इतिहास लिखने बैठे तो वह कई राष्ट्रपतियों के साथ अन्याय भी कर सकता है।
इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी पुस्तक की आवश्यकता थी जो अब तक हुए राष्ट्रपतियों के संबंध में तथ्यपूर्ण, ईमानदार और यथासंभव विस्तृत जानकारी उपलब्ध करा सके।
भारतीय राष्ट्रपति को लेकर, मुख्यत: उसकी शक्तियों को लेकर कई बार विवाद खड़े होते रहे हैं। कुछ इन्हें सर्वशक्तिशाली कहने से नहीं चूकते, तो कुछ इन्हें मात्र संवैधानिक प्रमुख अथवा शोभा का व्यक्ति मानते हैं।
यह पुस्तक स्पष्ट करेगी कि राष्ट्रपति संवैधानिक अध्यक्ष जो हो, किन्तु ऐसे अवसर अवश्य आते हैं जब उसे अपने विवेक के आधार पर, अत्यंत महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने होते हैं जिनका दूरगामी प्रभाव होता है।
कुछेक राष्ट्रपतियों ने प्रधानमंत्रियों तक की नियुक्ति अपने विवेक के आधार पर, बिना किसी परामर्श पर की है तथा कुछ ने अपनी संवैधानिक स्थिति की परवाह नहीं करते हुए अपने व्यक्तित्व की ऊँचाई के फलस्वरूप सरकार को ऐसे सुझाव भी दिए हैं जिनके मानने की बाध्यता नहीं होने पर भी सरकारों ने उन्हें मानकर अपने को अनावश्यक विवाद और संकट में पड़ने से बचाया।
हमारी धर्म-निरपेक्ष छवि पर देश और विदेश में प्रश्न-चिह्न लगते रहे हैं। यह पुस्तक राष्ट्रपतियों के संबंध में अद्यतन जानकारी देकर हमारी धर्म-निरपेक्ष छवि को राष्ट्र और राष्ट्र के बाहर पूर्णतया स्थापित करेगी। इससे ज्ञात होगा कि हमारे अब तक के 11 राष्ट्रपतियों में तीन अल्पसंख्यक वर्ग में ही आते हैं
और ये राष्ट्रपति भी स्वयं पूर्णतया धर्म-निरपेक्ष रहे और अपनी आस्था जो हो, उसे जनता पर लादने का प्रयास कभी नहीं किया। आज जब संसद और विधान-सभाओं से शालीनता और सद्व्यवहार कभी के विदा ले चुके हैं और सदनों में आपसी गाली-गलौज और मारपीट तक सामान्य बात हो गई है तथा लोक सभा और राज्य सभा में अध्यक्ष और सभापति का आसन भी अपेक्षित श्रद्धा से वंचित रह जाता है,
हमारे विनम्र, विनयशील, अहंकारी, सौहार्दशील राष्ट्रपति ऐसे अनुशासनहीन और अहंकारी कर्त्तव्य-च्युत हमारे निर्वाचित नेताओं के लिए प्रेरणा के एक प्रकाश-स्तम्भ के रूप में कार्य कर सकते हैं, अगर ये विवादों और झगड़ों में समय नहीं नष्ट कर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होने का प्रयास करें। यह पुस्तक इस रूप में भी उपयोग सिद्ध हो सकती है कि साक्षर और सदनों में पहुँचने वाले नव-निर्वाचित सदस्य अपने प्रेरणा-पुरुषों अर्थात् भारतीय राष्ट्रपतियों के संबंध में कुछ पढ़ने-समझने का प्रयास करें।
मैं एक ऐतिहासिक और पौराणिक उपन्यासकार हूँ। इतिहास के ऐसे गौरवशाली पात्रों को चुनकर औपन्यासिक लेखन किया है जिनके मूल्य-बोध आज की मूल्यहीन होती पीढ़ी के लिए प्रेरक रहे हैं। मूल्यों के क्षरण के इस युग में उच्चतर मूल्यों की स्थापना आवश्यक है। यद्यपि यह पुस्तक उपन्यास नहीं है फिर भी, जाने-अनजाने मैंने जीवन-मूल्यों के संरक्षण के लक्ष्य की दिशा में ही अपने कदम बढ़ाए हैं।
इस दृष्टि से इतिहास को मेरा यह छोटा-सा, किन्तु उपयोगी योगदान है जिसे पाठक मेरी अन्य कृतियों की तरह सहर्ष स्वीकार करेंगे।
इस पुस्तक के लेखन के लिए मुझे कई स्रोत्रों का सहारा लेना पड़ा, यथा-संविधान सभा कार्यवाहियों का संकलन, प्रकाशन विभाग के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रकाशन, महात्मा गाँधी की आत्मकथा, कई राष्ट्रपतियों के भाषण-संग्रह, कई की आत्मकथाएँ एवं जीवनियाँ। इन स्रोत्रों के अभाव में यह पुस्तक वर्तमान स्वरूप नहीं ले सकती थी।
