लेख-निबंध >> श्रृंखला की कड़ियाँ (सजिल्द) श्रृंखला की कड़ियाँ (सजिल्द)महादेवी वर्मा
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भारतीय नारी की समस्याओं का विवेचन....
Shinkhala ki kariyan
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
‘‘भारतीय नारी जिस दिन अपने सम्पूर्ण प्राण-प्रवेग से जाग सके, उस दिन उसकी गति रोकना किसी के लिए सम्भव नहीं। उसके अधिकारों के सम्बन्ध में यह सत्य है कि वे भिक्षावृत्ति से न मिले हैं, न मिलेंगे, क्योंकि उनकी स्थिति आदान-प्रदान योग्य वस्तुओं से भिन्न है। समाज में व्यक्ति का सहयोग और विकास की दिशा में उसका उपयोग ही उसके अधिकार निश्चित करता रहता है।
किन्तु अधिकार के इच्छुक व्यक्ति को अधिकारी भी होना चाहिए। सामान्यतः भारतीय नारी में इसी विशेषता का अभाव मिलेगा। कहीं उसमें साधारण दयनीयता और कहीं असाधारण विद्रोह है, परंतु संतुलन से उसका जीवन परिचित नहीं।...
श्रृंखला की कड़ियाँ महादेवी वर्मा के चुने हुए निबंधों का महत्त्वपूर्ण संकलन है। प्रस्तुत संग्रह में ऐसे निबंध संकलिक किये गये हैं जिनमें भारतीय नारी की विषम परिस्थिति को अनेक दृष्टि-बिन्दुओं से देखने का प्रयास किया गया है।
किन्तु अधिकार के इच्छुक व्यक्ति को अधिकारी भी होना चाहिए। सामान्यतः भारतीय नारी में इसी विशेषता का अभाव मिलेगा। कहीं उसमें साधारण दयनीयता और कहीं असाधारण विद्रोह है, परंतु संतुलन से उसका जीवन परिचित नहीं।...
श्रृंखला की कड़ियाँ महादेवी वर्मा के चुने हुए निबंधों का महत्त्वपूर्ण संकलन है। प्रस्तुत संग्रह में ऐसे निबंध संकलिक किये गये हैं जिनमें भारतीय नारी की विषम परिस्थिति को अनेक दृष्टि-बिन्दुओं से देखने का प्रयास किया गया है।
अपनी बात
विचार के क्षणों में मुझे गद्य लिखना ही अच्छा लगता रहा है, क्योंकि उसमें अनुभूति ही नहीं बाह्य परिस्थितियों के विश्लेषण के लिए भी पर्याप्त अवकाश रहता है। मेरा सबसे पहला सामाजिक निबन्ध तब लिखा गया था जब मैं सातवीं कक्षा की विद्यार्थिनी थी अतः जीवन की वास्तविकता से मेरा परिचय कुछ नवीन नहीं है।
प्रस्तुत संग्रह में कुछ ऐसे निबन्ध जा रहे हैं जिसमें मैंने भारतीय नारी की विषम परिस्थितियों को अनेक दृष्टिबिन्दुओं से देखने का प्रयास किया है। अन्याय के प्रति मैं स्वभाव से असहिष्णु हूँ अतः इन निबन्धों में उग्रता की गन्ध स्वाभाविक है; परंतु ध्वंस के लिए ध्वंस के सिद्धान्त में मेरा कभी विश्वास नहीं रहा। मैं तो सृजन के उन प्रकाश–तत्वों के प्रति निष्ठावान हूँ जिनकी उपस्थिति में विकृति अन्धकार के समान विलीन हो जाती है। जब प्रकृति व्यक्त नहीं होती तब तक विकृति के ध्वंस में अपनी शक्तियों को उलझा देना वैसा है जैसा प्रकाश के अभाव में अंधेरे को दूध से धो-धोकर सफेद करने का प्रयास। वास्तव में अन्धकार स्वयं कुछ न होकर आलोक का अभाव है इसी से तो छोटे-से-छोटा दीपक भी उसकी सघनता नष्ट कर देने में समर्थ है।
