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कविता संग्रह >> यामा (सजिल्द)

यामा (सजिल्द)

महादेवी वर्मा

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :105
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6673
आईएसबीएन :9788180311222

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‘यामा’ में महादेवी वर्मा की काव्य-यात्रा के चार आयाम संग्रहीत हैं। ये भाव और चिन्तन-जगत की क्रम-बद्धता के कारण महत्त्वपूर्ण हैं।

Yaama

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

अपनी बात

बाबा के उर्दू-फारसी के अबूझ घटाटोप में, पिता के अंग्रेजी-ज्ञान के अबूझ कोहरे में मैंने केवल माँ की प्रभाती और लोरी को ही समझा और उसी में काव्य की प्रेरणा को पाया।
फर्रूखाबाद के सर्वथा विपरीत संस्कृति वाले गृह में, जबलपुर में रामचरित-मानस की एक प्रति और रामजानकी-लक्ष्मण की छोटी-छोटी मूर्तियों-से सजा चाँदी का छोटा सिंहासन लेकर माँ जब पालकी से उतरीं तब उनकी अवस्था 13 वर्ष और पिताजी की 17 वर्ष से अधिक नहीं थी। यह माँ का द्विरागमन था, विवाह तो जब वे दोनों 8 और 12 के थे, तभी हो चुका था।

उस परिवार ने कन्याओं को जन्म लेते ही इतनी बार लौटाया था कि फिर कई पीढ़ियों तक किसी कन्या को उस परिवार में जन्म लेने का साहस नहीं हुआ।
पर मेरे जन्म के लिए तो बाबा और दादी ने कुलदेवी की मनौती मान रखी थी। अतः मुझे लौटाने का तो प्रश्न ही नहीं उठा वरन मुझे योग्य बनाने के ऐसे सम्मिलित प्रयत्न आरंभ हुए कि हम इन्दौर न जाते तो मुझे बचपन में ही वृद्धवस्था का सुख मिल जाता।

पिता जी जब प्रयाग विश्वविद्यालय से अंग्रेजी विषय में प्रथम श्रेणी में स्थान पाकर एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण हुए तब तुरन्त ही वे इन्दौर के राजकुमारों के कालेज में वाइस प्रिन्सिपल नियुक्त हो गए और तीन वर्ष की अवस्था में ही माँ के साथ इन्दौर चली गयी। इस प्रकार मेरा संस्कार तथा रुचियाँ बनने का समय मध्य प्रदेश में व्यतीत हुआ। हम छावनी में रहते थे, जहाँ पशु-पक्षी, पेड़-पौधे ही हमारे संगी रहे। सेवक हमें मिला रामा जो हमारी जिज्ञासाओं के अद्भुत समाधान प्रस्तुत कर देता था। माँ के गृह-कार्य तथा पूजा-पाठ की मैं ही एकान्त संगिनी थी। अतः ‘जागिए कृपानिधान पंक्षी बन बोले’ जैसे प्रभाती-पद मैं भी गुनगुनाने लगी थी।

विद्यारंभ के उपरांत पंडित जी की कृपा से मेरा हिन्दी-ज्ञान अन्य विद्यार्थियों की क्षमता से अधिक ही हो गया था।
शीतकाल में ठंडे पानी से नहलाकर माँ अपने साथ पूजा में बैठी लेती थीं जिससे स्वभावतः मुझे बहुत कष्ट होता था रामा से यह सुनकर कि सीधे भोले बच्चे शोरगुल नहीं मचाते, मैंने तुकबन्दी की—


ठंडे पानी से नहलाती
ठंडा चन्दन इन्हें लगाती
इनका भोग हमें दे जाती
तब भी कभी नहीं बोले हैं
माँ के ठाकुर जी भोले हैं।


इसी प्रकार तारों को देखकर मैंने तुकबन्दी की—

 

आओ प्यारे तारे आओ
तुम्हें झुलाऊँगी झूले में
तुम्हें सुलाऊँगी फूलों में
तुम जुगनू से उड़कर आओ
मेरे आँगन को चमकाओ।


ऐसी तुकबन्दियों को जोड़ते समय मेरी अवस्था छः-सात वर्ष से अधिक न रही होगी और 10 वर्ष तक पहुँचने तक पंडित जी मुझे समस्यापूर्ति का व्यायाम सिखाने लगे। अलंकार-पिंगल आदि का जो ज्ञान मुझे बचपन से प्राप्त हुआ, वह बड़े होने पर भी मेरे बहुत काम आया।

पिता जी सरस्वती पत्रिका मँगाते थे। अतः मैंने भी उसे पढ़ने और खड़ी बोली में तुकबन्दी का प्रयास किया, किन्तु पंडित जी तो ब्रजभाषा की कविता को ही कविता मानते थे, अतः वे प्रयत्न छिपाकर ही होते रहे। पर दद्दा (राष्ट्रकवि मैथिलीशरण) का प्रभाव मुझ पर अधिक रहा।
‘मेघ बिना जलवृष्टि भई है’ जैसे समस्या-पूर्ति में असमर्थ होने के कारण मैंने अपने व्यवहार-गुरु रामा से पूछा और उसके कहने पर कि भगवान जी का हाथी अपनी सूँड़ में पानी भर लाता है और बरसा देता है। मैंने तुकबन्दी की—

 