मैं एक आस्थावान् व्यक्ति हूँ और कोई माने-या-न माने, मैं यह मानने को विवश हूँ कि दैवी शक्तियों की प्रेरणा और सहायता के बिना कुछ उपलब्ध नहीं कर सकता। देखने में यह छोटी पुस्तक, उपलब्धि में अवश्य बड़ी है, क्योंकि इसके पीछे भी दैवी हाथ है। मैं करुणामयी जगन्माता जिन्हें आप कोई नाम दें- दुर्गा, तारा, काली, सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती, तुलजा (शिवाजी की इष्ट देवी), दन्तेश्वरी (मेरी पुस्तक ‘अरण्या’ की दैवी नायिका), भवानी; सबके के प्रति अपना नमन निवेदित करना आवश्यक समझता हूँ।
कर्म में मेरा अधिकार है, मैं कर्म करता हूँ किन्तु उसे फल तक पहुँचाने का दायित्व ये मातृ-शक्तियाँ ही करती हैं- ‘कर्मण्ये वाधिकारेस्ते मा फलेषु कदाचन।’
यह गीता की उक्ति है किन्तु आश्चर्य करने की आवश्यकता नहीं-गीता-गायक सोलह कलाओं से अवतरित स्वयं श्री कृष्ण, जिन्हें भागवतकार ने साक्षात् भगवान् कहा (कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्), स्वयं मातृ-शक्ति के उपासक थे। दुर्गा की उपासना करते थे। जिसे अविश्वास हो, वह महाभारत में उनकी दिनचर्या पढ़ ले।
इस पुस्तक के लिखने के क्रम में जिन-जिन विद्वानों और मित्रों ने परामर्श दिए हैं उनका मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ।
पुस्तक की पाण्डुलिपि तैयार करने में ख्यातिलब्ध युवा कवि, मेरे अनुजवत् श्री जनार्दन मिश्र ‘जलज’ ने अथक परिश्रम किया है। इस हेतु उन्हें धन्यवाद देकर उनकी यशोवृद्धि के लिए जगद्धातृ से प्रार्थना करना ही ज़्यादा उचित समझता हूँ।
इस पुस्तक के लेखन में हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन-संस्थान राजपाल एंड संस के स्वत्वाधिकारी श्री विश्वनाथ जी और संस्थान-संचालिका श्रीमती मीरा जौहरी की प्रेरणा रही है और उन्हीं प्रयासों के फलस्वरूप यह कृति अल्पकाल में ही प्रकाश में आ सकी है।
इन दोनों के प्रति मैं अपना साधुवाद प्रकट करता हूँ। ईश्वर इन दोनों की आयु शताधिक वर्ष करे, यही कामना है।
पुस्तक पूर्णत्या तटस्थ भाव से लिखी गई है। इसके बावजूद अगर यह कहीं से किसी को अल्पमात्र भी ठेस पहुँचाती है तो मैं इस हेतु क्षमा-प्रार्थी हूँ।
इस पर एक से एक महान् विभूतियाँ पदस्थापित हुईं हैं। इनमें राष्ट्र के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर वर्तमान राष्ट्रपति अब्दुल कलाम सम्मिलित हैं। चुनावों को जीतकर अथवा मनोनीत होकर सासंद या विधायक बनना तो आसान है, और ऐसा एक सामान्य विद्या-बुद्धिवाला या भारतीय संविधान को दृष्टिगत रखें, तो निरक्षर भट्टाचार्य भी बन सकता है।
इन्हीं में से मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री भी चयनित होते हैं। भारतीय स्वतंत्रता के प्रायः 57 वर्षों के इतिहास में ऐसे कुछ कम मुख्यमंत्री नहीं हुए हैं जो अपनी अयोग्यता के साथ-साथ भ्रष्टता के कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं।
एक-दो प्रधानमंत्री भी ऐसे हो चुके हैं जिनका व्यक्तित्व इस पद की गरिमा के अनुकूल नहीं था।
किन्तु राष्ट्रपति सीधे जनता द्वारा नहीं, अपितु विधान-सभाओं और संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों द्वारा मनोनीत होता है। अत: यह अपेक्षा सर्वथा उचित है कि इस पद तक कोई विशिष्ट व्यक्ति ही पहुँच सकता है।
विशिष्ट व्यक्तियों के आचरण का अनुसरण कर ही कोई अपने में विशेष गुणों की अभिवृद्धि में सहायक हो सकता है। अतः ऐसे व्यक्तियों के व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित कराना इस पुस्तक का प्रधान लक्ष्य है- दूसरे शब्दों में, व्यक्तित्व-निर्माण !