भारतीय नारी भी जिस दिन अपने सम्पूर्ण प्राणप्रवेग से जाग सके उस दिन उसकी गति रोकना किसी के लिए सम्भव नहीं। उसके अधिकारों के सम्बन्ध में यह सत्य है कि वे भिक्षावृत्ति से न मिले हैं न मिलेगें, क्योंकि उनकी स्थिति आदान-प्रदान योग्य वस्तुयों से भिन्न है। समाज में व्यक्ति का सहयोग और विकास की दिशा में उसका उपयोग ही उसके अधिकार निश्चित करता रहता है और इस प्रकार हमारे अधिकार हमारी शक्ति और विवेक के सापेक्ष रहेंगे। यह कथन सुनने में चाहे बहुत व्यवहारिक न लगे परन्तु इसका प्रयोग निर्भ्रान्त सत्य सिद्ध होगा। अनेक बार नारी की बाह्य परिस्थितियों के परिवर्तन की ओर ध्यान न देकर उसकी शक्तियों को जाग्रत करके परिस्थितियों में साम्य लानेवाली सफलता सम्भव कर सकी हूँ। समस्या का समाधान समस्या के ज्ञान पर निर्भर है और यह ज्ञान ज्ञाता की अपेक्षा रखता है।
अतः अधिकार के इच्छुक व्यक्ति को अधिकारी भी होना चाहिए। सामान्यतः भारतीय नारी में इसी विशेषता का अभाव मिलेगा। कहीं उसमें साधारण दयनीयता है और कहीं असाधारण विद्रोह है, परन्तु सन्तुलन से उसका जीवन परिचित नहीं।
प्रस्तुत निबंध किस सीमा तक सोचने की प्रेरणा दे सकेंगे, यह बता सकना मेरे लिए सम्भव नहीं। पर इनसे भारतीय नारी की विषम परिस्थियों की धुँधली रेखाएँ कुछ स्पष्ट हो सकें तो इन्हें संगृहीत करना व्यर्थ न होगा।
प्रस्तुत संग्रह में कुछ ऐसे निबन्ध जा रहे हैं जिसमें मैंने भारतीय नारी की विषम परिस्थितियों को अनेक दृष्टिबिन्दुओं से देखने का प्रयास किया है। अन्याय के प्रति मैं स्वभाव से असहिष्णु हूँ अतः इन निबन्धों में उग्रता की गन्ध स्वाभाविक है; परंतु ध्वंस के लिए ध्वंस के सिद्धान्त में मेरा कभी विश्वास नहीं रहा। मैं तो सृजन के उन प्रकाश–तत्वों के प्रति निष्ठावान हूँ जिनकी उपस्थिति में विकृति अन्धकार के समान विलीन हो जाती है। जब प्रकृति व्यक्त नहीं होती तब तक विकृति के ध्वंस में अपनी शक्तियों को उलझा देना वैसा है जैसा प्रकाश के अभाव में अंधेरे को दूध से धो-धोकर सफेद करने का प्रयास। वास्तव में अन्धकार स्वयं कुछ न होकर आलोक का अभाव है इसी से तो छोटे-से-छोटा दीपक भी उसकी सघनता नष्ट कर देने में समर्थ है।
भारतीय नारी भी जिस दिन अपने सम्पूर्ण प्राणप्रवेग से जाग सके उस दिन उसकी गति रोकना किसी के लिए सम्भव नहीं। उसके अधिकारों के सम्बन्ध में यह सत्य है कि वे भिक्षावृत्ति से न मिले हैं न मिलेगें, क्योंकि उनकी स्थिति आदान-प्रदान योग्य वस्तुयों से भिन्न है। समाज में व्यक्ति का सहयोग और विकास की दिशा में उसका उपयोग ही उसके अधिकार निश्चित करता रहता है और इस प्रकार