हाथी न अपनी सूड़ में यदि
नीर भर लाता अहो
तो किस तरह बादल बिना
जलवृष्टि हो सकती कहो।

 

‘हथिया बरसाता है’ का अर्थ रामा इतना ही जानता था, क्योंकि उसे किसी हस्ती नक्षत्र का ज्ञान नहीं था। संयोग से मेरी यह तुकबंदी देखकर पंडित जी ने अप्रसन्न होकर कह था, ‘यह यहाँ भी आ गए।’ यह से उनका तात्पर्य दद्दा से था जिनको वे कवि नहीं मानते थे।
कुछ और बड़े होने पर मैंने पुनः दद्दा के अनुकरण पर देश के लिए लिखा—


सिरमौर सा तुझको रचा था विश्व में करतार ने,
आकृष्ट था सबको किया तेरे मधुर व्यवहार ने
नव शिष्य तेरे भव्य भारत नित्य आते थे चले
जैसे सुमन की गन्ध से अलिवृन्द आ-आ कर मिले।


कुछ दिन मुझे मिशन स्कूल में रखा गया, किन्तु उसका वातावरण मेरे अनुकूल न होने के कारण फिर एक छोटा स्कूल खोला गया, जिसमें मैं और पिता जी की अन्य मित्र शिक्षकों की बालिकाएँ पढ़ने जाती थीं। फिर वह स्कूल लेडी ओडवायर गर्ल्स स्कूल हुआ और अब संभवतः बड़ा कॉलेज हो गया होगा।

मेरा मनोयोग और शिक्षा के प्रति आकर्षण देख कर पिता जी को प्रयाग याद आया और मैं क्रास्थवेट गर्ल्स कालेज में पढ़ने आयी और यहाँ बहिन सुभद्राकुमारी चौहान मिलीं। तब खड़ी बोली में लिखने की अबाध स्वतन्त्रता मिल सकी।

उस समय देश की स्वतन्त्रता के संघर्ष के साथ हिन्दी के प्रचार-प्रसार का कार्य भी महत्त्वपूर्ण समझा जाता था। अनेक पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होतीं और अनेक कवि-सम्मेलन होते थे, जिनमें बड़े लेखक अध्यक्षता करते और विद्यार्थी कविता-पाठ करने आते थे।
मेरी कविता का तुतला उपक्रम समाप्त हो चुका था और मैंने भी अनेक तुकबन्दियाँ रचीं जो अज्ञातनामा होकर जुलूसों में गायी जाती रहीं—


वन्दिनी जननी तुझे हम मुक्त कर देंगे ।
श्रृंखलाएँ ताप से उर के गलेंगी
भित्तियाँ ये लौह की रज में मिलेंगी
रक्त से अपने गुलाबों के खिला कर लाल बादल
इस तिमिर को हम उषा आरक्त कर देंगे

 

ऐसे अनेक गीत लिखे गए और बिना नाम के प्रसार पाते रहे जिनमें से कुछ अब भी शेष हैं और कुछ समय के प्रवाह में बह गए हैं। उस समय कविता संग्रह करने का विचार न आना ही संभव था। इस प्रकार का प्रथम आयाम मुझे अपने गन्तव्य का बोध देकर समाप्त हुआ।

यामा में मेरी काव्य-यात्रा के चार आयाम संग्रहीत हैं। अतः मेरे ये भाव और चिन्तन-जगत की क्रमबद्धता के कारण महत्त्वपूर्ण हैं। नीहार की कुछ रचनाएँ तत्कालीन प्रकाशित लघु पत्रिकाओं—स्त्रीदर्पण, मर्यादा आदि में प्रकाशित हुईं तथा सन् ’22 से नियमित रूप से चाँद में भी प्रकाशित होने लगीं। तभी मैं कवि-सम्मेलनों में भी उपस्थित होने लगी और भाई सुमित्रानन्दन जी से परिचय हुआ तथा पद्मकोट में श्रीधर पाठक जी के भी दर्शन हुए। नीहार की रचनाएँ उस समय की हैं जब मैं आठवीं की विद्यार्थिनी थी और उन रचनाओं को पुस्तकाकार प्रकाशित कराने की इच्छा से अनजान थी। किंतु सम्भवतः श्रद्धेय टण्डन जी की प्रेरणा से साहित्य भवन के मैनेजर उन रचनाओं को प्रकाशनार्थ ले गये। वह प्रथम प्रकाशन इतना शुभ हुआ कि तब से आज तक प्रकाशकों ने मुझे खोजा है पर मैंने कभी प्रकाशक नहीं खोजा।
मेरी कर्मपत्री हिन्दी-जगत के समक्ष खुली पुस्तक के समान रही है। अतः अपने संबंध में अधिक कहने की आवश्यकता का अनुभव नहीं होता।

 

-महादेवी

 

नीहार
(प्रथम यामः)

 

 

एक

 


निशा को, धो देता राकेश
चाँदनी में जब अलकें खोल,
कली से कहता था मधुमास
बता दो मधुमदिरा का मोल,

गये तब से कितने युग बीत
हुए कितने दीपक निर्वाण
नहीं पर मैंने पाया सीख,
तुम्हारा सा मनमोहन गान।

बिछाती थी सपनों के जाल
तुम्हारी वह करुणा की कोर,
गयी वह अधरों की मुस्कान
मुझे मधुमय पीड़ा में बोर,

भूलती थी मैं सीखे राग
बिछलते थे कर बारम्बार,

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