राष्ट्रपति इस तरह हमारा प्रेरणा-पुरुष हुआ और जब तक हम उसकी सारी विशेषताओं से परिचित नहीं होते, सम्यक् प्रेरणा प्राप्त नहीं कर सकते।
दूसरी बात यह कि राष्ट्रपति हमारा राष्ट्राध्यक्ष है। इस रूप में वह इस राष्ट्र की संस्कृति, परम्परा एवं अस्मिता का प्रतिनिधित्व राष्ट्र तक ही नहीं, राष्ट्र की सीमाओं के बाहर भी करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह विदेशी भूमि पर इस भूमि की पहचान के रूप में आंका जाता है।
ऐसी स्थिति में, अपने राष्ट्रपतियों के संबंध में अधिक-से-अधिक जानना हर नागरिक की इच्छा होती है। एक जागरूक नागरिक का दायित्व भी बनता है। इस पुस्तक में हम पाएँगे कि अब तक हुए 11 राष्ट्रपतियों में ऐसी कौन-सी विशेषताएँ थीं जिन्होंने उन्हें देश के शिखरस्थ पद तक पहुँचाया। उनके देशी-विदेशी शिक्षण, उनके आचरण, उनके राजनीतिक एवं अन्य अनुभव, उनकी आस्था-अनास्था तथा उनकी रुचियों के साथ-साथ उनकी नेतृत्व-शक्ति से भी हम परिचित होंगे।
राष्ट्रपति इतिहास गढ़ता है।
भारतीय राष्ट्रपति भारतीय इतिहास का शायद सबसे बड़ा पृष्ठ है। कई राष्ट्रपतियों के संबंध में लोगों की भिज्ञता या तो संक्षिप्त होती है या अधूरी अथवा प्राय: शून्य ! मनुष्य की स्मरण- शक्ति दुर्बल होती है। इतिहास-लेखक अपनी दुर्बल स्मृतियों और ऊपर वर्णित संक्षिप्त अथवा कह लें, विवादपूर्ण ज्ञान के आधार पर राष्ट्रपतियों का इतिहास लिखने बैठे तो वह कई राष्ट्रपतियों के साथ अन्याय भी कर सकता है।
इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी पुस्तक की आवश्यकता थी जो अब तक हुए राष्ट्रपतियों के संबंध में तथ्यपूर्ण, ईमानदार और यथासंभव विस्तृत जानकारी उपलब्ध करा सके।
भारतीय राष्ट्रपति को लेकर, मुख्यत: उसकी शक्तियों को लेकर कई बार विवाद खड़े होते रहे हैं। कुछ इन्हें सर्वशक्तिशाली कहने से नहीं चूकते, तो कुछ इन्हें मात्र संवैधानिक प्रमुख अथवा शोभा का व्यक्ति मानते हैं।
यह पुस्तक स्पष्ट करेगी कि राष्ट्रपति संवैधानिक अध्यक्ष जो हो, किन्तु ऐसे अवसर अवश्य आते हैं जब उसे अपने विवेक के आधार पर, अत्यंत महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने होते हैं जिनका दूरगामी प्रभाव होता है।
कुछेक राष्ट्रपतियों ने प्रधानमंत्रियों तक की नियुक्ति अपने विवेक के आधार पर, बिना किसी परामर्श पर की है तथा कुछ ने अपनी संवैधानिक स्थिति की परवाह नहीं करते हुए अपने व्यक्तित्व की ऊँचाई के फलस्वरूप सरकार को ऐसे सुझाव भी दिए हैं जिनके मानने की बाध्यता नहीं होने पर भी सरकारों ने उन्हें मानकर अपने को अनावश्यक विवाद और संकट में पड़ने से बचाया।
हमारी धर्म-निरपेक्ष छवि पर देश और विदेश में प्रश्न-चिह्न लगते रहे हैं। यह पुस्तक राष्ट्रपतियों के संबंध में अद्यतन जानकारी देकर हमारी धर्म-निरपेक्ष छवि को राष्ट्र और राष्ट्र के बाहर पूर्णतया स्थापित करेगी। इससे ज्ञात होगा कि हमारे अब तक के 11 राष्ट्रपतियों में तीन अल्पसंख्यक वर्ग में ही आते हैं