हमारे अधिकार हमारी शक्ति और विवेक के सापेक्ष रहेंगे। यह कथन सुनने में चाहे बहुत व्यवहारिक न लगे परन्तु इसका प्रयोग निर्भ्रान्त सत्य सिद्ध होगा। अनेक बार नारी की बाह्य परिस्थितियों के परिवर्तन की ओर ध्यान न देकर उसकी शक्तियों को जाग्रत करके परिस्थितियों में साम्य लानेवाली सफलता सम्भव कर सकी हूँ। समस्या का समाधान समस्या के ज्ञान पर निर्भर है और यह ज्ञान ज्ञाता की अपेक्षा रखता है।
अतः अधिकार के इच्छुक व्यक्ति को अधिकारी भी होना चाहिए। सामान्यतः भारतीय नारी में इसी विशेषता का अभाव मिलेगा। कहीं उसमें साधारण दयनीयता है और कहीं असाधारण विद्रोह है, परन्तु सन्तुलन से उसका जीवन परिचित नहीं।
प्रस्तुत निबंध किस सीमा तक सोचने की प्रेरणा दे सकेंगे, यह बता सकना मेरे लिए सम्भव नहीं। पर इनसे भारतीय नारी की विषम परिस्थियों की धुँधली रेखाएँ कुछ स्पष्ट हो सकें तो इन्हें संगृहीत करना व्यर्थ न होगा।
-महादेवी
हमारी श्रृंखला की कड़ियाँ : 1
प्रायः जो लौकिक साधारण वस्तुओं से अधिक सुंदर या सुकुमार होती है उसे या तो मनुष्य अलौकिक और दिव्य की पंक्ति में बैठाकर पूजार्ह समझने लगता है या वह तुच्छ समझी जाकर उपेक्षा और अवहेलना की भाजन बनती है। अदृष्ट विडंबनाओं से भारतीय नारी को दोनों ही असस्थाओं का पूर्ण अनुभव हो चुका है। वह पवित्र देव-मन्दिर की अधिष्ठात्री देवी भी बन चुकी है और अपने गृह के मलिन कोने की बंदिनी भी। कभी जिन गुणों के कारण उसे समाज में अजस्त्र सम्मान और अतुल श्रद्धा मिली, जब प्रकारांतर से वे त्रुटियों में गिने जाने लगे उसे उतनी ही मात्रा में अश्रद्धा और अनादर भी अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानकर स्वीकार करना पड़ा। उसे जगाने का प्रयास करने वाले भी प्रायः इसी संदेह में पड़े रहते हैं कि यह जाति सो रही है या मृतक ही हो चुकी है जिसकी जागृति स्वप्न मात्र है।
वास्तव में उस समय तक इसका निश्चय करना भी कठिन है जब तक हम उसकी युगांतरदीर्घ जड़ता के कारणों पर एक विहंगम दृष्टि न डाल लें।
संसार के मानव-समुदाय में वहीं व्यक्ति स्थान और सम्मान पा सकता है, वही जीवित कहा जा सकता है जिसके हृदय और मस्तिष्क ने समुचित विकास पाया हो और जो अपने व्यक्तित्व द्वारा समाज से रागात्मक के अतिरिक्त बौद्धिक संबंध भी स्थापित कर सकने में समर्थ हो। एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास की सबको आवश्यकता है, कारण, बिना इसके न मनुष्य अपनी इच्छा-शक्ति और संकल्प को अपना कह सकता है और न अपने किसी कार्य को न्याय-अन्याय की तुला पर तोल ही सकता है।
नारी का मानसिक विकास पुरुषों के मानसिक विकास से भिन्न परंतु अधिक द्रुत, स्वभाव अधिक कोमल और प्रेम-घृणादि भाव अधिक तीव्र तथा स्थायी होते हैं। इन्हीं विशेषताओं के अनुसार उसका व्यक्तित्व विकास पाकर समाज के उन अभावों की पूर्ति करता रहता है जिसकी पूर्ति पुरुष-स्वभाव द्वारा संभव नहीं। इन दोनों प्रकृतियों में उतना ही अंतर है जितना विद्युत् और झड़ी में। एक से शक्ति उत्पन्न की जा सकती है। बड़े-बड़े कार्य किए जा सकते हैं, परंतु प्यास नहीं बुझायी जा सकती। दूसरी से शांति मिलती है, परंतु पशुबल की उत्पत्ति संभव नहीं। दोनों के व्यक्तित्व, अपनी पूर्णता में समाज के एक ऐसे रिक्त स्थान को भर देते हैं जिसमें विभिन्न सामाजिक संबंधों में सामंस्य उत्पन्न होकर उन्हें पूर्ण कर देता है।
प्राचीनतम काल में मनुष्य को सामाजिक प्राणी बनाने में, पत्नी-पुत्रादि के लिए गृह और उसकी पवित्रता की रक्षा के लिए नियमों का अविष्कार कराने में स्त्री का कितना हाथ था, यह कहना कठिन है, परतु उसके व्यक्तित्व के प्रति समाज का इतना आदर और स्नेह प्रकट करना सिद्ध करता है कि मानव-समाज की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति उसी से संभव थी। प्राचीन आर्य नारी के सहधर्मचारणी तथा सहभागिनी के रूप में कहीं भी पुरुष का अंधानुसरण या अपने-आपको छाया बना लेने का आभास नहीं मिलता।
याज्ञवल्क्य अपनी विदुषी सहधर्मिणी मैत्रेयी को सब कुछ देकर वन जाने को प्रस्तुत होते हैं, परंतु पत्नी वैभव का उपहास करती हुई पूछती है- ‘‘यदि ऐश्वर्य से भरी सारी पृथ्वी मुझे मिल जाए तो क्या मैं अमर हो सकूँगी ?’ चकित-विस्मित पति कह देता है, ‘धन से तुम सुखी हो सकोगी, अमर नहीं।’ पत्नी की विद्रूपमय हँसी में उत्तर मिलता है—‘जिससे मैं अमर न हो सकूंगी उसे लेकर करूँगी ही क्या ?’ आज भी, तमसों मां ज्योतिर्गमय मत्योः मां अमृतं गमय’ आदि उसके प्रवचनों से ज्ञात होता है कि गृह की वस्तुमात्र समझी जाने वाली स्त्री ने भी कभी जीवन में कितनी गंभीरतामयी दार्शनिक दृष्टि से देखने का प्रयत्न किया था।
त्यागी बुद्धि की करुण कहानी की आधार सती गोपा भी केवल उनकी छाया नहीं जान पड़ती वरन् उसका व्यक्तित्व बुद्धि से भिन्न और उज्जल है। निराशा में, ग्लानि में और अपेक्षा में वह न आत्महत्या करती है, न वन-वन पति का अनुशरण। अपूर्व साहस द्वारा अपना कर्तव्य-पथ खोज कर स्नेह से पुत्र को परिवर्धित करती है और अंत में सिद्धार्थ के प्रबुद्ध होकर लौटने पर धूलि के समान उनके चरणों में लिपटने न दौड़कर कर्तव्य की गरिमा से गुरू बनकर अपने ही मंदिर में उसकी प्रतीक्षा करती है।
महापुरुषों की छाया में रहने वाले कितने ही सुन्दर व्यक्तित्व कांतिहीन हो कर अस्तित्व खो चुके हैं। परंतु उपेक्षित यशोधरा आज भी स्वयं जीकर बुद्ध के विरागमय शुष्क जीवन को सरस बनाती रहती है।