और ये राष्ट्रपति भी स्वयं पूर्णतया धर्म-निरपेक्ष रहे और अपनी आस्था जो हो, उसे जनता पर लादने का प्रयास कभी नहीं किया। आज जब संसद और विधान-सभाओं से शालीनता और सद्व्यवहार कभी के विदा ले चुके हैं और सदनों में आपसी गाली-गलौज और मारपीट तक सामान्य बात हो गई है तथा लोक सभा और राज्य सभा में अध्यक्ष और सभापति का आसन भी अपेक्षित श्रद्धा से वंचित रह जाता है,
हमारे विनम्र, विनयशील, अहंकारी, सौहार्दशील राष्ट्रपति ऐसे अनुशासनहीन और अहंकारी कर्त्तव्य-च्युत हमारे निर्वाचित नेताओं के लिए प्रेरणा के एक प्रकाश-स्तम्भ के रूप में कार्य कर सकते हैं, अगर ये विवादों और झगड़ों में समय नहीं नष्ट कर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होने का प्रयास करें। यह पुस्तक इस रूप में भी उपयोग सिद्ध हो सकती है कि साक्षर और सदनों में पहुँचने वाले नव-निर्वाचित सदस्य अपने प्रेरणा-पुरुषों अर्थात् भारतीय राष्ट्रपतियों के संबंध में कुछ पढ़ने-समझने का प्रयास करें।
मैं एक ऐतिहासिक और पौराणिक उपन्यासकार हूँ। इतिहास के ऐसे गौरवशाली पात्रों को चुनकर औपन्यासिक लेखन किया है जिनके मूल्य-बोध आज की मूल्यहीन होती पीढ़ी के लिए प्रेरक रहे हैं। मूल्यों के क्षरण के इस युग में उच्चतर मूल्यों की स्थापना आवश्यक है। यद्यपि यह पुस्तक उपन्यास नहीं है फिर भी, जाने-अनजाने मैंने जीवन-मूल्यों के संरक्षण के लक्ष्य की दिशा में ही अपने कदम बढ़ाए हैं।
इस दृष्टि से इतिहास को मेरा यह छोटा-सा, किन्तु उपयोगी योगदान है जिसे पाठक मेरी अन्य कृतियों की तरह सहर्ष स्वीकार करेंगे।
इस पुस्तक के लेखन के लिए मुझे कई स्रोत्रों का सहारा लेना पड़ा, यथा-संविधान सभा कार्यवाहियों का संकलन, प्रकाशन विभाग के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रकाशन, महात्मा गाँधी की आत्मकथा, कई राष्ट्रपतियों के भाषण-संग्रह, कई की आत्मकथाएँ एवं जीवनियाँ। इन स्रोत्रों के अभाव में यह पुस्तक वर्तमान स्वरूप नहीं ले सकती थी।
मैं एक आस्थावान् व्यक्ति हूँ और कोई माने-या-न माने, मैं यह मानने को विवश हूँ कि दैवी शक्तियों की प्रेरणा और सहायता के बिना कुछ उपलब्ध नहीं कर सकता। देखने में यह छोटी पुस्तक, उपलब्धि में अवश्य बड़ी है, क्योंकि इसके पीछे भी दैवी हाथ है। मैं करुणामयी जगन्माता जिन्हें आप कोई नाम दें- दुर्गा, तारा, काली, सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती, तुलजा (शिवाजी की इष्ट देवी), दन्तेश्वरी (मेरी पुस्तक ‘अरण्या’ की दैवी नायिका), भवानी; सबके के प्रति अपना नमन निवेदित करना आवश्यक समझता हूँ।
कर्म में मेरा अधिकार है, मैं कर्म करता हूँ किन्तु उसे फल तक पहुँचाने का दायित्व ये मातृ-शक्तियाँ ही करती हैं- ‘कर्मण्ये वाधिकारेस्ते मा फलेषु कदाचन।’
यह गीता की उक्ति है किन्तु आश्चर्य करने की आवश्यकता नहीं-गीता-गायक सोलह कलाओं से अवतरित स्वयं श्री कृष्ण, जिन्हें भागवतकार ने साक्षात् भगवान् कहा (कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्), स्वयं मातृ-शक्ति के उपासक थे। दुर्गा की उपासना करते थे। जिसे अविश्वास हो, वह महाभारत में उनकी दिनचर्या पढ़ ले।
इस पुस्तक के लिखने के क्रम में जिन-जिन विद्वानों और मित्रों ने परामर्श दिए हैं उनका मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ।