छाया के समान राम का अनुसरण करने वाली मूर्तिमयी करुणा सीता भी वास्तव में छाया नहीं है। वह अपने कर्तव्य के निर्दिष्ट करने में राम की भी सहायता नहीं, वरन् उनकी इच्छा के विरुद्ध वन-गमन के क्लेश सहने को उद्यत हो जाती है। अंत में अकारण ही पति द्वारा निर्वासित की जाने पर असीम धैर्य से वनवासिनी का जीवन स्वीकार कर गर्वपूर्ण संदेश भेजती है-‘‘मेरी ओर से उस राजा से कहना कि मैं तो पहले ही अग्नि-परीक्षा देकर अपने-आपको साध्वी प्रमाणित कर चुकी हूँ।, मुझे निर्वासित कर उसने क्या अपने प्रख्यात कुल के अनुरूप कार्य किया है ?’’-
वास्तव में उस समय तक इसका निश्चय करना भी कठिन है जब तक हम उसकी युगांतरदीर्घ जड़ता के कारणों पर एक विहंगम दृष्टि न डाल लें।
संसार के मानव-समुदाय में वहीं व्यक्ति स्थान और सम्मान पा सकता है, वही जीवित कहा जा सकता है जिसके हृदय और मस्तिष्क ने समुचित विकास पाया हो और जो अपने व्यक्तित्व द्वारा समाज से रागात्मक के अतिरिक्त बौद्धिक संबंध भी स्थापित कर सकने में समर्थ हो। एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास की सबको आवश्यकता है, कारण, बिना इसके न मनुष्य अपनी इच्छा-शक्ति और संकल्प को अपना कह सकता है और न अपने किसी कार्य को न्याय-अन्याय की तुला पर तोल ही सकता है।
नारी का मानसिक विकास पुरुषों के मानसिक विकास से भिन्न परंतु अधिक द्रुत, स्वभाव अधिक कोमल और प्रेम-घृणादि भाव अधिक तीव्र तथा स्थायी होते हैं। इन्हीं विशेषताओं के अनुसार उसका व्यक्तित्व विकास पाकर समाज के उन अभावों की पूर्ति करता रहता है जिसकी पूर्ति पुरुष-स्वभाव द्वारा संभव नहीं। इन दोनों प्रकृतियों में उतना ही अंतर है जितना विद्युत् और झड़ी में। एक से शक्ति उत्पन्न की जा सकती है। बड़े-बड़े कार्य किए जा सकते हैं, परंतु प्यास नहीं बुझायी जा सकती। दूसरी से शांति मिलती है, परंतु पशुबल की उत्पत्ति संभव नहीं। दोनों के व्यक्तित्व, अपनी पूर्णता में समाज के एक ऐसे रिक्त स्थान को भर देते हैं जिसमें विभिन्न सामाजिक संबंधों में सामंस्य उत्पन्न होकर उन्हें पूर्ण कर देता है।
प्राचीनतम काल में मनुष्य को सामाजिक प्राणी बनाने में, पत्नी-पुत्रादि के लिए गृह और उसकी पवित्रता की रक्षा के लिए नियमों का अविष्कार कराने में स्त्री का कितना हाथ था, यह कहना कठिन है, परतु उसके व्यक्तित्व के प्रति समाज का इतना आदर और स्नेह प्रकट करना सिद्ध करता है कि मानव-समाज की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति उसी से संभव थी। प्राचीन आर्य नारी के सहधर्मचारणी तथा सहभागिनी के रूप में कहीं भी पुरुष का अंधानुसरण या अपने-आपको छाया बना लेने का आभास नहीं मिलता।
याज्ञवल्क्य अपनी विदुषी सहधर्मिणी मैत्रेयी को सब कुछ देकर वन जाने को प्रस्तुत होते हैं, परंतु पत्नी वैभव का उपहास करती हुई पूछती है- ‘‘यदि ऐश्वर्य से भरी सारी पृथ्वी मुझे मिल जाए तो क्या मैं अमर हो सकूँगी ?’ चकित-विस्मित पति कह देता है, ‘धन से तुम सुखी हो सकोगी, अमर नहीं।’ पत्नी की विद्रूपमय हँसी में उत्तर मिलता है—‘जिससे मैं अमर न हो सकूंगी उसे लेकर करूँगी ही क्या ?’ आज भी, तमसों मां ज्योतिर्गमय मत्योः मां अमृतं गमय’ आदि उसके प्रवचनों से ज्ञात होता है कि गृह की वस्तुमात्र समझी जाने वाली स्त्री ने भी कभी जीवन में कितनी गंभीरतामयी दार्शनिक दृष्टि से देखने का प्रयत्न किया था।
त्यागी बुद्धि की करुण कहानी की आधार सती गोपा भी केवल उनकी छाया नहीं जान पड़ती वरन् उसका व्यक्तित्व बुद्धि से भिन्न और उज्जल है। निराशा में, ग्लानि में और अपेक्षा में वह न आत्महत्या करती है, न वन-वन पति का अनुशरण। अपूर्व साहस द्वारा अपना कर्तव्य-पथ खोज कर स्नेह से पुत्र को परिवर्धित करती है और अंत में सिद्धार्थ के प्रबुद्ध होकर लौटने पर धूलि के समान उनके चरणों में लिपटने न दौड़कर कर्तव्य की गरिमा से गुरू बनकर अपने ही मंदिर में उसकी प्रतीक्षा करती है।
महापुरुषों की छाया में रहने वाले कितने ही सुन्दर व्यक्तित्व कांतिहीन हो कर अस्तित्व खो चुके हैं। परंतु उपेक्षित यशोधरा आज भी स्वयं जीकर बुद्ध के विरागमय शुष्क जीवन को सरस बनाती रहती है।
छाया के समान राम का अनुसरण करने वाली मूर्तिमयी करुणा सीता भी वास्तव में छाया नहीं है। वह अपने कर्तव्य के निर्दिष्ट करने में राम की भी सहायता नहीं, वरन् उनकी इच्छा के विरुद्ध वन-गमन के क्लेश सहने को उद्यत हो जाती है। अंत में अकारण ही पति द्वारा निर्वासित की जाने पर असीम धैर्य से वनवासिनी का जीवन स्वीकार कर गर्वपूर्ण संदेश भेजती है-‘‘मेरी ओर से उस राजा से कहना कि मैं तो पहले ही अग्नि-परीक्षा देकर अपने-आपको साध्वी प्रमाणित कर चुकी हूँ।, मुझे निर्वासित कर उसने क्या अपने प्रख्यात कुल के अनुरूप कार्य किया है ?’’-
वाच्यस्त्वया मद्वचनात्स राजा वह्नौ विशुद्धामपि यत्समक्षम्।
मां लोकवादश्रवणादहासीः श्रुतस्य किं सत्यदृशं कुलस्य।।
मां लोकवादश्रवणादहासीः श्रुतस्य किं सत्यदृशं कुलस्य।।
उसका सारा जीवन साकार साहस है जिस पर कभी दैन्य की छाया नहीं पड़ी।
महाभारत के समय की कितनी ही स्त्रियाँ अपने स्वतंत्त्र व्यक्तित्व तथा कर्तव्यबुद्धि के लिए स्मरणीय रहेंगी। उनमें से प्रत्येक संसार-पथ में पुरुष की संगिनी है, छाया मात्र नहीं। छाया का कार्य, आधार में अपने आपको इस प्रकार मिला देना है जिसमें वह उसी के समान जान पड़े, संगिनी का अपने सहयोगी की प्रत्येक त्रुटि को पूर्ण कर उसके जीवन को अधिक-से-अधिक पूर्ण बनाना।