पुस्तक की पाण्डुलिपि तैयार करने में ख्यातिलब्ध युवा कवि, मेरे अनुजवत् श्री जनार्दन मिश्र ‘जलज’ ने अथक परिश्रम किया है। इस हेतु उन्हें धन्यवाद देकर उनकी यशोवृद्धि के लिए जगद्धातृ से प्रार्थना करना ही ज़्यादा उचित समझता हूँ।
इस पुस्तक के लेखन में हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन-संस्थान राजपाल एंड संस के स्वत्वाधिकारी श्री विश्वनाथ जी और संस्थान-संचालिका श्रीमती मीरा जौहरी की प्रेरणा रही है और उन्हीं प्रयासों के फलस्वरूप यह कृति अल्पकाल में ही प्रकाश में आ सकी है।
इन दोनों के प्रति मैं अपना साधुवाद प्रकट करता हूँ। ईश्वर इन दोनों की आयु शताधिक वर्ष करे, यही कामना है।
पुस्तक पूर्णत्या तटस्थ भाव से लिखी गई है। इसके बावजूद अगर यह कहीं से किसी को अल्पमात्र भी ठेस पहुँचाती है तो मैं इस हेतु क्षमा-प्रार्थी हूँ।
‘सर्वे भवन्तु सुखिन:
सर्वे सन्तु निरामया:
-सर्वे सन्तु निरामया:
इस आर्ष वाक्य से सबकी मंगल-कामना करते हुए मैं इस संक्षिप्त निवेदन को
विराम देता हूँ।
अस्तु-
अस्तु-
जी. एच.
13/805-
पश्चिम विहार, नई दिल्ली-87
पश्चिम विहार, नई दिल्ली-87
भगवती शरण मिश्र
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
बिहार ने बहुत सारी विभूतियाँ प्रदान की हैं-गौतम बुद्ध से लेकर वर्द्धमान
महावीर के सदृश धर्मावतारों के अतिरिक्त चाणक्य के सदृश कूटनीतिज्ञ एवं
अशोक महान् प्राय: पूरे भारत में पहले पहल साम्राज्य विस्तृत करने वाले
चन्द्रगुप्त को भी बिहार ने ही दिया। पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) कभी
वर्षों तक राष्ट्र की राजधानी का गौरव प्राप्त करता रहा।
सही अर्थों में कहें, तो महात्मा गाँधी भले ही गुजरात की मिट्टी की उपज रहे हैं लेकिन मोहनदास करमचन्द्र गाँधी को महात्मा गाँधी और अन्तत: राष्ट्र को विदेशी शासन से मुक्ति-प्रदायक, बिहार ने ही बनाया। अगर चम्पारण की धरती पर उन्होंने नीलहों के विरुद्ध अपना प्रथम एवं सफल आन्दोलन नहीं चलाया तो शायद ही वह सत्याग्रह एवं अहिंसा का वह पाठ पढ़ पाते, जिसके बल पर उन्होंने स्वतंत्रता का युद्ध जीता।
बिहार को पिछड़ा कहने वाले देश के इतिहास से पूर्णत्या अनभिज्ञ हैं। यह दुर्भाग्य ही बिहार में उत्पन्न बौद्ध धर्म जहाँ विश्व के बड़े भाग में छा गया, वहीं बिहार को पिछड़ा और दरिद्र माना जाता है।
सही अर्थों में कहें, तो महात्मा गाँधी भले ही गुजरात की मिट्टी की उपज रहे हैं लेकिन मोहनदास करमचन्द्र गाँधी को महात्मा गाँधी और अन्तत: राष्ट्र को विदेशी शासन से मुक्ति-प्रदायक, बिहार ने ही बनाया। अगर चम्पारण की धरती पर उन्होंने नीलहों के विरुद्ध अपना प्रथम एवं सफल आन्दोलन नहीं चलाया तो शायद ही वह सत्याग्रह एवं अहिंसा का वह पाठ पढ़ पाते, जिसके बल पर उन्होंने स्वतंत्रता का युद्ध जीता।
बिहार को पिछड़ा कहने वाले देश के इतिहास से पूर्णत्या अनभिज्ञ हैं। यह दुर्भाग्य ही बिहार में उत्पन्न बौद्ध धर्म जहाँ विश्व के बड़े भाग में छा गया, वहीं बिहार को पिछड़ा और दरिद्र माना जाता है।
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