स्त्री को अपने अस्तित्व को पुरुष की छाया बना देना चाहिए, अपने व्यक्तित्व को उससे समाहित कर देना चाहिए, इस विचार का पहले कब आरंभ हुआ, यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है, परंतु इसमें संदेह नहीं कि यह किसी आपत्तिमूलक विषवृक्ष का ही विषमय फल रहा होगा। जिस अशांत वातावरण में पुरुष अपनी इच्छा और विश्वास के अनुसार स्त्री को चलाना चाहता था उसमें इस भ्रमात्मक धारणा को कि स्त्री स्वतंत्र व्यक्तित्व से रहित पति की छाया मात्र है, सिद्धांत का रूप दे दिया गया। इस भावना ने इतने दिनों में कितना अपकार कर डाला है, इस जाति की युगांतक तक भंग न होने वाली निद्रा और निष्चेष्टता देख कर ही जाना जा सकता है।
उसके पास न अपनापन है और न वह अपनापन चाहती ही है।
इस समय हमारे समाज में केवल दो प्रकार की स्त्रियाँ मिलेंगी-एक वे जिन्हें इसका ज्ञान नहीं है कि वे भी एक विस्तृत मानव-समुदाय की सदस्य हैं और उनका भी ऐसा स्वतंत्र व्यक्तित्व है जिसके विकास से समाज का उत्कर्ष और संकीर्णता से अपकर्ष संभव है; दूसरी वे जो पुरुषों की समता करने के लिए उन्हीं के दृष्टिकोण से संसार को देखने में उन्हीं के गुणावगुणों का अनुकरण करने में जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति समझती हैं। सारांश यह है कि एक ओर अर्थहीन अनुसरण है तो दूसरी ओर अनर्थमय अनुकरण और यह दोनों प्रयत्न समाज की श्रृंखला को शिथिल तथा व्यक्तिगत बंधनों को सुदुढ़ और संकुचित करते जा रहे है।
अनुसरण मनुष्य की प्रकृति है। बालक प्रायः आरंभ में सब कुछ अनुसरण से ही सीखता है, तत्पश्चात् अपने अनुभव के साँचे में ढालकर उसे अधिक-से-अधिक पूर्ण करने का प्रयास करता है। परंतु अनुभव के आधार से हीन अनुसरण, सिखाए हुए पशु के अंधानुकरण के समान है जो जीवन के गौरव को समूल नष्ट कर और मनुष्य को दयनीय बनाकर पशु की श्रेणी में बैठाने के लिए बाध्य कर देता है। कृमिक प्राचीनता के आवरण मे पली देवियाँ असंख्य अन्याय इसलिए नहीं सहतीं कि उनमें प्रतिकार की शक्ति का अभाव है वरन् यह विचार कर कि पुरुष समाज के न्याय समझ कर किये कार्य को अन्याय कह देने से वे कर्तव्यच्युत हो जाएगी। वे बड़ा-से-बड़ा त्याग प्राणों पर खेलकर हँसते-हँसते कर डालने पर उद्यत रहती हैं, परंतु उसका मूल्य वही है जो बलिपशु के निरुपाय त्याग का होता है। वे दूसरों के इंगित मात्र पर किसी सिद्धांत की रक्षा के लिए जीवन की बाजी लगा देंगी, परंतु अपने तर्क और विवेक की कसौटी पर उसका खरापन बिना जाँचे हुए;—अतः ये विवेकहीन आदर्शाचरण भी उनके व्यक्तित्व को अधिक-से-अधिक संकुचित तथा समाज के स्वास्थ विकास के लिए अनुपयुक्त बनाता जा रहा है।
महाभारत के समय की कितनी ही स्त्रियाँ अपने स्वतंत्त्र व्यक्तित्व तथा कर्तव्यबुद्धि के लिए स्मरणीय रहेंगी। उनमें से प्रत्येक संसार-पथ में पुरुष की संगिनी है, छाया मात्र नहीं। छाया का कार्य, आधार में अपने आपको इस प्रकार मिला देना है जिसमें वह उसी के समान जान पड़े, संगिनी का अपने सहयोगी की प्रत्येक त्रुटि को पूर्ण कर उसके जीवन को अधिक-से-अधिक पूर्ण बनाना।
स्त्री को अपने अस्तित्व को पुरुष की छाया बना देना चाहिए, अपने व्यक्तित्व को उससे समाहित कर देना चाहिए, इस विचार का पहले कब आरंभ हुआ, यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है, परंतु इसमें संदेह नहीं कि यह किसी आपत्तिमूलक विषवृक्ष का ही विषमय फल रहा होगा। जिस अशांत वातावरण में पुरुष अपनी इच्छा और विश्वास के अनुसार स्त्री को चलाना चाहता था उसमें इस भ्रमात्मक धारणा को कि स्त्री स्वतंत्र व्यक्तित्व से रहित पति की छाया मात्र है, सिद्धांत का रूप दे दिया गया। इस भावना ने इतने दिनों में कितना अपकार कर डाला है, इस जाति की युगांतक तक भंग न होने वाली निद्रा और निष्चेष्टता देख कर ही जाना जा सकता है।
उसके पास न अपनापन है और न वह अपनापन चाहती ही है।
इस समय हमारे समाज में केवल दो प्रकार की स्त्रियाँ मिलेंगी-एक वे जिन्हें इसका ज्ञान नहीं है कि वे भी एक विस्तृत मानव-समुदाय की सदस्य हैं और उनका भी ऐसा स्वतंत्र व्यक्तित्व है जिसके विकास से समाज का उत्कर्ष और संकीर्णता से अपकर्ष संभव है; दूसरी वे जो पुरुषों की समता करने के लिए उन्हीं के दृष्टिकोण से संसार को देखने में उन्हीं के गुणावगुणों का अनुकरण करने में जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति समझती हैं। सारांश यह है कि एक ओर अर्थहीन अनुसरण है तो दूसरी ओर अनर्थमय अनुकरण और यह दोनों प्रयत्न समाज की श्रृंखला को शिथिल तथा व्यक्तिगत बंधनों को सुदुढ़ और संकुचित करते जा रहे है।
अनुसरण मनुष्य की प्रकृति है। बालक प्रायः आरंभ में सब कुछ अनुसरण से ही सीखता है, तत्पश्चात् अपने अनुभव के साँचे में ढालकर उसे अधिक-से-अधिक पूर्ण करने का प्रयास करता है। परंतु अनुभव के आधार से हीन अनुसरण, सिखाए हुए पशु के अंधानुकरण के समान है जो जीवन के गौरव को समूल नष्ट कर और मनुष्य को दयनीय बनाकर पशु की श्रेणी में बैठाने के लिए बाध्य कर देता है। कृमिक प्राचीनता के आवरण मे पली देवियाँ असंख्य अन्याय इसलिए नहीं सहतीं कि उनमें प्रतिकार की शक्ति का अभाव है वरन् यह विचार कर कि पुरुष समाज के न्याय समझ कर किये कार्य को अन्याय कह देने से वे कर्तव्यच्युत हो जाएगी। वे बड़ा-से-बड़ा त्याग प्राणों पर खेलकर हँसते-हँसते कर डालने पर उद्यत रहती हैं, परंतु उसका मूल्य वही है जो बलिपशु के निरुपाय त्याग का होता है। वे दूसरों के इंगित मात्र पर किसी सिद्धांत की रक्षा के लिए जीवन की बाजी लगा देंगी, परंतु अपने तर्क और विवेक की कसौटी पर उसका खरापन बिना जाँचे हुए;—अतः ये विवेकहीन आदर्शाचरण भी उनके व्यक्तित्व को अधिक-से-अधिक संकुचित तथा समाज के स्वास्थ विकास के लिए अनुपयुक्त बनाता जा रहा है।
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